शुक्रवार, 22 मई 2015

श्रम का बीज

श्रम का बीज
उस दिन सर्दी बहुत थी lधूप में भी तेजी नहीं थी धुंध का पर्दा हवा में रह रह कर काँप उठता था lअलसाई सी इस सुबह किसका मन होता है बाहर निकलने का ,पर भंवरी  को तो जाना ही होगा lभंवरी उठ खड़ी हुई ,उसने बोरी उठाई और कचरा बिनने चल दी lरोज का यही नियम था lकचरे से बटोरी हर चीज़ वह अपने बोरे में तरतीब से सहेज लेती  lबच्चों के उठने से पहले ही घर लौट आती l उसके बच्चे उससे कभी नहीं पूछते कि वह कहाँ काम करती है iउसने उन्हे बस इतना बता रखा था कि वह एक सेठानी के यहाँ  मालिश करने जाती है और उसे महीने के चार पाँच हज़ार रुपये मिल जाते हैं और  भंवरी के पति की चार  हज़ार तक पेंशन मिल जाती है ,गुजारा हो जाता है ,भंवरी के पति बीमा कंपनी के एक सरकारी दफ्तर  में चपड़ासी थे , अचानक उनकी मृत्यु हो गयी थी तो उसके बाद से मजबूरन उसे भंवरी को यह काम करना पड़ा l
भंवरी अनपढ़ थी उसे कहीं काम नहीं मिला तो उसे सेंट्रल पार्क के माली ने यह सुझाव दिया ,तब से वो इसमें जुट गयी lअब वह बूढ़ी हो गयी है और इस काम में अभ्यस्त भी lउसकी मेहनत का ही फल था कि दो  बेटे  इंजिनियरिंग में पढ़ने  चले गए ,कुछ उसकी जमा पूंजी थी ,कुछ बच्चों की तकदीर कि उन्हे वहाँ स्कॉलरर्शिप मिल गयी lबेटी बड़ी थी उसने बी एड करके एक स्कूल में नौकरी कर ली और एक सहयोगी अध्यापिका के कहने पर आई॰ ए॰ एस का इम्तिहान दे डाला और चयनित हो गयी l झुग्गी झौंपड़े से क्वार्टर और वहाँ से सरकारी बंगले में पहुँच गयी l
समय का जादूगर क्या क्या करतब दिखाता है, आज भंवरी बेटी का सम्मान समारोह था lझुग्गी झौंपड़ी में पाली बढ़ी एक लड़की ने जीवन संघर्ष  की जमीन देखने के बाद  इतना बड़ा ओहदा पाया था ,भंवरी कैसे अपनी आँखों से ना देखती l वह भी बेटी के साथ चमचमाती कार में कोटा डोरिया की नीली साड़ी पहन कर गर्व से पहुंची थी ,सम्मान से प्रथम कतार में उसे बिठाया गया था l फूल मालाओं से लदी बेटी ने माइक संभाला और जनता को संबोधित किया --"मान्यवर , बहुत बहुत आभार मुझे सम्मान देने के लिए लेकिन इस सम्मान की सही में हकदार मैं नहीं कोई और है ,आज मैं  दो शब्द उनके बारे में कहने को खड़ी हुई हूँ पहली कतार में  यह जो हाल में  बिलकुल मेरे सामने की सीट पर  नीली साड़ी में जो महिला बैठी है ,वो मेरी माँ है...भंवरी देवी !दरअसल यह उनका ही आशीर्वाद है क्योंकि  मुंह अंधेरे यह उठ कर कचरा बिनने जाती थीं, उसे कबाड़ी को बेच कर उससे जो पैसा  उससे हमारा पेट भरती थीं l   इन्होने हमे झूठ भी कहा कि यह सेठानी के घर मालिश करने जाती हैं ,लेकिन यह झूठ हमारे लिए एक चिराग की  रोशनी कि तरह था जो बार बार हमें  अहसास कराता था कि हमें जीवन संघर्ष में सच की ओर जाना है और कुछ कर दिखाना  है lमेरी माँ उस कचरे में से जो छोटी  छोटी पेंसिलें  एकत्रित करके लाती थी उनसे मैंने लिखना सीखा l
 आज मैं बताना चाहती हूँ कि बड़े बड़े महलों व घरों में रहने वाले लोग सच के बोरे में झूठ  भरते रहते हैं ,पर मेरी माँ रोज कचरे की बोरी में मेरे लिए एक नयी चुनौती भर के लाती थी lमैं चाहूंगी कि मेरी माँ भंवरी देवी को मंच पर बुलाया जाये ताकि मैं उनके चरण स्पर्श करके सबके सामने गर्व से यह कह सकूँ कि कचरा बीनने वाली मेरी माँ सही अर्थों में एक कर्मवीर  महिला है जिन्होने अपने जीवन के हसीन खवाबों को अपने बच्चों क आँखों में देखा है lमाँ आज मैं एक बेटी होने के नाते से कहना चाहूंगी कि मैं जीवन भर आपके श्रम के बीज़ को सींच कर आने वाली बेटियों के लिए एक नयी दुनिया रचूँगी ,हर शनिवार ,इतवार को झुग्गी झौंपड़ियों में जाकर नि:शुल्क बेटियों को पढाऊँगी ,उन्हे पत्थर  से तराश कर हीरा बनाऊँगी l
हाल  तालियों से गूंज रहा था ,तालियों की   गड़गड़ाहट में भंवरी देवी ने देखा कि सब खड़े हैं और वह हक्की बक्की सी मंच पर खड़ी सोच रही है पर मैंने ऐसा क्या किया ? हाँ एक हीरे सी बेटी जरूर पैदा की है lआँखें मूँदे वह देर तक हाथ जोड़े मंच पर  खड़ी रही l
डॉ सरस्वती माथुर

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