रविवार, 18 फ़रवरी 2018

नयी लघुकथाएं 
1
(बात की जड़ )
सच्चाई का दिया
"प्रोफ़ाइल तो बड़ा अच्छा है पर आपने अपना जन्मस्थान नहीं लिखा?" नौकरी के इंटरव्यू  के दौरान बोर्ड ने  रामदीन से पूछा 
"सर मुझे एक कचरा बीनने वाली देवी स्वरूपा मैया ने पाल पोस कर बड़ा किया है ,इस क़ाबिल बनाया है कि आप विद्वानों के सामने बैठा हूँ।"
"ओह -- पर शहर तो होगा ना ,जहाँ आप कचरे में मिले? "
"मैं रेल के डिब्बे की एक सीट के नीचे एक अख़बार में लिपटा साफ़ सफ़ाई की प्रक्रिया के दौरान मैया को  मिला -जहाँ वो काग़ज़ बीनने गयीं थीं , स्टेशन के फुटपाथ पर एक तंबू डाल कर मैया बंजारन की तरह रहती थी व हर दो महीने बाद वह शहर बदल लेती थीं। स्टेशन पर काफ़ी रद्दी व प्लास्टिक मिल जाता था।उसे कबाड़ी को बेच कर वो हम दोनों का पेट पालती थी ।  कैसे बताऊँ किस शहर का निवासी हूँ , बस यह जानता हूँ कि इंसान हूँ । "
इंटरव्यू बोर्ड के अधिकारियों ने सीधे उस आत्मविश्वासी  नवयुवक की आँखों में जलता सच्चाई का दिया देखा और बिना कोई और प्रश्न पूछे उसे नौकरी के लिये चुन लिया।
डाॅ.सरस्वती माथुर
2
(भाग्य की गति )
तरफ़दारी 
"तुम इतना सहती कैसे हो , तु्म्हारा मर्द बिना बात मारता है , क्यों पिटती 
हो ? " आज फिर भँवरी की गर्दन कलाइयों व चेहरे पर नील पड़ी देख कर राजो का सब्र का बाँध टूट गया था। 
"अरे बीबी जी मेरा मर्द जब होश में नहीं होता है तो पीटता है ,होश में होता है तो कहाँ पीटता है ? तब तो ख़ूब मीठा बोलता है ,  प्रेम करता है --जीवन है , सब चलता है बीबी जी  । हमारी जाति में तो औरत की यही नियति है ।"कह कर भँवरी रसोई में बर्तन माँजने चली गयी ।राजो को बड़ा विचित्र लगा यह देख कर कि विहस्की के एक पैग की तरह भँवरी अपने आदमी की पीटने की आदत का एक हिस्सा बन गयी थी। तभी तो  मार खा कर भी  अपने आदमी की तरफ़दारी कर रही थी।  
डाॅ. सरस्वती माथुर
(2.4.17)
3
(अज्ञात अंधेरे )
आशंका 
" आज क्या तुम  आटो से  दफ़्तर आई हो राधिका?" 
"अरे नहीं रागिनी तेरे पति ने ही तो छोड़ा मुझे ,कह रहे थे अभी तुम काम में लगी हो ज़रा देर लगेगी तुम्हें तो , मैंने उन्हें कहा भी कि आपका रास्ता एकदम दूसरे छोर पर है -दिक़्क़त होगी पर वो माने नहीं ।" उसकी बात सुन रागिनी  फीकी सी हँसी हंस दी । फिर दोनों बतियाती अपनी अपनी डेस्क पर बैठ गयीं। रागिनी ने आँखें मूँद कर ठंडी साँस ली और ना चाह कर भी सुबह के उन क्षणों में चली गयी जब उसने अपने पति से आग्रह किया था--"हरी,  क्या मुझे दफ़्तर छोड़ दोगे ?"
"नहीं रागिनी आज मेरी ज़रूरी मीटिंग है ।मैं बाॅस से पहले पहुँचना चाहता हूँ ।तुम प्लीज़ बस से निकल जाओ । " हरी ने स्पष्ट मना कर दिया ।
"चलो ठीक है।" कह कर रागिनी ने घर के शेष काम निपटाये।बस स्टाॅप पर पहुँची तो पड़ोसन में रहने वाली राधिका जो साथ ही काम करती थी उसे दिखी नहीं --वो हैरान थी कि बस तो नियत समय पर ही आती है कहाँ गयी जबकि जब वो लाॅन में लगे चिड़ियाओं के परिंडे में पानी डालने आई थी तो उसने राधिका को बस स्टाॅप की तरफ़ जाते देखा था। आफिस पहुँची तो रिसेप्शन पर खड़ी राधिका फ़ोन पर बतिया रही थी। 
"मैडम  चाय ।"  चपडासी की आवाज़ से वह वर्तमान में लौट आई । निगाहें उठाई तो रागिनी ने देखा कि राधिका बड़ी तन्मयता से डेस्क पर बैठी फ़ाइलें निपटा रही थी  । वह  चाय पीते हुअे नि:शब्द बैठी उसे काम करते देखती रही पर जाने क्यों आज उसका मन काम में नहीं लग पा रहा था। 
डाॅ.सरस्वती माथुर
(3.4.17) 
4
(आदमी की यात्रा  )
तबादला
"बोलो बहादुर कैसे आना हुआ?" हाथ जोड़े खड़े विभाग के चपडासी बहादुर से जलदाय  विभाग के राजनारायण जी ने पूछा 
"मालिक ,मेरा तबादला रोक दीजिये ,कहाँ जाऊँगा , बच्चे पढ़ रहे हैं ,पत्नी बिमार पड़ी है।" गिड़गिड़ाते हुअे बहादुर ने कहा 
"कोशिश करता हूँ पर एक शर्त मेरी भी है।" राजनारायण जी बोले
"हुक्म फ़रमायें।"
"सुबह -शाम मेरे घर का भी काम निपटाना पड़ेगा-झाड़ू-पोचा , खाना -,मंज़ूर हो तो काम हो जायेगा।" राजनारायण जी ने मुस्कुराते हुअे फ़रमान छोड़ा ।
मरता क्या ना करता हामी भर कर तबादला तो करवा लिया बहादुर ने लेकिन तब से अब तक कोल्हू के बैल की तरह घूम रहा हैं। 
डाॅ.सरस्वती माथुर 
5
(3.4.17)
(मन का सुख )
वसीयत 
विशाल की बुआ रामदेवी कच्ची उम्र में ही विधवा हो गयीं थी । ससुराल अमीर था पर वह वहाँ टिक नहीं पायीं -एक बड़ी जायदाद लेकर वह अपने बड़े भाई के पास रहने आ गयीं थीं ।एक पुत्र की माँ भी थी वे जिसे मामा ने पढ़ाया और अमेरिका भेजा ,पढ़ाई के बाद धूमधाम से शादी भी की । एक बड़ी कंपनी में वह नौकरी पर भी लग गया था पर बुआ की उसकी पत्नी से निभी नहीं । इसी दौरान भाई भी गुज़र गये ।
एक दिन विशाल की पत्नी सुुजाता ने शिकायती लहजे में कहा-- "यह अपने बेटे के पास क्यों नहीं जा रहीं वापस?"
"बहू से पटरी नहीं बैठ रही उनकी सुुजाता ,मैं बुआ से बहुत प्यार करता हूँ ,हमें उन्हें निभाना ही पड़ेगा ।"विशाल ने अपना फ़ैसला सुना दिया । 
"और कोई बात नहीं विशाल हमारे पास केवल दो कमरे हैं जबकि उनकी ख़ुद की इतनी बड़ी कोठरी है -परिसर में दो घर बने हैं ..."बात अधूरी छोड़ कर सुुजाता चुप हो गयी। 
एक दिन तेज़ बुखार आया और बुआ शांत हो गयीं । दाह संस्कार के समय बेटा बहू भी पहुँचे । तभी बुआ के  रिश्ते के एक वक़ील देवर ने उनकी वसियत खोल दी ।जानकी परिसर में बनी अपनी कोठरी का एक हिस्सा वह विशाल के नाम लिख कर यह आग्रह कर गयीं थी कि मेरे क्रियाक्रम के तुरंत बाद विशाल वहाँ शिफ़्ट कर ले ,मेरे मन को इसी में सुख मिलेगा वरणा  मेरी आत्मा को बहुत ही कष्ट होगा। विशाल ने वसीयत  सुनकर जैसे ही बुआ के बेटे बहू की ओर दृष्टि घुमाई - देखा , दोनों की निगाहें झुकी हुई थी और सुुजाता की आँखों से टपटप आँसू बह रहे थे। 
डाॅ.सरस्वती माथुर 
6
(टूटा हुआ तारा )
जीवन संगिनी 
"अजी देवर जी ,अब तो जैट  लैग निकल गया होगा भाई , ज़रा हमसे भी बातें कर लो ना - अमेरिका के किस्से विस्से सुनाओ ? "भाभी ने रघुवीर के कमरे में आकर कहा तो रघुवीर मुस्कुरा दिया ।
"जी भाभी बिलकुल ,मैं ज़रा अपने जिगरी दोस्त नीलेश को फ़ोन कर रहा था पर उसका स्वीच आॅफ आ रहा है। "
"अरे पर वो तो हनीमून पर गया हुआ होगा । कह रहा था कि तुम्हें यथासमय शादी का कार्ड भेज दिया है, दरअसल अचानक ही उसकी शादी तय हुई--  चट मँगनी पट ब्याह वाला मामला हो गया । वो कह रहा था कि तुम्हें फ़ोन पर सूचित कर दिया है।हमें भी बुलाया था , हम गये भी थे। हाँ यह ज़रूर कह रहा था कि तुम फ़ोन नहीं उठाते हो।"
"हाँ तो व्हाटस अप पर मैसेज तो देता --उसने लास्ट टाइम बात की थी तब भी नहीं बताया । "
"पता नहीं देवर जी यह मालूम पड़ा है कि उसने अपनी कालेज फ़्रेंड रंजीता से शादी की है ।" भाभी ने कहा तो रघुवीर पर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा ।यह कैसे हो सकता है , रंजीता तो उसकी जीवन संगिनी बनने वाली थी ।पिछले महीने ही तो फ़ोन पर बात हुई थी । तब उससे  कह रही थी कि  रघुवीर जल्दी आ जाओ अब इंतज़ार नहीं होता। 
रघुवीर बुत बना सोच रहा था कि उसने तो सोचा था कि उसका मैसेज मिलते ही उसका यार  नीलेश दौड़ा चला आयेगा । होली दिवाली पर वह उसे अमेरिका से काॅल करता था तो औपचारिक बातें ही हो पाती थी।सोचा था कि अब मिलेंगे तो कालेज के हसीन लम्हों में खो जायेगें । इसी बीच वह एक कंपनी का सी.ई.ओ भी हो गया है ,जम कर पार्टी शॉर्टी करेंगें पर यह शादी की ख़बर तो रघुवीर लिये विस्फोट से कम नहीं है ।इतना बड़ा धोका । गहरी साँस खींच कर रघुवीर ने खिड़की की तरफ़ देखा ।
स्याह  नभ से लकीर खींचता हुआ एक तारा सरसराता हुआ उसकी आँखों के सामने से निकल गया ।ना जाने कहाँ जा कर गिरा होगा - टूटा हुआ तारा। 
डाॅ.सरस्वती  माथुर 
(4.4.17)
(मयूर पंख )
7
चिड़िया वाला 
श्यामा बरामदे में बैठी स्वेटर बुन रही थी ,तभी काॅलोनी के बच्चों की टोली धींगामस्ती करती हुयी उनके घर की तरफ़ आयी और श्यामा से आग्रह करने लगी -"आंटी जी - आंटी जी परिंदें ख़रीद लीजिये ना । "
"कौनसे परिंदें ।"स्वेटर बुनना छोड़ वो वो उनसे बातें करने लगी 
तभी चिड़ियां बेचने वाला उसके सामने आ कर कहने  लगा---"पचास की दो दे दूँगा मेमसाहिब,इन्हें आज ही पकड़ा है।"
चिड़िया बेचने वाले ने जैसे ही कठोर उँगलियों से पिंजरों पर हाथ फेरा ।पंछी सहमें से स्वर में ज़ोर ज़ोर से चीं चीं करते गोल गोल पिंजरें पर फड़फड़ाते हुअे घूमने लगे। 
"इन्हें जाल फेंक कर पकड़ते हो?"
"जी मेमसाहिब पहले वन विभाग में काम करता था पर नौकरी से निकाल दिया तब से कर रहा हूँ  पंछी बेचने का काम । वनों के बाहर दाना डालता हूँ तो तोते और रंगीन पंछी आ जाते हैं ।" 
पिंजरों के आसपास आलथी - पालथी मार कर बैठे बच्चे पंछियों को पुचकारते हुअे उनसे संवाद कर रहे थे ।श्यामा का मन भर आता है । भावुक हो वह एक दर्जन पंछी ख़रीद लेती है,  उन्हें पुचकारने के बाद बच्चों को कहती है -"इन्हें पिंजरों खोल कर उड़ा दो ।"
बच्चे एक स्वर में चिल्लाते हुअे उन्हें एक के बाद एक आकाश में छोड़ देते हैं । 
चिड़िया वाला मुस्कुरा कर विदा लेता है ।बच्चे शौर मचाते हुअे वापस खेलने भाग जाते हैं ।श्यामा भावुक सी आसमान की तरफ़ देखती है जहाँ गोल गोल चक्कर लगाते हुअे पंछी उन्मुक्त उड़ रहे हैं ।
डाॅ. सरस्वती माथुर 
9.4.17
8
 चित्र पर आधारित 
 मायाजाल 
एक साल जाने कैसे निकल गया । सखी - साथियों ने चिरौरी की किभाई आज पार्टी देनी पड़ेगी मैडम ,आज आपको जोइन करें एक साल हो गया है तो उनके लिये प्रभा ने चाय समोसा मँगाया ।आज कुछ फ़ुरसत भी थी क्योंकि टीचर - पैरेंट मिटिंग दो घंटे में ख़त्म करके सभी अध्यापिकाएं स्टाॅफ -रूम में तनावरहित बैठी बतिया रहीं थीं ! प्रभा आज ज़रूर थोड़ी उदास थी ।उसने आज जो देखा अनुभव किया उसकी उसने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी। उसे याद है गाँव में तो छात्र - छात्राएँ जब कोई प्रश्न पूछने आते थे तो वह तुरंत समाधान कर  देती थीं पर शहर में तो बाक़ायदा सौदेबाज़ी है।शिक्षा का बाज़ारीकरण हो गया है । जब उसका तबादला गाँव से शहर में हुआ था तो नया शहर नये लोग देख कर प्रभा के मन में बस यही ख़्याल आया था कि देहरी लांघी है तो चुनौतियों का सामना तो करना होगा । एक सरकारी स्कूल में जब गाँव में पढ़ाती थी तो वातावरण बहुत अपना सा था परन्तु पलटते युग की मान्यताओं के अनुसार गाँव के सरकारी स्कूलों का जुड़ाव शहरों के स्कूल से होते हुअे तबादलाों की चुनौतियाँ सामने आ खड़ी हुई । उन्हें शहर आना ही पड़ा।  पहला दिन परिचय करने में बीता ।धीरे-  धीरे प्रभा शहर की अभ्यस्त होने लगी । अब एक साल बाद वह बहुत कुछ सीख गयी थी। आज टीचर पैरेंट मिटिंग में  मिसेज़ धर ने तो हद ही कर दी !उसने अभिभावकों को साफ़ कहते सुना - "देखिये मैडम-सर आपको बच्चों को टयूश्न करवाने घर भेजना होगा वरणा वो अच्छें नंबरों से पास नहीं हो पायेंगें ।" विडम्बना यह थी कि अभिभावक भी सहर्ष राज़ी हो रहे थे ! प्रभा को एक पल के लिये तो यह अहसास हुआ कि यह स्कूल एक मायाजाल है । भ्रष्टाचार का एेसा तालाब है जिसमें छोटी छोटी मछलियाँ तैर रही हैं और वहाँ की अध्यापिकाएं बड़ी मछलियाँ हैं जो उन छोटी मछलियों को जीते जी निगल जाती हैं!
डाॅ.सरस्वती माथुर 
9
परिवर्तन 
"तुम ख़ुश तो हो ना राजरानी ?" पिता ने शादी के दो  साल बाद लौटी अपनी बेटी से पूछा तो वह मुस्करा दी 
"आपने राजकुमार ढूँढा है पापा ,ख़ुश तो होऊंगी ।"
"हाँ ,पर तुम्हारा गीत-संगीत कैसा चल रहा है ?" बेटी चुप रही 
" कुछ पूछ रहा हूँ बच्ची ?" पिता चिन्तित दिखे 
" तार टूट गये हैं पापा , कला और पैसा दोनों सागर के दो  किनारे हैं ,आप जानते हैं ना?"
"हां बेटी ,समझ गया ।" पिता खिड़की पर आ खड़े हुअे । आकाश में उन्मुक्त मँडराते पंछी जाने क्यों उन्हें आज अच्छे नहीं लग रहे थे। 
डॉ सरस्वती माथुर 
10
राजनीति





लघुकथाएं -- part ----3
1
 तमाशबीन
"यह कैसे गिरा?"
"शायद कार से टकरा कर ?"
"ओह बिचारा जल्दी में होगा!"
" है कौन ?"
"पता नहीं चल पा रहा,पर निसंदेह आम आदमी है , देखो ना -टिफ़िन भी खुल कर बिखर गया है ,पराँठे के साथ अचार लाया है।"
"हाँ ,महँगाई कितनी बढ़ गयी है"
"पूछो मत दाल रोटी खाना भी मुश्किल हो रहा है !"
"सड़क पर ट्रैफ़िक इतना बढ़ गया है कि रोज़ ही एक्सीडेंट हो रहे हैं ।"
"पुलिस को ख़बर करनी चाहिये!"
"क्या मालूम ज़िंदा हो तुरंत एम्बूलेंस बुला कर अस्पताल ले जाना चाहिये ।"
यह संवाद बीच सड़क पर ख़ून से लथपथ पड़े एक घायल आदमी के इर्द गिर्द खड़े तमाशबीनों के बीच चल रहा है  । सुबह दस बजे का समय -- लोग इधर से उधर भागते हुअे हवा पर सवार थे  पर किसी के पास रूकने का समय नहीं था  ! तभी मीडिया भी आ पहुँचा और संवादों का रूख बदल गया --भीड़ भी बढ़ गयी , अब तमाशबीनों में कैमरे पर चेहरा दिखाने की होड़ लग गयी थी  । हर शख़्स इस एक्सीडेंट का आँखों देखा हाल बताने को उत्सुक्त था ।सुबह से सारे टी.वी. चैनलों पर एक्सीडेंट की चर्चा का मुख्य विषय था-'बढ़ती भीड़ और घटती मानवीय संवेदनाएँ ।' इस विचार विमर्श के दौरान कोई नहीं जान पाया कि वह इंसान बचा या मर गया !
डाॅ . सरस्वती माथुर
21.june17
2
ख़ज़ाना
" मांँ , यह ख़ज़ाना किसकी अमानत है? "
"किसकी होगी  रानो ,तू मेरी इकलौती बेटी है ,यह ख़ज़ाना भी तेरे पास ही रहेगा ! "
" इसकी चाबी कहाँ है?"
"अलमारी में ही मिलेगी बिटिया।"मैं नहीं रहूँ तब इसे मेरे तीये से पहले ही खोल कर देखना ।"
दरअसल रानो की माँ के पास एक पीतल का सुंदर सा नक़्क़ाशीदार कटोरदान था जिसमें कुंडी लगी थी और ताला लगाने का प्रावधान भी था। जब भी उसकी माँ अलमारी खोलती  वह कपड़ों के बीच चमकता नज़र आता ।कई बार रानों ने माँ से पूछा भी-" इसमें क्या है माँ , बताओ तो। "
"ख़ज़ाना है इसमें !"वह मुस्कुरा कर कहती ,फिर अपने काम में लग जाती। रानों के पिताजी को गुज़रे एक अरसा  बीत   चुका था ।रानों को तो पिता की शक्ल भी याद नहीं थी। हाँ ,उसकी माँ हमेशा कहती थी कि वह हूबहू अपने पिता से मिलती है। और एक दिन माँ भी शांत हो गयी ।दाह संस्कार के बाद पंंडिताइन के लिये साड़ी निकालने के लिये,रानों ने अलमारी खोली तो कटोरदान पर नज़र पड़ी और माँ की बात स्मरण हो आई । कटोरदान उठाया तो चाबी उसी के नीचे रखी थी ।उत्सुकता से रानों ने कटोरदान खोला तो हैरत में पड़ गयी, उसमें राख रखी थी ,उसके ऊपर माँ -पिता जी की तस्वीर रखी थी और एक ख़त रानों के नाम का रखा था।उसमें लिखा था- "बेटा,यह कटोरदान हमेशा तुम्हारे लिये रहस्य बना रहा ।जब तेरे पिताजी के दाह -संस्कार के बाद उनकी अस्थियाँ घर आई तो मैंने उस पोटली में से कुछ राख रख ली और अब मेरी इच्छा है कि तेरे पिता की राख के साथ मेरी राख मिला कर ही विसर्जन करना ताकि हम दोनो एक साथ गंगा में प्रवाहित होकर अगले जन्म में फिर मिल सकें। रानों की यह सोच कर आँखें भर आयी कि माँ की यह कैसी अजीबोग़रीब इच्छा थी? रानों ने पिता की राख को हाथ से छुआ तो जाने क्यों उसे लगा कि राख अब तक गरम है ।वह देर तक राख को मुट्ठी में दबाये देखती रही ।
डाॅ.सरस्वती माथुर
3
माँ का सपना
"तुझे बहुत बड़ी गायिका बनना है ख़ुशी , चल उठ जा री तेरी संगीत टीचर आने वाली है , ज़रा रियाज़ कर ले बेटा।" ख़ुशी नींद में ज़रा कुनमुनाई फिर उठ बैठी ।
"माँ आपकी मम्मी का आपको लेकर क्या सपना था?"
मेरी माँ मुझे एक डाक्टर बनाना चाहती थी पर मैं गायिका बनना चाहती थी  !"
"और उनकी मम्मी का उनको लेकर क्या सपना था?"
" मेरी नानी चाहती थी कि वो कलक्टर बने !"
"ओह तो नानी की महत्वाकांक्षाये बहुत ऊँची थी ।"
"हाँ ,वो अंग्रेज़ों के ज़माने की थी ना । उन्हें राजसी ठाठ बाट वाली जीवन शैली आकर्षित करती थी। मेरे नाना अंग्रेज़ों के राज में मुंशी का काम करते थे ,कई पार्टियों में नानी भी जाती थी उनकी कार्यशैली पर फ़िदा थीं । उन्होनें किसी से सुन लिया था कि लड़कियों को शिक्षा मिले तो वह कलक्टर बन सकती हैं बस उनकी आँखों में अपनी बेटी को लेकर एक सपना तैरने लगा पर वह नहीं बन पायी पर हाँ वो डाक्टर बनना चाहती थी ,वह नाना के साथ एक बार अस्पताल गयी थी , वहाँ डाक्टरों को देख कर वह बहुत प्रभावित हुईं थीं पर बन नहीं सकीं। जल्दी ही शादी के बंधन में बंध गयीं ।वह बहुत अच्छा गाती थीं उन्हें घर में काम करते करते मैं मधुर स्वर में गाना गाते देखती थी ,उनका गाना सुनना मुझे बहुत अच्छा लगता था पर लड़कियों को पिताजी का गाना सीखने जाना पसंद नहीं था तो मेरी इच्छा अधूरी रह गयी । पर बेटा तुम्हारी आवाज़ अच्छी है ,मुझे लगता है तुम्हें गायन का क्षेत्र चुनना चाहिये !"
सत्रह साल की ख़ुशी ने मम्मी की आँखों में देखा और मुस्कुरा कर बोली-"ठीक है ममा गायिका ही बनूँगी ,तुम्हारा सपना ज़रूर पूरा करूँगी ।" ख़ुशी ने देखा माँ की आँखों में तेज़ चमक आ गयी है ।
"लो मेरा एक कंपोज़ किया हुआ गाना  हैडफ़ोन कान में लगा कर सुनो और बताओ कैसा बना है ?"  कह कर ख़ुशी लैपटाॅप में साऊंड क्लाऊड एेप पर हारमोनियम  की धुन लगा रियाज़ करने बैठ गयी पर सुर नहीं सध पा रहे थे - शायद एक अच्छी नृत्यांगना बनने का सपना बार -बार उस सुर पर हावी हो रहा था।
डाॅ.सरस्वती माथुर

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