सोमवार, 10 नवंबर 2014

"मन उड़ता रहा !"

 
"मन उड़ता रहा !"
मौन के सन्नाटे में
 बिना पंख के
मन ने उड़ान भरी
देर रात तक
रतजगा करते
 खवाबों से बतियाता रहा 
चाँद  खामोश सा
 नभ समुन्द्र के किनारे
 चहलकदमी करता रहा
अलसाई सी चाँदनी भी
 पीछे पीछे चलती रही
 पीली रोशनी
 सरसती बरसती रही
 तारे रात की
 डूबती पदचापें सुनकर
जाने कब सो गए
 पर मन उड़ता रहा
  जाने किन रिश्तों को
 खोज रहा था वो
उस खुले आसमान में
जिसके सारे
 छोर बंद पड़े थे
तभी पेबद  लगी 
 संवादी भोर उग आई और
मन - जले दीपक बुझा कर
 शोर के आगोश में बेबाक
थका मांदा उनींदा हो गया
 गुमसुम मौसम में
 कुछ गीत गाता
 गहरी नींद में सो गया
डॉ सरस्वती माथुर

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