गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

मेरी कविताओं की पाण्डुलिपि

मेरी कविताओं की पाण्डुलिपि


नव स्पर्श से !
मेरे सपनों के जंगल में
मैं लगातार देख रही थी
झुण्ड के झुण्ड झरे पत्ते
यूँ लग रहे थे
मानों हार गये हों युद्ध
अपनी चरमराती आवाज में
उड़ जाने को तैयार
पार्श्व में दिख रहा था`
अभिलाषाओं से भरा जीवन
और तभी नींद टूट गयी
अपने नव स्पर्श से
छू रही थी मुझे भोर
और फिर एकाएक
मेरे सपने पृथ्वी हो गये
चक्कर काटने लगे
अभिलाषाओं के उदित होते
सूर्य के चारों ओर !

" नन्ही चिड़िया!"
वह नन्ही चिड़िया थी
धूप का स्पर्श ढूँढती
फुदक रही थी
अपने अंग प्रत्यंग समेटे
सर्दी में ठिठुर रही थी
रात भर अँधेरे में
सिकोड़ती रही अपने पंख
पर रही
प्रफुल्लित, निडर और तेजस्वी
जैसे ह़ी सूरज ने फेंकी
स्नेह की आंच
पंख झटक कर
किरणों से कर अठखेलियाँ
उड़ गयी फुर्र से
चह्चहाते हुए
नई दिशा की तलाश में !
.......................................
"तुम मौसम बुला लो!"
तुम मौसम बुला लो
में बादल ले आऊं
थोड़ी सी भीगी शाम में
फूलों से रंग चुराऊं
तुम देर तक गुँजाओ
सन्नाटे में नाम मेरा
मैं पहाड़ पर धुआं बन
साये सी लहराऊं
वक्त रुकता नहीं
किसी के लिये
यह सोच कर
मैं जीवन का काफिला बढ़ाऊं
तुम लहरों की तरह बनो बिगडो
मैं चिराग बन आंधी को आजमाऊं
तुम मौसम बुला लो
मैं बादल ले आऊं
तुम परात में भरो पानी
मैं चाँद ले आऊं!'
तुम मौसम बुला लो
मैं बादल ले आऊं !
"पिता के ख़त !"
पिता तुम्हारे ख़त
खिले गुलाब से
मेरे मन आँगन में
आज भी महक रहे हैं
जब भी उदासी की बारिश में
भीगती हूँ
छतरी से तन जाते हैं
सपना देखती हूँ तो
उड़न तश्तरी बन
मेरे संगउड़ जाते हैं
जादुई चिराग से
मेरी सारी बातें
समझ जाते हैं

पिता तुम्हारे ख़त
मेरी उर्जा का स्त्रोत हैं
संवादों का पुल हैं
कभी भी मेरी उंगली थाम
लम्बी सैर पर निकल जातें हैं

पिता तुम्हारे ख़त
पीले पड़ कर भी
कितने उजले हैं
रातरानी से
आज भी महकते हैं

पिता तुम्हारे ख़त
अनमोल
रातरानी के
फूलों से
खतों के शब्द
ठंडी काली रातों में
एक ताजा अखबार से हैं
पिता तुम्हारे ख़त
ख़त समाचार भरें हैं
उसमे परिवार ,समाज ,देश
एक कहानी से बन गए हैं
इतिहास से रहते हैं
उनके भाव
हमेशा मेरे पास/ जिन्हें
सर्दी में रजाई सा ओढ़ती हूँ
गर्मी में पंखा झलते हैं
पिता तुम्हारे ख़त
बारिश में टपटप
वीणा तार से बजते हैं
इसके संगीत की ध्वनित तरंगें
मेरा जीवन रथ है
इसके शब्दों को पकडे
तुम सारथी से मुझे
सही राह दिखाते हो
इन्हें सहेज कर रखा है
आज भी मैंने
कह दिया है
अपने बच्चों से कि यह
मेरी धरोहर हैं
जो आज भी मेरा
विश्वास है /कि
मेरे पिता मेरे जीवन का
सारांश हैं
बहुत खास है
पिता तुम्हारे ख़त!

"माँ- दिव्य शक्ति !"
माँ- मुस्काराती है
बच्चों के होठों पे
माँ- खिलखिलाती है
मंदिर की घंटियों सी

माँ- गूंजती है दुर्गा की
लयबद्ध चालीसा सी
माँ -बोलती है जैसे हो
इबारतें गुरुवाणी की
माँ- गूंज है
मस्जिद की अजानो सी
माँ- हरियाती है घास सी
माँ -प्रार्थना है गिरजाघरों की
माँ- माटी है धरा की
माँ- महक है फूलों की
माँ - खुशबू है हाथों में लगी
लहरिया मेहँदी की
माँ -फुहार है वर्षा की और
माँ- तो सच में झंकार है
डांडिया की एकबद्ध नाद पर
गरबा की लयबद्ध
जलतरंगों सी बजते तालों की
माँ- तो पूजा है नवदुर्गा की जो
नवरात्रि में दिव्य शक्ति के
मन्त्रों सी आबद्ध हो
नस नस में
उर्जा भर जाती है!
"शक्तिस्वरूपा माँ !"
ममतामयी माँ
मेरे लिए अनुभव का
एक अध्याय हो तुम
जिन्दगी की इबादत हो
हर पथ पर खड़ा
एक मील पत्थर हो
जिसे देख नापती हूँ मैं
जीवन की दूरियाँ
माँ, तुम शक्ति स्वरुपा सी
हर पल मेरे मन सिंह पर
विराजमान रहती हो और
मेरे मन पाखी को पंख दे
मुझको नया आकाश देती हो
सच माँ तुम अपने आप में
मेरे जीवन की उड़ान हो
मेरी पहचान हो
शत शत नमन तुम्हे
शत शत नमन माँ! 
"माँ का ऋण नहीं नहीं चुकता !"
माँ ,क्या तुम्हारी कोई
परिभाषा हो सकती है ?
तुम तो जीवन का वह हिस्सा हो
जो फैला रहता है
हमारे अंश के चारों ओर
वृत्त बनाता नए नए अर्थ देता
एक ऋतु तरह सन्देश देता
मुझे याद है
एक सुंदर सुबह बैठी थी मैं
समुन्द्र की लहरों को देखती
सामने के पेड़ पर
छोटी चिड़िया चह्चाती आई
मैंने भी उसके
सुर में सीटी बजाई
उसने भी मेरी आवाज के साथ
आवाज मिलाई,मुझे
उसकी अदा, बहुत भाई
हम हवाओं के साथ तैरने लगे
बादलों के साथ उड़ने लगे
मैंने अहसास किया
वह मेरी आत्मा में उतर आई है
माँ ,मैंने देखा उसके छोटे छोटे
चीं चीं करते बच्चे भी
उसके इर्द -गिर्द नीड में
मुस्करा रहे थे ,मुंह में दाना लिए
उन्हें खिलाती ,संवारती ,फुदकती
वह मुझे कह रही थी कि
अब मेरे बच्चे भी
उड़ना सीखेंगे
कुछ दिन बाद मैंने देखा
नीड खाली था
चिड़िया फिर भी गा रही थी
अपना अपना विश्वास लिए
पहले बच्चे उसके आस पास उड़े
फिर दूर निकल गए
अपनी राह पंथ बनाते
अपनी गति में
माँ का विश्वास लेकर
पंख फैलाते मार्ग से
परिचय नहीं था शिशु का
किंतु माँ की
जानी पहचानी शक्ति थी
पंखो में वैसे ही जैसे
दूर हो चाहे आराध्य पर
भक्ति होती है मन में
मैंने उस क्षण ही
पहचान लिया माँ कि
चिड़िया तो प्रतीक थी
पर वो तुम थीं माँ
मुझे सन्देश देती कि
माँ कभी नहीं खोती
वह तो नदी की तरह
आगे ही आगे चलती है
धार बनाती समुन्द्र तक जाती
माँ आज तुम्हे प्रणाम करती हूँ कि
तुम समुन्द्र बनकर आज भी
मुझे तरंगित करती हो
शत शत प्रणाम माँ
शत शत नमन
सच कहा है किसी ने कि
जीवन कभी नहीं रुकता
और माँ का ऋण
कभी नहीं चुकता !

"माँ !"
याद आती है
हम सभी को माँ
एक सेतुबंध की तरह
परिवार की परिधि में
महसूस होती है माँ
घर में उठी बहसों की
आग आंधी पर
पानी फैंकती माँ
याद आती है माँ
फ़र्ज़ के कुएं से
पानी खींचती माँ
सुबह उठ कर
सभी के लिए
चूल्हा जलाती माँ
सभी को निपटा कर
रात के एकांत पहर में
चूल्हा बुझाती माँ
याद आती है माँ
निर्मल नदी सी
सबको आगे बढा
कुर्बानियों के
पेबंद लगाती माँ
याद आती है माँ
परिवार के
रिश्तों को जोड़ती
शाश्वत अनुबंधों सी माँ
याद आती है माँ !
"हमारे जीवन में माँ !"
माँ तुम आज भी
हमारे जीवन में
बरगद तरु सी छायी हो
मन - बगिया की फुलवारी में
दूब धरा केसर - क्यारी सी
तुम तो एक अमराई हो
तुम्हारी खुशबू के आंचल में
जितनी छाया पाई है
हमारी सारी दुनिया तो
आज भी उसी में समायी है
मंदिर- मस्जिद चर्च - शिवाला
सब तुम्हारे ह़ी चरणों में है
तुम ह़ी रामचरितमानस हो
तुम ह़ी वेद और पावन गीता
ऋचाओ की गरिमा भी तुम हो
हिमगिरी की भी ऊँचाई हो
हमारे जीवन के मन आँगन में
महक फैलाकर मंजरी - सुगंध सी
तुम तुलसी पौध सी लहक रही हो
तुम तो खुशबू भरी एक पुरवाई हो
मातृत्व दिवस के पावन दिवस पर
तुम्हारेचरणों में ह़ी हम दीप जला कर
तुम्हारी मधुर गरिमामयी यादों का हम
चारों धाम करते हैं- हम बड़ा तुम पर
मान करते हैं शत- शत प्रणाम करते हैं !
तुम हमारे जीवन में आज भी परछाई हो !
"सुबह सी माँ !"माँ रोज उगती है
सुबह की तरह
धूप महरी संग
सारा नभ आँगन
बुहारती है
धरा तरु पर जाकर
गिलहरी सी भागती है
किसी कामना के
दीप सी - शाम को
सूर्य को नहला धुला
और सुला कर
लौटती है, विश्राम करने
माँ ,सच में
एक मूक चिड़िया सी
फूलों पर डोलती है
तितली सी
सुगंध बटोरती है
हमारे जीवन की
सुबह को भी तो
हमारी माँ ऐसे ही
बुहारती है, महकाती है
सच रोज
माँ भी तो
सुबह की तरह
उगती है
 
 
"एक अजन्मी बेटी का निवेदन !"
माँ
वक्त आ गया है
अब तुम्हारी परीक्षा का
मेरी सुरक्षा का
अजन्मे व्यक्तित्व को अब
गरिमा देनी होगी क्यूंकि
मैं भी तो हूँ/ ब्रह्म का अंश
बेटे जन कर देती हूँ वंश
फिर बेटे बेटी की कसौटी पर
क्यों करता है समाज
मेरा मूल्यांकन/ क्यूँ नहीं करता
मेरी क्षमताओं का आकलन
माँ तेरे आँचल में तो
ममता है
फिर इस परिवेश में
क्यूँ नहीं समता है ?
मेरा निवेदन बस
इतना भर है
तेरी कोख अभी
मेरा घर है
तू मेरी पैदाइश कर दे
मेरे जन्म को अपनी
ख्याइश कर दे
इतनी बस समझाइश कर दे
चुनौतियों की इस डगर पर
नई शुरुआत कर सकूँ
सरस्वती ,लक्ष्मी और दुर्गा का
साक्षात् रूप धर सकूँ इसलिए
अब वक्त आ गया है कि
सीपी बन कर तुम
संपुट की आभा दे दो
फिर मोती बन कर निकलूंगी
सूरज सी चमकूंगी
,माँ, मुझ पर तुम्हारा
कर्ज रहेगा पर
तुम्हारे विश्वास की
किश्तें चुकाना
मेरा फ़र्ज़ रहेगा
फ़र्ज़ रहेगा
फ़र्ज़ रहेगा !
...............................
" स्वप्न सृष्टि!"
आसमान पर मंडराती
चिड़िया मुझे
कभी कभी बहुत लुभाती है
सपनो में आकर
अपने पंख दे जाती है
मैं तब उड़ने लगती हूँ
गगनचुम्बी इमारतों पर
निरंतर शहर में
विस्तरित होते गाँवों
,खेतों ,खलिहानों पर
हवाओं की लहरों संग
बतियाते फूलों पर
आकाशी समुन्द्र की
बूंदों से अठखेलियाँ करती
आत्मस्थ होकर
उड़ते उड़ते मेरी
मनचाही उड़ान
मुझमें विशवास की
एक रौशनी भर देती है /और
मैं उड़ जाती हूँ
अनंत आकाश में
धरती से दूर वहां
जिन्दगी को
गतिमान रखने को
सपने पलते हैं और
मैं उतर कर उड़ान से
एक नीड ढूँढती हूँ
जहाँ सुरक्षित रहें
जंगलों का नम हरापन
बरसाती चश्मा
ऊँचें पहाड़
गहरी ठंडी वादियाँ
पेड़ ,नदी ,समुन्द्र और
पेड़ों पर चह्चहाते -
गीत गाते रंग बिरंगे परिंदे
नित्य और निरंतर
गतिशील लय की
अनंतता में बस
अनंतता में !

"आओ बेटी!"
मन के झुरमुट के

उस पार से

एक अनुगूँज है आती कि

बेटी होती है

गुलाब की पंखुड़ियों सी

घर आँगन है महकाती

तभी तो दुर्गा रूप कहलाती

आओ बेटी सच

झरना ही तो हो तुम

मीठे पानी का

कलकल बहती जाओ

मरुस्थल के जल सी

सबकी प्यास बुझाओ

पाखी सी दूर गगन तक

पंख पसार कर

उन्मुक्त उडो तुम और

आच्छादित कर लो

सतरंगी आभा से

अपने जीवन का

सुंदर आसमान

भर कर वहां

तने इन्द्रधनुष के रंग

अपने जीवन में भर लो

याद रखना बेटी

मैं माँ हूँ पर एक

दोस्त की तरह हमेशा

तुम्हारे साथ रहूंगी

एक परछाई सी

संग चलूंगी

तुम मेरे जीवन नभ का

झिलमिलाता एक चाँद हो

तुम्हारी चांदनी से आओ

मैं अपना घर भी

रोशन कर लूं

जब सुबह हो तब तुम

भोर किरण सी

मेरे आँगन में

धूप सी फ़ैल जाना

और नीम डाली पर बैठ कर

मुझे आशा का

नवगान सुनाना

प्यारी बेटी

राजरानी हो तुम मेरी

एक मौसम हो तुम

बसंत का, देखना तुम

महसूस करोगी कि

हवा के ठंडे झोंके सी

इर्द गिर्द फैली हूँ

मैं तुम्हारे

एक पारदर्शी आवरण सी !
 "अजन्मी बच्ची का सपना!"
माँ के आँचल से
बाहर आकर
मैंने जाना
स्वयं ही
लिखनी होगी
तक़दीर अपनी
भाषा अपनी
परिभाषा अपनी
मैं नहीं देखूंगी
राह हार की
हाँ, खवाइशों के घरोंदे में
जरुर उम्मीदों के
रंग भरुंगी क्योंकि है
यकीन मुझे कि
मेरे हिस्से की
किरणें लेकर
सूर्य आएगा
धू प खिलेगी इसलिए
संजोयें हैं आँखों में
सपने आकाश के
विश्वास के नींद से
निकली नवेली चिड़िया सी
अरमानों के
पँख फैलाऊँगी
अपनी पहचान बनाऊँगी!
 
"कभी कभी मन !"
धुले नर्म पत्तों पर
ओस की बूंदों सा
कभी कभी मन
बारिश के बाद के
मौसम सा बदराता है
मन भी तब
वनस्पतियों सा
हरा हो जाता है
चहुँ और दुप्पटे सी
उड़ती हवा
नीले दिख रहे
आकाश पर
लहराती है फिर
बदरा के संग
अधमूंदे सूर्य की
आभा से बतियाती है
धीरे धीरे मन से
दूर यादों की
गलियों में ले जाती है !

"स्वत :मुखरित हो!"
आओ बातें करें
चाँद से, तारों से, पृथ्वी से
पाखियों से
आसमान से
पेड़ों से
हरियाली से
हवा से- जल से
फिर मौन हो जाएँ और
खामोश प्रतिध्वनियों के
चक्रव्यूह से निकलने की
कोशिश करते हुए
फिर बातें करें
अपने आपसे
मौसम की
कुदरत की
ज़माने की
,प्यार की
देखना तब तुम पाओगे
तुम्हारा मौन
तुम्हारे अंतस में
स्वत :मुखरित हो
ओजस्विता ,उन्मुक्तता और
चंचलता से
ध्वनित हो जाएगा और
आत्म विश्वास तब
तुम्हारा रक्त हो जायेगा !
"मैं समुन्द्र हूँ !"
मैं समुन्द्र हूँ
खामोश रहती हूँ
छेडते हो मुझे तो
शोर करती हूँ
सूरज को नहला कर
रोज भोर करती हूँ
चाँद को देख कर
कभी मन ज्वारों को
चकोर करती हूँ
मोतियों का भण्डार हूँ
जीवों का संसार हूँ
नदी की लहरें सोंख
एक नया ठौर करती हूँ
मैं समुन्द्र हूँ !
"ख्वाब!"
मैंने भी बुने हैं
रंग बिरंगे ख्वाब
नींद की डोर से और
पहना दिए हैं
अपने मन को
मन -जो एक बुलबुल सा
गाता रहता है
आँखों के
झरोखों पर बैठ
संदली हवा के
सुर ले भर कर
भूली बिसरी सुधियाँ
मन ऊन बन जाता है और
मौसम की
सलाइयों से जुड़
 बढ़ता रहता है
 ख्वाब !
" मैं भी झरती रही!"
सुबह की पहली किरण से
आज बात की मैंने और
नई उम्मीदों की
हरियाली को
उगने दिया
झरने सी झरती
हवाऍ भी
अस्त व्यस्त थी
बज़ रही थी
वीणा सी
उनके साथ
देर तक मैं भी
झरती रही
पतझड़ की पतियों सी
जब फूलों ने
बसंत का घूँघट हटा
मेरे संग सुगंध बांटी तब
फूलों की पंखुड़ियां
सहलाती मैं
देर तक महकती रही
मंडराती रही तितली सी
इन्द्रधनुषी फूलों पर ही
बसंत के साथ !

"खिलती हूँ नभ में!"
कभी कभी
धूप हो जाती हूँ मैं और
बिखर प्रकृति पर
सो जाती हूँ मैं
कभी चाँद बन कर
खिलती हूँ नभ में पहुँच
सितारों से जा मिलती हूँ
कभी नदी सी
सरसरा कर पहाड़ों से
उतर इठलाती हूँ और
समुन्द्र में उतर
लहर बनकर
तटों से टकराती हूँ मैं
कभी फूलों में
खुशबू बन कर
महकती हूँ
कभी तितलियों सी
उड़ती रहती हूँ
ढले सूरज के रंगों को
समेट हाशियों पर
फ़ैल जाती हूँ
भोर होते ही
किरणे बन कर
प्रकृति को
जगाती हूँ मैं और
सबसे मिल कर
रसरंग की
पृथ्वी हो जाती हूँ मैं !
"अब वो बोलती है!"
अब नहीं वह गुडिया
न ही काठ की पुतली
अब वह बोलती है
चुप्पी साधे भी तर्क करती है
चारदीवारी में रह कर भी
उन्मुक्त भागती है
पल पल में बदलते तेवरों के साथ
दागती है प्रश्न
रूकती कभी नहीं
आँगन में हवा की तरंगें
अब उसके लिए खूंटा नहीं
उसकी दुनिया की परिधि
अब यंत्र तंत्र नहीं है
न ही है वो
चिड़िया घर की बंदी चिड़िया
हाँ, वह एक जाना पहचाना
नाम है, मर्यादा का रूपक है
कलकल नदी है
जिसके बहाव को रोकना
संभव नहीं
उसे तो मार्ग बनाते हुए
आगे बदना है और
समुन्द्र में मिलने से
पहले ही
हर बाधा से लड़ना है !
  "पंख चाहिए पंख !"
मेरा वजूद
इर्द गिर्द मंडराता है
कभी मेरे भीतर उतर जाता है
कभी बाहर आकर
बाहरी आवरण के साथ
एकात्म हो जाता है
मेरे वजूद को
फूल बहुत पसंद हैं
वे उनकी खुशबू के
आस पास मुझे ले जाता है
तितलियों की तरह उनके
आसपास से गुजरते लोगों को
हैरानी से देखता है
यदा कदा एक
विस्मृत शख्स को
याद करता है
कभी यादों को सुनने गुनने को
जो मन चाहे करता है
मुझ से लड़ता है बहस करता है
कभी यूँ ही देखता है
मानो मुझे पहचानता नहीं और
कभी यूँ मेरे इर्द गिर्द घूमता है
मानो मेरा जन्मदिन हो
तब अपने आप से सवाल करती हूँ कि
क्या करूँ अपने वजूद के साथ
उसके खिलाफ हो जाऊँ या उसके प्रति
वफादार रहूँ और मेरा वजूद
मुस्करा का कहता है
दोराहे पर खड़ी हो पर याद रखो
मेरी परछाई हो तुम और
गुलाब के फूलों से भी खुबसूरत है
यह दुनिया- मैं ही हूँ तुम्हारी तलाश
,उम्मीद ,वाणी ,संघर्ष जमीन -आकाश
अगर मेरा चेहरा नींद है तो
तुम्हारी आँखें सपना और
जब तुम देखती हो मुझे
आकाश सा विस्तृत
तुम नवजात चिड़िया हो जाती हो और
उड़ना चाहती हो
उसके लिए तुम्हे
पंख चाहिए पंख- बस पंख !
." स्वयंसिद्ध !"
अपने भंवर में फंसी रहूँ
ऐसी नहीं नदी हूँ मैं
अपने आवेगों से लड़ती
जीवन पथ में आगे बढती
विश्वास भरी सदी हूँ मैं
राम रहीम ,रहमान -कृष्ण संग
काशी काबा ,वृन्दावन तक
संस्कारों की सविता सी
आभा और संस्कृति हूँ मैं
चाल मेरी तूफानी है
लय हूँ जीवन की
बंधी नहीं समुन्द्र सी पर
उसके गहरेपन की
अभिव्यक्ति हूँ मैं हार न कभी मानूंगी
ताज कर नारी के संत्रास
रचूँगी एक नया इतिहास
विश्व प्रकृति का आह्वान करुँगी
नियति को ललकारती
एक सार्थक जिद्द हूँ मैं
शब्दकोशी ज्ञान लिए
एक स्वयंसिद्ध हूँ मैं !
 
" एक बुजुर्ग !"

अकेलेपन के सूरज को

रुक कर देखता

एक बुजुर्ग

क्षण और घंटे गुजरते जाते हैं

समय की आराम कुर्सी पर

किताबों को पलटते हुए

रुक कर देखता है!
"स्त्री लिखेगी नया अध्याय!"
वह इतना बोलती थी कि
मैं सुन सकती थी
उसके भीतर कि ख़ामोशी
वह इतना सोती थी कि
मैं गुण लेती थी
उसकी जागी आँखों की कविता
वह इतना घूमती थी कि
मैं देख पाती थी
उसका ठहरा समय
वह उगती थी फूलों सी
मुझे तब समेटनी पड़ती थी
झरती बिखरी पंखुरियां
मेरे साथ आरंभ और अंत के
मोड़ पर वह रास्ते और
कदमो के निशाँ गिनती थी
रोशनी के उदास सन्नाटे में
ढूँढती थी अपनी परछाइयां
स्त्री होने कि परिभाषा को
दोहराती हुई दिखती थी
सहमी, थकी, खामोश निढाल और
मेरे कन्धों पर टेक कर
अपने भीतर का बोझ
वह ठहर जाती थी
मुझे आश्वस्त करती कि
वह पेड पतियों फूलों के
सभी रंगों की आभा लिये
फिर सृष्टि का नया
अध्याय रचेगी !
" मेरा अस्तित्व!"
बनी रहूंगी तनी रहूंगी मैं
एक मुट्ठी की तरह
समेट कर उंगलियाँ
हथेली पर धनुष पर खिंचे
बाण सी
दाब दोगे जमीन पर
तो भी अंकुरित होती रहूँगी
मेरी जड़ें काट कर
बोनसाई बनाने की
कोशिश करोगे जितनी
उतनी ही बढती रहूंगी मैं
बरगद की तरह
अपनी मुट्ठी की ताकत को
शस्त्र बना कर
उँगलियों को अस्त्र बना कर
रचूँगी एक नया इतिहास
मैं अबला नहीं -सबला हूँ
संतुलित रह कर
तराजू कांटे की तरह
अब नहीं झुका सकोगे तुम
कभी इधर कभी उधर
क्यूंकि अब मैं
जान गईं हूँ कि
ओस की बूँद की तरह नहीं
मेरा अस्तित्व
जो क्षण में समाप्त हो जाए!

  "नारी की जिंदगी !"
एक समुन्द्र से होती है
नारी की जिंदगी
इस समुन्द्र में उठते हैं
ज्वारभाटे /आशा - निराश के
सुख दुःख के धूप छाँव के
लेकिन रूकती नहीं है
नारी की जिंदगी
एक समुन्द्र सी होती है
नारी की जिंदगी
एक समुन्द्र सी होती है
नारी की जिन्दगी
समुब्द्र सी जिंदगी के
ठहराव में उठती लहरों में
उमगती रहती है
नारी की जिंदगी
छोटे छोटे अवरोधों से
थमती नहीं है- थकती नहीं है
दुखों में कितनी भी
खोई खोई हो
सुखों में कितनी भी
सोई सोई हो
कोशिश की पतवार थाम
हंसती मुस्काराती नाव पर
शांत सोये समुन्द्र पर एक सपना
,एक हौंसला एक उम्मीद की
किरण ले गाती -गुनगुनाती
सुगन्धित जीवनदायिनी
समीर सी उड़ती रहती है
नारी की जिंदगी
एक समुन्द्र सी होती है
नारी की जिंदगी!

"नारी भी होती है एक गुलाब सी !"
नारी भी होती है
एक गुलाब सी
अलग अलग रंगों में
आभा बिखेरती है
सुगंध बांटती है
प्रकृति महकाती है
गुलाब जल सी ठंडक देती है
गुलाब का सौन्दर्य
सभी को लुभाता है
लाल ,पीले ,सफ़ेद , रंग
एक नयी भाषा गढ़ते हैं
प्रकृति की धारा में
बुलबुले सी उठती गिरती
रंगीन गुलाब की
पतियों का भी
एक अलग ही रस होता है
सच गुलाब
मन को कितना मोहता है ?
अलग अलग रूपों में
रंगों में, महक में
तभी तो कहते हैं हम
नारी भी होती है
एक गुलाब सी
जो अलग अलग रंगों में
रूपों में ,
मा बेटी पत्नी बहिन सी
प्रकृति में महकतती हैं और
पक्षियों की मीठी बोली सी
हमारे घर आँगन में
चह्कती है और
गुलाब की पत्तियों सी
वह भी जब झरती है तो
सुगंध की पुरवा हमारे
इर्द गिर्द बिखेर कर
वातावरण को
सुवासित कर
स्वर्गीय आनंद से
हमें भर देती है
तो आओ इसकी महक को
महसूस करें और
जीवन में भर कर
इस सुवास को
फैलने दें, फैलने दें, बस फैलने दें !
"उड़ान !"
सृष्टि की रचना में
स्त्री पुरुष है एक समान
फिर क्यों झेल रही है नारी
व्यंगों के तीर कमान ?
भावनाओं के जंगल में
नारी ही क्यों कटती रही
क्यों भूल गए हम कि
जीवन संग्राम में
झाँसी की रानी बन
वो ही तो थी लड़ी
कभी कल्पना बन
अन्तरिक्ष में वो ही तो थी उडी
उस की परिभाषा में
फिर भी अबला शब्द को
तुमने ढाल बनाया
कभी दुष्यंत बन
तुम भूल गए
कभी राम बन तुमने ली
अग्नि परीक्षा
कभी ज़िंदा जिलाया
कभी चीर हरण
कभी उसकी किताब में
अनगिनत सवाल लिख डाले
कभी चाहत के पंखों को काट
उसकी उड़ान को रोका
कोई नही बना उसका मसीहा
फिर भी वो सभी के लिए
इंसानियत की पाठशाला बनी
कभी जननी ,कभी माँ
कभी पत्नी ,कभी बेटी बन
जीवन के हर मोड़ पर
वो तुम्हारे साथ चली
अब आगे के सफ़र में
एक अर्ज है सभी से
राह में उसकी अब
दीप आशा का जलाना
उसके जीवन के सुरों में
विश्वास और शक्ति की
मधुर वीणा के तार गुंजाना
शायद यही वक्त होगा
ऋण तुम माँ के
दूध का चुकाना !
"शक्ति का सृज़न !"
तुम हो नारी
क्या इसलिए शिव बन
पीओ जीवन सिन्धु का विष
तुम्हारी पसंद नापसंद पहचान का
नहीं कोई सूत्रधार
तुम अस्तित्व के जंतर मंतर में
इधर से घुसो उधर से निकालो
अपनी पहचान की तलाश में
भटकती रहो फिर शब्दों का
विस्फोट करो खुद को
गुंजाओ सन्नाटों में
उसी स्वर लहरी में तैरती
लौट आओ आखिर क्यों
तो सुनो अब वक्त आ गया है कि
मंत्रविद्ध आमंत्रित प्राणों की
अकुलाहट में बेध दो
सृज़न के क्षण और
बनो अब तुम स्वयं
प्रश्न उत्तर/ मत घूमती रहो
भ्रमित सी प्रश्नकर्त्ता बन कि
कौन हूँ मैं ?
तुम नारी हो
हिस्सा हो जीवन का
तुम हो दिवा रात्रि का सृष्टि द्वार
उषा फैलाती हो
एक बदली हो जब चाहे
बिज़ली बरसाती हो
बहती पुरवाई हो
तुममे ही है प्राणों का सम्मोहन
सच कहूं तो तुम ही हो
जग की मुस्कान इसलिए उडो
पंख फैला कर /सपनो का
जाल हटा कर खुले आसमान में क्यूंकि
न कोई मसीहा आएगा
न होगी पूजा बस तुम्हे
आकाश दिलाएगा तो तुम्हारे ही
मन की शक्ति का सृज़न!
".उद्बोधन !"
नारी ने किया ऐलान
मैं शांत तो दिखती हूँ
पर बतलाना चाहती हूँ
मैं ही हूँ रचना
इस सृष्टि की
बस जरुरत है तुम्हारी
सकारात्मक दृष्टि की
में ही हूँ जो
सीपी को सौंप कर खालीपन
मोती सी बिंध जाती हूँ
मैं ही हूँ जो देती हूँ
नदिया को गति
मैं ही हूँ जो उठा ती हूँ
ज्वारभाटा सागर में
और जब चाहे
लहरों की तरह
हो जाती हूँशांत पर
ज्वाला की तरह फट कर
उफन भी सकती हूँ
इसलिए कह देना समय से कि
अब कोशिश न करें
मेरी अग्नि परीक्षा लेने की
तपती लू से तो
बचा लेती है
शीतल फुहार
बरखा की
पर नहीं बचा सकता
कोई पृथ्वी के
गर्भ में पलते
ज्वालामुखी से !
"यह प्रवाह !"
नारी ने कहा

जीवन पथ में
समाधान की रोशनी लेकर
मैं चलूंगी
निकाल लाऊंगी सूरज
धुंधलका मिटाने को
अँधेरे चीरने को
और कुछ भी अब नहीं
रहने दूँगी
अनिर्णित
न ह़ी विवेक की
हथेलियों से
फिसलने दूँगी
रेत की तरह
अपना वर्तमान
बिखरने भी नहीं दूँगी
फर्श पर गिरे पारे सा
अपना अस्तित्व
नारी ने कहा
कुछ परवाह नहीं मुझे
अब
अवरोधों की
न ह़ी परवाह है
भूचालों और आंधियों की
में तो अब प्रवाह बनूंगी
जो न रुका है न रुकेगा
मुट्ठी में ले भूकंप
जिगर में आग बसाये
नयनो में निर्माण
कंठों में राग बसाये
अब में निरंतर स्वर बनूंगी
मैं भविष्य बनूंगी
वो भी न मिटा है
न मिटेगा कभी
जीवन- पथ में
मैं विकास बनूंगी
ऐसा विकास
जो न थका है
न थकेगा कभी
वह तो बस
नदी सा
कलकल करता
राह बनाता
बस निरंतर
आगे बढेगा ...!

"एक बुजुर्ग !"
उस दरवाजे की ओर

जहाँ से शायद आये

उसका बेटा या बहू ,

बेटी या पोता और

हाथ में हो चश्मा

जिसकी डंडी

बदलवाने के लिए

पिछले महीने वो

जब आये थे तो

यह कह कर ले गए थे कि

कल पहुंचा देंगे

हर आहट पर

चौंकता है एक बुजुर्ग

दरवाजा तो दीखता है पर

बिना चश्मे किताब के अक्षर

देख नहीं पाता

हाँ "ओल्ड होम" की निर्धारित

समय सारिणी के बीच

समय निकाल कर

पास बैठे दूसरे बुजुर्ग का

हाथ पकड कर

उस इंतज़ार का

हिस्सा जरुर बनता है !



"उनकी मुस्कान !"

और अब वे अपने

अंतिम चरण में थी

,बुजुर्ग जो थीं

उन्हें मालूम था कि

यह नियति है और

वे इंतज़ार में थी

अब देर तक बगीचे में

काम करती हैं

स्कूल से लौटे

पोते पोतियाँ के जूतों से

मिटटी हटा कर खुश होती हैं

उनके धन्यवाद को पूरे दिन

साथ लिए, मुड़े शरीर के साथ

लंगडाते हुए, इधर- उधर घूमती हैं

याद करती हैं ,तालियों की

उन गूंजों को

जो समारोह में उनकी

कविताओं के बाद

देर तक बजती थीं

अपने हमउम्र दोस्तों के साथ

सत्संग में बैठ कर

भजन सुनते हुए सोचती थीं

उन दिनों को

जब घडी की सुइयां

तेज दौडती थीं और

वे उसे रोक लेना चाहती थीं

अब वे अपने कमरे की

खिड़की से दिखते

समुन्द्र को देर तक

निहारते सोचतीं थीं कि

वक्त कहाँ बाढ़ की तरह

बह गया और

यह सूरज भी

कितना कर्मठ है

रोज थक कर

डूबता है और

तरोताजा होकर

उगता है

यह सोचते ही

उनके पूरे शरीर में

सूरज की प्रथम

किरणों की तरह

जीने की उमंग

कसमसाने लगती है और

पूरे दिन एक

मुस्कान की तरह

उनके होंठों पर

तैरती रहतीं है !

"एक बुजुर्ग !"

अकेलेपन के सूरज को

रुक कर देखता

एक बुजुर्ग

क्षण और घंटे गुजरते जाते हैं

समय की आराम कुर्सी पर

किताबों को पलटते हुए

रुक कर देखता है

एक बुजुर्ग

उस दरवाजे की ओर

जहाँ से शायद आये

उसका बेटा या बहू ,

बेटी या पोता और

हाथ में हो चश्मा

जिसकी डंडी

बदलवाने के लिए

पिछले महीने वो

जब आये थे तो

यह कह कर ले गए थे कि

कल पहुंचा देंगे

हर आहट पर

चौंकता है एक बुजुर्ग

दरवाजा तो दीखता है पर

बिना चश्मे किताब के अक्षर

देख नहीं पाता

हाँ "ओल्ड होम" की निर्धारित

समय सारिणी के बीच

समय निकाल कर

पास बैठे दूसरे बुजुर्ग का

हाथ पकड कर

उस इंतज़ार का

हिस्सा जरुर बनता है

"जीना इसी का नाम है !"

वो इतने बूढ़े थे कि

उनकी हड्डियाँ

उनकी त्वचा में

तैरती थीं

मैं उनमे अपने आपको

डूबता सा महसूस करती थी

वो इतने कमजोर थे

जितने नवजात शिशु के पैर

पर उनकी मुस्कान

इतनी गहरी थी कि

उसमे मैं नदी की सी

कलकल सुनती थी

जो उनके होठों के चारों तरफ

सांसों से गुजरती थी और

वो इतने तैयार थे कि

मुझे समुन्द्र से भी गहरे

गंभीर और अथाह दिखते थे,

सच- मुझे लगता था कि

जीना इसी का नाम है !
"श्यामल परी सी शाम !"
घिर आई हो
झुरमुटी शाम तुम
चह्चहाती
पाखी बन
विहंसती सी
उतरी हो
मेरे मन की
मुंडेर पर तो देखो न
सिन्दूरी यादों के साथ
फिर अंकुरित हो गएँ हैं
वो भीगे भीगे से दिन
जब मैं अपने
घर की छत पर बैठ कर
तुम्हे देखा करती थी
तुम चंचल हिरनी सी
डोलती थीं, देखती थी मैं
तुम्हारे रंग बदलते साए
देखा करती थी
तुम्हे कभी
पहाड़ों से उतरते
कभी दरख्तों पर सोते
कभी नीड़ में दुबके
परिंदों से बतियाते
कभी झील में उतरते
कभी समुन्द्र की
लहरों संग टहलते तो
कभी नदी की
गति के संग
तेज दौड़ते
तुम्हारी वो
रंग बदलती
ढली धूप के साए भी
पवन झोंकों पर चढ़
आसमान पर
चढ़ जाते थे और
सूर्य के नारंगी
सात घोड़े वाले रथ को
धकियाते समुन्द्र तक
छोड़ने जाते थे
मैं भी आकंठ
डूब जाती थी
मुझे तुम्हारी किरणों की
आदत थी और
अब मैं जहाँ हूँ
वहां से भी देखती हूँ तुम्हे
लेकिन अब तुम
बदली सी लगती हो
जाने क्यूँ थकी सी
उतरती हो
मेरी मन मुंडेर पर
बिखरी रुपहली
रश्मियों से लिपटी
धरती आकाश के बीच
श्यामल परी सी !
"सवेरे की चौखट पर!
"आज भी
शाम को रोक कर
सूरज को मैंने
छिपा लिया था
मन के सागर में और
घुले सूरज से
लाल हुए पानी में
देर तक पैर डुबो
बैठी- देखती रही
घर लौटते
पाखियों को
यह देखना भी
अपने आप में एक
अहसास था
अपने आप से
संवाद करते हुए
मैंने देखा कि
उदास सा चाँद
चांदनी संग
नभ कंगूरे पर
जुगनू सा
चमक रहा था
सितारों वाली
चुन्नी ओढ़
चांदनी भी
ठोड़ी पे हाथ रखे
टिमटिमाती ढिबरी सी
नभ चौरे पर खड़ी
कुछ सोच रही थी
तभी सागर के ठहाके से
चौंक उठी थी मैं
भौंचक औचक सी
जागी, अरे ...
पांखियों के कलरव को
एक दिशा दिखाता
श्वेत परिधान पहने
किरणों से
घिरा सूर्य
सवेरे की चौखट पर
मुस्कराता खड़ा था
मानो मुझ से
पूछ रहा हो
क्या कोई
सुंदर सपना
देख रही थीं ?
आइना झूठ नहीं बोलता
जीवन की
 साँझ नहीं होती अकेली
अकेले तो होते हैं हम
सच की बगिया में
सच कहें तो
झूठ के कांटे बोते हैं
लेखा- जोखा करते हुए
अपने जीवन का
जब थकी दोपहरी में हम
पलटते हैं गाहे बगाहे
यादों की एल्बम
तब फंस जाते हैं
अतीत के भंवर में हम
जीवन तब एक
खोये मुसाफिर सा
करीब होकर भी
दूर दूर दिखता है और
बदलते वक्त के अक्स में
तब अपना चेहरा भी
अजनबी सा लगता है और
आइना झूठ नहीं बोलता
कहता है सच कि
एक ही जीवन में भला
चेहरा मोहरा कब किसी का
एक सा रहता है !

"नया सवेरा आये !"


हिरणी सा दौड़े
दिन-
रात के जंगल में
चांदनी का
काजल लगा
करे हंसी ठिठोली
चंदा हमजोली
मुस्कराए
टिमटिम तारों की
ओढा चादर
चांदनी को सुलाये
नैन परिंदे भर
सपनो की
मीठी उड़ान
पाखी हो जाये
तभी सागर फाड़ कर
नया सवेरा आये !
"गीत गोविन्द लिखे!" ....
 फागुन पीले गीत लिखे
मौसम में फूल खिला कर
बगिया के अनुकूल
हर पल नया संगीत लिखे
कूके कोयल डाली डाली
शब्दों को बांध कर सुर में
हरी भरी धरती पर
हतप्रभ मौसम को निहारती
चिड़ियां पंख फड़फड़ा कर
शस्य डाल पर
खुशबू की तरह
नववर्ष का नव सृजन का
मंगलदीप जला कर
गये साल की विदाई पर
अभिनन्दन शुभागमन का
फिर फागुनी गीत गोविन्द लिखे !
........................................
बसंत- बसंत !
में बसंत हूँ
बसंत- जो तितली की तरह
उडता है
आम अमरूदों के
दरख्तों पर
फागुनी दोपहर में
एक चित्र बनाता है
धूप की कलम से
गुनगुन संगीत का
सृजन करता है
सुबह की पहली किरण सा
जाग कर चहचहाता है
पक्षियों सा
कभी फूलचुही सा
मंडराता है फिजां में
महकता है गुलाब सा
और फिर कभी सूरज सा
चढ़ते हुए आसमान पर
बिखर जाता है
धूप के टुकड़े सा
फैला कर फूलों पर
इन्द्रधनुषी रंग
दस्तक देकर
फागुनी मौसम की
दूर कहीं कोयल भी
गा उठती है
मधुर स्वर में
बसंत... बसंत...!
"सृज़न के उन्माद में! "
"सकपकाई सी
एक चिड़िया आई
ताकती रह देर तक
पतझड़ के झड़े
भूरे पतों को
हवा बुहार रही थी
तब सन्नाटा
अटक गये थे चिड़िया के
सुर भी कंठ में पर
मौसम के गलियारों में
महक थी सूखे पत्तों क़ी
उम्मीद थी जल्दी ही
फिर फूल आयेंगे
तितलियों उनमे
ताजगी तलाशती मंडराएगी
कोयलें कूकती
हरियाली पी लेंगी
सृज़न के उन्माद में
फिर फूटेंगे अंकुर
फुलवारी में उगेगा
इन्द्रधनुष
रंग - बिरंगी तितलियों का
चिड़िया ने भी
अपने से संवाद किया कि
अब आ गया है वक्त
घरोंदा बनाने का
इस विश्वास के साथ
उल्लासित हो
वो उड़ गयी
बसंत के बारे में
सोचेते हुये !

 
 "सावन रुत में !"
मधुर मादक
सपन सलोने मेघ
ख़ामोशी से हाथ थामे
रेशमी गीली हवा का
निगाहें डाल धरा पे
दामिनी की पृष्ठ भूमि में
ऐतिहासिक शिखरों की
घाटियों में
ढोल मृदंग बजाते
मुंहजोरी पर्वतों पे
लहराते तोड़ रहे थे
ख़ामोशी भरे
जहाँ में सन्नाटे
ऐसे में मन भी पंख लगा
उड़ने लगा
याद कर प्रीत
किसी की दिल के आँगन में
तब उतर आयीं
मनभावन स्मृतियाँ
गुदगुदाती रहीं
क्ष णिक देर को
एक काल्पनिक लोक में
लेजाकर भरमाती रहीं
मस्त रुत में
सावनी लहरदार
घटाओं की लकीरें
खींचती रहीं एक चित्र
चित्रकार की तरह
आकाश के
केनवास पर उकेर कर
इन्द्रधनुषी रंग और
सावन की भीगी
रुत में भरती रही
धूप छांह सी
शीतल सरसता ऐसे
खुशनुमा मौसम में
पायल पहन हवा के साथ
मयूर भी बोल उठा
पिहू पिहू और देर तक
पेड़ों पर फूटी हरियाली पर
छाए नंदन वन को देख
उल्लास से भर नाच उठा !
 
"मन की पगडंडी पर!"
मृगनयनी से
दौड़ते दौड़ते
कभी कभी
एक रस्सी की तरह
बांध लेते हैं हम
अपने जीवन के
घेरे और एक
आवृत में
गाठों की तरह
समेटे रहते है
अपनी अस्मिता और
सोचते हैं कि
नियति के रास्ते
अपनी ही यात्रा के
सहवर्ती हो
जीवनोंद्वार के पार
मुट्ठी में बंद
लकीरों की तरह
कटते फटते
समूचे सौन्दर्य को
समेटे या तो
अस्तित्व की
नदी के द्वीप
हो जायेंगे या
महासमर बन
भेद कर
धरती को
सो जायेंगे !
 
"मौसम की प्यास हूँ!"
मैं मौसम की
प्यास हूँ
समय की सलोनी
आस हूँ
बादल सी घूमती हूँ
अम्बर को चूमती हूँ
धरा के भी
पास हूँ
पाखी सी चहकती हूँ
हवा सी बहती हूँ
हरा भरा
मधुमास हूँ!
" हसरतें !"मेरे सम्मुख

अधूरी हैं अभी पर

जोंक सी मेरे मन पर

चिपक कर पी रहीं हैं

अनुभूतियाँ मेरी

एक तैलया सी

रुक गयी हैं

अधूरी हसरतें

अलबत्ता नदी सी

कलकल अब भी

गाहे बगाहे

मन के एक कोने में

बह रहीं हैं

मेरे अस्तित्व का सागर

एक जलपाखी सा

अब तक तैर रहा है

हसरतों की नाव पर

एक दिन वो परी

सी मेरे उनींदे

सपने में आकर बोली

देखना एक दिन मैं

तुम्हारे लिए सुंदर

स्वर्ग सा संसार रचूँगी

तब तक अपनी अनुभूतियाँ

सीपी में बंद मोती सी रखो

रोज सुबह लहरों की

मुरकियां गिनो जो

बहती है हवा में

मैं जल्द लौटूंगी

उस दिन जब

सूर्य नहीं उगेगा

अजीब लगा मुझे भी

देख रहीं हूँ सूर्य

रोज आ रहा है और

रोज मेरी हसरतों की

रसधार किरणे पीकर

जगमगाता है

मैं फेन की तलछट सी

अब भी बिखरी हूँ

इंतज़ार के

खामोश तट पर

मोती निकली खाली

सीपियों के

खोलों के साथ !
"अधूरी हसरतें !"
घुमक्कड़ हो गई
मन की अधूरी हसरतें
खानाबदोश सी घूम रही है
रेगिस्तान की रेत पर

जल ढूंढ़ रही है
सूखती बेल सी
लिपट सपनो के वृक्ष पर
बहती तेज हवा संग
इंतज़ार कर रही है
समय माली का
जो सींच कर फिर
हरा भरा कर देगा उसे
कभी कभी मुझे
नुरानी रूह सी लगती है
यह अधूरी हसरत जो
उड़ती रहती है
मन आसमान पर
पाखी सी बिना
आस छोड़े
ढूंढ़ती रहती है
आशाओं का शरीर
जिसमे प्रवेश पाकर
शायद कर पायेगी
पूरी अपनी
अधूरी हसरतें
तब तक यूँ ही
यायावरी हवा सी
डोलने दो उसे
जीवन के जंगल में!
"जीवन चक्र!"
जीवन चक्र

एक लम्बे साये सा

आगे की तरफ था

पीछे पीछे भागी उसे

पकड़ कर बाँधने को

लेकिन धूप की तरह

हाथ न आया और

अंत में में मेरे मन के

अभिमन्यु ने सुझाया

तुम इसे छोड़ दो

मान मृगतृष्णा

क्योंकि साया नहीं देता

किसी का साथ

यह तो ओढाता है

आपको नकाब

बात समझ आई तो

साये को मैंने

पीठ दिखाई

पीछे देखा

चकित हुई थी

देख कर कि

वो परछाई मेरे

पीछे पीछे आ रही थी

मेरे साथ चल रही थी

पर मैं अब उसकी

पकड़ से दूर थी बस

थोड़ी सी हैरान थी!
 
"एक अधूरी हसरत के परींडे !"
मन के इतिहास में
जीवन का हर क्षण
नियंता हैं और विरासत में
सौंप गया है प्रारब्ध
जो एक अधूरी
हसरत के परींडे पर
कच्ची मिट्टी के
कुम्भ की तरह रखा है
जीवन के आँगन में
जिसमे अस्मिता की
अलगनी पर
कपड़ों की तरह टंके हैं
भ्रमित आवरण
प्रश्नों के कंगन और
कालखंड की परिधि के
साथ घूमते हैं
आस्था विश्वास और
संवेदना के
दिग्भ्रमित
तदन्तर बंधन !
"अधूरी हसरतों को!"
हम कभी कभी
अपनी अधूरी हसरतों को
मन के उड़नखटोले पर
बिठा कर उड़ने देते हैं
भावनाओं के पार
बहती हवाओं के साथ
हसरतें बहती रहती हैं
चाँद तारों वाले
आसमान तक पहुँच
वो बादल बन जातीं हैं,
बूंदों को समेट
वो भारी हो जातीं हैं और
एक दिन एक पाखी बन
धरा पर उतर आती हैं
एक नया नीड बनाने ..
.तभी .समय का लकडहारा
वहां से गुजरता है और
उस तरु का तना
काट कर ले जाता है
हसरतों की रूह उसी में
अटकी रह जाती है ...
लकडहारा बढ़ई को सौंप कर
सिक्के खनखनाता
लौट जाता है ..
बढ़ई बड़ी तन्यमयता से
उस तने पर नक्काशी कर
एक सुंदर राजमहल में
रहने वाली राजकुमारी के लिए
एक साज़ तैयार करता है और
हसरत की रूह
उस साज़ के तारों में
दफ़न हो जाती है
जब भी कभी उदासी से
घिर जाती है
उस साज़ के तारों को
राजकुमारी छेड़ देती है और
कुछ देर तक रूह के आसपास भी
सुकून का संगीत
बज़ एक लोक कथा की तरह
घर आँगन में दोहराया जाता है
कि राजकुमारी के अंदर
एक रूह रहती है जो
उसकी हर इच्छा पूरी करती है ...
अगर सुबह सुबह कोई
दर्शन कर ले राजकुमारी के
मासूम चेहरे के तो
सभी मन्नत पूरी होंगी
बस तभी से
राजमहल के बाहर
भीड़ लगी रहती है .....
कौन है यह रूह
,कहाँ से आई
इस पर वैज्ञानिकों के
शोध चल रहें हैं और
पिंजरे में बंद तोते से
सवाल पूछ जा रहें हैं ..
.कहानी का अंत जाने
कब पूरा होगा यह केवल
वैज्ञानिक ही बता सकेंगे...
तब तक इंतज़ार करें
बस अपनी हसरतों और
खवाबों को पूरा करने की
कोशिश हमेशा जारी रखें
"जीवन चक्र का अभिमन्यु !"
चक्रव्यूह सा

जीवन चक्र था

सुख दुःख के

पहरेदार खड़े थे

अंदर की

खामोशियों में

दांव पेच बहुत बड़े थे

मन का अभिमन्यु

चुप शांत खड़ा था

रहस्य में लिपटी

पतझर सी बिखरी

पत्तों सी विकलता

चहुँ ओर पड़ी थी

बंधक से

संवाद जड़े थे

अंधी बहरी व्यस्थाएं थी

पर घुसना था उस

वीहड़ पड़े

मौन वर्तमान में

तोड़ना था मन के

अभिमन्यू को

अनबोली चट्टानों के

रेगिस्तान में

ढूँढना था

चक्रव्यूह का द्वार ताकि

पी सकें कालिख सा

अंधियारा

और उगा सकें

डाल डाल पर मन की

दुनिया में खिले

सुमन सा उजियारा

बना जीवन को

एक मधुबन !
"एक बीज की तलाश !"

रिश्तों के

बीज लगा

आज तलाशे

तरु आशाओं के

तृण तृण जोड़

नीड बनायेँ

नवजीवन के

फूल खिलायें

फिर बोयें

ढाई आखर के बीज

फैंक धूप की धाराएँ

नया आकाश बनाये और

एक सूरज बन

किरणों से

बिखर धरा पर

छा जाएँ
!
"रोपने को एक बीज !"मन बगिया में

तलाश किया

रोपने को

एक बीज

जो नींद माटी में

उगाते हैं ख्वाब

जो फूल से

उगते हैं

जो गान हैं

कोयल के

जो बहते हैं

कलकल

सरिता से

जो जल कर

अगरबती से

मन मह्कातें हैं

फिर पंछी की तरह

आकाश पर

उड़ जाते हैं और

भोर की

जादुई ताजगी तक

बन सितारे

जीवन में जगमगाते हैं!
 
"प्रेम के बीज!"
 तलाश कर

प्रेम के बीज

एक गुलशन

उगाना चाहती हूँ

बंज़र भूमि को

उर्वर बनाना चाहती हूँ

सृज़न के हर क्रम में

'जागृति लाना चाहती हूँ

रिश्तों की

अनुभूतियों को

आस्था विश्वास के

प्रस्तरों से पुख्ता

बनाना चाहती हूँ

जग से मिटाने को

भ्रष्टाचार -आतंक

भुखमरी -गरीबी

मैं नया परचम

फैलाना चाहती हूँ

सदभाव भरे मैं

नए गीत गाना

चाहती हूँ ....

मैं नए गीत

गाना चाहती हूँ...

मैं नए गीत

गाना चाहती हूँ ....!
"मेरे सपनो के ताजमहल !"
सपने जब बोती हूँ
बिखरी नींद समेटती हूँ
दूर बादलों छुपी धूप में
एक छाया बनाती हूँ
देर तक बारिश के संग
गीत मल्हार गाती हूँ
खामोश मौसम में
पंछी बन उड़ जाती हूँ
स्वाति बूँद सी जब
सीपी में गिर जाती हूँ
मोती बन चमकती हूँ
और जब अकेली होती हूँ
खुद से बतियाती हूँ
अँधेरा होते ही रोज मेरे
सपनो के ताजमहल पर
एक रूह सी मंडराती हूँ !
"समय के पाखी!"
 
महत्वाकांक्षाओं के
कंगूरों पर बैठे हैं
समय के पाखी
उड़ने को
आसमान में
हम पर पंखहीन
आसमान को
देख रहे हैं
पाखी से
जरुर कुछ पाना है
अकेला मन है
बाधाओं की धूल है
घर बहुत दूर है
संघर्षों की आंधी हैं
चक्करघिनी सी
डोल रही है कश्ती
नज़र नहीं आती
कोई भी बस्ती
फिर भी नए
घर सजाने हैं
आँखों में सपनो की
इंटों से जगमगाते
ताजमहल बनाने हैं
इसलिए ढूंढ रहे हैं
पारस खान !
"घोटालों का रावण !"
घोटालों का रावण
कब तक हरता रहेगा
सदाचार की सीता
ब्रह्म खो कर कब तक
छलेगा भ्रम का
स्वर्ण मृग
कहाँ खो गया
गाँधी जी का
सच्चाई का पाठ्यक्रम -
कौन पढ़ा रहा है
झूंठ की पोथियाँ
कौन उगा रहा है फल
जिसमे स्वाद नहीं
बस है कसैलापन
अब तो जागो
बदलो देशवासियों
वक्त आ गया है
पहनो चोला
इमानदारी का
खोलो अपनी
तीसरी आँख
बंद करवाओ
घोटालों का यह
वीभत्स आचरण !
"घोटाला !"
घोटालों की पिटारी
खोल कर दिखा रहें हैं
सपेरों से
फन खोले साँपों को कुछ लोग
और निकाल कर
जहर उनका बेच रहे हैं
कोई पूछे उनसे कि
मानव होकर
क्यों खेल रहे हैं
दानवता का खेल
बढा रहे हैं भुखमरी
कुम्हला रहा है
हमारा देश
यह बुद्ध गांधी
रवीन्द्र के देश में
कैसा धर लिया है वेश?
न किसी का डर इन्हें
न कोई शर्म
जमाखोरी - घूसखोरी का
माया जाल फैला कर
देश को विश्व में
गिरा रहें हैं
फूटपाथ पर गरीबों की
भीड़ बढ़ा रहे हैं
अपना जमीर बेच कर
देश को पाताल में
ले जा रहें हैं!
" घृणा का रावण जलाएँ !"
 
जल उठा
धू धू तुम्हारा
भ्रमित अभिमान
रिश्ते नाते
वैभव का किया
तुमने बहुत अपमान
बना दिया था जीवन को
तुमने एक शमशान
जरा सोचो
सभी साथियों
क्या लेकर
हम जाते हैं?
बस एक
कर्मो का टोकरा
संग बाँध ले जाते हैं
बाकी सब
यहीं रह जाता
और रह जाता मान
इस पावन पर्व पर
हम सब मिल
क्यों न
घृणा का जला कर रावण
आओ करें
सद्भाव के कुछ काम
हमारे जाने के बाद
बस याद रहें हम
रहे बस याद हमारा
सद्भावना से किया
नेक काम !
 
" तुम आवाज़ हो!"
 
राम तुम आवाज़ हो
इतिहास की
लहरों से टकरा
बार बार लौटते हो
रावण के
अधर्म को मार
फिर दूर
बहा ले जाते हो

राम तुम शक्ति हो
हर विजयदशमी पे
बुराई पर अच्छाई का
सन्देश ले आते हो

रावण के अस्तित्व को
राख करके
अँधेरा मिटाते हो
उजाला ले आते हो

राम तुम बस
राम हो
तुम्ही से सीखा
मर्यादा रखना
मन में शक्ति -भक्ति भर
अन्याय के खिलाफ
लड़ना मरना और
सच का सामना करना! 

"राम महिमा !"
राम-एक नाम है
सुमधुर झंकार का
अमृत संचार का
दर्शन का- प्यार का
राम- सुंदर रूप है
बादलों में जैसे धूप है
सृष्टि का प्रारूप है
एक सहज स्वरुप है
राम- मनमोहक है
छवि राम की सोहक है
मोहमाया का धोवक है
शक्ति का संयोजक है
राम- एक शरण है
अमूल्य उनके चरण हैं
राम- जीवन का धन है
मोहमाया एक भ्रम है
"नदी का द्वीप!"
मैं नदी सी हूँ पर
कभी बहती नहीं
मैं रुकी भी नहीं
मैं धारा भी नहीं
रुक कर तो
रेत हो जाऊँगी
बहुऊँगी तो
सागर में मिल
अस्तित्व मिटाऊँगी
तब मैं नहीं रहूंगी मैं
फिर मैं क्या हूँ ?
ओह, मैं सेतु हूँ
सागर और नदी के
रेतीले तट पर
संगम हूँ
मिला दोनों को
बंधुता का भाव
सिखाती हूँ
और नदी का द्वीप
कहलाती हूँ 
"मन मेरा है यायावर!"
मैं उदय हूँ
पर सूर्योदय नही
मैं डूबती हूँ पर
सूर्यास्त के
सूर्य सी नहीं
जल हूँ मैं पर
पोखर का नहीं
नदी हूँ मैं पर
बहती धार नहीं
बादल हूँ मैं पर
बरसती नहीं
वीणा नहीं पर
सप्तक सुर में
बजती हूँ मैं
मैं धनु हूँ
साधती हूँ
खुद को तो
प्रत्यंचा टूटती नहीं
मैं तो बस मैं हूँ
स्थिर रहती हूँ पर
किसी भी सीमा में
बंधती नहीं पर
मन मेरा
है यायावर l
"मन की किताब में !"
कुछ मौसम मैंने संभाल रखें हैं
मन की बगिया में उतार रखें हैं
जो रंगीन तितलियों से उड़ते हैं
टिटियाती चिड़ियों के सुरों में
मधुर गीत भी बुन के रखें हैं
जो दिन भर मंजीरों से बजते हैं
रंगीन रिश्तो के आइनों के भी
रंग किर्चों से निकाल रखें हैं
बिखरे पंख यादों के पाखी के
मन - किताबों में संभाल रखें हैं 
"धरती हरी भरी रहे!"
ओ मौसम
कहाँ खो गयी
तुम्हारी कोमलता

पहले तो तुम
जब भी आते थे
धरती के प्रांगण में
माधुर्य भर जाते थे
अपनी मधुर प्रगीतियाँ
तितलियों को सुनाते थे
अरुणमय क्षितिज़ में
कोयल बन जाते थे
लेकिन अब
नन्हे- नन्हे फूलों पर
तुम शनै- शनै उतरते
ऐसा क्यूँ करते हो
तुमसे ही कह रहे हैं हम कि
धरती से आकाश को
पहले सी दृष्टि दो
तुम्हारे भीतर
अक्षयकोष हैं
हरियाली का
उन्मुक्त होकर बरसाओ
नीलाभ आकाश में
धरती के आँगन में
हरित किरण लुटाओ
फिर पोषित पताका बनो क्यूंकि
देना तुम्हारा ही काम है
इसलिए अपने भीतर को
बाहर फैला कर
अखंड चैतन्य का
सुवास छितरा कर
खुद को पहचानो

तुम्हे पता है कि
तुम्हारे अंत का
कोई आरंभ नहीं है, न ही
आरंभ का अंत
इसलिए तुम खड़े हो
दिशाहारे से
एक शब्द एक स्वर कि
समरभूमि में और
अब तक शेष हो
यही नहीं देखी है तुमने
जीवन कि सभी ऋतुएं
अपने आगत की
अनागत की
स्वागत की!
"सीख सुनो एक अनमोल!"
माँ सीते ने की कामना
सुवर्ण मृग की तो
दुःख ने थामा हाथ
रूप बदला इतिहास का
राम से छूटा साथ
नियति ने छीना सुख
अशोक वाटिका में किया रुख
लेकिन प्रीत थी अनमोल
सीखा गयी न फंसों कभी
छल कपट से बोले अगर कोई
भ्रमित करने को मीठे मीठे बोल
फूंक फूंक कर कदम उठाओ
बाधा हटा राह बनाओ
सीख सुनो -एक अनमोल
विश्वास से संबल मिलता है
ज्यूँ कीचड़ में- पवित्र कमल मिलता है !

"दस्तक बूंदों की !"

आँगन की अलगनी पर
फिर बूंदों ने दस्तक दी
मेरे मन के गलियारे में
मेघदूत की आतुर
सांसें डोलने लगीं
बादलों की सर्द रुई
मन्त्र मुग्ध सी
साया बन
सहस्त्र धाराओं सी
झरने लगी-
कुंवारी कलियों पर
मंडराते भंवरों सी
गीतों की स्वर
लहरियां बजने लगी
मौसम की इस
नाज़ुक छुअन ने
आकाश के झीने परदे पर
खोल दिया इन्द्रधनुष और
गदराये बादलों के
साथ डोलने लगा
चंचल प्रबल मन
आँखों में उतार कर
स्वप्नमयी कल्पनाएँ
बांसुरी की मधुर तान सा
एक भीगा स्पर्श
भोर की नन्ही किरणों सा
जीने का नवसंदेश दे गया !
"मैं गांधी हूँ !"
मेरे देशवासियों
भारत को देखने
कई बार लौटा था मैं
हर दो अक्टूबर को अपनी
प्रार्थना सभा में भी
जाकर बैठा था मैं
जगह जगह रुक कर
मुझ पर लिखे
नारे भी देखे मैंने
देखा मैंने
मुझे राष्ट्रपिता का
मान दिया तुमने
मेरे नाम के दीप भी
सिराये सबने
मेरे लिए
स्वागत द्वार सजाए तुमने
लेकिन ना पढ़ा पाए
भावी पीढ़ी को
अहिंसा का पाठ
न काट पाए
बंटवारे के नाखून जो
भारत छोड़ आया था
वो भारत आज भी
टुकड़ों में मिला मुझे
जो काम छोड़ आना पड़ा वो भी
बंद बस्ते में बाँध दिया तुमने
असत्य भी ना उखाड़ पाए तुम तो
बल्कि एकता के वटवृक्ष को
जड़ समेत छांट दिया तुमने
दांव पेच की पछाड़ में
आम आदमी को ही
काट दिया तुमने
गांधी जो एक नाम था
उसे भी एक पोस्टर समझ
जगह जगह से टांग
फाड़ दिया तुमने
देशवासियों आशीर्वाद तुम्हे
पर सोचता हूँ
बहुत जी लिया
अब जीवन की
प्रपंचित जयमाल
उतार कर मुझे जाना होगा
पहचान खोये आदमी सा
अब मुझे मरना होगा
तुम देशवासियों मेरी इस
अंतिम मौन विदाई के
साक्षी रहना!
" मसान !"
बंद करो नरसंहार
बंद करो हत्याकांड
मासूमो की लाशों से
लहुलुहान हो गया
है मसान
कुछ तो डरो
क्या मिलेगा इस
आक्रोश से
कांखती कराहती
विलाप करती धरती पर
आंसूओं की नदी
इतनी न बढाओ कि
खुद भी डूब जाओ और
देश भी डुबो दो
तो चलो फिर
संकल्प लो खड़ी रहे
लौ देश में
प्रीत प्रेम की और
न बुझे कभी बाती
न फटे कभी
माँ की छाती !
 
"बुद्ध सी समाधि!"
जमीन से आकाश तक
रंग बिरंगे गुब्बारे उडाओ
अबोध बच्चों को
जीवन की
मासूमियत से
उड़ना सिखाओ
मज़हब की दिवार
न खींचो
सद्भाव के दीप जलाओ
बुद्ध सी समाधि लगा
बोधि वृक्ष और फैलाओ
सुंदर है जीवन इसे
नखलिस्तान बनाओ
घृणा के बीज बोकर
मत इसे कब्रिस्तान बनाओ
जिओ और जीने दो
इस नारे को जीवन की
उड़ान बनाओ !
" नन्ही सी फुर्सत !"
कई बार हम
अलसुबह उठ कर
सूर्य का स्वागत करते हुए
बड़ा सा सपना संजोते हैं
फूलों को खिलते देखते हैं
आकाश में उड़ते
पंक्तिबद्ध पाखियों को
निहारते हैं
प्रार्थना करते हैं और
हवाओं की अविदित
बहती घंटियों से
चौंक कर टांक देते हैं
जीवन की खूंटी पर
सपनो के रंग बिरंगे कपडे
फिर निकल पड़ते हैं
यथार्थ के पथरीले पथ पर
लकड़ी की तरह टेकते हुए
अपने आज को
जो अपने पांवों से नापता हुआ
हमारा इतिहास
भविष्य में दरवाजे पर
दस्तक देता है तो
हम समझ जाते हैं कि
विदा कर आये हैं
अतिथि की तरह
अतीत को/ समय के
इस ललछौहें सच को उठाये
हम नहीं जानना चाहते हैं कि
कितने दिन बचे हैं ,
क्या मिल पायेगी कभी
एक नन्ही सी फुर्सत ?
 



"कलम के दरवाजों से!"
शब्द निकलते हैं
कलम के दरवाजों से और
तितली की तरह
इधर से उधर
फडफड़ाते हैं
फिर कागज पर बैठ
भावों के मकरंद
उड़ेल देते हैं
इस मकरंद की महक से
इर्द गिर्द मंडराते
भावनाओं के
बवंडर के साथ
जीवन के आस पास
उड़ता रहता है
सौन्दर्य और
सात्विक ऋजुता
हु-ब-हू अपनी
उड़ान के साथ
फडफड़ा कर बैठी
तितलियाँ एक
सुदूर स्मृति की
धुंध के साथ
भीतर के अँधेरे से
बाहर आकर
एक सूखी रोशनी सी
टिमटिमाती रहती थी
कहती सी कि
"आइसक बाइनसन " की तरह
रोज लिखना
बिना आशा और  
बिना मायूसी के !

 "कोशिश करें !"
मेरे कुछ शब्द
गीत नहीं बने
हवा के साथ मिलकर
बिखर गए
शायद उन शब्दों ने
अपनी पहचान खो दी थी
शब्द खामोश समुन्द्र पर
बिखरी सीपी शंख से
इधर उधर पड़े थे
दूरागत लहरों से
प्रेरित होते से
उन स्वर लिपियों को
मैंने चुन चुन कर
एक बार फिर
कोशिश की
गीत बनाने की
उस सुबह
अच्छी रोशनी थी
सुबह का तारा
चमक रहा था
मैंने देखा मेरे शब्द
चिड़िया की तरह
उड़ने लगे हैं
चह्चहांते हुए
लहरों के संगीत के साथ
गीतों में उतरने लगे हैं
उगाही गयी
जीवन की आशा के साथ!

बिना मायूसी के !
"अब कहाँ बनायें हम घोंसला!"
समय की गति के साथ ही
कितना कुछ बदल गया
खुली खिड़की बंद रहने लगी
वेश बदल बदल कर
बहुरुपिया मौसम को
जब मैंने देखा
अपने आस पास तो पाया
बंद मुट्ठी की तरह
मौसम भी पहाड़ों ,पेड़ों ,झरणों पर
मार्ग बदलती नदियों पर
प्रश्नचिन्ह सा दंग रहने लगा है
सूर्य जन्मोत्सव पर
उजाले का अंकुरण होता तो है
गिरती तो हैं अलसाई उतरती धूप
साँझ की नेम प्लेट पर भी
पर घरों में सुबह सवेरे मुंडेर पर
बोलता काला कौआ अब
विचलित दिखता है
मानो पूछ रहा हो कि घर परिवारों की
उल्लास भरी आवाजें
अब क्यों नहीं आतीं
न ही चह्कती है चिड़िया
खुले स्वर में उनका चहचहाना
ऐसा लगता है जैसे अपनी पीडाएं
कहते- कहते वो भी पूछ रही हों कि
अब कहाँ बनायें हम घोंसला
न रहें हैं पेड न निम्बोली
जंगल सारे नंगे उजाड़ खड़े हैं
चिड़ियाँ गाती तो हैं पर
संवाद मूक हैं
शब्दों में कथन नहीं है
दर्द है बस दर्द
धूप छाया से अठखेलियाँ करते
वन उपवन के शतदल सूखने का !
"मील के पत्थर मत गिनो!"
हम बहुत दूर चले गए थे
हमे नहीं मालूम था
कैसे रुकें
हम जानते थे
आगे बढ़ना
हमेशा से विश्वास करते थे
एक कदम आगे बढेगा
तो उत्साह की दिशा में
नया मार्ग मिलेगा
हम चालाक थे
बंदर की तरह उछलते कूदते
यहाँ से वहां छलांग लगाते थे
पहाडो -पेड़ों पर
ढूँढते थे उत्पादकता
धुंध आती जाती थी
हवाएं आकाश पर
मंडराती थी
पतझड़ -बसंत
हर मौसम
जीवन का हिस्सा थे
हमे याद दिलाते थेकि
जीवन में समय
हमे सिखाता है
सपने देखो ,आगे बढ़ो ,
मील के पत्थर मत गिनो
जमीन पर पैर
मजबूत रखो और दूर तक
चलते चलो एक आशा के साथ
एक चमत्कारिक
छलांग लगाते हुए !
"फिनिक्स पक्षी से !"
जब बहुत ख़ामोशी होती है
तब भी कभी कभी
शब्द बोलते हैं, शायद
वह आपके मन की
गहराई को तौलते हैं
कुछ मधुर कुछ
कडवे एहसास भी
पाखियों से
स्मृति के
आकाश में डोलते हैं
बिखरे कुछ सपने
नींद से चौंक कर भागते
दंतकथाओं के
फिनिक्स पक्षी से
फिर अपनी राख से
जीवित हो
संभावनाओं के नये
द्वार खोलते हैं और
मुक्त हो उड़ जाते हैं!
"आवाज़ दो कहाँ हो !"
फिर हुई आह्ट
पुरवाई थी
आवाज़ दे कहाँ है के सुर में
मौसम को बुलाती
,मौसम एक चिड़िया सा
वहीँ उड़ रहा था
हमेशा की तरह
उसके आसपास भी
उड़ रही थी कुछ
सूखी पत्तियाँ गुब्बारों सी
मौसम खुश था
यह सोच कर कि
दरख्त, फूल ,धरती- आकाश
सब उसे पहचानते हैं
जानते हैं, मानते हैं
स्वागत में धार लेते हैं
नए नए परिधान
रखने को अतिथि की तरह
मौसम का मान
वैसे तो ज्यादातर
हरियाले कपडे पहनते हैं
पर जब बसंत में आता हूँ तो
पीले परिधान पहन स्वागत करते हैं
रंग बिरंगे फूलों का
सौंप गुलदस्ता और पतझड़ में
भूरे पत्तों में
नृत्य दिखाते हैं
हवा के साजों संग
बारिश में पाखियों संग
चहचहाते हैं और
गर्मी में अमलताश -पलाश के
कालीन बिछाते हैं हर आगमन पर
पलक पांवड़े बिछाते हैं और
इन्हें देख मौसम भी तो
एक तितली सा हो जाता है और
फूल फूल पर उडता है
बस उडता है इनके प्यार की
सुगंध बटोरता !


"भूली बिसरी यादें !"
पाखी है यादों का
मौसम है वादों का
सूखी पतियों सी
बिखरी है
भूली बिसरी यादें
उड़ती रेशमी हवाओं में
अमावास की
काली रातें हैं
और चकोरी आकुल हो
पूछ रही है तारों से
मेरे आँखों के ख्वाब लेकर
कहाँ छिपा है मेरा चंदा
तुम्ही आवाज़ दो ना
ओ रेशमी हवाओं
वो जहाँ है उसी दिशा में
मैं भी निगाहों की
मखमली आशाएं
बिछा दूं और दर्द की
इस काली रात में
पीती रहूँ
प्रीत की हाला
मौसम भी मेरे
चारों तरफ
घूम रहा है
हो हरियाला
हर आहट पे
उठती है
मन में लहरें और
बुनने लगती है
भावों की नदिया
बहते सुनहरे सपनो की
पर बन जाती है
यादों की मधुशाला !
"सच !"
सच की रंग बिरंगी चिड़ियां
मुझे बहुत भाती है
सच मुझे बहुत प्रेय.है
उसकी महक मुझे
फूल सी महकाती है
सच अपने आप में
एक इश्वर है
जो पत्थर की अहल्या को
मानवी बना देता है
सच का ओज अग्नि तत्व
स्वयं एक शक्ति है
श्रेय है
केवल समिधा नहीं
पूर्ण महायज्ञ है !
"साथ निभाना !"
दिन ढलते ह़ी
ड्योढ़ी पर सांकल
खटखटाती रही हवा
घर पर सुस्ताते
थके मांदे लोगों से
जाने क्या क्या
बतियाती रही हवा
दूर खड़ा था कोलाहल
मनुहार करता सन्नाटे से कि
अब तुम करो पहरेदारी
मैं समेटे आवाज़ों को सोता हूँ
शहर -गाँव थके पसरे से
नींद की तारों वाली
बंधेज ओढा इन्हें
छवांता हूँ आँगन में
चाँद की कंदील टांग
तब तक जागना दोस्त
जब तक कि भोर की
पंखुडियां बरसा कर
फिरकनी सी चिड़ियाँ
चहक कर फिर से
मुझे न जगा दें
तब तक साथ निभाना दोस्त !

"सृज़न!"
एक छोटी सी कोशिश
मेरे सपनो की डायरी में
मंदिर की
घंटियों सी बजती रही
पखारती चली गयी
अपने हिस्से के
स्मृति कण
जो कुछ पल
अठखेलियां करते
मेरे आसपास दर्ज हो
पल्लवित् -पुष्पित होते रहे
और मैं सृजन करती रही
उन पलों से झरते अहसासों का
जो कैदी पंछी के
व्याकुल मौन सा
मेरे भीतर छिपा था
उन पलों के अहसासों का
वह अनवरत सुर
मेरे अंतर्मन को
स्पर्श करता चला गया
और मैंने पहली बार देखा
अपनी छोटी कोशिश को
बड़ी कोशिश में बदलते हुए
और सृजन की कोख से
सपनो को झरते हुए
खुले आकाश में
उन्मुक्त हुये
पक्षी सा उड़ते हुवे देखा और
मैं खुश थी कि
मेरे सपने कठपुतली नहीं थे

".जीवन के मंच पर !"..

शहर की रोशनियों पर
टपक रही थी रात
दूर तक पसरे से पेड़ों पर
हरी परछाईयां समेटती
स्मृतियों की रेलगाड़ी
गुजर रही थी
अतीत के पहाड़ों पर
फेंकती हुई ताम्बई रंग
कुछ उन्मुक्त सी मैं
आकाश में
पंछियों को देखती रही
जो परियों की तरह
उड़ रहे थे
सोचती रही मैं
अतीत अपना रहस्य
कभी नहीं खोलता
क्यों हम फ़िज़ूल ही
स्मृतियों को बुलाते हैं
एक आँगन ले आते हैं
भूले बिसरे लोग बिठा कर
उनके साथ ,बतियाते, हँसते हैं
गाहे- बगाहे यादों के झरोखे
खोलते बंद करते रहते हैं
जीवन के अनखुले मंच पर
चेहरे दर्ज कराते हैं
ठहरी हुई जिंदगी में
न जाने क्यो
अपनी तसल्ली के लिये
कठपुतलियां नचाते हैं !
==============
"नीला मौसम !"
हवाओं के संगीत में
जब सर्दियों की शाम ने
अंगड़ाई ली तो
एक गहरे अचम्भे से
चिडिया उड़ गयी पेड़ से
जाने किसे ढूँढने
तभी एक तारा टिमटिमाया
और समुंद्री पक्षी सा
आकाश के पानी में
तैरने लगा
बहती नदी सी
रात धीरे से आई
जलती रही मोमबती सी
गिरती रही धरती के
झुरियों भरे हाथों पर
ओस की तरह
मेरे मन ने कहा कि
कुछ ऐसा हो कि
सुबह ताज़ी
मौसम और गीला हो
यह आसमान और नीला हो l


 "वीर सैनिकों !"
ओ भारत के

वीर सैनिकों

बरस हुए

तुमने देखे नहीं

तीज त्यौहार

जब खाते हैं हम

पकवान मिठाई

तुम अपना फ़र्ज़ निभाते हो

हम उत्सव मनाते हैं

तुम रक्षा का भार उठाते हो

ठंडी धरा बिछौना तुम्हारा

खोह खंडहर- कोना

खुदकी न कर परवाह

हमारी जान बचाते हो

घने जंगलों में छिप कर

तुम दिन रात बिताते हो

दुश्मनों को हटाते हो

हमे बचाने को

तुम शहीद हो जाते हो

आज इस दिवस पर

तुम्हारी कुरबानियों को

शत शत नमन

याद में देश के भी

तुम्हारे लिए

आज के दिन

हमेशा रहेंगे

हमारे- भीगे नयन !
डॉ सरस्वती माथुर
 

 
 
 
 
 

 
 

 
 
 
 

 

 

 


 

 

 

 

 

 

 


 


 

 




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