मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

"गौरैया सी बऊआ!"

"गौरैया सी बऊआ!"
अमिया सी
खट्टी मीठी बऊआ... गौरैया सी फुदकती
चक्की पाटों को
रगड़ कर
धान फटक
रोज थी दलती
बड़ी थी चटपटी
कच्ची कच्ची
कैरी सी बऊआ
दोपहरी में
कडवे नीम तले
कुम्भकरनी खर्र- खर्रांटे ले
लम्बा सोतीं
मीठी मीठी बऊआ
फिर वहीँ बैठ
चाय सुड़कती
रामू- कालू की
ताई -चाची से
पडोसी की राम
रामायण सुनती
फिर दे सीख
पंडिता सी
दिया बाती कर
फिर फूंकनी से
संध्या का
चूल्हा फूंक
लहसुन चटनी पीस
रोटी - बाजरे की थापती
गाँव भर के किस्से
बिठा बिठा हमें सुनाती
बड़ी अटपटी सी थी बऊआ
अब न है चूल्हा- न ही चक्की
न ही बऊआ पर लगता है
जो गौरैया रोज नियम से
आँगन में उतरती है
वो ही है रसभरी
हमारी बऊआ
जो कहा करती थी
जनम मिले नया तो चाहूंगी
मैं कि बनूँ गौरैया
ताकि छूटे कभी न मेरा
यह पुश्तैनी घर- अंगना! ...........................................

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