मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

सरस्वती सुमन मासिक के हाइकु विशेषांक

सरस्वती सुमन मासिक के हाइकु विशेषांक
के लिये 

 हाइकु ...  डॉ सरस्वती माथुर 

 

 

 नदी की धारा
 सागर  में मिली तो 
 मिलन हुआ 
 
मन की चिड़िया
 स्वपन उड़ान में
  नींद से गिरी 
  
आँख की नमी
एक उच्छ्वास में
 मोती सी बनी 
 
 जीवन घडी
 टिकटिक करती
 रुक ह़ी गयी  
 
 अंगूर गुच्छे
 जीवन की तरह
 खट्टे मीठे से 
 
मधुर नींद
तितली की तरह
 उड़े सपने
 
सूखी पत्तियां
 सपनो की तरह
 झरती रही
 
जलते दीप
 हर क्षण जलते
  बांध रौशनी
 
बूढी माँ जैसा
 आज का चेहरा  भी
 झुरियों भरा
 
समुद्री पाखी
 बहुत लम्बी दूरी
  फैले हैं पंख
 
 टूटा  सा तारा
 गिरा आसमान से
 जला जंगल  
 
 कस्तूरी  मृग
 मौसम में बौराए
  दर ब दर
 
भोर की नींद
 हाथ हिलाते फूल
तारों की छाँव
 
गाँव भी  अब
 शहर हो गया है
  खोई चौपाल
 
 नींद सागर
 सपनो भरी नाव
  चलती गयी
 
हवा का गीत
दिन गिनता रहा
 रात सोई सी
 
 एक सुई सी
 उनकी तीखी हंसी
 आंख है नम
 
 पुस्तक मेला
 किताबों की मंडी सा
 किताबें तोलो
 
ऐशट्रे मन
 सिगरेट से हम
 राख़ मौसम
 
बीज रोपा है
 नये शब्दों का अब
 गीत उगेगा
 
कौआ उड़ा
 मुंडेर पर बोल
 गृहिणी डरी
 
उड़ा कपोत
पंख फडफडाता     
 डाकिया हंसा
 
जीवन  प्यार
 जैसे बज़ रहे हों
 वीणा के तार
 
चाँद छत  में
 लजाई  दुल्हन सा
  देर तक बैठा 
 
फिर लौटेंगे
 परदेसी पक्षी भी
 देश अपने  
 
कमल उगा
 दलदल पीकर
लक्ष्मी पे चढ़ा
 
 वक्त की राह
 सीधी ह़ी  जा रही थी
 मोड़ आ गया
 
 फसलें खेत
सैनिकों की तरह 
 खड़ी सचेत  
 
आगे समय
पीछे पीछे जिन्दगी
 हांफती हुई
 
चींटी से सीखा
 चढ़कर गिरना
 फिर चढ़ना
 
प्रकृति विषयक हाइकू
 सूरज जमा
 दिन हुआ बर्फ सा
 धूप ठिठुरी
 
 समय पढो
 प्रकृति  पहचानो
आज को जिओ
 
 भूरी पत्तियां
 पतझर लायी है
 पेड ठगा सा 
 
 झरना बहा
 पहाड़ी पगडंडी
 फैला नदी सा 
 
 दूधिया धूप
 आकाश से उतरी
 ले आई भोर
 
 हाथ हिलाता
 चौखट पर सूर्य
 जागी चिड़िया
 
 पीले से पात
 ऋतु के द्वार पे
 रुका बसंत
 
 आखिरी रंग
 उतरा आकाश में
 परछाई सा
 
 गौधूली आई
 मौन सा भर गयी
 थका सा दिन
 
 गिरी पत्तियां
 याद दिला गयीं हैं
 अंतिम विदा
 
 पतझर है
 पत्ते सरसराते
 पेड को ताके
 
 सर्द हवाएं
 कोहरे की चादर
 आओ ना धूप
 
सूर्य सुबह
 धूप ओढ़ के आया
 सभी को भाया
 
 आह्ट देता
 आया है पतझड़ 
 खाली घरोंदा
 
 सुबह ओस
 बंदनवार बनी
  फूल पे टंकी
 
 झरती बर्फ
रुई रुई मौसम
 खो गयी  धूप
 
 सफ़ेद फूल
 मेपल पेड पर
 पाहुन बने
 
 डूबता सूर्य
 कल भोर के संग
 आने वाला है
 
 आखिर पत्ता
 हवा में लहराया
 मौन विदाई
 
सतत प्यास 
बहती नदी चली
 धीमी उदास
 
झुण्ड में पक्षी
 सुरंग सा आकाश
 धीमी उड़ान
 
 हजारों सूर्य
 टिमटिमाते दीये
 एक आकाश
 
 कोयल डोली 
 डाल डाल फुदकी
 बसंत आया
 
 तितली डोली
 मकरंद पी बोली
 वाह बसंत
 
 हजारों तारे
 एक साथ  जगे से
 नीली रात में
 
 कड़ी धूप मे
बेकल से परिंदे
 सूर्य में आग 
 
 पतझड़ में
 झरी पत्तियां उडी
  चरमराई   
 
गंध पीती हूँ
खिली रजनीगंधा
 महका कर
 
 पंछी डोलते 
 पंखो को खोले हुए
 पेड ढूँढते 
 
 नभ बगिया
 अम्बर से निहारे
 पुष्प सितारे
 
 प्रवासी पक्षी
 ठंडी  झील में आये
 मौसम बदला
 
 जेठ की गर्मी
 तडपडाते  लोग
 छांह तलाशे 
 
 ठंडी हवाएं
 ठिठुरते से लोग
 जले अलाव 
 
 प्रवासी पक्षी
 झील में जलकुम्भी
 सर्द मौसम
..................................
.:डॉ सरस्वती माथुर 

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