मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

अलौकिक प्रेम

फिर जाने क्यों
मौन हो गयीं थीं अम्माँ
अम्माँ , वो तो हरदम
मृदंग सी बजती थीं
भिनसारे में जाग कर
सेवा स्तुति
ठाकुर जी की
वो नित करती थीं
बाबा के जाते ही
सारे पर्व -त्यौहार
भूल गयीं
सुबह की
पूजा भी छोड़ी
सूर्य को भूली
अर्ध्य  देना
बाबा का
चित्र देखती
जाने क्या थीं
सोचती रहतीं
भूल गयीं थी वो
दिया बाती भी
बस याद रहता था
उनको केवल
सात फेरों का अपना
बिछड़ा हुआ साथी
अम्माँ कितनी
बदल गयी थी
उन्हें   ज़ुबानी
याद रहते थे
सभी त्यौहार
बाबा नहीं रहे
तब भी अम्माँ
करवा चौथ पर नहीं
पीतीं थीं पानी
इस अलौकिक प्रेम की
सुंदर यही थी कहानी
कहा करती थी कि
सात जन्मों तक रहूँगी
बस तुम्हारी ही रानी
कह कर अम्माँ ने भी
एक दिन
आँखें थीं मूँद ली
खुली पलकें थीं
छाती पर चित्र
 बाबा का रख कर
सोईं थी
उसी भिनसारे
सबने देखा
घर के आँगन में
एक चिड़िया का जोड़ा
चहकता आया था
किसी को भी उ़नके
चहकने से नहीं
हुई थी हैरानी
क्योंकि वो तो प्रजा थे
राजा को तो
मिल गयी थी
उनकी रानी !
डाँ सरस्वती माथुर


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