शुक्रवार, 17 मार्च 2017

 

 
"विश्व परिवार दिवस: मौका परिवार के सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों को बचाने का !"
विश्व भर में 15 मई को अंतराष्ट्रीय परिवार दिवस दिवस मनाया जाता है! रिपोर्ट के अनुसार इस दिन को मनाने का फैसला संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सन् 1993 किया था।संयुक्त राष्ट्र ने 1994 को अऩ्तर्राष्ट्रीय परिवार वर्ष घोषित किया था। समूचे संसार में लोगों के बीच परिवार की अहमियत बताने के लिए 1995 से यह सिलसिला जारी है। परिवार की महत्ता समझाने के लिए विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इस दिन के लिए जिस प्रतीक चिन्ह को चुना गया हैउसमें हरे रंग केएक गोल घेरे के बीचों बीच एक दिल और घर अंकित किया गया है। इससे स्पष्ट है कि किसी भी समाज का केंद्र (दिल) परिवार ही होता है। परिवार ही हर उम्र के लोगों को सुकून पहुँचाता है।
इस वर्ष इस त्योहार का आदर्श-वाक्य है- "परिवार और पूरे समाज के लाभ के लिए काम और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के बीच संतुलन।"
परिवार बच्चों को सांस्कृतिक मान्यताओं को सिखाने का माध्यम है। परिवार वह आधारभूत संस्था है जो समाज में नियंत्रण लाने का मूल स्रोत है। परिवार यानी माता-पिता। बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में संतोषजनक पारिवारिक जीवन अत्यंत आवश्यक है।

आज संयुक्त परिवार तो टूट ही रहे हैं, एकल परिवार में भी बच्चों की तरफ पूरा ध्यान नहीं दिया जा रहा। पति-पत्नी दोनों काम पर जाते हैं। नौकरों आया की कृपा पर बच्चा पल रहा है या ‘क्रेच’ में छोड़ दिया जाता है। चाहकर भी माता-पिता बच्चों पर ध्यान नहीं रख पाते। बच्चे अक्सर इन हालात में उपेक्षित हो रहे हैं और अनेक प्रकार की संवेगात्मक गंभीर समस्याओं का शिकार हो रहे हैं जो अत्यंत चिंता का विषय है।
हमारे प्राचीन ग्रंथ में कहा गया है,“वृद्धवाक्यैर्विना नूनं नैवोत्तरं कथंचन!” अर्थात्‌ वृद्ध लोगों के वाक्यों के बिना किसी प्रकार का भी निस्तार नहीं है। इसी तरह एक फ़ारसी लोकोक्ति है,“ज़्यारते बुज़ुर्गां कफ़ारह-ए-गुनाह।”अर्थात्‌ वयोवृद्ध का सम्मान करने से पापों का नाश होता है। संयुक्त परिवार में वृद्ध परिवार के मुखिया होते थे और उनकी बातों को महत्व दिया जाता था। “टूटते परिवार और बिखरता समाज”के इस दौर में आज इन संस्कारों का अर्थ नहीं रह गया। आज के संदर्भ में तो यह सटीक बैठता है,
उत्साहशक्तिहीनत्वाद्‌ वृद्धो दीर्घामयस्‌ तथा।
स्वैरेव परिभूयेते द्वावप्येतावसंशयम्‌॥
अर्थात्‌ इसमें कोई संदेह नहीं कि वृद्ध व्यक्ति में उत्साह एवं शक्ति कमी होती है क्योंकि वे स्वजनों द्वारा ही तिरस्कृत होते हैं। आज की युवा पीढी बूढों को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। शायद भौतिकतावादी इस युग में उन्हें धन ही सबसे बड़ी चीज़ दिखती है। जीवन मूल्यों में तेजी से परिवर्तन होने लगा है और परिवार कभी जिसमें दो से लेकर चार और पांच पीढ़ियों के लोग भी रहते थे धीरे धीरे बिखर कर अब सिर्फ एकल परिवार के रूप में दिखलाई देने लगे हैं। जो आज के परिप्रेक्ष्य में परिवार की भूमिका को निभा नहीं पा रहे हैं। समाज में घटित होने वाली अधिकांश घटनाएँ समुचित पारिवारिक वातावरण के अभाव में ही हो रही हैं। इनमें से चाहे आत्महत्या का मामला हो,बच्चों के बहकते कदम हों या फिर आभासी दुनियाँ में खोते जा रहे बच्चोंसे लेकर युवा तक के लोग हों।
आज विश्व बड़ी तेजी से बदल रहा है। पारिवारिक संसाधन को अक्षुण्ण रखने हेतु इस बदलते विश्व में परिवार की ज़िम्मेदारियां भी काफी बढ़ गई हैं। परिवार से जुड़े मुद्दों के प्रति हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए।
अथर्ववेद में परिवार की कल्पना करते हुए कहा गया है,
अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्‌॥
अर्थात्‌ पिता के प्रति पुत्र निष्ठावान हो। माता के साथ पुत्र एकमन वाला हो। पत्नी पति से मधुर तथा कोमल शब्द बोले।
परिवार कुछ लोगों के साथ रहने से नहीं बन जाता। इसमें रिश्तों की एक मज़बूत डोर होती है, सहयोग के अटूट बंधन होते हैं, एक-दूसरे की सुरक्षा के वादे और इरादे होते हैं। हमारा यह फ़र्ज़ है कि इस रिश्ते की गरिमा को बनाए रखें। हमारी संस्कृति में,परंपरा में पारिवारिक एकता पर हमेशा से बल दिया जाता रहा है। 
परिवार एक संसाधन की तरह होता है। परिवार की कुछ अहम जिम्मेदारियां भी होती हैं। इस संसाधन के कई तत्व होते हैं।
दूलनदास ने कहा है
दूलन यह परिवार सब, नदी नाव संजोग।
उतरि परे जहं-तहं चले, सबै बटाऊ लोग॥ 
पालिटिक्स में कही अरस्तू की बात मानें तो,
“परिवार तो मनुष्य की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति द्वारा स्थापित एक संस्था है”,परिवार कुछ लोगों के साथ रहने से नहीं बन जाता। इसमें रिश्तों की एक मज़बूत डोर होती है,सहयोग के अटूट बंधन होते हैं,एक-दूसरे की सुरक्षा के वादे और इरादे होते हैं। हमारा यह फ़र्ज़ है कि इस रिश्ते की गरिमा को बनाए रखें। हमारी संस्कृति में,परंपरा में पारिवारिक एकता पर हमेशा से बल दिया जाता रहा है। संयुक्त परिवार में जहां सामुदायिक भावना होती है वहीं छोटे परिवार में व्यक्तिगत भावना प्रधान होती है। जहां व्यक्तिगत भावना हावी होगी वहां स्वार्थ का आ जाना स्वाभाविक है। सब अपना-अपना सोचने लगते हैं। आज विश्व भर में एकल परिवार की जैसे लहर सी फैल रखी है. बच्चे बड़े होकर नौकरी क्या करने लगते हैं, उन्हें खुद के लिए थोड़ा स्पेस चाहिए होता है और वह स्पेस उन्हें लगता है अलग रहकर ही मिल पाता है. मैट्रोज में तो अब खुद मां बाप ही बच्चों को नौकरी और शादीशुदा होने के बाद अलग परिवार रखने की सलाह देते हैं. लेकिन अकेला रहने की एवज में समाज को काफी कुछ खोना पड़ रहा है.परिवार से अलग रहने पर बच्चों को ना तो बड़ों का साथ मिल पा रहा है जिसकी वजह से नैतिक संस्कार दिन ब दिन गिरते ही जा रहे हैं और दूसरा,इससे समाज में बिखराव भी होने लगने लगता है!
परिवार समाज की महत्त्वपूर्ण इकाई है1
जैनेन्द्र ने इतस्ततः में कहा है,
“परिवार मर्यादाओं से बनता है। परस्पर कर्त्तव्य होते हैं, अनुशासन होता है और उस नियत परम्परा में कुछ जनों की इकाई हित के आसपास जुटकर व्यूह में चलती है। उस इकाई के प्रति हर सदस्य अपना आत्मदान करता है, इज़्ज़त खानदान की होती है। हर एक उससे लाभ लेता है और अपना त्याग देता है”।
आज तो जीवन बिल्कुल यांत्रिक हो गया है। रिश्ते भी औपचारिकता तक सीमित हो गये हैं जिसमें आपसी स्नेह, माधुर्य, सौहार्द्र और परस्पर विश्वास की कमी आ गई है। आज यह बहुत ज़रूरी है कि हमारो सम्बन्धों में मज़बूती हो, एकजुटता हो, दृढ़ता हो। विश्वास की दृढ़ता प्रारंभ से हमारे देश में संयुक्त परिवार का प्रचलन ही रहा है !संयुक्त परिवार ऐसे कई छोटे परिवारों का समूह है जिसमे घर के प्रत्येक सदस्य की जिम्मेदारी , सुविधाएँ और सुख दुःख भी साझा ही होते हैं . संयुक्त परिवार का एक मुखिया होता है , जो परिवार के सभी सदस्यों के लिए नीतियाँ और निर्देश देता है,इन परिवारों में पुत्र विवाह के बाद अपने लिए अलग रहने की व्यवस्था नहीं करता . परिवार में जन्मे बच्चों के पालन पोषण के लिए एक स्वस्थ वातावरण निर्मित होता है जिसमे वह समाज में घुल मिल जाने के संस्कार , नीतियाँ , दायित्व आदि सीखता है , एकल परिवार में जहाँ कुछ ही लोगों का लाड़ दुलार मिलता है , वही संयुक्त परिवारों में बच्चा विभिन्न प्रवृतियों वाले एक बड़े समूह के बीच रहता है ,जहाँ उसे लाड़ दुलार के साथ समाज में विभिन्न परिस्थितियों में सामंजस्य स्थापित करने के गुण सीखता है जो उसके भावी जीवन के लिए एक सुदृढ़ नींव का निर्माण करते हैं ,इन परिवारों में किसी भी बुजुर्ग,अविवाहित या बेरोजगार को विशेष समस्या का सामना नहीं करना पड़ता क्योंकि बाकी सदस्य उनकी जिम्मेदारी उठा लेते हैं .मनुष्य को अवसाद , उदासी , अकेलेपन से बचाने में इन परिवारों की सशक्त भूमिका होती है! 
भारतीय सभ्यता वसुधैव कुटुम्बकम अर्थात सारा विश्व हमारा परिवार जैसे संस्कार के लिये प्रसिद्ध है!परिवार एक सोच है , रिश्तों का संस्कारों का - जहाँ इसका अस्तित्व है , वह एकल हो या संयुक्त - सही मायने में परिवार वही है ,ढोने जैसी भावना का निर्वाह नहीं होता!जिस परिवार में एकता और एकजुटता होती है उसमें समृद्धि होती है। वहां रिश्ते सुंदर होते हैं। क्योंकि वहां कोई भेद-भाव नहीं होता। सब एक दूसरे की मदद करते हैं। एक-दूसरे के प्रति स्नेह-प्रेम-सद्भाव रखते हैं। इस तरह का परिवार ऐसा लगता है मानों सारा संसार उसमें सिमट गया हो।कुछ खामियां भी हैं,जैसे गोपनीयता का अभाव और छोटी-छोटी बातों पर तनाव व आंतरिक कलह। इसके अलावा संयुक्त परिवार की अपेक्षा छोटा परिवार चलाना काफी सुगम होता है। आर्थिक विकास के कारण गांवों से शहरों की तरफ जो लोगों का पलायन बढ़ा तो छोटे परिवार रखना आवश्यक हो गया। ऐसे परिवार में व्यक्तिगत अधिकारों पर ज़्यादा जोर दिए जाने के फलस्वरूप घर के वातावरण में परिवर्तन आने लगा।संयुक्त परिवार एक लुभावनी धारणा है,लेकिन प्रत्येक व्यक्ति की दिन प्रति दिन हो रही आर्थिक और मानसिक उन्नति ने संयुक्त परिवार की अवधारणा को बहुत नुकसान पहुँचाया है . आज एक परिवार कई परिवारों के साथ एक संयुक्त ढांचे में रहकर स्वयं को बंधन में महसूस करते हैं ,पहले तो संयुक्त परिवार बचे ही नहीं है और जो हैं वे क्लेश के घर बने हुए हैं ,जिन परिवारों में संयुक्तता बची हुई है ,उनमे एकल परिवारों को उपहास की दृष्टि से देखा जाता है !
आधुनिकीकरण,औद्योगीकरण,व वैश्वीकरण के कारण हमारी सामाजिक मान्यताएं बदलती जा रहीं हैं। हमारे देश की पारिवारिक पद्धति भी इससे अछूती नहीं है।पश्चिम के कुसंस्कारों का प्रभाव हमारी युवा पीढी पर पढने से संयुक्त परिवार व्यवस्था को आघात पहुच रहा है ।आजकल महानगरों के एकल परिवारों में रहने वाले बच्चे खुद को बहुत अकेला महसूस करते हैं। पहले संयुक्त परिवारों में माता-पिता के अलावा कई अन्य सदस्य होते थे। जिनके साथ रहकर बच्चों में सहजता से शेयरिंग और केअरिंग की भावना विकसित होती थी, पर अब ऐसा नहीं है। न्यूक्लियर फेमिली में भी एक ही बच्चे का चलन बढता जा रहा है। इससे बच्चे आत्मकेंद्रित हो रहे हैं। पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हो भारतीय समाज बहुत तेजी से अपनी मौलिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन ला रहा है,संयुक्त परिवार जो कभी भारतीय सामाजिक व्यवस्था की नींव हुआ करते थे,आज पूरी तरह विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुके हैं!इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि बदलते आर्थिक परिवेश में लोगों की प्राथमिकताएं मुख्य रूप से प्रभावित हो रही हैं, मनुष्य का एकमात्र ध्येय केवल व्यक्तिगत हितों की पूर्ति करना ही रह गया हैlअपने स्वार्थ सिद्धि के लिए वह अपने परिवार के साथ को भी छोड़ने से पीछे नहीं रहता ! इसके अलावा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बढ़ती मांग भी परिवारों के टूटने का कारण बनती हैlपिछले डेढ़-दो दशक में पारिवारिक पद्धति, खासकर संयुक्त परिवार के रूप में काफी बदलाव आता गया है। इसका असर पूरे विश्व में और ख़ासकर भारत में तो काफ़ी बुरा पड़ा है। बीते समय के साथ संयुक्त परिवार का स्वरूप टूट कर लघु से लघुतम परिवार में बदलता गया है।समाज में घटती नैतिकता के दुष्परिणाम हम सबके सामने हैं ही; बच्चों का अनैतिक कार्यों में शामिल होना, सेक्स के प्रति उनकी हिंसात्मक प्रतिक्रिया, प्रेम का गलत मतलब, स्कूल में पढ़ने की जगह मोबाइल जैसी चीजों में समय बर्बाद करना, मां बाप का कहना ना मानना ऐसी कई घटनाएं है जिनकी वजह से यह साबित हो गया है कि गिरता नैतिक स्तर समाज को डुबो रहा है,परिवार केपास इतना समय नहीं होता है कि वे देखें कि उनके बच्चे क्या कर रहे हैं?हाँ, सारी आधुनिक सुविधायों को जुटानेको ही वे अपने दायित्वों कि पूर्ति समझ बैठते हैं।
पलटते युग की मान्यताओं के बदलाव और जीवन शैली में हुए परिवर्तन के स्वरुप चाह कर भी माँ बाप बच्चों के लिए समय नहीं निकाल पातें, उनके बचपन को उनके साथ शेयर नहीं कर पाते! परिवार में खुद पति पत्नी पैसे कमाने की आपाधापी में दिन में १७-१८ घंटे काम में लगे रहते हैं और उनकेपास इतनी ऊर्जा शेष नहीं रहती है कि वे दिन भर के अपने सुख और दुःख को बाँट सकें। या फिर बच्चों के साथ बैठ कर उनसे कुछ शेयर कर सकें । बच्चों के मन में दिन भर के बाद ढेर सी बातें होती हैं कि वे मम्मी और पापाको बताएँगे लेकिन मिलता उनको कुछ भी नहीं है।
'हम बहुत थके हैं बेटा, फिर कभी करेंगे इस बारे में बात। '
'बहुत परेशान करोगे तो हम तुम्हें होस्टल में डाल देंगे।'बच्चों के ऊपर अंकुश की कमी हो जाने से युवा पीढ़ी अधिक उच्छृंखल हो गई। बुजुर्गों के प्रति सम्मान में कमी आने लगी है। वे अपने को उपेक्षित महसूस करते हैं। अकसर ही घर के बुजुर्गों को यह कहते सुना जा सकता है कि हमारे जमाने में इतना बड़ा परिवार था और हम सब दुःख-सुख बांट कर काफी हंसी-खुशी के दिन बिताया करते थे। वे बातें आज कहां! अब एक संयुक्त परिवार की बात लें , एक ही घर में कई अलग घर बसे हुए , जो सबल है , अर्थ में , जबान में वह जीत में , मकान में दरारें पडी हैं , घर में बुजुर्ग बीमार है , कोई साझा मेहमान आया है ...ये इस परिवार की समस्या है क्योंकि साझेदारी का काम है ,कोई एक पहल क्यों करे ,जिम्मेदारी क्यूँ उठाये ,महँगी कटलरी , अचार ,मिठाई आदि प्रत्येक कमरे में उनके ससुराल पक्ष के लिए सुरक्षित होती हैं ,कौन आया ,कौन गया , घर का बुजुर्ग सदस्य देखेगा क्योंकि यह घर तो उसका ही बसाया है ,जब तक बच्चे छोटे हैं ,उनकी देखभाल के लिए परिवार की जरुरत है , बुजुर्ग के पास धन है , तब तक उनकी जरुरत है , वरना घर के एक कोने में रहते हुए बाकी सदस्यों के चेहरे देखने , बात करने को तरस जाते हैं ,कई दिनों तक आपस में संवादहीनता बनी रहती है-
-"भास के दूतवाक्यम्‌ में कहा गया है,
कर्तव्यो भ्रातृषु स्नेहो विस्मर्तव्या गुणेतराः।
सम्बन्धो बन्धुभिः श्रेयांल्लोकयोरुभयोरपि॥"
दोषों को भूलकर भाइयों पर केवल स्नेह करना चाहिए, बन्धुओं से प्रेम स्थापित करना, लोक-परलोक दोनों के लिए लाभदायक होता है।प्राणी जगत में परिवार सबसे छोटी इकाई है या फिर इस समाज में भी परिवार सबसे छोटी इकाईहै। यह सामाजिक संगठन की मौलिक इकाई है। परिवार के अभाव में मानव समाज के सञ्चालन की कल्पना भीदुष्कर है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी परिवार का सदस्य रहा है या फिर है। उससे अलग होकर उसके अस्तित्व को सोचा नहीं जा सकता है। हमारी संस्कृति और सभ्यता कितने ही परिवर्तनों को स्वीकार करके अपने को परिष्कृत कर ले, लेकिन परिवार संस्था के अस्तित्व पर कोई भी आंच नहीं आई। वह बने और बन कर भले टूटे हों लेकिन उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है।
हमारे देश भारत की परिवार व्यवस्था सद्गुणों की पाठशाला है जहॉ शिष्टाचार,सदाचार एवं संस्कारों का बीजारोपण बच्चों में सहजता से होता है ।पालि में लिखे जातक कथा महावेस्सन्तर जातक में कहा गया है,
"येन केनचि वण्णेन पितु दुक्खं उदब्बहे,
मातु भागिणिया चापि अपि पाणेहि अत्तनि।"
अर्थात्‌ मां, बहन और पिता का दुःख जैसे भी हो दूर करना चाहिए! यह तभी संभव है जब परिवार के सारे लोग परिवार की तरह रहें,एक संयुक्त परिवार की तरह। हां मत-भेद तो हों,पर मन-भेद नहीं।संयुक्त परिवार हमारी विरासत है और वर्षो से समाज की ताकत रहे है।अब भी याद आते हैं वो दिन जब संयुक्त परिवारों का चलन था। माता-पिता और भाई बहन के अलावा चाचा-चाची और दादा-दादी भी साथ ही रहते थे और भरे-पूरे घर में बच्चों की सबसे ज्यादा मौज रहती थी।धमाचौकड़ी करने पर एक ने डांटा,तो दूसरे ने पुचकार दिया। दिन भर कभी मां ने कुछ खिलाया, तो कभी दादी ने। नींद आई तो चाची ने लोरी देकर सुला दिया,लेकिन अब यह सब फिल्मों में या सपने में मिलता है। वक्त के साथ रिश्ते कम हो चले हैं। गांवों में तो अभी रिश्तों की कमी उतनी नहीं खलती, लेकिन महानगरों में तो जैसे रिश्तों का अकाल पड़ गया है।घर में शादी ब्याह और तीज-त्योहारों पर अपनों की याद आती है। लोग इन खास दिनों में अपनों के घर जाते हैं या उन्हें अपने घर बुला लेते हैं। हमारे देश में रिश्तेदारों से दूरियां बढ़े ज्यादा दिन नहीं हुए,लेकिन यूरोपीय देशों में एक अर्सा पहले ही रिश्तेदारों से दूरियां इतनी बढ़ गईं कि उन्हें अपने रिश्तेदार से मिलने के लिए एक खास दिन बनाना पड़ा। 18मई को विजिट योर रिलेटिव डे मनाया जाता है और इस दिन लोग फूल और मिठाइयां लेकर अपने अजीजों के घर जाते हैं।
हम चाहें तो भारतीय संस्कार की संयुक्त परिवार व्यवस्था से जुड्कर सुख शान्ति और आनन्द का जीवन जी सकते हैं । इसके लिये हमें सच्चाई का समर्थन तथा बुराई का अन्त करना होगा । मिलजुल कर रहना सीखना होगा ।आज भी संयुक्त परिवार को ही सम्पूर्ण परिवार माना जाता है,उम्मीद है जल्द ही समाज में परिवार की अहमियत दुबारा बढ़ने लगेगी और लोगों में जागरुकता फैलेगी कि वह एक साथ एक परिवार में रहें जिसके कई फायदे हैं!परिवार एक महत्वपूर्ण संस्था है। परिवार मतलब समाज का एक मजबूत स्तंभ जिसके ऊपर है एक अच्छे समाज के निर्माण की जिम्मेदारी क्योंकि सुखी परिवार तो अच्छा समाज। अब परिवार में खामोशी अपना असर छोड़ती जा रही है। दूर कीजिए इस खामोशी को और मजबूती दीजिए अपने परिवार को।
डॉ सरस्वती माथुर
ए - 2, हवा सड़क, सिविल लाइन्स-- जयपुर - 6

गुरुवार, 16 मार्च 2017

भगवान महावीर स्वामी का संदेश ---जिओ और जीने दो।
डाॅ सरस्वती माथुर
विश्व कों अंहिसा का पाठ पढानेवाले भगवान महावीर ने सत्य कि खोज में राजमार्ग कों त्यागकर कांटो भरा पथ  अपनाया. एवं स्वय के द्वारा जिएंगें का संदेश देकर सत्य कों नई परिभाषा दी ।
महावीर स्वामी जैन धर्म के चौंबीसवें तीर्थंकर है। करीब ढाई हजार साल पुरानी बात है। ईसा से 599 वर्ष पहले वैशाली गणतंत्र के क्षत्रिय कुण्डलपुर में पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला के यहाँ तीसरी संतान के रूप में चैत्र शुक्ल तेरस को इनका जन्म हुआ। इनका बचपन का नाम ‘वर्धमान’ था। ये ही बाद में स्वामी महावीर बने। महावीर को ‘वीर’, ‘अतिवीर’ और ‘सन्मति’ भी कहा जाता है।जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के मूर्तिमान प्रतीक थे। उनका जीवन त्याग और तपस्या से ओतप्रोत था। उन्होंने एक लँगोटी तक का परिग्रह नहीं रखा। हिंसा, पशुबलि, जाति-पाँति के भेदभाव जिस युग में बढ़ गए, उसी युग में ही भगवान महावीर ने जन्म लिया। उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। पूरी दुनिया को उपदेश दिए। उन्होंने दुनिया को पंचशील के सिद्धांत बताए। इसके अनुसार- सत्य, अपरिग्रह, अस्तेय, अहिंसा और क्षमा। उन्होंने अपने कुछ खास उपदेशों के माध्यम से दुनिया को सही राह दिखाने की ‍कोशिश की। अपने अनेक प्रवचनों से दुनिया का सही मार्गदर्शन किया।
जब मानव समाज विषमता और हिंसा के चक्रव्यू में फंसा हुआ था, ऐसे कठिन समय में भगवान महावीर ने "जियो और जीने दो" का संदेश जन साधरण तक पहुचा कर विश्व बन्धुत्व और विश्व शांति का मार्ग प्रशस्त किया.स्वयं जियो औरों को भी जीने दो प्रत्येक प्राणी जीना चाहता है, मरना नही- अतः प्राणी मात्र की हिंसा मत करो हिंसा में अधर्म, आत्म पतन होता है और अहिंसा में आत्म उत्थान होता है। असत्य बोलने का त्याग करना सौ सत्य धर्म के बराबर है. सभी दुख हिंसा से उत्पन्न होते है। ब्रम्हचर्य मोक्ष का सोपान होता है। इच्छा रहित होना अपरिग्रह है. भगवान महावीर के एैसे उपदेश आत्मा को परमात्मा से जोड़ने और विश्व शांति स्थापित करने में आज अधिक प्रासंगिक है।
अहिंसा परमोधर्माः आर्थात अहिंसा ही परम धर्म है। अहिंसा को केन्द्र मानकर भगवान महावीर ने सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रम्हचर्य जैसे महाव्रतों का उपदेश दिया था। अहिंसा से सत्य जुड़ा है. अहिंसा से ही अपरिग्रह संभव है। अहिंसा से विश्व शांति जुड़ी है। मानव ही नही प्रत्येक जीव का कल्याण अहिंसा पर आधारित है।भगवान महावीर भारतीय संस्कृति के ऐसे तीर्थंकर है, जिन्होंने जगत को जियो और जीने दो का सूत्र दिया। हर प्राणियों को स्वतंत्रता से जीने का अधिकार दिया है। स्वतंत्रता ही मानव की अमूल्य धरोहर है, ‘जियो और जीने दो’ का सह अस्तित्ववादी सूत्र विश्व समाज को सूत्र बद्ध करता है। लेकिन इक्कीसवीं शती के भूमण्डलीकरण, ग्लोबलाइजेशन, विश्वग्राम की एप्रोच में ‘वासुधैव कुटुम्बकम्’ या ‘जियो और जीने दो’ की अर्थ ध्वनि न होकर एक ऐसी पाश्चात्य गंध घुली मिली है, जिसका मूलाधार अर्थ है। जिसका मानव कल्याण या मानवीयता से उतना सरोकार नहीं है। भौतिकता की अंध दौड़ ने उदात्त तत्व को जीवन से निकाल फेंका है। महावीर द्वारा अपने प्रत्येक अनुयायी (साधु व गृहस्थ दोनों वर्गोंके लिए) के लिए अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्राह्मचर्य व अपरिग्रह इन पांच व्रतों का पालन अनिवार्य बताया गया है, परन्तु इन सभी में अहिंसा की भावना प्रमुख है. उनकी मान्यता है कि मानव व दानव में केवल अहिंसा का ही अंतर है. जब से मानव ने अहिंसा को भुलाया तभी से वह दानव होता जा रहा है और उसकी दानवी वृत्ति का अभिशाप आज समस्त विश्व भोगने को विवश है. संसार के प्रत्येक जीव को अपना जीवन अति प्रिय है. जो उसको नष्ट करने को उसको क्षति पहुंचाने को उद्यत रहता वह हिंसक है, दानव है. इसके विपरीत जो उसकी रक्षा करता है वह अहिंसक है और वही मानव है.यद्यपि कालान्तर में जैन धर्म के सिद्धान्तों का अक्षरश: पालन करना लोगों के लिए कठिन होने लगा फिर भी इसमें संदेह नहीं है कि महावीर स्वामी ने अपने समय में जिस अहिंसा के सिद्धांत का प्रतिपादन किया वह निर्बलता व कायरता उत्पन्न करने के बजाय राष्ट्र में शांति व अमन स्थापित करने के उद्देश्य से किया. उन्होंने तत्कालीन हिन्दू धर्म को दूषित बनाने वाली पशु  बलि जैसी कुप्रथा को रोककर सामाजिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया. उनका कहना था कि पशु हत्या ही नहीं, स्वार्थपरता, बेईमानी व धोखेबाजी भी हिंसा का ही रूप है. उन्होंने समाज को जियो और जीने दो का सूत्र दिया. उन्होंने लोगों से कहा कि तुम दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जो तुम दूसरों से अपने लिए चाहते हो।
भगवान महावीर एक ऐसा व्यक्तित्व है जिन्होंने आध्यात्मिक क्षेत्र में पूर्णता हासिल की। उनके लिए कुछ भी शेष न था और यह हम सभी का जीवन उद्देश्य भी होना चाहिए। भगवान महावीर का जन्म कल्याण के लिये हुआ था । वह कहते थे कि अहिंसा का मार्ग ही प्रत्येक मानव का धर्म होना चाहिए। अहिंसा को ग्रहण करने से मनुष्य कई प्रकार की व्याधियों से मुक्त हो जाता है। सभी धर्मों में अहिंसा को अलग-अलग प्रकार से परिभाषित किया गया है।
इसी तरह प्रभु महावीर ने नारी शक्ति को बराबरी का सम्मान दिलाया। नारी भी मोक्ष की अधिकारिणी है। साधना के जीवन में भी नारी काफी मात्रा में संयम जीवन अंगीकार कर रही है। इस तरह अनेक क्षेत्रों में चाहे वह शैक्षणिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि सभी क्षेत्रों में नारी की कार्यप्रणाली प्रगति की ओर बढ़ रही है।भगवान महावीर ने नारी.उद्धार और उनके आत्म.कल्याण के लिए उपदेश दिया, मार्ग प्रशस्त किया। उनका मानना था कि आत्मा न पुरुष है और न स्त्री और प्रत्येक आत्मा को अपना उद्धार करने का समान अधिकार है। अतः उन्होंने अपनी मौसी चन्दनबाला को आर्यिका दीक्षा देकर उनको स्वतन्त्र संघ बनाने की प्रेरणा दी और उनके आत्म.कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। यह सौभाग्य की बात है कि जब भारत में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में भगवान महावीर का 2500वाँ निर्वाणोत्सव मनाया जा रहा था, उस समय हमारे देश की प्रधानमन्त्री एक महिला थीं श्रीमती इन्दिरा गांधी। 2500वें निर्वाणोत्सव को सफल बनाने में जैन समाज के लिए जो उनका योगदान रहा, उसको जैन समाज कभी भी नहीं भूल सकता। वापस लौटते हैं दो शब्दों पर -जीओ और जीने दो,  ये दो शब्द हैं किन्तु यदि देखें तो इन दो शब्दों में जिन्दगी का सार छिपा है .इन्सान, इन्सान के रूप में जन्म  तो लेता है किन्तु उसके कर्म इन्सानों जैसे नहीं होते  कई दफा तो वो अपने स्वार्थ खातिर इन्सानों का खून बहाने से भी नहीं चूकता .उसके कर्म जानवरों जैसे हो जाते हैं .कई बार तो इतना कूर और ज़ालिम हो जाता है कि जानवरों को भी मात दे जाता है .अपने स्वार्थवश वो अपनों का भी खून बहा देता है  यदि हम यह दो शब्द, जीओ और जीने दो , अपना लें तो यह धरती स्वर्ग हो जाएगी . इन दो शब्दों का तात्पर्य  है कि खुद भी जीयें औरों को भी शान्ति से उनको उनकी जिन्दगी जीने दें . क्यूँ हम लोग आज इतने स्वार्थी  हो गए है कि धर्म , जाती , प्यार के नाम पे इंसानियत का खून बहा रहे हैं प्यार करने वालों को अपनी इज्ज़त कि खातिर मार देते हैं जिसे' अोनर किलिंग का नाम दिया जाता है कभी धर्म कि खातिर लोगों को मारा जाता है  कौन सा धर्म है ,कौन  सा कोई धार्मिक ग्रन्थ है या कौन  से कोई देवी देवता ,गुरु , साधू , संत पीर पैगंम्बर हुए हों  जिन्होंने कहा हो  या कहीं लिखा हो कि धर्म के नाम पे लोगों कि हत्याएं करो. या कहीं लिखा हो कि प्यार करना गुनाह है  और प्यार करने वालों की बलि देदो आॅनर किलिंग '  के नाम पे हम क्यूँ आज इतने  कूर हो गए हैं जो ऐसे घिनोने कार्य करते हैं शान्ति से क्यूँ  नहीं रहते  . क्या मिलता है हमें ऐसे घिनोने कार्य करके  शान्ति से खुद भी रहें औरों को भी रहने दें , आज आवश्कता है इन दो शब्दों को अपनाने क़ी ' जीओ और जीने दो '।
भगवान महावीर के नाम पर प्रायः दो नारे लगाए जाते हैं-
जियो और जीने दो तथा अहिंसा परमो धर्मः की जय।

विश्वास कीजिए अहिंसा परमो धर्मः का सर्वप्रथम उल्लेख जैन धर्म के शास्त्रों में नहीं अपितु महाभारत के अनुशासन पर्व की गाथा ११५-२३ में मिलता है। जी हाँ, सत्य यही है-

अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा परमो तपः।
अहिंसा परमो सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते।
अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा परमो दमः
अहिंसा परम दानं, अहिंसा परम तपः
अहिंसा परम यज्ञः अहिंसा परमो फलम्‌।
अहिंसा परमं मित्रः अहिंसा परमं सुखम्‌॥
महाभारत/अनुशासन पर्व (११५-२३/११६-२८-२९)

अहिंसा परम धर्म है। अहिंसा ही परम तप है। अहिंसा ही परम सत्य है और अहिंसा ही धर्म का प्रवर्तन करने वाली है। यही संयम है, यही दान है, परम ज्ञान है और यही दान का फल है। जीवन के लिए अहिंसा से बढ़कर हितकारी, मित्र और सुख देने वाला दूसरा कोई नहीं है।
महावीर स्वामी के अनमोल कथन :

1. अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है।

2. शांति और आत्म-नियंत्रण अहिंसा है।

3. सभी जीवित प्राणियों के प्रति सम्मान अहिंसा है।

4. प्रत्येक जीव स्वतंत्र है, कोई किसी और पर निर्भर नहीं करता।

5. हर एक जीवित प्राणी के प्रति दया रखो। घृणा से विनाश होता है।

6. खुद पर विजय प्राप्त करना लाखों शत्रुओं पर विजय पाने से बेहतर है।

7. प्रत्येक आत्मा स्वयं में सर्वज्ञ और आनंदमय है। आनंद बाहर से नहीं आता।

8. किसी के अस्तित्व को मत मिटाओ। शांतिपूर्वक जिओ और दुसरो को भी जीने दो।

9. आत्मा अकेले आती है अकेले चली जाती है, न कोई उसका साथ देता है न कोई उसका मित्र बनता है।

10. स्वयं से लड़ो , बाहरी दुश्मन से क्या लड़ना ? वह जो स्वयम पर विजय कर लेगा उसे आनंद की प्राप्ति होगी।

11. पर दुख को जो दुख न माने,पर पीड़ा में सदय न हो। सब कुछ दो पर प्रभुकिसी को,जग में ऐसा हृदय न दो।

12. सभी मनुष्य अपने स्वयं के दोष की वजह से दुखी होते हैं , और वे खुद अपनी गलती सुधार कर प्रसन्न हो सकते हैं।

13. आपने कभी किसी का भला किया हो तो उसे भूल जाओ। और कभी किसी ने आपका बुरा किया हो तो उसे भूल जाओ।

14. आपकी आत्मा से परे कोई भी शत्रु नहीं है। असली शत्रु आपके भीतर रहते हैं, वो शत्रु हैं क्रोध, घमंड, लालच, आसक्ति और नफरत।

15. यदि तुम अपने शरीर या दिमाग पर दूसरों के शब्दों या कृत्यों द्वारा चोट बर्दाश्त नहीं कर सकते हो तो तुम्हे दूसरों के साथ अपनों शब्दों या कृत्यों द्वारा ऐसा करने का क्या अधिकार है ?

16. भगवान् का अलग से कोई अस्तित्व नहीं है।  हर कोई सही दिशा में सर्वोच्च प्रयास कर के देवत्त्व प्राप्त कर सकता है।

17. किसी आत्मा की सबसे बड़ी गलती अपने असल रूप को ना पहचानना है , और यह केवल आत्म ज्ञान प्राप्त कर के ठीक की जा सकती है।
प्रस्तुति
डाॅ.सरस्वती माथुर
ए-2,सिविल लाइन
जयपुर-6