मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

मन मौसम में

कस्तूरी सी
 छिपी रहती हूँ
कभी कभी
सरल पथों पर भी
रूकी रहती हूँ
कभी कभी

नैनों में सपना बन
गुलाबी कनेर सी
अमराई में
हवाओं के संग
ख़ुशबू बन
खिल जाती हूँ
कभी कभी

बाँध कर रंग
बासंती सुमनों के
तितली बन
मन मौसम में
मँडराती हूँ
कभी कभी

मन सागर में
उछाह मारती
रेत पर
ख़ाली सीपी सी
रह जाती हूँ
कभी कभी

क्षणिक देर को
रूह बन कर
जीवन आँगन से
उड़ जाती हूँ
कभी - कभी
डाँ सरस्वती  माथुर




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