बुधवार, 4 नवंबर 2015

मेरी कविता...."रेत के घरोंदे!"

हमेशा ही
कमजोर नहीं होते
 रेत के घरोंदे
देखती हूँ कई बार
बेलागाम दौड़ती
समुंद्री लहरे भी
उन्हे नहीं ढहा पातीं
कैसे ढहातीं
वो तो  धीरे  धीरे
मजबूत हुआ था
उसकी दीवारों के
 इर्द गिर्द समय ने
विश्वास की पथरीली
 बाड़ लगा दी थी
जिसे रोज समय
विश्वास की अपनी
 मुस्कराहट की
धूप से सींचता था
चाँद अपनी चाँदनी संग
वहाँ बैठ घंंटों
 बतियाता था क्योंकि
हवाएँ वहाँ रोज
नए सपने बुनती थीं
और ममत्व भरी
रात वहाँ सितारों के साथ
जगराता करती थी
 फेन अपने चिलमन से
ढक उसे रोज
संवारती थी और
बहुत सी समुंद्री चिड़ियाएँ
वहाँ अपने पंख खोल
चक्कर लगाती थी
वहीं इस घरोंदे के पास
अशब्द गूंगे
 पत्थरों ने शिवालया
उकेर दिया था
और जल ने अपना
 नमक बिखेर कर
मिथकों को कैद में
बांध कर एक
नाम दिया था
यह रेत का घरौंदा
सभी के लिए अपने
मौन को मुखर करने का
माध्यम था क्योंकि
यह प्रेम का द्वीप था l
डॉ सरस्वती माथुर
15.6.15 को रची

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