सोमवार, 24 नवंबर 2014

"पखेरू से हम !"

मन के डैने
खोल पखेरू से हम 
उडते  रहे ,यहाँ वहाँ
जाने कहाँ कहाँ
एक सैलानी से
गुजरते रहे
कई मोड़ों से
भूले बिसरे शहरों में
 यादों की लहरों से
 खेलते हुये


 मौन की
सीपियों को
 बंद करते हुये
 अंजान पथों में
ज्वार सा जीवन
उमड़ घुमड़ कर जो
देता रहा है हमें
अर्थ ,दर्शन ,सोच ,दृष्टि
अंतर्मुखी चेतन
उन्हे हम जब तब
सजग हो पीते रहे


 टूटन के क्षणों में
 संबल का
 दीया जला कर
 जुगुनू  से उड
 ख्वाबों की रोशनी में
 जीते रहे
डॉ सरस्वती माथुर

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