मंगलवार, 13 मार्च 2018

चिड़िया और बेटियाँ -व अन्य कविताएँ

कविताएँ
1
'चिड़िया और बेटियाँ '
बहुत देर तक
चहचहाती रहीं बेटियाँ
संदेश था उठो ,जागो
दूर तक फैले
उजियारा को देखो
अँगड़ाई लेकर जाग उठे सब
पेड़,पौधे,फूल,मौसम
और ढेर सारी तितलियाँ भी जो
बेटियों की तरह
महकते फूलों पर
मँडरा रही थीं -जी हाँ बेटियाँ
जो हर फूल से रंग चुरा कर
घर के आँगन में बुनती हैं
माँ बाप के प्रेम के
इर्द गिर्द उड़ते हुअे
संतरंगी इंद्रधनुषी नीड़
सच कितनी पुरसुकून
होती हैं बेटियाँ
उनके भीतर
 सब कुछ होता है
संवेदना,अनुभूति
अभिव्यक्ति और सपने
इन्हीं सपनों के साथ
जब नदी की तरह
आगे बढ़ते हुअे
अपना रास्ता बनाती
हैं बेटियाँ -तो
एक मायने देती हैं और
पूरी दुनिया झुक जाती है क्योंकि
उनके पास होता है
मन की शक्ति का एक
गहरा समुंदर
जिसको किसी भी पैमाने से
नापा नहीं जा सकता।
2
'मुझे चलना होगा'
बहुत दूर की हवाएँ
अनमनी सी मुझे
खींच रही हैं
मन में यादों के बीज
सींच रही हैं
वहीं की माटी में मुझे
उगना होगा
फिर उसी दूरी पर
जहाँ समय के
टेढ़े मेढ़े मोड़ है
नयी राह पकड़ कर


चलना होगा
सफ़र दूर है और
सामान भी चला गया है
अब मुझे भी निकलना होगा
एक नया मोड़ चुन कर
मुझे चलना होगा।
3
'मौसम बन कर'
उड़ती हैं हवाएँ
चीलों के जैसी
धूप नोचती
सूखी नदियों पर
सूरज फेंकती
पत्तों से प्यास बुझाती
सागर पर सरसर करतीं
फिर नमी सोख कर
मुड़ जाती हैं
तट की रेत पर
जम कर सुंदर
घरोंदे बनाती हैं
इन नीड़ों में नये
ख्याब सजाती हैं
इन ख़्वाबों को
गतिमान रखने को
नदी सी बहती जाती हैं
कभी कभी मौसम बन कर
शोर मचाती हैं
कभी रेशमीं फूलों पर
रंग फैला कर
तितली सी उड़ जाती हैं।
4
'एक सैलानी से'
मन के डैने खोल
पखेरूओं से हम
उड़ते रहे ,यहाँ -वहाँ
जाने कहाँ -कहाँ
एक सैलानी से
गुज़रते रहे कई मोड़ों से
भूले बिसरे शहरों से
खेलते रहे
यादों की लहरों से
मौन की सीपियों को
बंद करते हुअे
अनजान पथों में
ज्वार सा जीवन
उमड़ घुमड़ कर
जो देता रहा हमें
अर्थ,दर्शन ,सोच,,दृष्टि
अंतर्मुखी चेतन
उन्हें सजग हो हम पीते रहे
टूटन के क्षणों में
संबल का दिया जला कर
जुगनू से उड़
ख्याबों की रोशनी को
जीते रहे।
5
' एक यायावर सा'
चीख़ती हवाएँ जैसे ही
ख़ामोश हुईं
मन का एकांत
धुँधली शाम में
बेमतलब
अपने आपको ढूँढने
दूर निकल गया
तभी एकाएक
एक भटकती चिड़िया ने
उसे अपने पंख दे दिये
अब वो उन्मुक्त था
और एक यायावर सा
बस जगह बदल बदल कर
इधर से उधर उड़ रहा था
लौटने का रास्ता
बहुत पीछे छूट गया था
पदचिन्ह का क्या
वो तो समय मिटा देता है
और सोचना क्या
जो भी होगा
देखा जायेगा!
6
' गुज़रा वक़्त '
हवा के धौंके सा
वह कौन है जो
रोज़ आकर बैठता है
पार्क की बेंच पर
गिरती   पत्तियों  को
  देखता है -फूलों के
रंगो को निहारता है
उसके चेहरे पर
एक परछाईं की
प्रतिज्ञा  का  ख़ालीपन
नज़र आता है पर
अचूक है उसकी दृष्टि
वह आँख बंद करके
अपने से बतियाता है
रोता है - हँसता है
शायद कोई
भूला बिसरा पल
कभी उसे हँसाता है
कभी रूलाता है
कभी वह डबडबाई
 आँखों से देखता है
आम की बैरों को
जहाँ से झाँकता होता है चाँद
काँपती चाँदनी के साथ
और बिखरी चाँदनी को
फैली रोशनी में लोग
बेख़ौफ़ चलते हैं
रात की ख़ामोशी में
जब पेड़ों,तारों ,कटोरों में
डेरा डाले बैठे परिंदे
अचानक पंख फड़फड़ाते हैं
किसी आशंका से वह
डर जाता है
वह उठता है और
दौड़ने लगता है फिर
हवा के साथ ऊपर
बीता वक़्त बन कर
ऊपर  उठ जाता है
बीता वक़्त बन
ज़िंदगी के बक्से में
दुबक जाता है!
13.3.18
 















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