गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

तीन कवितायें 1. छोटी सी आशा 2 बहुत देर से 3। यादों के परिंदे


"छोटी सी आशा !"
अपने ही द्धारा
उगाये पोधों की
परछाइयों में बैठ कर मैं
खोज़ती हूँ खुद को
बिनती हूँ कुछ शब्द
मोती की तरह
फिर पिरोती हूँ उन्हें
कविता की माला में और
रख देती हूँ शीर्षक
कविता का -जीवन
जो एक मौसम सा है
पर मौसम की ही तरह
जीवन ने भी रंग बदले
 कब बीत गया जल्दी से
 पता ही नहीं चला
चलते चलते देखा
साँझ हो गयी थी
जीवन की भूली बिसरी चीज़ें
यादें बन कर फांस
हो गयी थी बाकी
कुछ याद नहीं
कैसे सब बीत गया
आगे बढ़ते बढ़ते
गाहे बगाहे पाया
समय भी मौसम सा ही
न जाने जब रीत गया
 पर यादें नहीं रीती
बचपन के इर्द गिर्द 
अब भी उड़ती हैं तितलियाँ
 अब भी दौड़ती हैं गिलहरियाँ
लेकिन न जाने कब
मेरे लिए जिंदगी
 रफ़्तार हो गयी या
शायद मैं ही अन्मयस्क सी
कहीं खो गयी पर
कविता के लिए अब भी
एक संभावना थी
जीवन के लिए छोटी सी
अब भी एक आशा थी
सत्यम शिवम् सुंदरम की तरह  !
डॉ सरस्वती माथुर 
2


"बहुत देर से !"
कई बार पेड़ हो जाते हैं
हमारे सम्बन्ध
खूब शाखाएं फैलाते हैं
कभी इधर फैलते
कभी उधर फैलते हैं और
कभी वही सम्बन्ध
समय की हवा में
पतझड़ के पीले पत्तों से
झड  बिखर जाते हैं
इधर उधर और
सरसर करते
नंगे पेड़ के
बिना संबंधों के इन
 सुरमई पत्तों से फिर
हम बचते रहते हैं
 एक दूसरों से
,अपनो से और
सम्बन्ध लगते हैं हमें
'सपनो से
चीज़ें अपनी जगह
बदल जाती है
मन में घाव
अमिट कर जाती है
भावनाओं की
नीली चिड़िया तब
नंगे पेड़ की शाखों पर
बोलती है पहचान की बोली
पर सूखे पत्तों के
झरने में हम ही
नहीं महसूस कर पातें हैं
उसका हरापन
और संबंधों का झरना
समय की नदी के
बहते पानी के साथ
समुन्द्र बन
शांत हो जाता है
देखते हुए खालीपन का
नीला आसमान
ज्वारभाटे सा
कभी कभी उठने को
लेकिन तब तक
बहुत देर हो जाती है
बहुत देर!
3
"यादों के परिंदे !"
काश हम इन्द्रधनुषी
बीते दिनों को
समय के पिंजरे में
कैद कर सकते
जब चाहे निकालते
पिंजरे से और परिंदों से
चह्कने देते
यह प्रतीक परिंदे
सांध्य तारों की तरह
चमकते और
फैला कर पंख मोर से
फिर लौटा देते
इन्द्रधनुषी बीते दिन
जो आज भी
जलते दीपों से
रौशनी छोड़ते हैं
यादों की
जो चह्चहाते रहते हैं
रंग बिरंगी चिड़ियों से
मन के इर्द गिर्द
जिंदगी के बगीचों में!
डॉ सरस्वती माथुर

 

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