मंगलवार, 27 जनवरी 2015

मन और मौसम

मन और मौसम
1.
चिड़ियाएँ भी
ख़ुशी से चहचहाई
लहलहाती
बसंत उत्सव में 
हवा में ज्यूँ बालियाँ ।
2.
साँप सीढ़ी सा 
मन और मौसम
चढ़ा उतरा
हवा में अलगोजे
गुनते रहे गीत ।
3.
बाट जोहती
परिंदों की शाखाएँ 
बेखौफ आंधी
दाना  चुगा उड़ा के
जाने कहाँ जा छिपी।
4.
वक़्त की चील
खंडित बुर्ज पर
मँडराती सी
ढूँढती रही तन 
रूह ले फुर्र हुई।
5.
तेज हवा ले
थरथराता पेड़
जडें जमाता
नीचे पतों का सोग 
आकुल कर जाता।
डाँ सरस्वती माथुर 

2.
साँप सीढ़ी सा 
मन और मौसम
चढ़ा उतरा
हवा में अलगोजे
गुनते रहे गीत ।
3.
बाट जोहती
परिंदों की शाखाएँ 
बेखौफ आंधी
दाना  चुगा उड़ा के
जाने कहाँ जा छिपी।
4.
वक़्त की चील
खंडित बुर्ज पर
मँडराती सी
ढूँढती रही तन 
रूह ले फुर्र हुई।
5.
तेज हवा ले
थरथराता पेड़
जडें जमाता
नीचे पतों का सोग 
आकुल कर जाता।
डाँ सरस्वती माथुर 


बुधवार, 7 जनवरी 2015

सक्रांति पर कवितायें / सेदोका

"सक्रांत का मौसम !"
सक्रांत का मौसम
भावनाओं के नभ में

उड रही- नेह की पतंग
गुड सी मीठी हवाएँ
अंजुरी में भर कर
खुशियों के तिल
आओ हम सब रहें
मन की डोर बांध कर
जीवन में हिल मिल !
डॉ सरस्वती माथुर



"सक्रांति की चिड़िया !'

धूप के चावल
द्धार पर रख

सूरज ने
रंगोली बनायी

हवायेँ लीप गयी
घर आँगन

मन तिनके
बुहार गयी

कल्पना के
अनुरूप

बंदनवार
लगा कर

सक्रांति की चिड़िया भी

अपने पंख पसार गयी

पतंगों की तितलियाँ

नभ के फूलों पर उड़ी

रंगों में हस्ताक्षरों से

मन चौखट पर आस्था का

रोशन दिया बाल गयी l

डॉ सरस्वती माथुर


 "
मकर संक्रान्ति !"
संक्रान्ति पर
रंग बिरंगी पतंगें
पाखी सी नभ में
बाँध डोर उड़ती
सर्द हवाओं के
पंखों पर बैठ
लहराती बल खाती
नभ से जा जुड़ती

सूर्य जब प्रयाण कर
उतरायण में आता
धरा पर धूप का
दस्तरख़ान बिछाता
गुड मूँगफली गजक
जन जन को है भाता
प्रेम प्रीत का यह पर्व
मकर संक्रान्ति कहलाता ।
डाँ सरस्वती माथुर

सोमवार, 5 जनवरी 2015

"सूरज रे जलते रहना !"/

"सूरज के चरखे !"
सर्दी का उपहार
शीत सरसे ठंड बरसे
करो अलाव तैयार
सक्रांति त्योहार
...
'पाखी सा मन
पतंगों की बहार
मौसम में सनसन
उडे गगन के पार
सूरज के चरखे
प्रेम रस बुन कर
दिलों को परखें
जोड़ आस्था के तार
तिल गुड की मिठास
सद्भावी व्यवहार
सबको ले आए पास
यही त्योहार का सार
डॉ सरस्वती माथुर


"धूप शैफाली खिलती!"
ओ  रे सूरज
धूप  शैफाली खिलती
धरा पर
झरझर झरती

धरा कलश में
स्वर्ण किरणें भरती
चाँदी  की  जाजम
मखमली लगती
ओ रे सूरज
धूप शैफाली खिलती

कितना  मोहक
धूप का रूप
तुम भी हो भास्कर
काम्य स्वरूप
संग तुम्हारे भिनसारे
रानी सी नख़राली चलती

ओ रे सूरज
धूप शैफाली खिलती

नभ के वन से
धरा पर
हिरणी सी कूद के
चपला सी चलती
रंगरेज सी सिंधु रंग
साँझ में ढलती

ओ रे सूरज
धूप शैफाली खिलती !
डाँ सरस्वती माथुर


"दिवाकर अरुणाया!"
पर्व सक्रांति
गुड धानी ले कर
जन जन को भाया ...
रोशन किरणों का
जाल पिरो कर
धरती पर आया

भिनसारे जब
पाखी थे जागे
बच्चे बूढ़े संग सब
बेदम छतों पे भागे
तिल गज़क खाया
धूप डोर बांध
सूर्य पतंग सा डोला
सक्रांति में प्रेम भर
जन मन को खोला
गगन में लहराया
शीत लहर के
तेवर तीखे थे
गुड तिल के व्यंजन
पर नहीं फीके थे
हो मीठा मधुराया
बदली दिशा
दिवाकर अरुणाया
सर्द पुरवा में जब
मौसम गरमाया
जाति पांति भूल पर्व
सक्रांति शांति लाया l
डॉ सरस्वती माथुर


"सूरज जलते रहना !"
ओ गगन के दीप
यूँ ही तुम जलते रहना ...
तुम उत्तरायनण आते हो
थाम धूप का दोना
तुम उजास बहाते हो
चीर धुंध का सीना

ओ गगन के दीप
 यूं ही तुम जलते रहना
तुम जीवन सरगम हो
अनिल सर्द हो तो भी
तुम साँसों की अगन हो
सुबह से शाम गलते हो

 ओ गगन के दीप
तुम यूँ ही जलते रहना
अमृत कलश की धारा
ऊर्जा का ज्योति पिंड तुम
पीकर तिमिर तुम सारा
धरा में गति भरते हो

 ओ गगन के दीप
यूँ तुम जलते रहना l
डॉ सरस्वती माथुर











शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

2015 ......साहित्य का नया अध्याय पहली पोस्ट मेरे नए हाइकु ........मन परिंदा (3.1.15)

मेरे नए हाइकु ....

-डॉ सरस्वती माथुर

मन परिंदा
उड़ता फिरता सा
चुहल करता l

धीरे- धीरे से
माँ बाबा का घर भी
बदल गया l

मन किताब
गहरे अक्षर भी
मिटते गये l

मन का फूल
यादों की बगिया में
चुभता शूल l

धूप उदास
कुहासे  से झाँकती
पार न आती l

मैली हुई धूप
सूर्य के गौने पर 
बिगड़ा रूप  l

सोये पेडों को
झूला देती हवाएँ
लोरियाँ गातीं l

पेड़ों के द्धारे
गीत  सुनाता पाखी
आकुल पात l

अलाव जले
चौपालों पे तांत्रिक  
पीपल  तले l
१०
यादों की गंध
बिखरती  ही रही
मन आँगन l
११
मन जलाती
पुरनम हवाएँ
बुझ न पातीं l
१२
काँच सी यादें
टूट कर बिखरी
कौन समेटे !
१३
झरी  शैफाली
देर तलक रोई
पेड़ की डाली l
१४
गौद भराई
फूलों की करने को
आया बसंत l
१५
जोगी सा मन
हर  आँगन में आ 
प्रेम मांगता  l
डॉ सरस्वती माथुर
(सर्वाधिकार सुरक्षित)