सोमवार, 2 नवंबर 2015

क्षणिकाएँ.... नयी रचनाएँ !

मैं उदास थी
खामोश रात थी
देर तक चाँद से
बतियाती रही
मन की अनकही बातें
दोस्त मान उसे
सुनाती रही

मुझे  लगा
चाँदनी ने ओस सा
भीगापन टपका कर
उस रतजगे पर
अपनी मोहर लगा दी
और मुझे लगा
मैं अपनी भावनाओं की
वसीयत बना
उसे सौंप दी है
सुरक्षित रखने को l
17.3.15)

2
कभी कभी
घायल पाखी सी
रात भी छटपटाती  है
अमावस पे मौन हो
वो दर्द से कराहती है
बिना चाँद चाँदनी के
सुबह होने पर
उसकी सांसें तन्हाई केउसे सौंप दी है
समुन्द्र में डूब जाती है
देर तक अकेलेपन की
किरचियाँ जलपाखी सी
तिरती रहती है

जब फिर लौट के
 आता है चाँद तो
रात के गले लग
 पूरे आकाश में
बुनता रहता है
जुदाई के अनकहे
लम्हों को रिश्तों के
यह अलाव पूनम तक
जलते रहते हैं
उनके पाक रिश्तों की
 कहानी कहते हैं l
3

"बांस हूँ मैं !"
अभिनंदन करो
मेरे अस्तित्व को
रंगों से भरो
 मेरा मौन
 मेरा दर्शन है
राग रागिनी का
अद्भुत संगम है

मेरी खोखल का शून्य
बांसुरी बन जाता है
मेरे मौन को वाणी देता है
चिंतन करो
मुझे ना काटो
 हरीतिमा भर
मेरी डाली बन
जंगल में
मंगल  कर डालो

कोयल जब
मेरे झुरमुट में
आकर बोलती है
मेरी वर्णमाला में
रंग भर देती है
मुझे ना छाँटो
हवा ,धूप ,रंग
निरंतर बदल रहे हैं
 पुराने गांवों में
आज भी मैं
 झोंपड़ी का बाड़ा हूँ
पशुओं का भी मैं
मनपसंद चारा हूँ

बांस हूँ मैं
मुझे ना बांटो न
कृषक ,श्रमिक
व लेखकों का
चिरसखा हूँ
नहीं मैं बंजारा हूँ
 मुझे सँवारो
 जंगल की
 जीवनदायिनी
 सांस हू मैं !
डॉ सरस्वती माथुर




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