" फादर्स डे!"
शांति स्वरूप जी आराम कुर्सी से टिके गुमसुम बैठे प्रेम आश्रम में हो रही फादर्स डे की तैयारियों को देख रहे थे ! पिता दिवस और माँ दिवस को आश्रम वाले विशेष रूप से मना कर यहाँ रहने वाले बुजुर्गों को सम्मान देते हैं और उनके प्रति आदर का भाव प्रकट करते हैं ! अब तो इस आश्रम की यह परंपरा ही हो गयी है !इस दिन बिलकुल उत्सव का सा वातावरण हो जाता है ! यह आश्रम भी एक परिवार की तरह ही तो है ! चौंधियाई आँखों से शांति स्वरूप जी ने आश्रम के बाग में नज़र डाली !दूधिया रोशनी में बोगनबेलिया की फूलों भरी टहनिया उन्हे बहुत अच्छी लग रही थी l
हवा के तेज झौंके खिड़की से अन्दर शांतिस्वरूप जी के कमरे तक आ रहे थे ! फादर्स डे के पहले दिन की यह शाम कुछ सिंदूरी थी !बोगेनबेलिया के बेंगनी फूल कुछ अधिक मस्ती के साथ झूम रहे थे एवं मन को प्रफुल्लित कर रहे थे !वह सुकून से बैठे थे पर बीच बीच में एकदम से बैचैन हो जाते थे !क्या कभी ऐसी बैचनी की शांति स्वरूप जी ने कल्पना की थी ?
वह आँखें मूँद कर याद करने लगे -पाँच साल पहले का वह दिन, जब उनकी सेवा निवृति करीब थी और वे इस दिन का बेताबी से इंतज़ार कर रहे थे ,यह सोच कर कि चलो जीवन भर की आपाधापी व भागदौड़ की जिंदगी खत्म हो जायेगी और चैन की शुरू !और इसी के साथ अब वह अपनी पत्नी मानवती जी के साथ बैठने का समय भी निकाल पाएंगे 1भरपूर पैसा तो मिलेगा ही साथ ही ग्रेचुटी,पी एफ और दूसरी जमा पूंजी भी होगी !वे जब मन किया पत्नी के साथ विदेश भ्रमण करने निकाल जाएंगे ,सुबह शाम सैर को जाएँगे l इससे मिलेगे ,उससे मिलेंगे !समय बड़े मज़े से बीतेगा l
इसी दौरान उन्होने लोन लेकर तीन कमरों का एक छोटा सा घर भी बनवा लिया था !सेवा निवृति होने से दो वर्ष पूर्व ही उसमें शिफ्ट भी हो गए थे lसब ठीक ठाक चल रहा था ,तब वे और भी निहाल हो उठे थे जब इलाहबाद से उनका बेटा श्रवण ट्रान्सफर लेकर उदयपुर उनके पास आ गया था lमानवती जी कि दिनचर्या तो तभी से बदल गयी थी lश्रवण के बेटे राघव के आ जाने से तो शांतिस्वरूप जी का छोटा सा घर किलकारियों से भर उठा था lघर में किसी चीज़ की कमी नहीं थी !शांतिस्वरूप जी ने बैचेनी से आँखें खोल दी और वर्तमान में लौट आये l अतीत के दरवाजे हौले से बंद हो गए लेकिन यादें जारी रहीं,l
सेवा निवृति के बाद दो साल तो एकदम ठीक से निकले लेकिन ज़िंदगी तब एकदम नीरस हो गई ,जब उनकी पत्नी मानवती जी अचानक हार्ट अटैक से चल बसी !घर में खाली समय बिताना मुश्किल हो गया l पीठ दर्द और डायबिटीज़ के कारण तबीयत भी ठीक नहीं रहती थीlसुबह शाम की सैर भी छूट गयी और विदेश भ्रमण का सपना तो मानवती जी साथ ही ले गईं l
श्रवण और बहू अपने अपने काम में व्यस्त रहते थे ,महाराजिनी घर में खाना बनाने आती थी तो घर में जरा हलचल रहती थी वरणा पूरी दुपहर वो लेटे लेटे गुजार देते थे l राघव भी किंडर गार्डेन स्कूल चला जाता था !घर आता था तो थोड़ी देर शांतिस्वरूप जी का मन लग जाता ,लेकिन घर का सूनापन जरा भी कम नहीं होता था, मानवती जी थीं तो घर कैसा चहकता रहता था lसच सहधर्मिणी दु:ख -सुख की अनिवार्य संगिनी होती है l
मानवती जी की आत्मीयता -अंतरंगता के अनुभव को उन्होने गत दिनों में बार बार अनुभव किया lतभी उन्हे एक दिन चक्कर आया और वह बाथरूम में गिर पड़े l श्रवण और उसकी बहू ने उनकी देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी ।छुट्टियाँ लेकर जी जान से सेवा भी की lदेखते ही देखते दिन गुजरते गये और एक दिन पीठ दर्द की वजह से उन्होने बिस्तर ही पकड़ लिया lघर और भी खाली खाली और सूना -सूना लगने लगा l
एक दिन अखबार में उन्होने एक एड पढा"प्रेम आश्रम "का , जहां बुजुर्गों के लिए सभी सुविधाएं थीं वहाँ चोबिस घंटे मेडिकल व नर्सिंग केयर का प्रावधान भी था और रोज सुबह शाम सत्संग होता था तो उन्हे लगा कि श्रवण और बहू को समझा कर वह वहाँ रहने चले जायेँगे lउनके हमउम्र साथी होंगे तो उनका मन भी लग जायेगा!
श्रवण और बहू के सामने जब उन्होने मन की बात कही तो दौनों ही राजी नहीं हुए ,पर जब उन्होने साफ कह दिया -"श्रवण मैं दिन भर अकेले रहते रहते उकता गया हूँ ,प्लीज ,कुछ समय आश्रम में रह आऊँगा यदि वहाँ मेरा मन नहीं लगा तो लौट आऊँगा l"
"ठीक है बाबूजी ,हम आपको वीक-एंड पर घर ले आया करेंगे l"बहू ने बहुत अपनेपन से ससुर साहिब की इच्छा का मान रखते हुए आश्वासन दिया l
आखिरकार शांतिस्वरूप जी "प्रेम आश्रम" में आकर रहने लगे lधीरे धीरे उनका मन भी लग गया , वह वहाँ की दिनचर्या में घुल मिलसे गए l वहाँ उनके कुछ दोस्त भी बन गए , दिन अच्छा गुजर जाता था lआश्रम के साथियों के साथ गपशप करते ,ताश खेलते और नियमित प्रवचन सुनते थे l हर वीक- एंड पर घर चले जाते थे l राघव से खेलते थे ,बेटे बहू से इधर उधर की बातें करते ,कुछ रिश्तेदारों के मिलने चले जाते या किसी को बुला लेते ,जीवन में उन्हे मज़ा सा आने लगा l
दो साल का लंबा अंतराल जाने कैसे मज़े में गुजर गया lलेकिन एक दिन शांतिस्वरूप जी को महसूस हुआ कि आश्रम की स्टीरिओटाइप्ड निर्धारित समय सारिणी से वे आजकल उकताने से लगे हैं l
प्रेम आश्रम कि दिनचर्या के बीच समय के साथ ही किताबों को पलटते हुए या दोस्तों से बतियाते हुए वक्त तो बीत जाता था ,क्षण और घंटे गुजरते जाते थे l ,लेकिन आँखें हमेशा दरवाजे की ओर रहती थी lजहां से हर वीकेंड श्रवण -बहू और राघव आते थे lपिछली बार भी आए थे तो उन्होने अपना चश्मा उन्हे डंडी बदलवाने के लिए दे दिया था lश्रवण ने कहा था -"मैं कल ही चश्में की नयी डंडी लगवा कर भिजवा दूंगा बाबूजी l"
लेकिन पिछले चार महीने से न तो श्रवण आया है न चश्मा पहुंचा है lफोन पर बहू से तीन- चार बार बात भी हुई थी तो बहू ने वोही घिसा पिटा जुमला दोहरा दिया --,"हाँ हाँ बाबूजी चश्मा तैयार है, बस एक दो दिन में आते हैं आपसे मिलने ,दरअसल इन दिनों मैं और श्रवण बहुत व्यस्त चल रहे हैं !"
व्यस्त चल रहें हैं शब्द शांतिस्वरूप जी को तीर की तरह लगा !आहत होकर उन्होने फोन करना भी बंद कर दिया! वह अखबार तक पढ़ नहीं पा रहे थे lकिताब के अक्षर भी उन्हे बिना चश्मे नज़र नहीं आते थे lबस किताबों के पन्ने यूँ ही पलटते रहते थे l टी॰ वी॰ भी बहुत धुंधला दिखता था l
कल फादर्स ड़े था और तीन चार दिन से तो उन्हे घर बहुत ही याद आ रहा था !साथ ही यह भी याद आ रहा है कि इस दिन श्रवण और बहू दोनों सुबह सुबह उनके पैर छू कर फ़ादर्स डे का ग्रीटिंग कार्ड देते थे! उनका स्पेशल पाइन ऐप्ल केक बनवा कर लाते थे और सब मिल कर काटते थे lआज उन्हे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि कैसे अपने मन को समझाएँ l अकेलेपन ,उदासी और सन्नाटे को तो वो सह सकते हैं पर बेटे बहू की उपेक्षा से बिंध कर भला वे कैसे जियेँ ?"
बाहर गरम हवा में अजीब से चुभन थी lकमरे की पारदर्शी काँच की खिड़की से शांतिस्वरूप जी उदास से बाहर लगी टिमटिमाती रोशनी देख रहे थे lतभी उन्हे लगा उनके कंधे पर किसी का हाथ है l उन्होने झटके से पीछे पलट कर देखा lउनका बेटा श्रवण व बहू खड़े थे lपोता राघव भी साथ था l तभी उन्हे रुंधी सी आवाज़ सुनाई दी --
"बाबूजी , देरी से आने के लिए हमें माफ कर दें lश्रवण का एक्सीडेंट हो गया था , आपके आशीर्वाद से वे ,बाल बाल बचें हैं ,चार महीने तक पलंग पर थे,इनकी हिप बोन फ्रेक्चर थी ,आपको बतलाते तो आप परेशान हो जाते, बाबूजी हमें आपकी भी बहुत चिंता रहती थी, पर जी कडा करना पड़ा ,कम से कम यहाँ आपकी देखभाल तो हो रही थी , इन्हे रोज फ़िजियोंथिरेपी के लिए ले जाना पड़ता था, वहाँ पर घंटो लगते थेl "बहू कि आंखो से आंसुओं कि अविरल धारा बह रही थीl
"चलिये बाबूजी, अब अपने घर चलिये ,अब और ज्यादा यहाँ रहने कि जरूरत नहीं है ,आपका वनवास पूरा हुआ "श्रवण ने रुँधे गले से कहा तो शांतिस्वरूप जी का दिल भी भर आया l
श्रवण अपनी पत्नी के साथ जल्दी जल्दी बाबूजी का सामान बैग में पैक करने लगा lशांतिस्वरूप जी से कुछ भी बोला नहीं जा रहा था l
"दादा ,आपको एक बात बतलाऊँ ,रोज पापा आपको याद करके बहुत रोते थे " मासूम राघव ने जब शांतिस्वरूप जी से कहा तो वे अपने आँसू नहीं रोक सके l अपने जीवन का इतना भावुक निष्कर्ष पाकर भला शांतिस्वरूप जी कैसे अपनी भावनाओं पर काबू पा सकते थे ! सभी ने भावुकता में बहने से अपने को संभाला !
फिर शांतिस्वरूप जी अपने बेटे बहू के साथ आश्रम के सभी साथियों से विदा लेकर घर की तरफ बढ़ गए !चलती कार में बैठे वे सोच रहे थे कि मनुष्य जीवन भी अजीब है ,मन में अगर उद्धिग्नता हो तो बाहर का खुशनुमा मौसम और ठंडी हवा कुछ भी नहीं सुहाता है और मन खुश हो तो बाहर का उदास मौसम भी सुहावना लगता है l
आज शांतिस्वरूप जी भी बहुत खुश हैं lघर पहुँच कर उन्हे बड़ी सुखद अनुभूति हुई lफादर्स डे का इससे बढ़िया तोहफा उन्हे भला और क्या मिल सकता था ! बच्चों के साथ उन्होने पहले घर के मंदिर में दिया जला कर आरती की और फिर फादर्स डे का केक काटा l शांतिस्वरूप जी सोच रहे थे कि वे कितने खुशनसीब हैं कि उन्हे इतना प्यार करने वाले बच्चे मिले उधर श्रवण और उनकी पत्नी सोच रहे थे कि घर का वातावरण बाबूजी के आने मात्र से ही गतिमान हो गया है !
डॉ सरस्वती माथुर
ए-2, सिविल लाइंस
जयपुर -6
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शांति स्वरूप जी आराम कुर्सी से टिके गुमसुम बैठे प्रेम आश्रम में हो रही फादर्स डे की तैयारियों को देख रहे थे ! पिता दिवस और माँ दिवस को आश्रम वाले विशेष रूप से मना कर यहाँ रहने वाले बुजुर्गों को सम्मान देते हैं और उनके प्रति आदर का भाव प्रकट करते हैं ! अब तो इस आश्रम की यह परंपरा ही हो गयी है !इस दिन बिलकुल उत्सव का सा वातावरण हो जाता है ! यह आश्रम भी एक परिवार की तरह ही तो है ! चौंधियाई आँखों से शांति स्वरूप जी ने आश्रम के बाग में नज़र डाली !दूधिया रोशनी में बोगनबेलिया की फूलों भरी टहनिया उन्हे बहुत अच्छी लग रही थी l
हवा के तेज झौंके खिड़की से अन्दर शांतिस्वरूप जी के कमरे तक आ रहे थे ! फादर्स डे के पहले दिन की यह शाम कुछ सिंदूरी थी !बोगेनबेलिया के बेंगनी फूल कुछ अधिक मस्ती के साथ झूम रहे थे एवं मन को प्रफुल्लित कर रहे थे !वह सुकून से बैठे थे पर बीच बीच में एकदम से बैचैन हो जाते थे !क्या कभी ऐसी बैचनी की शांति स्वरूप जी ने कल्पना की थी ?
वह आँखें मूँद कर याद करने लगे -पाँच साल पहले का वह दिन, जब उनकी सेवा निवृति करीब थी और वे इस दिन का बेताबी से इंतज़ार कर रहे थे ,यह सोच कर कि चलो जीवन भर की आपाधापी व भागदौड़ की जिंदगी खत्म हो जायेगी और चैन की शुरू !और इसी के साथ अब वह अपनी पत्नी मानवती जी के साथ बैठने का समय भी निकाल पाएंगे 1भरपूर पैसा तो मिलेगा ही साथ ही ग्रेचुटी,पी एफ और दूसरी जमा पूंजी भी होगी !वे जब मन किया पत्नी के साथ विदेश भ्रमण करने निकाल जाएंगे ,सुबह शाम सैर को जाएँगे l इससे मिलेगे ,उससे मिलेंगे !समय बड़े मज़े से बीतेगा l
इसी दौरान उन्होने लोन लेकर तीन कमरों का एक छोटा सा घर भी बनवा लिया था !सेवा निवृति होने से दो वर्ष पूर्व ही उसमें शिफ्ट भी हो गए थे lसब ठीक ठाक चल रहा था ,तब वे और भी निहाल हो उठे थे जब इलाहबाद से उनका बेटा श्रवण ट्रान्सफर लेकर उदयपुर उनके पास आ गया था lमानवती जी कि दिनचर्या तो तभी से बदल गयी थी lश्रवण के बेटे राघव के आ जाने से तो शांतिस्वरूप जी का छोटा सा घर किलकारियों से भर उठा था lघर में किसी चीज़ की कमी नहीं थी !शांतिस्वरूप जी ने बैचेनी से आँखें खोल दी और वर्तमान में लौट आये l अतीत के दरवाजे हौले से बंद हो गए लेकिन यादें जारी रहीं,l
सेवा निवृति के बाद दो साल तो एकदम ठीक से निकले लेकिन ज़िंदगी तब एकदम नीरस हो गई ,जब उनकी पत्नी मानवती जी अचानक हार्ट अटैक से चल बसी !घर में खाली समय बिताना मुश्किल हो गया l पीठ दर्द और डायबिटीज़ के कारण तबीयत भी ठीक नहीं रहती थीlसुबह शाम की सैर भी छूट गयी और विदेश भ्रमण का सपना तो मानवती जी साथ ही ले गईं l
श्रवण और बहू अपने अपने काम में व्यस्त रहते थे ,महाराजिनी घर में खाना बनाने आती थी तो घर में जरा हलचल रहती थी वरणा पूरी दुपहर वो लेटे लेटे गुजार देते थे l राघव भी किंडर गार्डेन स्कूल चला जाता था !घर आता था तो थोड़ी देर शांतिस्वरूप जी का मन लग जाता ,लेकिन घर का सूनापन जरा भी कम नहीं होता था, मानवती जी थीं तो घर कैसा चहकता रहता था lसच सहधर्मिणी दु:ख -सुख की अनिवार्य संगिनी होती है l
मानवती जी की आत्मीयता -अंतरंगता के अनुभव को उन्होने गत दिनों में बार बार अनुभव किया lतभी उन्हे एक दिन चक्कर आया और वह बाथरूम में गिर पड़े l श्रवण और उसकी बहू ने उनकी देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी ।छुट्टियाँ लेकर जी जान से सेवा भी की lदेखते ही देखते दिन गुजरते गये और एक दिन पीठ दर्द की वजह से उन्होने बिस्तर ही पकड़ लिया lघर और भी खाली खाली और सूना -सूना लगने लगा l
एक दिन अखबार में उन्होने एक एड पढा"प्रेम आश्रम "का , जहां बुजुर्गों के लिए सभी सुविधाएं थीं वहाँ चोबिस घंटे मेडिकल व नर्सिंग केयर का प्रावधान भी था और रोज सुबह शाम सत्संग होता था तो उन्हे लगा कि श्रवण और बहू को समझा कर वह वहाँ रहने चले जायेँगे lउनके हमउम्र साथी होंगे तो उनका मन भी लग जायेगा!
श्रवण और बहू के सामने जब उन्होने मन की बात कही तो दौनों ही राजी नहीं हुए ,पर जब उन्होने साफ कह दिया -"श्रवण मैं दिन भर अकेले रहते रहते उकता गया हूँ ,प्लीज ,कुछ समय आश्रम में रह आऊँगा यदि वहाँ मेरा मन नहीं लगा तो लौट आऊँगा l"
"ठीक है बाबूजी ,हम आपको वीक-एंड पर घर ले आया करेंगे l"बहू ने बहुत अपनेपन से ससुर साहिब की इच्छा का मान रखते हुए आश्वासन दिया l
आखिरकार शांतिस्वरूप जी "प्रेम आश्रम" में आकर रहने लगे lधीरे धीरे उनका मन भी लग गया , वह वहाँ की दिनचर्या में घुल मिलसे गए l वहाँ उनके कुछ दोस्त भी बन गए , दिन अच्छा गुजर जाता था lआश्रम के साथियों के साथ गपशप करते ,ताश खेलते और नियमित प्रवचन सुनते थे l हर वीक- एंड पर घर चले जाते थे l राघव से खेलते थे ,बेटे बहू से इधर उधर की बातें करते ,कुछ रिश्तेदारों के मिलने चले जाते या किसी को बुला लेते ,जीवन में उन्हे मज़ा सा आने लगा l
दो साल का लंबा अंतराल जाने कैसे मज़े में गुजर गया lलेकिन एक दिन शांतिस्वरूप जी को महसूस हुआ कि आश्रम की स्टीरिओटाइप्ड निर्धारित समय सारिणी से वे आजकल उकताने से लगे हैं l
प्रेम आश्रम कि दिनचर्या के बीच समय के साथ ही किताबों को पलटते हुए या दोस्तों से बतियाते हुए वक्त तो बीत जाता था ,क्षण और घंटे गुजरते जाते थे l ,लेकिन आँखें हमेशा दरवाजे की ओर रहती थी lजहां से हर वीकेंड श्रवण -बहू और राघव आते थे lपिछली बार भी आए थे तो उन्होने अपना चश्मा उन्हे डंडी बदलवाने के लिए दे दिया था lश्रवण ने कहा था -"मैं कल ही चश्में की नयी डंडी लगवा कर भिजवा दूंगा बाबूजी l"
लेकिन पिछले चार महीने से न तो श्रवण आया है न चश्मा पहुंचा है lफोन पर बहू से तीन- चार बार बात भी हुई थी तो बहू ने वोही घिसा पिटा जुमला दोहरा दिया --,"हाँ हाँ बाबूजी चश्मा तैयार है, बस एक दो दिन में आते हैं आपसे मिलने ,दरअसल इन दिनों मैं और श्रवण बहुत व्यस्त चल रहे हैं !"
व्यस्त चल रहें हैं शब्द शांतिस्वरूप जी को तीर की तरह लगा !आहत होकर उन्होने फोन करना भी बंद कर दिया! वह अखबार तक पढ़ नहीं पा रहे थे lकिताब के अक्षर भी उन्हे बिना चश्मे नज़र नहीं आते थे lबस किताबों के पन्ने यूँ ही पलटते रहते थे l टी॰ वी॰ भी बहुत धुंधला दिखता था l
कल फादर्स ड़े था और तीन चार दिन से तो उन्हे घर बहुत ही याद आ रहा था !साथ ही यह भी याद आ रहा है कि इस दिन श्रवण और बहू दोनों सुबह सुबह उनके पैर छू कर फ़ादर्स डे का ग्रीटिंग कार्ड देते थे! उनका स्पेशल पाइन ऐप्ल केक बनवा कर लाते थे और सब मिल कर काटते थे lआज उन्हे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि कैसे अपने मन को समझाएँ l अकेलेपन ,उदासी और सन्नाटे को तो वो सह सकते हैं पर बेटे बहू की उपेक्षा से बिंध कर भला वे कैसे जियेँ ?"
बाहर गरम हवा में अजीब से चुभन थी lकमरे की पारदर्शी काँच की खिड़की से शांतिस्वरूप जी उदास से बाहर लगी टिमटिमाती रोशनी देख रहे थे lतभी उन्हे लगा उनके कंधे पर किसी का हाथ है l उन्होने झटके से पीछे पलट कर देखा lउनका बेटा श्रवण व बहू खड़े थे lपोता राघव भी साथ था l तभी उन्हे रुंधी सी आवाज़ सुनाई दी --
"बाबूजी , देरी से आने के लिए हमें माफ कर दें lश्रवण का एक्सीडेंट हो गया था , आपके आशीर्वाद से वे ,बाल बाल बचें हैं ,चार महीने तक पलंग पर थे,इनकी हिप बोन फ्रेक्चर थी ,आपको बतलाते तो आप परेशान हो जाते, बाबूजी हमें आपकी भी बहुत चिंता रहती थी, पर जी कडा करना पड़ा ,कम से कम यहाँ आपकी देखभाल तो हो रही थी , इन्हे रोज फ़िजियोंथिरेपी के लिए ले जाना पड़ता था, वहाँ पर घंटो लगते थेl "बहू कि आंखो से आंसुओं कि अविरल धारा बह रही थीl
"चलिये बाबूजी, अब अपने घर चलिये ,अब और ज्यादा यहाँ रहने कि जरूरत नहीं है ,आपका वनवास पूरा हुआ "श्रवण ने रुँधे गले से कहा तो शांतिस्वरूप जी का दिल भी भर आया l
श्रवण अपनी पत्नी के साथ जल्दी जल्दी बाबूजी का सामान बैग में पैक करने लगा lशांतिस्वरूप जी से कुछ भी बोला नहीं जा रहा था l
"दादा ,आपको एक बात बतलाऊँ ,रोज पापा आपको याद करके बहुत रोते थे " मासूम राघव ने जब शांतिस्वरूप जी से कहा तो वे अपने आँसू नहीं रोक सके l अपने जीवन का इतना भावुक निष्कर्ष पाकर भला शांतिस्वरूप जी कैसे अपनी भावनाओं पर काबू पा सकते थे ! सभी ने भावुकता में बहने से अपने को संभाला !
फिर शांतिस्वरूप जी अपने बेटे बहू के साथ आश्रम के सभी साथियों से विदा लेकर घर की तरफ बढ़ गए !चलती कार में बैठे वे सोच रहे थे कि मनुष्य जीवन भी अजीब है ,मन में अगर उद्धिग्नता हो तो बाहर का खुशनुमा मौसम और ठंडी हवा कुछ भी नहीं सुहाता है और मन खुश हो तो बाहर का उदास मौसम भी सुहावना लगता है l
आज शांतिस्वरूप जी भी बहुत खुश हैं lघर पहुँच कर उन्हे बड़ी सुखद अनुभूति हुई lफादर्स डे का इससे बढ़िया तोहफा उन्हे भला और क्या मिल सकता था ! बच्चों के साथ उन्होने पहले घर के मंदिर में दिया जला कर आरती की और फिर फादर्स डे का केक काटा l शांतिस्वरूप जी सोच रहे थे कि वे कितने खुशनसीब हैं कि उन्हे इतना प्यार करने वाले बच्चे मिले उधर श्रवण और उनकी पत्नी सोच रहे थे कि घर का वातावरण बाबूजी के आने मात्र से ही गतिमान हो गया है !
डॉ सरस्वती माथुर
ए-2, सिविल लाइंस
जयपुर -6
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