मंगलवार, 24 नवंबर 2015

"शब्दों की अनुगूंजे!"

आज वह मलंग
उदास चेहरे पर
परिचित मुस्कान लिये
फिर मेरे द्धार पर आया था
इस बार वह ढोलक नहीं
इकतारा लाया था

दूर तक गूँजती
 उसकी काँपती आवाज़ में
आत्मविश्वास से भरा
"अल्लाह मेरी झोली भर दे "का
दर्द भरा गीत था तो
पपड़ाये होंठों पर मासूम
बच्चों सी मासूम
  थरथराती हँसी भी थी

मैं उसकी आवाज़ से
सम्मोहित हो
 द्वार पर आई तो
मेरे माथे पर लगी
कुमकुम की बिंदी
देख कर उसने
ईश्वर को भजन में
पिरो के एक
 समाँ सा बांध दिया
 देर तक गूँजते शब्द
ऊंचा आलाप पकड़ कर
 गहरे होते गये 
कुछ यूँ संदेश देते से कि
"ए मालिक तेरे बंदे हम
ऐसें हों हमारे करम "

मुझे अपने शब्दों से
छूने के बाद वो
अगले द्वार पर जा रूका
उसके गले का
 कंपन प्रकंपन
प्रार्थना के संवेदना से
 लबालब भर गया था
संवेदना की इस यात्रा में
ईसा का सलीब देख
उसका माथा श्रद्धा से झुका
देखा मैंने ,उसके गीत के
बोलों का भाव बदल गया था

सच तो यह था कि
उसके गीत के भाव हर
द्वार पर मौसम की तरह
बदल जाते थे
कहीं सबद ,कहीं भजन
 कहीं क़व्वाली
कहीं प्रार्थना के सुरों में
अपने आप ढल जाते थे
उनमें हर क्षण कुछ
नया जुड़ जाता था
हाँ अगर कुछ नहीं
बदलता था तो वह थी
उसके शब्दों की अनुगूँजें
और उसकी आँखों में
सबके मन को गहराई से
छू लेने की उसकी
अव्यक्त कोशिशें

 उन सब से ऊपर
पेट की ज्वाला से
 कुन्दन हुये उसके
सुर की दिवानगी
 जो दिन ब दिन
निखार रही थी
उसकी पुरसुकून
दर्द भरी आवाज़
और निरंतर बदलते
 उसके शब्दों को
 सुर देते उसके
 हमसाथी- हमनवाँसाज !
............................................
"पहचान का रंग !"
चिड़िया जागी थी
तरु तरु भागी थी
तुमने ऐसा क्या किया
जो वो उड ना पायी
हरियाली ढूंढती रही
पर किसी भी पात से
जुड़ नही पायी
जबकि सुना है हमने कि
पहचान का रंग
हरा होता है
अपने घर आँगन में
विश्वास पुरजोर
भरा होता है पर
वो चहचाहती चिड़िया
अब खामोशी के
 घरोंदे बुनती है
बिना बोले  ही
गीत गुनती है
जाने तुमने ऐसा
 क्या किया कि
बोल मुखरित कर ना पायी

क्यों खींच दी वर्जनाएं
उसके इर्द गिर्द कि
वो चाह कर भी
ऋतुओं से संवाद
कर नहीं पायी
जबकि ऋतु भी
 जानती थी कि
वो तो संगीत रचयिता है
सूरज ,धूप,फूल
,तितली को सहलाती
 चंचल सी खुली हवा है
फिर भी एक साधक सी
आजकल वो
 वो गहरे  मौन में रहती है
 अपने मन की बात
 किसी को नहीं कहती है l













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