सोमवार, 24 नवंबर 2014

"मैं जीना चाहती हूँ !"

एक गिलहरी की तरह
कभी कभी मैं
कुतरती हूँ
 अपना वक्त
जो घसियारे सा
काटता रहता है मुझको
और बंद रखता है
देह पिंजरे में रूह  को
मैं खोल्न चाहती हूँ
इस देह का पिंजरा
 ताकि उड सकूँ
रात में सपने का
बुक्कल पहन
सुदूर आसमान में
 और फिर भोर होते ही
 लौट आऊँ
देह के पिंजरे में
क्यूंकि मैं जीना चाहती हूँ
फूलों के रंगों के साथ
बसंत के मौसम के साथ
चाँद तारों की  रात के संग
भिनसारे में चहकती
चिड़िया के संग
मैं देखना चाहती हूँ
उगते सूरज के संग
उगती सिंदूरी लाली का
सिंदूरी पल जब वो
सागर का चुंबन कर
धूप के मोती लुटाती है और
मैं जीना चाहती हूँ
तितलियों के संग
जो फूलों पर उड
उनसे मकरंद चुराती है
मैं डूबी रहना चाहती हूँ
रिश्तों की चाँदनी में
और थोड़ा- थोड़ा
 छूट जाना चाहती हूँ
सभी  अपनों  के दिल में
धड़कन की  तरह !
डॉ सरस्वती माथुर








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