सोमवार, 3 नवंबर 2014

"परम्पराओं ओर आधुनिकता के बीच !"

"परम्पराओं ओर आधुनिकता के बीच !"

मैं आज भी

निभाती हूँ परम्पराएँ

आधुनिकता का

जामा ओढ़ कर

 भूल नहीं पाती हूँ

 मैं  पीढ़ियों के परंपरागत

विरासत में मिले संस्कार

 

 ,याद रहता है मुझे 

 करवा चौथ पर

चाँद को अर्क दे

 व्रत् खोलना

 भादों की तीज पर

 निराहार उपवास करना

 सक्रांत पर

बायना निकाल

 बुजुर्गों का 

 सम्मान करना

क्यूंकी वो आज भी

मेरे जीवन का हिस्सा है

 

 हवाएँ कितनी ही बदलीं

 संदर्भ भी ख़्वाब हुए

 निरंतर बदले पर

 अच्छा लगता है मुझे

 आज भी सावन में

 मेहंदी लगाना

तीज चौथ पे  

 शृंगार कर सिंदूर से

 मांग सजाना

नाग पंचमी पर

 नाग को दूध पिलाना

 

आज बी शामिल है

हर वृहस्पतवार

पूजा कर केले की

 तुलसी पर दिया जलाना

 दीवाली पर

लक्ष्मी मैया को

मूंग चावल का

 भोग लगाना

गोवर्धन पूजा पर

 गाय को गुड खिलाना

 

हर त्यौहार पर

 शृंगार कर और

 पैर छूकर पति के 

स्नेहिल आशीर्वाद में भीग

 तृप्त हो जाना

 साथ साथ अपने

 वजूद के लिए

 आज भी

 नापना होता है मुझे

घर आँगन का

ऊंचा आकाश

 

 उसी कड़ी में 

घर गृहस्थी को संभालना 

कार चला बच्चों की

 टीचर पैरेंट्स

 मीटिंग से लेकर हर

सामाजिक बंधन की

रीति नीति निभा

अपनी उपस्तिथि 

दर्ज कराना 

 बुने हुए रिश्तों के

 बंधन निभाना

आज भी शामिल है

 

सच जीवन के

 खोल से लिपटी हैं

आज भी मेरे

 इर्द गिर्द परम्पराएँ

  और दहलीज़ पार

 खुले हैं दरवाजे जो

 आधुनिकता की

चुनौतियों के

चटक रंगो की

सीमा रेखा भी हैं जो

जरूरी हैं नए

 रास्तों  के लिए 

 उन्हे भी नापती हूँ

 

 साथ ही

परम्पराओं में भी

 अपने वजूद के

 सितारे  आस्था पिरो  

 टाँकती हूँ

क्यूंकी यह परम्पराएँ

आधुनिकता के साथ

 मिलकर आज भी मुझे

 विश्वास देती हैं

 भ्रमित नहीं करतीं! 

डॉ सरस्वती माथुर

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