मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

"पंख चाहिए पंख !"



मेरा वजूद

 इर्द गिर्द मंडराता है

 कभी मेरे भीतर उतर जाता है

 कभी बाहर आकर

 बाहरी आवरण के साथ

 एकात्म हो जाता है

मेरे वजूद को

 फूल बहुत पसंद हैं

 वे उनकी खुशबू के

आस पास मुझे ले जाता है

 तितलियों की तरह उनके

 आसपास से गुजरते लोगों को

 हैरानी से देखता है

 यदा कदा एक

 विस्मृत शख्स को

 याद करता है

कभी यादों को सुनने गुनने को

जो मन चाहे करता है

 मुझ से लड़ता है बहस करता है

कभी यूँ ही देखता है

 मानो मुझे पहचानता नहीं और

 कभी यूँ मेरे इर्द गिर्द घूमता है

 मानो मेरा जन्मदिन हो

 तब अपने आप से सवाल करती हूँ कि

 क्या करूँ अपने वजूद के साथ

उसके खिलाफ हो जाऊँ या उसके प्रति

 वफादार रहूँ और मेरा वजूद

 मुस्करा का कहता है

 दोराहे पर खड़ी हो पर याद रखो

 मेरी परछाई हो तुम और

गुलाब के फूलों से भी

 खुबसूरत है यह दुनिया-

 मैं ही हूँ तुम्हारी तलाश

 उम्मीद ,वाणी ,संघर्ष
 जमीन -आकाश

अगर मेरा चेहरा नींद है तो

 तुम्हारी आँखें सपना और

 जब तुम देखती हो मुझे

आकाश सा विस्तृत

 तुम नवजात चिड़िया हो जाती हो और

उड़ना चाहती हो

उसके लिए तुम्हे

पंख चाहिए पंख- बस पंख

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