मंगलवार, 15 दिसंबर 2015



कहानी— 'पूर्व संध्या'
राधा देवी ने रोज़ की तरह अपना कंप्यूटर ऑन किया, पासवर्ड देकर डायरी का पन्ना खोला लेकिन जाने क्यों उनका कुछ भी लिखने का मन नहीं हुआ। उनकी बहू विभा कंप्यूटर इंजिनियर थी। उसने उनकी वेबसाइट बना दी थी और जब भी वह अमेरिका से आती थी उन्हें काफी कुछ सिखा जाती थी।
कंप्यूटर विंडो पर 'गूगल टॉक’ की खिड़की खोल कर राधा देवी ने सरसरी निगाहें डाली तो पता लगा कोई भी आनलाईन नहीं है न उनके बच्चे न पति। वे उठीं और मेज़ पर बिखरे काग़ज़ों में कुछ ढूँढ़ने लगीं। नए साल के अवसर पर बच्चों का अमेरिका से ग्रीटिंग कार्ड आया था। उन्होनें एक सरसरी निगाह उस कार्ड पर डाली। फिर अमृतयान निकेतन काटेज की अपनी बालकनी में कुर्सी पर बैठ कर वे वहाँ से दूर दिखाई देती झील को देखने लगी।
अजमेर शहर से थोड़ा बाहर झील के किनारे बना यह वृद्धाश्रम और स्वास्थ्य केन्द्र जिसका नाम अमृतयान निकेतन है चारों तरफ़ से पेडों से घिरा है। दूर तक फैली हरी पहाडियाँ यहाँ से बिल्कुल साफ़ दिखाई देती हैं।
संस्था की सफेद इमारत जो पहाडी और पानी की झील के बीच बनी हुई है राधा देवी को बहुत अच्छी लगती है।इसी आनासागर झील के ऊपर निकेतन का लॉन है जहाँ अक्सर चहल पहल रहती थी। नीचे की तरफ़ घास का एक ढलान दूर तक चला गया है जिस पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बैठने की बैंचें बनी हुई हैं। यहीं से एक पगडंडी सीधे झील की तरफ़ उतर गई है।
उनका बेटा और बेटी जब भी घर आते थे वे उनके साथ झील की बारहदरी तक टहलने जाती थीं। अब बारहदरी तक आने जाने में वे थकान महसूस करती हैं। वे पगडंडी की एक बेंच पर बैठ गईं और पुरानी यादों को बादलों को धीरे-धीरे उड़ते देर तक देखती रहीं।

कल की सी बात लगती है वे जीवन की आपाधापी में भागती दौड़ती रहती थीं। खुद कार चलातीं, पहले ऑफिस, फिर ऑफिस की निर्धारित समय सारणी से समय निकाल कर अमृतयान निकेतन की सभा में जातीं। घर आकर खाना बनातीं बच्चों के स्कूल की टीचर पैरेन्टस मिटिंग में अक्सर उनको ही उपस्थिति दर्ज करानी होती थी। अपनी ख़रीदारी पति के दौरों की तैयारी, घर को सुव्यवस्थित रखना हर चीज़ पर उनकी निगाह रहती।
धीरे-धीरे समय पंख लगा कर उड़ गया। अब तो बच्चे भी घरौंदा छोड़ कर अलग-अलग दिशाओं में उड़ गए हैं। बेटी बेला की शादी एक संपन्न परिवार में यथासमय हो गई है और बेटा पलाश अमेरिका में माइक्रोसोफ्ट में इंजिनियर है। बहू भी उसी के साथ काम करती है। एक प्यारा-सा पोता साहिल है और एक दोहिती जिया। खाली समय में कंप्यूटर पर पति या बच्चों में से कोई न कोई मिल ही जाता है और चैटिंग चलती रहती है इस कारण राधा देवी को कभी अकेलापन नहीं लगता है। पति का टिम्बर बिजनेस अच्छा चल रहा है। वे उसमें इतने व्यस्त रहते हैं कि घर पर खाली बैठने का उन्हें समय नहीं मिलता। अकसर शहर के बाहर आना जाना रहता है। इसलिए राधादेवी भी अपनी पसंद के अलग-अलग कामों में व्यस्त रही हैं। पगडंडी की बेंच पर सुस्ताते हुए राधा देवी अकसर अतीत के वे पुराने दृश्यों में खो जाती हैं।

अमृतयान निकेतन से उनका जुड़ाव नया नहीं है। इसकी स्थापन उनकी एक सहेली के पिता ने ही की थी। स्थापना के दिनों से ही वे इससे जुड़ी हैं और यहाँ आती-जाती रही हैं इसके कार्यक्रमों में हिस्सा भी लेती रही हैं। पर वह नियमित जुड़ाव नहीं था। पिछले दिनों सेवानिवृति के बाद से वे यहाँ स्थायी रूप से रहने लगी हैं। एक तो सेवा निवृत्ति के बाद का खालीपन फिर किसी काम में लगे रहने की इच्छा, इस पर सहेली का आग्रह देखकर उन्होंने अमृतायन निकेतन संस्था के प्रशासनिक कार्यों का उत्तरदायित्व सँभाल लिया है। शुरू में उनके पति इस काम के प्रति उनका लगाव देखकर आश्चर्य में पड़ गए थे, कुछ झिझके भी थे, पर उनकी रुचि को देखकर कुछ नहीं बोले। वे वैसे भी इस शहर में चार छह महीने ही रह पाते थे। पत्नी के मन को उनसे बेहतर कौन समझ सकता था सो उन्होंने उन्हें यहाँ रहने की अनुमति दे दी। वे घर आती जाती रहती हैं। पति बच्चे या रिश्तेदार आते है तो सब घर में एक साथ ही रहते हैं।
अमृतयान निकेतन में साठ साल से अधिक की उम्र के महिला व पुरुष अपना दिन व्यतीत करने आते हैं। बहुत से वरिष्ठ सदस्य यहाँ बने कॉटेजों में रहते भी है। जो लोग बाहर से आते हैं वे शाम को घर लौट जाते हैं। अस्पताल द्वारा यहाँ के इन वयोवृद्ध सदस्यों के लिए निशुल्क चिकित्सा व्यवस्था है। यहाँ आने से सदस्यों के दोनों काम हो जाते हैं। स्वास्थ्य की देखभाल भी और अपनों से मिलना जुलना भी।
पिछले कुछ दिनों से राधा देवी के पति भी उनके पास रहने लगे हैं। वे समझते हैं कि यह काम राधादेवी के लिए कितना महत्त्वपूर्ण है। इसलिए यदाकदा उनकी सहायता भी करते रहते हैं। खाली समय में राधा देवी के लिखने पढ़ने का शौक भी साथ-साथ चलता रहता है। कंप्यूटर जो साथ है। वे धीरे-धीरे ही सही पर ज़माने की बदलती चीज़ों को अपनाती रही हैं।
अमृतयान संस्था की निधार्रित समय सारणी काफी व्यस्तता से भरी हुई है। कभी चिकित्सा शिविर आयोजित करवाना कभी संस्था के लिए फाइनेंस जुटाने के लिए इधर उधर लोगों से मिलना। कभी सदस्यों के लिए कार्यक्रम आयोजित करवाना तो कभी किसी वृद्ध की अचानक तबीयत खराब हो जाने पर उसकी संपूर्ण व्यवस्था करना। यों तो काम करने वाले लोग हैं लेकिन ज़िम्मेदारी तो आखिर उन्हीं की है जिसे निभाती भी वे उसी कुशलता से हैं जिसकी अपेक्ष लोग रखते हैं।
संस्था में सुबह का नाश्ता और रात का खाना एक साथ मिलकर एक बड़े भोजन कक्ष में संपन्न होता है। बड़ा सौहार्दपूर्ण हँसी खुशी का माहौल रहता है। श्रीमती पुरी के चुटकले इस भोजन सभा का सबसे बड़ा आकषर्ण होते हैं। अभी कल ही उन्होनें सुनाया था कि आजकल हम जिस युग में जी रहे हैं वह बहुत प्रगतिशील हैं। सभी सदस्यों ने यह सुनकर कुछ उत्सुकता क़ुछ चिन्ता से उनकी ओर प्रश्नवाचक निगाहें डाल दीं। वे मुस्करानें लगीं और चुटकला आगे बढ़ा, ''एक बच्चे ने जन्म लिया। नर्स उसको नहला धुला कर माँ के पास ले जाने को तैयार हो रही थी तो बच्चा बोला नर्स जी 'आपके पास मोबाइल है?''
नर्स ने पूछा, ''हाँ क्यों?''
बच्चा बोला, “मोबाइल से बात करके ईश्वर को सन्देश दे दूँ कि मैं ठीक से पहुँच गया हूँ।“
सभा में एक ठहाका गूँजा और हॉल की खिड़की से निखर आई धूप, किरणों के साथ सबको तरोताजा कर गयी। श्रीमती पुरी के जवाब में हँसते हुए श्रीमती कुन्तल ने आगे जोड़ा, ''सही है मैडम आने वाले समय बच्चे पैदा होते ही बोलने लगेंगे।'' सभी सदस्य एक बार फिर हँसने लगे।
राधादेवी यहाँ के सदस्यों के साथ आत्मीयता महसूस करती हैं। बिलकुल तो नहीं पर यहाँ रहने वाले लोगों का जीवन कुछ न कुछ उनसे मिलता ज़रूर है। वही बच्चों का नीड़ से उड़ जाना और अपना दाना खोजने की व्यस्तता के चलते माँ बाप से लगकर न रह पाना। जीवन का यह समय सभी के पास आता है। जब माता पिता को बच्चों की आवश्यकता होती है वे अपने बच्चों के लिए जीवन का हर पल दाँव पर लगाए होते हैं। यही संसार का नियम है। स्वयं वे अपने माता पिता की कितनी देखभाल कर पाई थीं? शायद यहाँ पर काम करते हुए वे उसी कमी को पूरा करने की कोशिश करती हैं।

दिसंबर माह के अंतिम सप्ताह में धूप थोडी और मुलायम हो जाती है। उन्होंने बाल्कनी में पसरी धूप को हथेलियों से छुआ। धूप की एक रेखा अमृतयान संस्था के लॉन में लगे फव्वारे पर चिड़िया की तरह हिल रही थी। बाहर सत्संग हॉल में जाना था कुछ काम भी निपटाने थे। वे उठीं और तैयार होकर कमरे में ताला लगा कर तेज़ कदमों से सत्संग हॉल की तरफ़ चल पडीं। नए साल की तैयारियाँ भी करनी थीं। इस अवसर पर विशेष प्रार्थना और भोजन का प्रबंध करना था। कुछ अतिथि भी बुलाए गए थे। उनका प्रबंध देखना था। हल्की फुल्की सजावट और सफाई भी करवानी थी।
शाम कब हो गयी राधा देवी को रोज़ की तरह पता ही नहीं चला। इस शहर में दिन की रोशनी खत्म नहीं होती थी कि आकाश में तारे टिमटिमाने लगते थे और दूर की पहाडियों से शर्माता हुआ चाँद धीरे-धीरे ऊपर उठकर उनके कमरे की खिड़की पर आकर टिक जाता था। वे जीना चढ़कर ऊपर आईं, गलियारा पार किया और कोहरे से धुँधली उस बत्ती के नीचे खडी हो गईं जो उनके कमरे के सामने जल रही थी। चाभी पर्स में से निकाल कर उन्हानें ताला खोलने के लिए हाथ बढ़ाया पर दरवाज़ा तो पहले से खुला था। डर की एक लहर उनके पूरे शरीर में दौड़ गई।
एक ही पल में वे अच्छी बुरी कई बातें सोच गईं। क्या पति लौट आए हैं? उन्होनें धक्का देकर दरवाज़े को ठेला तो एक क्षण के लिए आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। वे जैसे अनोखे अनुभव में डूब गईं। वहाँ खडे थे बेटा पलाश, बहू बेला, पोता साहिल, दोहिता जिया और उनके पति। सबने नए साल पर उनको अचानक उपस्थित हो आश्चर्य में डाल देने की योजना बनाई थी। इसीलिए पहले से कोई जानकारी या सूचना नहीं दी थी। परिवार के शोरगुल और स्नेह के इन सूत्रों ने अचानक उपस्थित होकर एक पल में उनका जीवन बदल दिया।
''तभी तुम लोग आनलाइन नहीं दिख रहे थे मुझे चिन्ता भी हुई फोन पर वायस मेल लगा था।'' वे मुस्कराईं।
''हमने पापा के साथ तय कर लिया था कि इस बार का नया साल हम धूमधाम से मनाएँगे।'' बहू ने राधादेवी को बाहों में समेट कर कहा। पलाश ने भी अपनी दोनों बाहें माँ के इर्द गिर्द लपेट दी। राधादेवी को लगा इससे अच्छा नए साल का उपहार और क्या हो सकता है कि साल शुरू होने के कुछ पल पहले ही दूर-दूर स्थित उनके अपने उनके पास आ जाएँ।
नए साल की पूर्व संध्या पर 'अमृतयान निकेतन के इस काटेज के कमरे में एक विशेष सुगन्ध थी। कमरा फूलों से भरा था और मेज पर एक केक रखा था। राधा देवी को एक हल्के विस्मय के साथ सब कुछ सपने-सा लग रहा था। वे जीवन के किसी सुन्दर उद्धरण पर पहुँच गई थीं। परिवार अगर एकसूत्र रहे, स्नेहिल हो तो जीवन गतिमान हो जाता है। एक स्वप्निल-सी मुस्कराहट उनके पति के चेहरे पर भी थी। वे मिल कर नए साल के पहले पल में एक साथ प्रवेश करने वाले थे। घड़ी के बारह बजाते ही ''दादा-दादी ने मिलकर नए साल का केक काटा। परिवार ने उन्हें मेज़ पर चारों ओर से घेर रखा था। जलती मोमबत्ती का प्रकाश राधादेवी के चेहरे पर दीप्त हो रहा था। राधादेवी जैसे किसी लम्बी नींद से धीरे-धीरे बाहर आ रही थीं।
खुले दरवाज़े से मौसम की सर्द हवा का एक झोंका कमरे में घुस आया। बहू ने उपहार में लाया हुआ शॉले उनके कंधों के चारों ओर लपेट दिया। राधादेवी को लगा कि बस यही पल है जब आदमी चाहता है कि कुछ क्षणों के लिये समय ठहर जाए। चाँद भी मुस्कराता हुआ चाँदनी के साथ ऊपर उठ रहा था। साल के पहले दिन की सर्द रोशनी में एक नीली-सी धुँध झील पर घिर आई थी। राधा देवी ने केक खिलाते अपने बच्चों एवं पति को जब प्यार से देखा तो एक हल्की सी कृतज्ञता की मुस्कराहट उनके चेहरे पर भी झलक आई।

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