बुधवार, 8 अप्रैल 2015

बाँसों पर रचनाएँ

 "बांस हूँ मैं !"
बांस हू मैं
वन में गूँजूँ
हवाओं से मिल कर
 सरगम बनाऊँ
बांसुरी बन जाऊँ
बांस हू मैं
खप्पचियाँ तराश के 
 रंग बिरेंगे कागजों से
मुझे सज़ा दो तो
पतंग बन जाऊँ
दूर नभ तक 
 चिड़िया बन
उड़ती जाऊँ
बांस हूँ मैं
तीर बनाओ तो
दूर तक जाऊँ
अर्जुन की आँख बन
लक्ष्य को साधूँ  
आकुल होकर
मौन समीर संग
गीत बनाऊँ
झुरमुट में
कोयलिया संग
प्रीत  निभाऊँ
बांस हू मैं
 कागज बन कर
शब्दों को  माँज कर  
अमृत बरसाऊँ
 जंगल में
 करने को मंगल
हवाओं में घुल जाऊँ
 जीवनदायिनी 
  सांस हू मैं
बांस हूँ मैं l
डॉ सरस्वती माथुर
 "अमृत धारा हूँ मैं !"
अभिनंदन करो
मेरे अस्तित्व को
 रंगों से भरो
 आंधियों से मत डरो
 मेरा मौन  मेरा दर्शन है
राग रागिनी का
अद्भुत संगम है
मेरी खोखल का शून्य
 बांसुरी बन कर
मेरे मौन को

वाणी  देता है
चिंतन करो
मुझे ना काटो
 हरीतिमा भर
मेरी डाली में
सृजन का अमृत भरो
 हवा ,रूप- रंग
निरंतर बदल रहे हैं
 पर आज भी
 कोयल मेरे
 झुरमुट में आके
 जब बोलती है
मेरे शब्दों की
वर्णमाला में
 रस घोलती है
मंथन  करो  
आज भी गाँव की 
झोंपडियों का
 सुरक्षित बाड़ा हूँ मैं
पशुओं का भी
मनपसंद चारा हूँ मैं  
मुझे सँवारो  
  
कृषक ,श्रमिक
और लेखकों की 
चिरसखा हूँ
साथ ही जीवन  को
 गति देने वाली   
 आक्सीजन की 
अमृत धारा हूँ मैं 
 शोभायमान करो l
डॉ सरस्वती माथुर

"बांस हूँ मैं !"
बांस हू मैं
वन में गूँजूँ
हवाओं से मिल कर
 सरगम बनाऊँ
बांसुरी बन जाऊँ
बांस हू मैं
खप्पचियाँ तराश के 
 रंग बिरेंगे कागजों से
मुझे सज़ा दो तो
पतंग बन जाऊँ
दूर नभ तक 
 चिड़िया बन
उड़ती जाऊँ
बांस हूँ मैं
तीर बनाओ तो
दूर तक जाऊँ
अर्जुन की आँख बन
लक्ष्य को साधूँ  
आकुल होकर
मौन समीर संग
गीत बनाऊँ
झुरमुट में
कोयलिया संग
प्रीत  निभाऊँ
बांस हू मैं
 कागज बन कर
शब्दों को  माँज कर  
अमृत बरसाऊँ
 जंगल में
 करने को मंगल
हवाओं में घुल जाऊँ
 जीवनदायिनी 
  सांस हू मैं
बांस हूँ मैं l
डॉ सरस्वती माथुर


 "अमृत धारा हूँ मैं !"
अभिनंदन करो
मेरे अस्तित्व को
 रंगों से भरो
 आंधियों से मत डरो
 मेरा मौन  मेरा दर्शन है
राग रागिनी का
अद्भुत संगम है
मेरी खोखल का शून्य
 बांसुरी बन कर
मेरे मौन को
वाणी  देता है
चिंतन करो
मुझे ना काटो
 हरीतिमा भर
मेरी डाली में
सृजन का अमृत भरो
 हवा ,रूप- रंग
निरंतर बदल रहे हैं
 पर आज भी
 कोयल मेरे
 झुरमुट में आके
 जब बोलती है
मेरे शब्दों की
वर्णमाला में
 रस घोलती है
मंथन  करो  
आज भी गाँव की 
झोंपडियों का
 सुरक्षित बाड़ा हूँ मैं
पशुओं का भी
मनपसंद चारा हूँ मैं  
मुझे सँवारो    
कृषक ,श्रमिक
और लेखकों की 
चिरसखा हूँ
साथ ही जीवन  को
 गति देने वाली   
 आक्सीजन की 
अमृत धारा हूँ मैं 
 शोभायमान करो l
डॉ सरस्वती माथुर
क्षणिका
हरियाता बांस
जंगल को
मधुबन करता
 गड कर बांस
 घर में मंगल करता
 इसका खोखल
अपने को चीर कर
सुर पिरो कर
बांसुरी की सरगम में
अमृत रस भरता  l
डॉ सरस्वती माथुर
नहीं हूँ फटा बांस
मैं तो राग साज का
अनमोल खज़ाना हूँ
ढफली बन कर
 सरगम सुनाता हूँ
 हवाओं के घुंघरू
मुझ से रंग लेते हैं
मैं नहीं रहा तो
 कैसे बजेगी बांसुरिया
क्यूंकी मेरे
अस्तित्व से ही तो
 सजती है कृष्ण की
 मनमोहिनी
 सुरमई रागिनी l
डॉ सरस्वती माथुर
हाइकु
1.
बांस खामोश
बनी बांसुरी तब


खोले गवाक्ष l
2
बांस के तने
बांसुरी में ढल के
रागिनी बने l
3
मौन है बांस
बनते ही बांसुरी
आगया सांस l
4
 हवा का भँवर
 बांस वनो में आया
झांझ बजाया l
5
मन भिगोते
बावरी हवा में
बांस के साज l
6
 बांस बजाता
हवा पर झांझर /बांसुरी
वन सुनता l
7
बांस के चंग
जंगल की हवा में
 भरते रंग l
8
नील गिरि पे
प्रहरी बन आया
बांस का फूल l
9
बांस के तीर
सृजन की कला है
 न देगी पीर  l
10
 तकली बन
सूत कातता बांस
देता है सांस / सृजन द्वार
डॉ सरस्वती माथुर
11
 कपड़ा बुनुं
बांस की तकली पे
प्रीत प्रेम का l
12
कोयल गाती
बांस के झुरमुट
अधर हिलाते l
13
हवा  नाचती 
हरियाले बांस  पे
गीत बाँचती l
14
 कोयल गान
बांस की डालियों पे
 मीठी मुस्कान l
15
प्रेम बांसुरी
हवा  को पोर कर
 बांसुरी गा  रे l
16
हवा के झारे
बांस को पोर कर
बांसुरी गा रे l
17
झूमे बयार
बांस के घोड़े पर
 होके सवार l
18
कोयल डोली
बांस के झुरमुट में
मिश्री थी घोली !
........................
नवगीत की कोशिश


"बाँसों के जंगल !"
पुरवा के निर्झर...
बाँसों से निकले
बतियाये- झूमें
हरियाये खिले
जीवन की साँसों को 



नया विश्वास दे गये

लहराते वनों को
अपलक निहारा
खेतों के आँगन को
सुरों से सँवारा
मुखरित मन को
नया मधुमास दे गये
गूँजी कोयल की कूक
तो गूंजा मधुर नाद भी
हरियायी वादियों ने
किया संवाद भी
बाँसों के जंगलों को
आहटों का विन्यास दे गये
जंगल में फिर
जब हो गया मंगल
मृग-मन कस्तुरी भी
हो गया चंचल
झुरमुटी बेपंख बांसो को
उड़ने को नया आकाश दे गये !
डाँ सरस्वती माथुर
"बाँसों पर पंख!"
पाखी से उग आए
जब बाँसों पर पंख
बजाये पुरवा ने ...
चपल शाखों के शंख
गूंजी मन शहनाई
याद तुम्हारी आई

सुआपाखी वन मे
कस्तुरी मृगी डोली
काली कोयलिया
डालन पर जब बोली
हुलस उठी अमराई
याद तुम्हारी आई
बाँसों की भूलभुलैया
घूमते चोर नयन
बरसों के रतजगे
देह में विरह अगन
पगुराती तन्हाई
याद तुम्हारी आई l
डॉ सरस्वती माथुर
"जंगल है बोलता !"
जंगल है बोलता
 उन्मुक्त पंछियों के 
 राग- रागिनी का है
 रस घोलता
 शाखों पत्तों से
 बतियाती हवाओं के
 उल्टे बांस बरेली तक है
 पंख खोलता
जंगल है बोलता
काटो मत
इनकी हरियाई कोंपलें
कहता डोलता
 बांस खप्पचियों पर
 वरणा  उल्लू बोलेंगे  
मन में जादू टोने  से  
राज टटोलता  
 जंगले है बोलता l
डॉ सरस्वती माथुर




"बांस की लाठी !"
मोहन को रात भर चुनाव के सपने आते थे !एक दिन उसे नारद जी दिखे ,पूछा -"बच्चे तुम चुनाव में खड़े क्यों नहीं हो जाते ?"
."पर जीतूँगा कैसे मेरे पास तो चुनाव चिन्ह भी नहीं है नारद जी ?"
.नारद जी बोले -"_अरे यार देख सुन ,अब हाथ है उसका चुनाव चिन्ह कहता है रुको मैं आ रहा हूँ ,तूने देखा न उसी मनोभाव से फैला रहता है हाथ का चिन्ह , । इसी तरह कमल कहता है मैं तो ऊपर ही देखता हूँ नीचे तो कीचड़ है ,झाड़ू कहता है लोगों को कचरा समझ इकट्ठा होते ही बुहारो ऐसा ही कुछ बना ले ...तू भी l"
." ओह धन्यवाद नारद जी, मैं ऐसा करता हूँ गांधी बाबा की बांस की लाठी ले लेता हूँ और बांस की तकली से काते कपड़े पहन प्रचार कर लूँगा"
."पर बांस की लाठी क्यूँ चुनी तुमने , अर्थ स्पष्ट करो ? "
."भाई नारद जी कोई वोट नहीं देगा तो बजा दूँगा न ...ठक ठका ठक ?"आजकल यही तो हो रहा है देश में ! संसद में भी बांस की लाठी काम आएगी "
.नारद जी नारायण नारायण करते निकल गए lतभी ठक ठक की आवाज़ से मोहन जागा माँ दादा जी की बांस की लाठी से पलंग की पाटी पर ठोकती कह रही थी --अरे नालायक बहरूपिये स्कूल नहीं जाना,सुबह हो गयी ?"
.डॉ सरस्वती माथुर
(मौलिक रचना )




हरियाये बाँस का आमंत्रण ....
 डाँ सरस्वती माथुर

विनायक एयरपोर्ट से सीधे टैक्सी  लेकर अपने गाँव पहुँचा तो हैरान रह गया! मनफूल काकी  आज भी अपनी कुटिया को बाँस की बातियों से छवा रही थी l उन्ही की बगल में घीसू काका  सा ॰  बांस की खप्पचियों से कच्ची झोंपड़ी की दीवारों को मूँज की रसियों से बांध रहे थे lविनायक  ने इतनी सुंदर कारीगरी पहले कभी नहीं देखी थीl करीब तीस साल बाद वो अपने गाँव आया था l उसके ताऊ रूप लाल सा॰ जी का देहावसान हो गया था इसलिए आना भी जरूरी था l
 टैक्सी जैसे ही  दालान में रूकी वहां कंचे खेल रहे घर के छोटे  बच्चे खुशी से उसके इर्द गिर्द घूमर करने लगेl दरअसल यह गाँव नहीं था बल्कि  एक दूरस्थ बसी कच्ची ढ़ाणी थीl बरसों पहले विनायक के पिता नौकरी की तलाश में  यहाँ से एक व्यापारी सेठ के साथ शहर चले गए थे, कभी कभार ही आते थे l फिर  सेठ की कंपनी के  साथ  अमरीका जाना पड़ा फ़िर वहीं बस गए !विनायक तब छोटा  ही था पर जेहन में इस ढ़ाणी की धुंधली सी यादें जरूर थी l वो हरियाये बांस के झुरमुट में दोस्तों के साथ छुपन छुपाई खेला करता था ,उसे याद आ रहा था कि उन दिनों उनकी  दादीसा .बांस की तकली से सूत कातती थी lगांवों में खुले आम ढ़ोर ढंकर घूमा करते थे ,उन्हे तालाबों में नहलाने  लेके जाया जाता था lवो दृश्य भी विनायक कों याद था जब दादा सा॰  रंग बिरंगे कागजों को बांस की खप्पचियों पर चिपका कर पतंग बनाते   थे । दादा सा बच्चों की फटी पतंगों पर भी  आटे कि लेई से जगह जगह कागज के पेबन्द  चिपका  कर दालान में बांस की   चटाई  पर सुखाते भी थे l
तभी विनायक की  तंद्रा टूटी जब उसे  को देख कर मनफूल काकी सा॰ने हाथों की छत्तरी बना कर पहचाना और गदगदाई आवाज़ में  स्वागत करते हुए बोली --"अररे वीनू बचुवा. आई गवा तू । बबुवा तेरे ताऊ सा ,तो धोका दे गए रे ....आ  लल्ला आ .... कहती  हाथ का काम छोड़ उसको बांह से पकड़ खींचती सी विनायक को  झोंपड़ी के पिछवारे  ले गयी जहां छप्परों वाला छोटा सा गोबर से लिपा पुता  सा रसोई घर था l वहा झाझन का टाट लगा था lजमीन पर चूल्हे के पास घीसू काका सा की विधवा बहू बैठी थी l॰विनायक को देख उसने हाथ जोड़ दिये और घूँघट जरा और खींचकर  छुई मुई सी और सिमट गयी l
 विनायक ने वहीं कोने में रखी बाल्टी में लोटा डूबा हाथ मुंह धोये और घीसू काका सा ॰व मनफूल काकी सा॰से बोलता बतियाता रहा l ढाक की पतल में भात परोसा गया ,पीतल की कटोरी में अरहर की शोरबे वाली दाल ,कद्दू मिर्ची की तरकारी ,छाछ ,लापसी( मीठा गुड का दलिया) और साबुत छोटा सा कांदा  ...विनायक को एक पल को भी  हिचकिचाहट नहीं हुई ,खाना इतना स्वादिष्ट था कि आनंद आ गया  उसने चटकारे  ले ले कर खाया ,अमेरिका में जो खाया जाता है उसकी तो इस भोजन से कोई तुलना ही नहीं थी ...यह तो जैसे ईश्वर का प्रसाद था l

 संध्या को बाँस की खपरैल से घिरे छोटे से दालान में तीये की बैठक हुई । हंसली की शक्ल में लोग बैठे । बैठक ख़त्म हुई तो गाँव के बहुत से रिश्तेदार विनायक के इर्द गिर्द मधुमक्खियों से मँडराते रहे । कुछ रिश्तेदारों को विनायक पहचान पा रहा था , बाक़ी घीसू काका सा॰ परिचय दे रहे थे। विनायक काफी थक गया था, रात को निपट अंधेरा था पर चौकी पर लालटेन की ढिबरी उस अंधेरे को दूर कर रही थी । कुटिया के कोने में रखी चटाई पर विनायक लेट गया , जाने कब आँख लग गई कब भोर हो गयी उसे पता ही नहीं चला । इतनी सुकून भरी नींद बरसों बाद नसीब हुई थी।
अब लौटने का वक़्त हो गया था । मनफूल काकी सा, की आँखों में आंसूं छलक आये थे। रूँधे  गले से बोलीं __"बबुआ आते रहिब !"
  विनायक ने तुरन्त कहा- "ज़रूर काकी सा ,अब तो हर बरस चक्कर लगाउँगा. मेरा वादा रहा काकी सा.और हाँ  आप भी अपना और काका सा का ध्यान रखना।"
 घीसू काका सा ने भी अँगोछे से आँसू पोंछे । सारे रिश्तेदार कार को घेर कर खड़े थे। विनायक के माथे पर तिलक लगा कर उसके मुँह में गुड की डली देती घीसू काका की बेटी आचुकी जीजी भी रो रही थी । विनायक ने सब बड़ों के पैर छुए और जाने क्यों फूट फूट कर रो पड़ा ।शायद उसका मन  इस छोटी सी ठाणी की रस भरी आत्मीयता में डूब गया थाl गाँव की मीठी बासंती हवायें खेतों खलिहानो की ठंडी हवाओं में घुल कर विनायक को मानो  कह रहीं थी कि   यहाँ का जीवन आज भी व्यावहारिक है शहरों की तरह औपचारिक और यांत्रिक नहीं है ।गाँवों ढाणियो में आज भी बाँस की खोखल से तराशी बांसुरी की मधुर रागिनी मन मोह लेती है। टैक्सी गाँव की कच्ची पगडंडी पर धूल उड़ाती दौड़ रही थी और ढाणी में हवाओं के साथ हरियाये बाँस की डालियाँ हिल हिल कर नत मस्तक होकर विनायक को  जल्दी वापस आने का स्नेह भरा आमन्त्रण दे रही थी ।
डाँ सरस्वती माथुर 




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