मंगलवार, 10 नवंबर 2015

जलता दीप/ शुभ दीपावलीआई

"जलता दीप!"
कौन कहता है
मेरी देहरी पर
जलता दीप
आँधी तूफानों से
लड़ता नहीं है
वह जलता है
रिसता है फिर
कशमकश के बाद
बुझता है
तलवार सी
जलते दीप की लौ को
कई बार मैने
वार करते देखा है
विश्वासों की बाती को
लड़ते देखा है
रात भर जुगनू सा
उड़ते देखा है
कतरा कतरा तेल में
सिकुड़ते देखा है
परिशून्य में अन्त तक
दीप के जादुई
सम्मोहन को
तब तक कंपकंपाते
थरथराते देखा है
जब तक भोर की
पहली किरणे
अपनी झीनी रोशनी मेँ
सुरक्षा कवच तोड
कालिमा की सियाही को
चौखट पर दर्प से उगते
सूरज की वेदी पर
समाहित कर 
उसके अस्तित्व मेँ ख़ुद
समर्पित नहीं हो जाती
तब तक दीप को
 मैने जलते देखा है!
2
"शुभ दिवाली आई !"
तिमिर मिटाने
लड़ियाँ दीपों की सजी
शुभ दीवाली आई
चहुं दिशाएँ
जगमग चमकी
रातरानी दहकाईं

आँगन चौबारों में
रँगोली थापी
अमृत बरसाती रातें
पटाखों से काँपी
पावन धरा पर
माँ  लक्ष्मी  मुस्कुराईं

बंदनवारों से
घर देहरी लहकीं
जयोतिमय फुलझडियां
चिडचिड करती चहकीं
समता सदभाव करूणा की
अनुपम ज्योत झिलमिलाई।
डाँ सरस्वती माथुर ।


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