शुक्रवार, 11 मार्च 2016

"गणगौर का सांस्कृतिक पर्व !".....डाँ सरस्वती माथुर

 
 

फ़ाइनल आलेख
"गणगौर का सांस्कृतिक पर्व !"
डॉ सरस्वती माथुर
गणगौर का पर्व होली खेलने के बाद शरीर पर लगे रंग छूट भी नहीं पाते , होली के मदभरे मधुर गीतों के बोल समाप्त भी नहीं हो पाते कि सुहागिने और कुंवारी कन्याएं गणगौर के स्थान पर मांडने बनाने में जुट जाती हैंlगणगौर रँगीले राजस्थान के मुख्य पर्वोँ मेँ से एक है । जिसका सम्बन्ध श्री पार्वती पूजा से है । हिन्दू धर्म मेँ स्त्रियाँअपनी मनोकामनाओँ की पूर्ति के लिये देवी पार्वती की आराधना करती हैँ । होली के अगले दिन ही गणगौर की पूजा शुरू हो जाती हैं।होलिका दहन के दूसरे दिन गणगौर पूजने वाली बालाऐं होली दहन की राख लाकर उसके आठ पिण्ड बनाती हैं एवं आठ पिण्ड गोबर के बनाती हैं तथा उन्हें दूब पर रखकर, कनेर के पत्ते , पुष्प आदि सेप्रतिदिन पूजा करती हुई बड़े सवेरे ही होली की राख को गाती-बजाती स्त्रियाँ अपने घर लाती हैं। मिट्टी गलाकर उससे सोलह पिंडियाँ बनाती हैं, शंकर और पार्वती बनाकर सोलह दिन बराबर उनकी पूजा करती हैं।शीतलाष्टमी तक इन पिण्डों को पूजा जाता है, फिर मिट्टी से ईसर गणगौर की मूर्तियाँ बनाकर उन्हें पूजती हैं तथा दूब , कनेरके पत्ते , पुष्प आदि से 16 दिन तक इनकी पूजा की जाती है ... गणगौर की पूजा से पहले दीवार पर सोलह बिंदिया कुंकुम की, सोलह बिंदिया मेहँदी की और सोलह बिंदिया काजल की प्रतिदिन लगाती हैं। कुंकुम, मेहँदी और काजल तीनों ही श्रंगार की वस्तुएँ हैं। सुहाग की प्रतीक हैं। शंकर को पूजती हुई कुँआरी कन्याएँ प्रार्थना करती हैं कि उन्हें मनचाहा वर प्राप्त हो। शंकर और पार्वती को आदर्श दंपति माना गया है। दोनों के बीच अटूट प्रेम है। सोलह दिन के पूजन के बाद गणगौर उत्सव मनाया जाता है! इस दिन घर-घर में विवाहिता स्त्र्यिाॅं ब्रत रखती हैं पूजा कर व्रत खोलती हैं।
गणगौर की कहानी भी इस दिन पूजा के समय कही जाती है। एक समय भगवान शंकर, पार्वती जी नारदमुनि को साथ लेकर पृथ्वी पर चल दिए। भ्रमण करते-करते वे तीनों एक गाँव में पहुँचे। उस दिन चैत्र शुक्ला तृतीय की तिथि थी। गाँव के लोगों को जब शंकर जी और पार्वती जी के आगमन की सूचना मिली तो धनी स्त्रियाँ उनके पूजनार्थ नाना प्रकार के रुचिकर भोजन बनाने में लग गई और इसी कारण उन्हें काफी देर हो गई। दूसरी ओर निर्धन घर की स्त्रियाँ जैसी बैठी थीं, वैसे ही थाल में हल्दी, चावल, अक्षत तथा जल लेकर शिव-पार्वती पूजा के लिए वहाँ पहुँचीं। अपार श्रद्धा-भक्ति में निमग्न उन स्त्रियों को पार्वती ने पहचाना और उनकी भक्तिरूपी वस्तुओं को स्वीकार कर उन सब के ऊपर सुहागरूपी हल्दी छिड़क दी। इस प्रकार गौरी मातेश्वरी से आशीर्वाद और मंगलकामनाएँ प्राप्त करके वे महिलाएँ अपने-अपने घर चली गई। तत्पश्चात कुलीन घरों की स्त्रियाँ सोलह शृंगार कर छप्पनों प्रकार के व्यंजन थाल में सजाकर आई,तब भगवान शंकर ने शंका व्यक्त कर पार्वती जी से कहा कि तुमने तमाम सुहाग प्रसाद तो साधारण स्त्रियों में बाँट दिया है, अब इन सबको क्या दोगी? पार्वती जी शिव जी ने कहा 'आप इसकी चिंता छोड दें। पहले मैंने केवल ऊपरी पदार्थों से निर्मित रस दिया है, इसलिए उनका सुहाग  धोती से रहेगा, परन्तु इन लोगों को मैं अपनी चीरकर रक्त सुहाग  रस दूँगी, जिससे यह महिलाएँ मेरे समान ही सौभाग्यशालिनी बन जाएँगी। जब कुलीन स्त्रियाँ शिव-पार्वती की पूजा-अर्चना कर चुकीं तो देवी पार्वती ने अपनी उँगली चीरकर उसके रक्त को उनको ऊपर छिड़क दिया और कहा कि तुम लोग वस्त्राभरणों का परित्याग कर मायामोह से रहित रहो तथा तन-मन-धन से पति की सेवा करती रहो तथा अखंड सौभाग्य को प्राप्त करो। भवानी का यह आशीर्वचन सुनकर प्रणाम करके ये महिलाएँ भी अपने-अपने घर को लौट गई तथा पति परायण बन गई। जिस महिला के ऊपर पार्वती देवी का खून जैसा गिरा उसने वैसा ही सौभाग्य प्राप्त किया। इसके पश्चात पार्वती जी ने पति के आज्ञा से नदी में जा कर स्नान किया तथा बालू मिट्टी का महादेव बनाकर पूजन किया, भोग लगाया और उसकी परिक्रमा करके बालू के दो कणों का प्रसाद खाकर पार्वती ने मस्तक पर टीका लगाया। उसी समय बालू मिट्टी के बने महादेव की मूर्ति से स्वयं शिव जी प्रकट हुए तथा पार्वती को वरदान दिया कि आज के दिन जो स्त्री गौरादेवी की पूजन तथा व्रत करेगी उसके पति चिरंजीव रहेंगे। इस प्रकार गणगौर का पर्व महिलाओं के लिए अखंड सौभाग्य का प्रतीक और गणगौर का व्रत उनकी साधना का फल प्राप्त करने वाला लोकपर्व बन गया है दोपहर को गणगौर के भोग लगाया जाता है तथा गणगोर को कुँए  से लाकर पानी पिलाया जाता है। लड़कियाँ कुँए  से ताजा पानी लेकर गीत गाती हुई आती हैं:-
’’ईसरदास बीरा को कांगसियो म्हे मोल लेस्यांराज,
रोंवा बाई का लाम्बा-लाम्बा केश, कांगसियों बाईक सिर चढ्योजी राज।’’
’’म्हारी गौर तिसाई ओ राज घाट्यारी मुकुट करो,
बीरमदासजी रो ईसर ओराज, घाटी री मुकुट करो,
म्हारी गौरल न थोड़ो पानी पावो जी राज घाटीरी मुकुट करो।’’
लड़कियाँ गीतों में गणगौर के प्यासी होने पर काफी चिन्तित लगती है एवं वे गणगौर को शीघ्रतिशीघ्र पानी पिलाना चाहती है। पानी पिलाने के बाद गणगौर को गेहूँ चने से बनी ’’घूघरी’का प्रसाद लगाकर सबको बांटा जाता है और लड़कियाँ गाती हैं:-
’’महारा बाबाजी के माण्डी गणगौर, दादसरा जी के माण्ड्यो रंगरो झूमकड़ो,
लगायोजी - ल्यायो ननद बाई का बीर, ल्यायो हजारी ढोला झुमकड़ो।’’
रात को गणगौर की आरती की जाती है तथा लड़कियाँ नाचती हुई गाती हैं:-
’’म्हारा माथान मैमद ल्यावो म्हारा हंसा मारू यहीं रहवो जी,
म्हारा काना में कुण्डल ल्यावो म्हारा हंसा मारू यहीं रहवोजी।’’
गणगौर पूजन के मध्य आने वाले एक रविवार को लड़कियाँ उपवास करती हैं। प्रतिदिन शाम को क्रमवार हर लडक़ी के घर गणगौर ले जायी जाती है, जहाँ गणगौर का ’’बिन्दौरा’’ निकाला जाता है तथा घर के पुरुष लड़कियाँ को भेंट देते हैं। लड़कियाँ खुशी से झूमती हुई गाती हैं:-
’’ईसरजी तो पेंचो बांध गोराबाई पेच संवार ओ राज महे ईसर थारी सालीछां।’’

गणगौर से एक दिन पहले नव विवाहितों के ससुराल से सिंजारा आता हैं जिसमें गहने कपडे उपहार आदि होते हैं।गणगौर उत्सव में पारंपरिक गीतों की घूम रहती हैं। नाचना और गाना तो इस त्योहार का मुख्य अंग है ही। घरों के ऑंगन में, सालेड़ा आदि नाच की धूम मची रहती है। परदेश गए हुए इस त्योहार पर घर लौट आते हैं। जो नहीं आते हैं उनकी बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा की जाती है। आशा रहती है कि गणगौर की रात को जरूर आएँगे। झुंझलाहट, आह्लाद और आशा भरी प्रतीक्षा की मीठी पीड़ा को व्यक्त करने का साधन नारी के पास केवल उनके गीत हैं। ये गीत उनकी मानसिक दशा के बोलते चित्र हैं। फागुनी पूनम के दुसरे दिन से गणगौर तक गली गली में भोर उदय के साथ ही गणगौर के मधुर गीतों की गूँज कानो में गूंजने लगती हैं !रंग बिरंगी चुनरियों में सजी धजी सधवा स्त्रियों और कुंवारी कन्यायें थाल में कुमकुम गंध, अक्षत मेहँदी-काजल लेकर गणगौर को पूजने जाती हैंl यह पूजा 16 दिन तक चलती हैlजिस लडक़ी की शादी हो जाती है वो शादी के प्रथम वर्ष अपने पीहर जाकर गणगौर की पूजा करती है। इसी कारण इसे ’’सुहागपर्व’’ भी कहा जाता है। कहा जाता है कि चैत्र शुक्ला तृतीया को राजा हिमाचल की पुत्री गौरी का विवाह शंकर भगवान के साथ हुआ उसी की याद में यह त्यौहार मनाया जाता है। कामदेव मदन की पत्नी रति ने भगवान शंकर की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया तथा उन्हीं के तीसरे नेत्र से भष्म हुए अपने पति को पुन: जीवन देने की प्रार्थना की। रति की प्रार्थना से प्रसन्न हो भगवान शिव ने कामदेव को पुन: जीवित कर दिया तथा विष्णुलोक जाने का वरदान दिया। उसी की स्मृति में प्रतिवर्ष गणगौर का उत्सव मनाया जाता है एवं विवाह के समस्त नेगचार होते हैं। पार्वती के अवतार के रूप में गणगौर माता व् भगवान् शंकर के रूप में ईशर जी की पूजा की जाती है !प्राचीन समय में पार्वती ने शंकर भगवान् को वर रूप में पाने के लिए व्रत और तपस्या की,शंकर भगवान् तपस्या से प्रसन्न हो गए और वरदान मांगने के लिए कहा, पार्वती ने वर रूप में उन्हें पाने की इच्छा जाहिर की, इस तरह पार्वती की मनोकामना पूरी हुई और दोनों विवाह बंधन में बंध गए, बस उसी दिन से कुंवारी कन्याएं मन इच्छित वर पाने के लिए और सुहागिने पति की लम्बी आयु के लिए ईशर और गणगौर की पूजा करती है
!'गण' का अर्थ है शिव और 'गौर' का अर्थ गौरी या पार्वती। स्पष्ट है कि गणगौर पर्व का संबंध शिव-पार्वती की पूजा-अर्चना से है। कथा के अनुसार गौर अर्थात पार्वती का एक नाम रणुबाई भी है। रणुबाई का मायका मालवा और ससुराल राजस्थान में था। उनका मन मालवा में इतना रमता कि ससुराल रास नहीं आता था, पर विवाह के बाद उन्हें ससुराल जाना पड़ा। जब-जब भी वे मायके मालवा में आती थीं, मालवा की महिलाओं के लिए वे दिन एक उत्सव का माहौल रच देते थे। तभी से यह पर्व मनाने की परंपरा का उल्लेख मिलता है। राजस्थन की अनेक परम्पराऐ ंहैं, यह परम्परा किसी न किसी पौराणिक कथाओं से जुडी होती हैं। गणगौर उत्सव के पीछे कई लोक कथाऐं जुडी हैं। गणगौर का पर्व इस त्यौहार से सम्बंधित एक कथा इस प्रकार बतायी जाती है -जब स्वयंवर के लिए पार्वती जी के पिता द्धारा ब्रह्मा ,विष्णु आदि देवताओं के नाम प्रस्तावित किये गए तो पार्वती जी ने सभी देवताओं में कोई न कोई दोष निकाल कर अस्वीकार  कर दिया था ,जब वर के रूप में शिवजी का नाम आया तो पार्वतीजी ने सहर्ष उन्हें पतिरूप में स्वीकार कर लिया था! इसी तरह इसर और गौरी के दिव्य प्रेम के आदर्श को गणगौर के गीतों में तरह तरह से गाया जाता है l शिव और पार्वती के प्रेम को ही इस त्यौहार का आदर्श माना गया है l
 तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस में भी सीताजी द्धारा गौरी से राम को वररूप में पाने की प्रार्थना की गयी थी l इसी तरह कहा जाता है कि श्रीकृष्ण को वररूप पाने के लिए रुकमणी द्धारा भी गौरी की पूजा की गयी थी ,जिसके फलस्वरूप श्री कृष्ण द्धारा स्वयंवर से रुकमणी का अपहरण किया गया थाl
सबसे लोकप्रिय कथा के अनुसार एक गरीब परिवार की बेटी अपनी सहेलियों के साथ एक मेला देखने जाती हैं। बेटी के लिए उसकी माँ गुड, आटे तथा बेसन की पुडियाँ भेजती हैं। लडकी सहेलियों से बिछुड जाती हैं। तो अकेले बैठकर पूडियां खाती हैं। इतने में वहां से भगवान शिव तथा पार्वती निकलते हैं जो रूप बदलकर उसके पास आते है। दोनों उससे पूछते हैं कि यहाँ क्यों बैठी हैं। लडकी अपनी कहानी सुनाती हैं तो भगवान शिव उससे पूडियों का भोग स्वीकर करके कुछ आशीर्वाद मांगने को कहते हैं। तब लडकी उनसे मांगती हैं.... "जीणी-जीणी बान मांगू। महल को झरोखों मांगू, ढाल सही घोडो मांगू, ऊपर जीणी लाल को देवगढ की थाल मांगू, पगडी वालो वाटको, दो फुलका गेह का मांगू, ऊपर बचको भात को, घोडो चढतो वर मांगू और उंगली पकडयों वीर मांगूं।" ये सुनकर माता पार्वती ने उसे तथास्तु कहकर अंतर्ध्यान हो गए तथा उस लडकी की सारी गरीबी दूर हो गई तथा सब कुछ उसकी मांगों के अनुसार हो गया। ऐसे कई कथाऐं प्रचलित हैं।
राजस्थान प्रदेश मे गणगौर पर्व का सर्वाधिक महत्त्व है। पौराणिक आधार पर गण शिव और गौरी पार्वती की पूजा की परम्परा शताब्दियों से चली आ रही है। यह सर्वाधिक पावन-पर्व है। राजस्थान के सांस्कृतिक चेतना की पहचान इसी पर्व से बनी हुई है। सामन्ती परिवेश और राजाशाही जमाने में भी गणगौर पर्व को राजस्थान के विभिन्न शहरों में धूम-धाम से मनाया जाता रहा है।
इसे" गौरी तृतीया "भी कहते हैं । यज्ञ सागर पुस्तक में गणगौर पर्व, गणगौर संबंधी कथा, कहानियों, गौरी गीत, व्रत, उपवास आदी के बारे में विशेष जानकारी दी गई है।होलिका दहन की भस्म और किसी तालाब-सरोवर के जल से ईसर-गणगौर की प्रतिमाएं बनाई जाती हैं तथा उन्हें वस्त्रालंकारों से सुसज्जित किया जाता है l पूजा के लिए हरी दूर्वा,पुष्प,और जल लाने के लिए महिलाएं प्रति दिन प्रात: सुमधुर गीत गाती हुई किसी उद्यान में जाती हैं तथा सजे हुए कलशों में जल भर कर लाती हैं तथा कुमकुम, मेहंदी, तथा काजल आदि सौभाग्य की प्रतीक वस्तुओं से ईसर-गणगौर की पूजा करती हैं l उसमे उल्लेख है कि चैत्र कृष्णा प्रतिपदा को कुवारीं कन्याऐं होलिका की विभूति से अखण्ड रूप मृनिश के पात्र में सोलह पिण्डिरा अपने हाथ से बनाकर भूमि पर षोडश दल कमल बनाकर उस पर मृनिश पात्र पाळसियां मे रखकर उसमें षोडश पिण्डिराओं, गौरी आदी मनाओं का पूजन शिव सहित चैत्र शुक्ला द्वितीया तक करके तृतीया व्रत यानी गौरी व्रत गणगौर उत्सव की सम्पन्न हेतु करती है। प्रलयाग्नि होलिका के सर्वभसम होने पर बचती है। विभूति इस अनोखी वस्तु को देखकर कहा जाता  है कि यह भगवान शिव की विशेष विभूति है। महादेव जी ने ब्रीज रूप से विभूति में स्थापित करके उडाया कि पार्वती अंग विषेश प्राप्ति भवेति उस विभूति के साथ बीज रूप का गणेश देवता रूप पार्वती माता ने बताया इसी प्रकार परम्बा रूप कुमारी कन्याऐं विभूति रूप से होलिका मृनिश से सोलह कलारूप गौरी ईश्वर रूप की स्वांगुलि आंगिन पिण्डिराऍं, शिव शक्ति रूपा मानी जाती है। मृनिश पाम गोल अण्डकराह रूप मानकर उसमें दीर्घायु पाने की कामना की जाती है। बीजारोपण अंकुरारोपणा कुमारी कन्याऐं तथा सुहागिन स्त्रियाँ सुख सौभाग्य एवं वंश वृद्धि के कामना से मृनिशमय गोल पथ में मृनिश रखकर उसमें तीन बार एक ही पात्र में तीन पुडन बीजारोपण किया जाता है।जल सिंचन करने चैत्र शुक्ला तृतीया को अंकुर समृद्ध शालिपात्र को गवरजा माता कि सम्मुख रखकर विधिवन् पूजन करके गवरजा माना रे मस्तिक तथा हाथों में उन समृद्ध अंकुर शाखाओं का समर्पण मानो शुभकामनाओं को हस्तगन करती हुई प्रार्थना करती है कि हे गौरी हमारा सुख सौभाग्य बढे तथा वंश कुल/बाडी में सदा आनन्द बढता रहे। अकुंर हरित हरा पीन पीला श्वेत इस समय का उपयोग वे सखियों के साथ हंसी ठिठोली करते हुए बिताती हैं ...शीतलाष्टमी के दिन काली मिट्टी लाकर उससे ईसर- गणगौर , मालन माली , आदि बनाये जाते हैं , उन्हें वस्त्र आदि पहनाते हैं , रेत अथवा काली मिट्टी की मेड़ बनाकर जंवारे ( जौ) उगाये जाते हैं ...सरकंडों पर गोटा लपेटकर झूला भी बनाया जाता है गणगौर पूजन करने वाली सभी स्त्रियाँ इकठ्ठा होकर ये सभी कार्य बड़े हर्षोल्लास से गीत गाते हुए करती है ...तत्पश्चात छोटे बच्चों (सिर्फ लड़कियों )को ईसर और गणगौर के प्रतीक रूप में दूल्हा -दुल्हन बनाकर उन्हें बगीचे में में ले जाकर खेल- खेल में गुड्डे गुड़ियों जैसी ही शादी रचाई जाती है पूजन करने वाली तथा दर्शक महिलाओं में से ही घराती और बाराती बनती है तथा आपस में ठिठोली करती हुई नृत्य गान आदि करती है ...आम लोकगीतों मे सुहागन महिलायें अपने अखंड सुहाग के लिए ईश्वर से प्रार्थना तो करती ही हैं , लगे हाथों विभिन्न आभूषणों और आकर्षक वस्त्रों की मांग भी कर लेती हैं.!.
शीतलाष्टमी के दिन पुरानी प्रतिमाओं के साथ सुसज्जित नई काष्ठ की प्रतिमाएं भी स्थापित की जाती हैं, शीतलाष्टमी के दिन प्रायः हर घर में बासी खाना ही खाया जाता है , इसलिए पूरा दिन महिलाएं घर के काम से मुक्त होती है ,गणगौर पूजा के लिए नवविवाहित युवतियां पीहर आती हैं । शायद इसीलिए गणगौर के गीतों में पीहर का प्रेम, माता -पिता के आँगन में बेटी का आल्हादित होना और अपने ससुराल एवं जीवन साथी की प्रीत से जुड़े सारे रंग भरे हैं । गणगौर पूजा में तो ये लोकगीत ही मन्त्रों की तरह गाये जाते हैं । पूजा के हर समय और हर परम्परा के लिए गीत बने हुए हैं, भावों की मिठास और मनुहार लिए ।
महिलाएं सज-संवर कर सुहाग चिन्हों को धारण किये हंसी ठिठोली करती हुईं पूजा के लिए एकत्रित होती हैं । पूजा के समय स्त्रियाँ एक खास तरह की चुनरी भी पहनती है ।
गणगौर पूजन के समय गए जाने वाला प्रमुख गीत इस प्रकार है --
"गौर गौर गोमती गणगौर पूज गनपति ,
ईसर पूजूं पार्वती ,पार्वती का आला गीला गौर का सोना का टीका ,टीका देरपांणि राणी बारात करे गौर दे पाणी !"
गणगौर एवँ स्वयँ के लिये श्रृँगार की माँग भी उनका अधिकार है -माथा ने मैमँद पैरो गणगौर, कानाँ नै कुण्डल पैरो गणगौर, जी म्हेँ पूजाँ गणगोर - ईसर्दासजी भी नखराळी गणगोर की माँगेँ पूरी करते हैँ - ईसरदासजी ज्याजो समन्दर पार जी, तो टीकी ल्याजो जडाव की जी - एक विशेष प्रकार की चूँदडी की भी माँग है -ईसरजी ढोला जयपुर ज्याजो जी, बठे सुँ ल्याय ज्योजी जाली री चूँदडी, मिजाजी ढोला हरा-हरा पल्ला हो, कसूमल होवै जाली री चूँदडी, स्वयँ के लिये भी-म्हारा माथा नै मैमँद ल्याओ बालम रसिया, म्हारी रखडी रतन जडओ रँग रसिया, म्हारी आँखडली फरूकै बेगा आवो रँग रसिया!
गणगौर का पर्व पति - पत्नी के अखंड प्यार का द्योतक है । इसके गीतोँ मेँ पति - पत्नी के बीच होने वाले मान - मनुहार का भी दर्शन है

इन गीतों में एक और जहाँ नारी -मन की व्यथा ,उमंगें भावनाएं और मादकता प्रकट होती है ,वहीँ दूसरी ओर इनके मद्धम से देवताओं को भी जनसाधारण की तरह व्यवहार करते हुए बताया गया है! 
सोलह दिन तक उल्लास और उमंग के साथ चलने वाला यह पारंपरिक पर्व सही मायने में स्त्रीत्व का उत्सव लगता है

गणगौर व्रत कैसे करें :-

गणगौर की पूजा मंगल कामना का पर्व है।राजस्थान के सांस्कृतिक चेतना की पहचान इसी पर्व से बनी हुई है। 

* चैत्र कृष्ण पक्ष की एकादशी को प्रातः स्नान करके गीले वस्त्रों में ही रहकर घर के ही किसी पवित्र स्थान पर लकड़ी की बनी टोकरी में जवारे बोना चाहिए ।
* इस दिन से विसर्जन तक व्रती को एकासना (एक समय भोजन) रखना चाहिए ।
* इन जवारों को ही देवी गौरी और शिव या ईसर का रूप माना जाता है ।
* जब तक गौरीजी का विसर्जन नहीं हो जाता (करीब आठ दिन) तब तक प्रतिदिन दोनों समय गौरीजी की विधि-विधान से पूजा कर उन्हें भोग लगाना चाहिए ।
* गौरीजी की इस स्थापना पर सुहाग की वस्तुएँ जैसे काँच की चूड़ियाँ, सिंदूर, महावर, मेहँदी,टीका, बिंदी, कंघी, शीशा, काजल आदि चढ़ाई जाती हैं ।
* सुहाग की सामग्री को चंदन, अक्षत, धूप-दीप, नैवेद्यादि से विधिपूर्वक पूजन कर गौरी को अर्पण किया जाता है ।
* इसके पश्चात गौरीजी को भोग लगाया जाता है ।
* भोग के बाद गौरीजी की कथा कही जाती है ।
* कथा सुनने के बाद गौरीजी पर चढ़ाए हुए सिंदूर से विवाहित स्त्रियों को अपनी माँग भरनी चाहिए ।
* कुँआरी कन्याओं को चाहिए कि वे गौरीजी को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करें ।
* चैत्र शुक्ल तृतीया (सिंजारे) को गौरीजी को किसी नदी, तालाब या सरोवर पर ले जाकर उन्हें स्नान कराएँ ।
* चैत्र शुक्ल तृतीया को भी गौरी-शिव को स्नान कराकर, उन्हें सुंदर वस्त्राभूषण पहनाकर डोल या पालने में बिठाएँ । इसी दिन शाम को गाजे-बाजे से नाचते-गाते हुए महिलाएँ और पुरुष भी एक समारोह या एक शोभायात्रा के रूप में गौरी-शिव को नदी, तालाब या सरोवर पर ले जाकर विसर्जित करें ।
* इसी दिन शाम को उपवास भी छोड़ा जाता है ।

गणगौर माता की  शोभायात्रा  :
 गणगौर माता की पूरे राजस्थान में जगह जगह सवारी निकाली जाती है जिस मे ईशर दास जीव गणगौर माता की आदम कद मूर्तीया होती है | उदयपुर की धींगा गणगौर, बीकानेर की चांद मल डढ्डा की गणगौर ,प्रसिद्ध है | ईश्वर गौरा की मूर्तियां को सजाकर उल्लासमय वातावरण में शोभा यात्रा निकाली जाती है। अंतत: किसी नदी, तालाब या पोखर में गणगौर को सम्मानपूर्वक विदाई दी जाती है। विदाई के दृश्य अत्यंत ही भावुक होता है। उदयपुर व जयपुर की गणगौर की सवारी को देखने के लिए हजारों लोग आते हैं। उदयपुर के तालाबों के बीच नावों में होने वाले नृत्य व गायन के आयोजन बड़े ही सुन्दर लगते हैं।
कर्नल टॉड ने उदयपुर की गणगौर की सवारी का बहुत ही रोचक वर्णन किया है। ""जहां अट्टालिकाओं में बैठकर सभी जातियों की स्रियां व बच्चे और पुरुष रंग-रंगीले कपड़े व आभूषणों से सुसज्जित होकर गणगौर की सवारी को देखते थे यह सवारी तोप के धमाके से वे नगाड़े की आवाज से राजप्रासाद से रवाना होकर पिछोला झील के गणगौर घाट तक बड़ी धूमधाम से पहुंचती थी व नौका विहार तथा आतिशबाजी प्रदर्शन के बाद समाप्त होती थी।''
जब गणगौर की सवारी निकाली जाती है तब जयपुर के गुलाबी राजमार्ग और भी खिल उठते हैं। राजस्थान की राजधानी जयपुर में गणगौर उत्सव दो दिन तक धूमधाम से मनाया जाता है। ईसर और गणगौर की प्रतिमाओं की शोभायात्रा राजमहलों से निकलती है इनके दर्शन करने देशी-विदेशी सैनानी उमड़ते हैं। सभी उत्साह से भाग लेते हैं। इस उत्सव पर एकत्रित भीड़ जिस श्रृद्धा एवं भक्ति के साथ धार्मिक अनुशासन में बंधी गणगौर की जय-जयकार करती हुई भारत की सांस्कृतिक परम्परा का निर्वाह करती है जिसे देख कर अन्य धर्मावलम्बी इस संस्कृति के प्रति श्रृद्धा भाव से ओतप्रोत हो जाते हैं। ढूंढाड़ की भांति ही मेवाड़, हाड़ौती, शेखावाटी सहित इस मरुधर प्रदेश के विशाल नगरों में ही नहीं बल्कि गांव-गांव में गणगौर पर्व मनाया जाता है एवं ईसर-गणगौर के गीतों से हर घर गुंजायमान रहता है।गणगौर का यह त्यौंहार राजस्थान की संस्कृति में रचा बसा है। शिव पार्वती के इस रूप की पूजा व अर्चना बीकानेर में महिलाओं के साथ पुरूषों के द्वारा भी भक्ति व श्रद्धा के साथ की जाती है। इस त्यौंहार में पुरूषों का इस तरह से जुडाव इस बात का प्रतीक है कि पुरातन समाज में स्त्री के साथ पुरूष भी हर त्यौंहार में उसका भागीदार रहा है।!
परम्पराओं के शहर बीकानेर में सैकडों वर्षों से यह परम्परा चली आ रही है और आज भी इस परम्परा का निर्वहन किया जाता है। और सच भी है कि त्यौंहार वह चाहे पुरूषों का है या महिलाओं का इसे श्रद्धा, भक्ति के साथ मनाकर देश, समाज की खुशहाली की कामना करने से भाईचारा ही बढता है। यह माना जाता है गणगौर अपने पीहर आती है और फिर पीछे पीछे गणगौर का पति ईसर उसे वापस लेने आता है और आखिर मे चैत्र शुक्ल द्वितीया व तृतीया को गणगौर को अपने ससुराल वापस रवाना कर दिया जाता है और इन्हीं दिनों में जब गणगौर अपने पीहर होती है, गणगौर को खुश करने के लिए गणगौर के सामने गीत गाए जाते है और माता से कामना की जाती है वह देश, शहर, परिवार व कुल की समृद्धि करे उसकी रक्षा करे। पुरूषों द्वारा भी इन गीतों में माँ गवरजा से यही कामना की जाती ह। साथ ही साथ इन गीतों में वीर रस के गीत भी गाए जाते हैं और ईसर द्वारा यह दर्शाया जाता है कि वह गणगौर के लिए योग्य वर है और वह गणगौर को प्राप्त करने की कामना रखता है। इसी तरह गीतों में यह भी दर्शाया जाता है कि गणगौर ईसर को ताने मारती है और कहती है कि अगर तूने मेरी तरफ देखा तो तुझे मेरी बहन दातुन में, मेरा भाई खाने में जहर दे देंगे लेकिन ईसर नहीं मानते और आखिर वह अपनी गणगौर को अपने साथ लेकर ही जाते है। गणगौर की बहनों की तरफ से यह भी गीत गाया जाता है कि अब ईसर जी आप आ तो गए ही हो और गणगौर को लेकर ही जाआगे तो कुछ दिनों के लिए तो इसे छोड दो ताकि यह जब तक यहॉ है हमारे साथ रह सके। यह भक्ति, श्रृंगार व वीर रस के सारे गीत चौक में पाटों पर पुरूषों द्वारा गाए जाते है।हमें आवश्यकता है आज इस भक्तिमय, श्रृद्धापूर्ण एवं लोक कल्याण हेतु संस्थापित लोकोत्सव को संज्ञान वातावरण में मनाये जाने की परम्परा को अक्षुण बनाये रखने की। इसका दायित्व है उन सभी सांस्कृतिक परम्परा के प्रेमियों एवं पोषकों पर जिनका इससे लगाव है और जो सिर्फ पर्यटक व्यवसाय की दृष्टि से न देखकर भारत के सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से देखने के हिमायती हैं।
राजस्थानी में कहावत भी है तीज तींवारा बावड़ी ले डूबी गणगौर | अर्थ है की सावन की तीज से त्योहारों का आगमन शुरू हो जाता है और गणगौर के विसर्जन के साथ ही त्योहारों पर चार महीने का विराम आ जाता है |गणगौर के बाद बसन्त ऋतु की बिदाई व ग्रीष्म ऋृतु की शुरुआत होती है।
डॉ सरस्वती माथुर
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