रविवार, 30 नवंबर 2014

"नदी हूँ पर प्यासी !"

"नदी हूँ पर प्यासी !"
मेरी कविता की
नदी हमेशा
बहती रहती है
शब्दों की लहरों से ...
खेलती है और
मेरे मन की
प्यास बुझाती है पर
जाने क्यूँ कविता की
इस नदी में बहते हुए भी
मैं प्यासी ही रह जाती हूँ
लहरों सी तट पर
मेरी अभिव्यक्तियाँ
थपेड़े खाती है और
भावनाओं की रेत
छानती हुई
वापस लौट जाती है
पर मेरे मन की कविता
हमेशा बहती ही रहती है
कल कल
कल कल
कल कल्ल्ल्ल कल!
डॉ सरस्वती माथुर

"पधारो म्हारे देश"..

 




                                                दर्शनीय बाज़ार जयपुर के
पर्यटन के क्षेत्र में राजस्थान को विश्व मानचित्र में प्रमुखता से जाना जाता हैl यहाँ के शहरों में जयपुर का विशिष्ट स्थान है l सम्पूर्ण रूप से सुव्यवस्तिथ नियोजित शहर के रूप में विश्वविख्यात जयपुर की खूबसूरती कवि की सुंदर परिकल्पना प्रतीत होती है ! आंकड़ों की बानगी पर गौर किया जाये तो भारत में आने वाला हर तीसरा पर्यटक जयपुर अवश्य आता हैl जेम एंड ज्वेलरी व् रत्नाभूषणो के प्रमुख केंद्र होने के नाते व्यापारियों की आवक भी दिन- ब- दिन बढ़ने लगी है lयहाँ की ज्वेलरी और हस्तशिल्प दुनिया भर में पसंद किये जाते हैं l
यहाँ के दर्शनीय बाज़ार आज भी सजीव हैं और सैलानियों को आकर्षित करते हैं.... यह कह कर की "पधारो म्हारे देश"...जो भी पर्यटक यहाँ आता है, चिरस्थायी स्मृतियाँ लेकर ही लौटता है! इस शहर का जन्म सन १७२७ में मात्र २ लाख लोगो को बसाने के लिए किया था और आज यही शहर फैशन की दुनिया में एक चमकीले सितारे की तरह उभर रहा है!
यहाँ की हर गली एक क्राफ्ट लेन की तरह हैl जयपुर ज्वेलरी के अलावा अपनी हस्तनिर्मित क्राफ्ट पद्धति के कारण भी जाना जाता है l जयपुर की जो ब्लाक और सांगानेर प्रिंटिंग है वो विदेशों में खासतौर पर पसंद की जाती हैl यूरोप व् अमेरिका में विशेष रूप से हाथ से बनी चीज़ें यानी" जयपुर क्राफ्ट आइटम'"की बड़ी मांग है और इन चीज़ों की निर्यात से जयपुर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी पहचान बना रहा है lयहाँ के बंधेज ,बगरू प्रिंट ,सांगानेरी प्रिंट, रंगीन सेमी प्रेसेयस स्टोंस, टोपाज ,तनजेनाईट ,विविध डिजाइन के गहने ,ब्रसेलट,झुमके ,मोती ,हीरे ,अपनी चमक और खूबसूरती से आपका मन मोह लेंगेl यहाँ के" कुंदन आभूषण "सारी दुनिया में निर्यात किये जाते हैlयह शहर विशेष रूप से "जौहरियों का गढ़ है" हर गली व् पुरानी इमारतों में बहुत सी जौहरियों की गद्दियाँ हैं, जहाँ बैठ कर व्यापारी अपना व्यवसाय चलाते हैं !
जौहरी बाज़ार के अलावा यहाँ चौड़ा रास्ता ,छोटी चौपड़ ,बड़ी चौपड़ ,त्रिपोलिया बाज़ार ऍम आई रोड ,हल्दियों का बाज़ार ,सोंखियों का रास्ता नेहरु बाज़ार आदि बाज़ार हैं, जो रत्नों के केंद्र तो हैं ही साथ हे यहाँ से लाख की चूड़ियाँ ,बंधेज ,मीनाकारी ,थेवाकला ,पगड़ी ,मोज़री, जयपुरी रजाई व् हस्तशिल्प का भी आयात- निर्यात होता हैl यहाँ के दो कस्बे हैं... "सांगानेर" और "बगरू" जहाँ रंगाई छपाई का काम होता है इन्हें "सांगानेरी प्रिंट" और" बगरू प्रिंट कहते हैं इस ब्लॉग प्रिंट की चादरे ,कुशन कवर ,रजाई टोपर,घागरा चोली आदि की विश्व भर में बहुत ही मांग है ! दोनों गाँव ही पूर्ण रूप से बाज़ार स्टाइल में अपनी पहचान बना   चुकें हैं!
जयपुर परकोटे में बसे बाज़ार में घूमना अपने आपमें एक अनुभव है l
आप चाहे कुछ खरीद रहे हो या नहीं पर यहाँ की उपभोगतावादी चहल पहल में पुरातन परंपरागत रंगीन उपादानो का आकर्षण आपको इतना मोह लेगा कि आप बिना खरीदे लौटेंगे नहीं lयहाँ क्या नहीं मिलता ?जयपुर के प्रसिद्ध" मीनाकारी" के जेवर से लेकर साबुन के बार को लेकर इस वादे के साथ की पवित्र गंगा के पानी से बना यह साबुन आपको आनंद से भर देगा ,तरोताजा कर देगा ..सभी कुछ मिलता है l
चलिए एक बानगी देखते हैं गुलाबी नगर के कुछ बाज़ारों कीl
 इस शहर को देखने का सर्वोतम तरीका है क़ि आप एक साइकल रिक्शा लें और शुरू करें स्थानीय बाज़ारों का स्थानीय भ्रमण : तो सफ़र सिरह ड्योढ़ी से शुरू करते हैं ,हवा महल के स्थानीय परिवेश से गुजरते हुए देखते हैं इस परिवेश में इधर -उधर जाती संकरी गलियाँ !.सभी तरह निगाह घुमाने पर यहाँ गुलाबी इंटों पत्थरों से बनी दीवारों के आलावा झरोखों नुमा खिडकियों का सोंदर्य अनूठा है!जो बाज़ारों के सोंदर्य में चार चाँद भी लगा देता है ! .
जयपुर के रौनक भरे बाजारों में दुकानें रंग बिरंगे सामानों से भरी हैं , जिनमें हथकरघा उत्पाद, बहुमूल्य पत्थर, हस्तकला से युक्त वनस्पति रंगों से बने वस्त्र, मीनाकारी आभूषण, पीतल का सजावटी सामान,राजस्थानी चित्रकला के नमूने, नागरा-मोजरी जूतियाँ, ब्लू पॉटरी, हाथीदांत के हस्तशिल्प और सफ़ेद संगमरमर की मूर्तियां आदि शामिल हैं।
प्रसिद्ध बाजारों में जौहरी बाजार, बापू बाजार, नेहरू बाजार, चौड़ा रास्ता, त्रिपोलिया बाजार और एम.आई. रोड़ के साथ लगे बाजार हैं भी बहुत खुबसूरत हैं। [गु लाबी नगर के नाम से संबोधित किया जाने वाला जयपुर नगर अपनी भव्यता तथा सुन्दरता के लिए समूचे भारत के नगरों में बेजोड़ ख्याति रखता हैl
 यहाँ की सड़कें अपनी चौड़ाई तथा सीधाई के लिए प्रसिद्ध हैंl सब रास्ते एक दूसरे को समकोण पर काटते हैं l.शहर में प्रमुख दुकानों और मकानों की बनावट एक सी है तथा रंग भी एक ही है गुलाबी !. नगर के चारों ओर परकोटा है.... जिसमे आठ दरवाजे हैं और यहाँ पर्यटकों के लिए बहुत से आकर्षण विद्यमान यहाँ हैं। सभी तरह की दुकाने हैं और "जवाहरात" का तो जयपुर गढ़ है ...एक पूरे बाज़ार का नाम ही है "जौहरी बाज़ार" हैl यहाँ के मीनाकारी और कुंदन के जेवर जगप्रसिद्ध हैं lआम भाषा में कहें तो जयपुर तो जवाहरात की मंडी है .
सात समंदर पार से सैलानी पिंकसिटी की ऐतिहासिक धरोहरों के दीदार और खरीदारी की हसरत लेकर यहाँ आते हैं ! जयपुर को भारत का पेरिस भी कहा जाता है। इस शहर की स्थापना १७२८ में आमेर के महाराजाजयसिंह द्वितीय ने की थी। जयपुर अपनी समृद्ध भवन निर्माण-परंपरा, सरस-संस्कृति और ऐतिहासिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है।[यह शहर तीन ओर से अरावली पर्वत माला से घिरा  हुआ है।जयपुर शहर की पहचान यहाँ के महलों और पुराने घरों में लगे गुलाबी धौलपुरी पत्थरों से होती है जो यहाँ के स्थापत्य की खूबी है। १८७६ में तत्कालीन महाराज सवाई रामसिंह ने इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथप्रिंस ऑफ वेल्स युवराज अल्बर्ट के स्वागत में पूरे शहर को गुलाबी रंग से आच्छादित करवा दिया था। तभी से शहर का नाम गुलाबी नगरी पड़ा है।
सात समंदर पार से सैलानी पिंकसिटी की ऐतिहासिक धरोहरों के दीदार और खरीदारी की हसरत लेकर यहाँ आते हैं!हवा महल के आस पास जयसिंह द्वारा स्थापित यह पुराना परकोटा परंपरागत दुकानों व् रंग बिरंगे स्टालों के साथ कुछ बदलते परिवेश के साथ आज भी सजा है.... तो चलिए घूमिये और देखिये क़ि एक सैलानी की आँखों से यहाँ क्या क्या आपको आकर्षित करता है ...!
शुरू करते हैं सिरह ड्योढ़ी की तरफ से जी हाँ.... यह रंगीन परिधानों का बाज़ार सभी को स्तब्ध करता है, पर राजस्थानी पाग पगड़ी की दुकाने और यहाँ का रामप्रकाश सिनेमा टाकिज जो सबसे पुराना है अपना इतिहास जुबानी सुनाता नज़र आएगा ... जी ,अब यह एक माल में बदल गया है ...अंदर जाये और जो चाहें खरीदें .... आगे बढ़ें ...अब आप है जौहरी बाज़ार में यह यहाँ का जवाहरातों का बाज़ार है इसलिए इस बाज़ार का नाम ही है "जौहरी बाज़ार" .यह बाज़ार प्रसिद्ध मीनाकारी ,कुंदन के जवाहरात का गढ़ तो है ही साथ ही परंपरागत चाँदी के गहने भी यहाँ की पहचान हैं ... यदि और बहुत महंगे गहने लेने हैं क़ि हैसियत रखते हैं तो घबराने की जरूरत नहीं ,आप ऍम आई रोड पर बनी दुकानों में चले जाएँ यहाँ जेम पैलेस और आम्रपाली पर विविध प्रकार के गहने मिल जायेंगे! पर बात हो रही है जौहरी बाज़ार की तो सड़के नापते वक्त आप चौंकिएगा नहीं यदि किसी एक मोड़ पर आपको ठक ठकाठक ठक ठकाठक की आवाज़ आये ..किसी से पूछ देखेंगे तो पता लगेगा जो चाँदी का वर्क लगी मिठाइयाँ ,पकवान ,या पान आप शौक से खाते हैं ,उस चाँदी के वर्क को यहाँ तराशा जा रहा है और इस बाज़ार में एक छोटी सी दुकान आप को फ़ौरन नज़र आ जाएगी, जहाँ चाँदी की फोइल को कूट कर परंपरागत तरीके से यह चाँदी के वर्क बन रहे हैं l
अब घूमते घूमते यदि आपको भूख लग जाये तो लक्ष्मी मिष्ठान भण्डार भी इस जौहरी बाज़ार का मुख्य रेस्तरां है lजहाँ की लज़ीज़ कचोरी, दही बड़े खाने दूर दूर से लोग आते हैंl विशेष रूप से वो व्यापारी जो अपने व्यापार के सिलसिले में यहाँ आते हैं ,उनके लिए तो यह रेस्तरां मिलने जुलने का मंच भी है l इस बाज़ार के अंदरूनी हिस्से में एक संकरी गलियों के कई मोड़ हैं... यहाँ गोपालजी का रास्ता , हल्दियों का रास्ता , घी वालों का रास्ता यानि बहुत सारे रास्ते हैं जो टेढ़ा मेढ़ा घुमाते हुए इस बाज़ार के चक्रव्यूह में आपको चक्करघन बना सकते हैं l बहुत सी कपड़ों की , चप्पलों की , शादी में पहनने वाले बेस{ लहंगा कुरता }गोटा - किनारी के लुभावने बेस (विशेष रूप से राणा की वर्क शॉप में बने) मिल जायेंगे. बॉम्बे से फिल्म वाले गहने और कपडे यहीं से ले जाते हैंlबच्चों के लिए केंडी शॉप ,पतंगों की दुकाने और बर्तनों का भी अच्छा खज़ाना यहाँ मिल जायेगा .... हाँ एक बात फिर याद दिला दें इस बाज़ार से जाते समय यहाँ के प्रसिद्ध" घेवर" ले जाना कतई न भूलें ... मधुमक्खी के छतों की तरह गोल गोल प्लेट के आकर के यह घेवर मीठे ,पनीर वाले और फीके हर तरह के बनते हैं lलक्ष्मी भण्डार जो क़ि इस बाज़ार की घेराबंदी में है कहा जाता है की यहाँ १८वी शताब्दी से इस स्थान पर घेवर बन रहा है पहले छोटा सा ठिया रहा होगा बाद में रेस्तरां में रूपांतरित हो गया l यहाँ की फीनियाँ(फैनियाँ.. मीठी- फीकी }भी विशेष रूप से लोगों को पसंद आती !
अब यदि आप "हल्दियों के रास्ते "{बाज़ार का नाम )से गुजरते हुए" सांगानेर गेट " की तरफ जाते हैं तो टेक्सटाइल यानि बहुरंगी - वस्त्र भण्डार की विविधता का बेशुमार नज़ारा आपको देखने को मिलेगा; उन दुकानों में जो बापू बाज़ार ,नेहरु बाज़ार और इंदिरा बाज़ार का त्रिकोण बनती बिखरी पड़ी हैं वहां हर दूकान पर लहराते यह कपडे आपका मन मोह लेंगे !इन बाज़ारों की विशेषता है...हाथ से छपाईl यानि ब्लॉग प्रिंटिंग से बनी बगरू और सांगानेर की टाई एंड डाईसे बनी चादरे ,साड़ियाँ,सलवार सुइट्स ,स्कार्फ ,कुशन आदि जिनकी विदेशों में बहुत डिमांड है l यहाँ कांच की कशीदाकारी और कढ़ी हुई ऊंट के चमड़े से बनी स्लीपर ,जूतियाँ आदि भी प्रसिद्ध है l इन जूतियों क़ि नोक आगे की ओर यदि ऊँची नज़र आये... जरा ऊपर की ओर मुड़ी हुई हो तो इस स्टाइल की राजस्थानी जूतियों को "मोज़डी" कहते हैंl बांयीं ओर नज़र डालेंगे इन बाज़ारों में तो मध्यकाल के शहर की परकोटे की दिवार आपको साथ साथ चलती दिखलाई देगी .अब यहाँ से "किशनपोल बाज़ार" चलें तो देखेंगे की पीतल की नक्काशी से सजे उपादान और परंपरागत सुगंध छोडती इत्र
की दुकाने और दुकानों में बैठे दुकानदार मौसम के अनुसार इत्र के फोहे बनाते...खरीदारों को गर्मी में ठंडा और सर्दी में गर्म करने के जादुई असर का पुरजोर भाषण देते नज़र आयेंगे ..वहीँ घूमते हुए आप एक झटके से पलट जाइए रंगाई वालों की गली में... जहाँ आपको रंगरेजों की दुकानों पर टाई डाई का काम ,पेंटिंग ,कढ़ाई और मुकेश का काम करने वाले कारीगर नज़र आयेंगे ...थक जाएँ तो सिन्धी फलूदा कुल्फी या गोल गप्पे ,छोला-भटूरा,दक्षिण भारतीय डोसा साम्भर,इडली खा कर फिर आगे बढ़ सकते हैं क्यूंकि ऐसे खोमचों की कई दुकाने{फुटपाथी चौपाटी बाज़ार } इस गली का आकर्षण हैं, जिसे नज़रन्दाज करने से पहले ही आपके मुंह में पानी भर जायेगा!
यहाँ एक पुरानी दर्शनीय नाटाणी जी ( जयसिंह २ के कमांडर इन चीफ़ थे )की हवेली है जो अपने सात कोर्ट यार्ड के साथ नज़र आएगी..आजकल यहाँ एक  गर्ल्स  स्कूल चल रहा है ..इसके आसपास भी बहुत दुकाने हैंजो बरबस सभी का ध्यान खींचती हैं , यह भी तिब्बतीयों के बाज़ार सा फूटपाथ बाज़ार हैl
जयपुर के बाज़ारों में एक और प्रसिद्ध बाज़ार है नाम भी बहुत आकर्षक है "खजाने वालों का रास्ता" यहाँ से गुजरते हुए आप" चांदपोल बाज़ार' के रंगीन स्टालों और दुकानों की तरफ जायेंगे तो हैरान रह जायेंगे यह देख कर की आज की इस भोतिकवादी संस्कृति से लेकर गुजरे हुए परंपरागत समय की हर चीज़ मसालों से लेकर प्रस्तर शिल्प के उत्कृष्ट नमूनों की अलग अलग रूपों की कलाकृतियाँ यहाँ बिखरी पड़ी हैं !यहाँ भगवान्   की देवी देवताओं की बड़ी मनमोहक अलग- अलग तरह की कलात्मक मंदिरों में स्थापित करने वालीं जीवंत मूर्तियाँ देख कर कई  देशी विदेशी  सैलानी भी दांतों तले उंगली दबाते देखे गए हैंl यह बाज़ार मूर्तियों के लिए ही मशहूर हैl विदेशों में बड़ी संख्या में यहाँ की प्रस्तर शिल्प कला के उपादानो का व् मूर्ति का निर्यात होता है !जयपुर की पहचान का प्रतीक हैं यह मूर्तियाँ ! इन उपादानो को गढ़ने वाले कलाकार बड़े ही गुणी हैं l राजपूत आर्किटेक्ट को देखने के लिए कुछ पल आप रुकेंगे इस बाज़ार के हवेलीनुमा मकानों के बाहर तो आपका मस्तक इन बड़ी बड़ी इश्वर की निहारती मूर्तियों के आगे अपने आप झुक जायेगा लगेगा जैसे कोई वृन्दावन की गलियाँ हो जहाँ अध्यात्म हवा में रहता है l यहाँ भी ऐसा ही भाव उमड़ेगा आप मेंl ऐसे ही अध्यात्मिकता से भरपूर भाव मन में लिए जैसे ही आप सीधे हाथ की तरफ मुड़ेंगे तो मनिहारों की गली में सजी रंग- बिरंगी चूड़ियों की दुकाने आपका मन मोह लेंगीl लाख के सामान का यह विशेष बाज़ार है इसे" मनिहारों का रास्ता "कहते है l यहाँ हर दूकान में आपको विदेशियों के झुण्ड के झुण्ड खरीदारी करते भी नज़र आयेंगे lलाख की चूड़ियाँ या लाख के उपादान तो आप खरीदेंगे ही साथ ही लाख की चूड़ियाँ बनाते मनिहारों के हुनर को देखने का आप लोभ संवरण नहीं कर पाएंगे.... जब देखेंगे की लाख पिघलाते ,लाख संवारते ,आग में मोड़ते,गोलाई में ढ़ालतेऔर एक एक उपादान को तराशते यह कुशल हाथ कितनी श्रम- साध्य प्रक्रिया से गुजर कर मंजिल पाते हैंl
त्रिपोलिया बाज़ार की और मुड़ते कदम जाकर रुकेंगे जयपुर की प्रसिद्ध मिटटी से बने कलात्मक उपादानो की दुकानों पर, कुम्हारों द्वारा बनाये मिटटी के शिल्प और "ब्लू पॉटरी" की उत्कृष्ट कलाकृतियाँ इस बाज़ार का मुख्य आकर्षण हैl इसके अलावा दो अन्य दर्शनीय हवेलियाँ भी यहाँ हैं. एक है- "विद्याधर भट्टाचार्य" जो जयपुर के आर्किटेक्ट थे ,उनकी   पुरानी हवेली आजकल इसे संग्राहलय में बदल दिया गया है और दूसरी है "नवाब फैज़ अली खान की हवेली" जो आज भी प्राचीन जयपुर शहर की कथस सुनाने वाली कथावाचक की तरह कड़ी है ,अपने व्यक्तित्व को संभाले !
चलते चलते आपने पार कर लिया है बाज़ारों का एक लम्बा गलियारा और "चौड़ा रास्ता "(बाज़ार) पर रुक कर आप बढ़ रहे हैं" बड़ी चौपड़ 'पर क्योंकि अब खरीदना है
आरटीफीसिअल ज्वेलरी , चाँदी  के गहने ,परंपरागत "मोज़डी" स्लीपर आदि ...हाँ जयपुर में "गलीचों" का भी अच्छा काम होता हैl गणगौर की बंधेज सावन का लहरिया जरी के काम की दुल्हन की पोशाकें , का गोटे काम ,कांच का काम ..यह सभी जयपुर के बाज़ारों में नए नए रूप में दिखलाई पड़ते हैं l यहाँ के बाज़ारों में मिलने वाली" पाव रजाई "लिए बगैर तो देशी विदेशी पर्यटक  जाते ही नहीं हैं lतक़रीबन सभी बाज़ारों में विशेष रूप से चौड़ा रास्ता , किशनपोल बाज़ार की कई दुकानों पर इन रजाइयों( जयपुरी रजाई )लेने वाले पर्यटकों की भीड़ नज़र आती है l
जयपुर के बाज़ार तो आकर्षक हैं ही परन्तु यहाँ की हस्तकला इतनी मोहक है की यादगार के रूप में पर्यटक इन्हें तो ले ही जाते हैं, साथ ही यहाँ के बाज़ारों का कलात्मक दृष्टि से विश्लेषण करते हुए... साथ में यह कहते हुए जाते हैं  कि जयपुर तो सुंदर है ही लेकिन यहाँ के बाज़ार भी बहुत दर्शनीय हैं l
डॉ सरस्वती माथुर

प्रकृति विषयक हाइकु ....हाइकु:पर्यावरण

हाइकु:पर्यावरण
1
वृक्ष पावन
जंगल में मंगल
हरित धरा
2
हरी ओढ़नी
धरा ने जो पहनी
रूप निखरा
3
पर्यावरण
हरियाला बनाओ
वृक्ष रोप के
4
धरा ने ओढ़ी
धानी सी चुनरिया
हरा सा वन
5
वृक्ष है दीप
परती आँगन में
इसे जलाओ
डॉ सरस्वती माथुर
प्रकृति विषयक हाइकू

धुनें नभ की
सेज पे लेटा चाँद
प्रभामय था

मेघ के टुकड़े
नभ की घास पर
सुस्ताने बैठे

कलगी सा लगे
नभ के खेत पर
बिंदी सा चाँद

सूर्य डूबा तो
विदा गीत सुनाया
संध्या पाखी ने
6
डूबता सूर्य
कल भोर के संग
आने वाला है

7
सूरज जमा
दिन हुआ बर्फ सा
धूप ठिठुरी
8
समय पढो
प्रकृति पहचानो
आज को जिओ
9
भूरी पत्तियां
पतझर लायी है
पेड ठगा सा
10
झरना बहा
पहाड़ी पगडंडी
फैला नदी सा
11

हाथ हिलाता
चौखट पर सूर्य
जागी चिड़िया
12
आखिरी रंग
उतरा आकाश में
परछाई सा
13
गौधूली आई
मौन सा भर गयी
थका सा दिन
14
गिरी पत्तियां
याद दिला गयीं हैं
अंतिम विदा
15
सूर्य सुबह
धूप ओढ़ के आया
सभी को भाया
16
सुबह ओस
बंदनवार बनी
फूल पे टंकी

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

"हमारी संस्कृति में फादर्स डे!"






डॉ सरस्वती माथुर
 

 
"हमारी संस्कृति में  फादर्स डे!"
डॉ सरस्वती माथुर
हमारी संस्कृति में माता-पिता का स्थान सबसे उंचा है।भारत में तो इन्हें ईश्वर का रूप माना गया  अपने बाल्यकाल की लीलाओं से भक्तों को आनंदित करते हुए भगवान राम ने 'आचार्य देवो भव, मातृ देवो भव, पितृ देवो भव' का क्रियात्मक रूप से पालन किया। उनका यह पावन चरित्र-'प्रातः काल के रघुनाथा, मातु-पिता गुरु नावहि माथा।' नयी पीढ़ी को बड़ों का सत्कार करने की प्रेरणा देता है।
जैसा कि मां का स्थान दुनिया सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। वैसे भी हमारे जीवन में पिता का स्थान भी बहुत महत्वपूर्ण होता है।हमारे यहाँ पिता की भूमिका एक लंबा रास्ता तय करके आधुनिक हुई है। एक दौर था, जब पिता का रौब बच्चों को दहशत देता था। आज पिता दोस्त की भूमिका में आ गए हैं।  दुनिया में एक अजीब चलन हुआ है कि जब लोगों को किसी एक विशेष दिन में कैद कर दो। उसे पर्व, त्योहार उत्साह की तरह मनाओ। जब किसी भावना को आयोजन से जोड़ना है तो बाजार को भी लाभ होगा। इसी क्रम में भारतीय बाजार में भी मां पिता के नाम से मातृ दिवस व पितृ दिवस   सम्मान से मनाये जाने लगे आ गई है। फादर्स डे की शुरुआत बीसवीं सदी के प्रारंभ में पिताधर्म तथा पुरुषों द्वारा परवरिश का सम्मान करने के लिये मातृ-दिवस के पूरक उत्सव के रूप में हुई.यह हमारे पूर्वजों की स्मृति और उनके सम्मान में भी मनाया जाता है. फादर्स डे को विश्व में विभिन तारीखों पर मनाते है - जिसमें उपहार देना, पिता के लिये विशेष भोज एवं पारिवारिक गतिविधियाँ शामिल हैं.यह हमारे पूर्वजों की स्मृति और उनके सम्मान में भी मनाया जाता है. फादर्स डे को विश्व में विभिन तारीखों पर मनाते है जिसमें उपहार देना, पिता के लिये विशेष भोज एवं पारिवारिक गतिविधियाँ शामिल हैं.!
दरअसल पिता और बच्चों के रिश्तों के बहुत सारे तंतु बहुत कोमल हैं। पिता के पास बहुत सारे मोर्चे हैं और अपने बच्चों के लिए खास नाजुक अहसास भी...। फिर कठोर सच्चाई और नितांत कोमलता के बीच का संतुलन साधना पिता के लिए न सिर्फ चुनौती है बल्कि उसके वजूद का हिस्सा भी है। शायद इसीलिए पिता सख्ती का खोल चढ़ा लेते हैं...। आखिरकार जिंदगी की धूप की तपिश से अपने बच्चों का परिचय भी तो उन्हें ही कराना है।किसी परिवार में एक पिता की मुख्य भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। बच्चों की देखभाल में जहां मां का नाम सदैव प्रमुखता से लिया जाता है, वहीं दूसरी तरफ बच्चों की संरक्षिता के तौर पर मां को आत्मबल और संघर्षबल पिता द्वारा ही प्रदान किया जाता है।विश्व पितृ दिवस की शुरुआत २०वीं सदी के प्रारम्भ में बताई गई है। कुछ जानकारों के मुताबिक ५ जुलाई १९०८ को वेस्ट वर्जेनिया के एक चर्च से इस दिन को मनाना आरम्भ किया गया। रुस में यह २३ फरवरी, रोमानिया में ५ मई, कोरिया में ८ मई, डेनमार्क में ५ जून, ऑस्ट्रिया बेल्जियम के लोग जून के दूसरे रविवार को और ऑस्ट्रेलिया व न्यूज़ीलैंड में इसे सितम्बर के पहले रविवार और विश्व भर के ५२ देशों में इसे जून माह के तीसरे रविवार को मनाया जाता है। सभी देशों इस दिन को मनाने का अपना अलग तरीका है।आम धारणा के विपरीत, वास्तव में फादर्स डे सबसे पहले पश्चिम वर्जीनिया के फेयरमोंट में 5 जुलाई ,1908 को मनाया गया था. कई महीने पहले 6 दिसम्बर, 1907 को मोनोंगाह, पश्चिम वर्जीनिया में एक खान  दुर्घटना में मारे गए 210 पिताओं के सम्मान में इस विशेष दिवस का आयोजन श्रीमती ग्रेस गोल्डन क्लेटन ने किया था. प्रथम फादर्स डे चर्च आज भी सेन्ट्रल यूनाइटेड मेथोडिस्ट चर्च के नाम से फेयरमोंट में मौजूद है.गलत सूचनाओं तथा पश्चिम वर्जीनिया द्वारा पहले फादर्स डे को छुट्टी के रूप में दर्ज नहीं करने के कारण कई अन्य सूत्र यह मानते हैं कि प्रथम फादर्स डे स्पोकाने,  वाशिंगटन के सोनोरा स्मार्ट डोड के प्रयासों से दो वर्ष बाद 19 जून 1910 को आयोजित किया गया था.अमेरिका में फॉदर्स डे जून माह के तीसरे रविवार को मनाया जाता है। यहां यह उत्सव पहली बार 19 जून 1910 को स्पोकाने वाशिंगटन में मनाया गया। आधुनिक फॉदर्स डे की शुरूआत क्रेस्टन वाशिंटन में जन्मी सोमोरा स्मार्टडोड ने की थी। बाद में उन्हीं की प्रेरणा से यह आयोजन पूरी दुनिया में होने लगा।
पिता के रूप में परिवार का मुखिया उस वट वृक्ष की तरह होता है, जो अपनी मजबूत जड़ों और तनों के सहारे खड़ा रहकर हर आंधी, तूफान आसानी से सह जाता है। साथ ही इसी मजबूती के चलते फल और न
की आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त तिथि अलग अलग देश में अलग अलग है.हाल के वर्षों में, खुदरा विक्रेताओं ने ग्रीटिंग कार्ड तथा पारंपरिक रूप से पुरुषोचित उपहारों जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स और उपकरणों को बढ़ावा देकर अपने को छुट्टी के लिए अनुकूलित कर लिया है. स्कूलों में और बच्चों के अन्य कार्यक्रमों में 'फादर्स डे' के लिये उपहार तैयार किये जाते हैं.सामान्यत: पितृ दिवस अलग अलग देशों में अलग अलग महीनों में मनाया जाता है। जिसमें ज्यादातर मई और जून माह से जुड़े हुये है। जून माह के तीसरे रविवार को भारत वर्ष सहित फॉदर्स डे अफगानिस्तान से लेकर अर्जेटीना, बहरीन, बंग्लादेश, बारबाडोस, बरमुड़ा, कोलंबिया, कोस्टारिका, क्यूबा, इक्वाडोर, फ्रांस, घाना, ग्रीस, मैक्सिको, नामीबिया, नीदरलैंड, सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका और श्रीलंका आदि में मनाया जाता है।  पश्चिम वर्जीनिया में पितृ दिवस पर वहां के निवासी लाल और सफेद रंग के गुलाब फूल का उपयोग करते है। कहते है कि अपने जीवित पिता को बच्चों द्वारा लाल गुलाब उपहार स्वरूप दिया जाता है, जबकि ऐसे बच्चे जिनके पिता उनका साथ छोड़ चुके है उन्हें सम्मान देने बच्चों द्वारा सफेद गुलाब के फूल उनके तैलचित्र पर अर्पित किये जाते है। बदलते युग की मान्यताओं ने परिवेश बदल दिया है आज के आपाधापी युग में एक दिन यदि पिता के नाम निर्धारित है और उस दिन ही पिता को उपहार दिए जाएँ या उन्हें याद किया जाए सोच कर अटपटा लगता है की हम कहाँ जा रहे हैं ?मदर्स डे और फादर्स डे मनाने की परंपराओं को बेशक मार्केट फोर्सज़ ने पश्चिमी दुनिया से आयात किया है...अक्सर इन्हें भारत में ये कहकर खारिज़ करने की कोशिश की जाती है कि हम तो रोज़ ही माता-पिता को याद करते हैं...ये तो विदेश में लोगों के पास वक्त नहीं होता, इसलिए मां और पिता के नाम पर एक एक दिन मनाकर और उन्हें तोहफ़े देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती है...
लेकिन क्या ये वाकई सच है...भारत के महानगरों में रहने वाले हम लोगों को भी अब रोज़ इतना वक्त मिलता है कि बीस-पच्चीस मिनट माता-पिता के साथ हंस-बोल लें...उनकी ज़रूरतों को सुन लें...लाइफ़ ने यहां बुलेट ट्रेन की तरह ऐसी रफ्तार पकड़ी हुई है कि कुछ सोचने की फुर्सत ही नहीं!"जिन माता-पिता ने हमें बड़ा कर कुछ करने योग्य बनाया, उनके लिए हमारे पास वक्त नहीं...और जिन बच्चों के लिए हम दावा करते हैं कि उन्हीं के लिए तो सब कर रहे हैं, उनके लिए भी कहां क्वालिटी टाइम निकाल पाते हैं"बात अगर भारतीय परिवेश व संस्कृति की करें तो यहां हमारी संस्कृति में तो प्रत्येक दिवस माता-पिता, बड़ों व गुरुजनों के सम्मान को समर्पित है।

कितनी श्रेष्ठ हैं यह पंक्तियाँ -
ये तो सच है के भगवान है है मगर फिर भी अन्जान है
धरती पे रूप माँ बाप का उस विधाता की पहचान है!

प्राचीन समय से लेकर वर्तमान तक माँ और पिता ने ने कलेजे पर पत्थर रख कर देश, राष्ट्र, समाज, धर्म व मानवता की रक्षा हेतु अपने लालों को समर्पित किया है। प्राचीन समय से पिता की आज्ञा सर्वोपरि मानी गई है। माँ केकई और पिता के वचनों की पालना हेतु श्रीराम ने 14 वर्ष वनवास स्वीकार कर लिया। कभी माता कैकेयी को उलाहना नहीं दिया। श्रवण कुमार ने अंधे माता पिता को यात्रा करवाई !पुराणों में कथा आती है- चाण्डाल और व्याध आदि भी केवल माता-पिता की सेवा करके उस उत्तम सिद्धिको प्राप्त हो गए हैं, जिसे आजीवन कठोर तपस्या करके भी प्राप्त करना कठिन है।
शास्त्रों में माता-पिता को उपाध्याय और आचार्य से भी ऊँचा स्थान दिया गया है। लेकिन आज स्थिति काफी बदल गई है। आज संतानों द्वारा माता-पिता की बेकद्री के अनेक उदाहरण प्रकाश में आ रहे हैं।संस्कारों की कमी, बढ़ते उपभोक्तावाद व एकल परिवारों की परिपाटी का ही परिणाम है कि हमारे देश में जगह-जगह खुले आश्रम/वृद्ध आश्रमों की बढ़ती संख्या व इनमें निर्वासित जीवन व्यतीत करते हमारे वृद्ध परिचायक हैं इस बात के कि हमारे पारिवारिक व सामाजिक मूल्य खंडित हो रहे हैं। संस्कारहीनता हम पर हावी हो रही है। अधिक श्रेयस्कर होगा कि हम अपनी सनातन संस्कृति को पहचानें। माता-पिता को कष्ट पहुंचा कर उन्हें स्वयं से अलग कर उन्हें बुढ़ापे में अकेला छोड़ कर चाहे हम कितने ही तीर्थ कर लें, धर्म, दान पुण्य कर लें सब व्यर्थ हैं।पिता का ऋण तो हम कदापि चुका नहीं सकते लेकिन इसके ऋण का कुछ भार उसकी सेवा करके उतार ही सकते हैं।
 डॉ सरस्वती माथुर

 
 



बुधवार, 26 नवंबर 2014

"कर्मवीर हूँ !"

दो जून की रोटी
जुटाने को
दिन रात भागा करता हूँ
धूप में तप्त
सर्दी से लड़ता
कठिन श्रम करता हूँ
जहाँ मिले रैन बसेरा
वहीँ बिछा कर अपने
मुट्ठी भर सपने
थक कर निढाल सा
पत्थरों पर सो जाता हूँ
कर्मवीर हूँ, संघर्षशील हूँ
कर्म पथ पर बढ़
श्रम के स्वेद कण
बहाता हूँ
अपने हुनर को
चढ़ा सान पर
तुम्हारी तक़दीर बनाता हूँ
तुम्हारी भूमि पर
भूमिहीन जीर्ण शीर्ण मैं
इमारतों की मंजिले
चढ़ाता रहूँगा
तसले धोता ,तपती धूप में
दिहाड़ी गिनता रहूँगा
तुम चौराहे पर मेरे
श्रम की बोली
लगाते रहो
नयी नयी योज़नाएं
बनाते रहो पर
यह मत भूलना कि
खलिहानों ,दुकानों ,मकानों में
मेरे श्रम की ईंटों पर
खड़े हो तुम तो
रहते हो धरती पर ,हाँ
पर यह याद रखना कि
मेरी जमीं भी श्रम के
 पत्थरों से जड़ी है
 इसलिए ही लगती
आसमान से  बड़ी है !
डॉ सरस्वती माथुर

"एक मजदूर माँ के सपने !"

"एक मजदूर माँ के सपने !"

वह हर दिन

सानती है आटा


 मिटटी के तवे पे

थापती है रोटियाँ

उसे नहीं पता कब

बदलते हैं मौसम

,कब सत्ता बदल जाती है

बस उसे तो हमेशा

अपने मासूम बच्चों और

बीमार खांसते पति की

दो आँखें दिखती है

यही नियति है उसकी

जो रोज शाम को उसके

इर्द गिर्द फिरकनी सी

घूमती है

हांडी में पतली पानी सी

दाल जब खदबदाती है तो

बच्चों की आँखों की

बगिया में फूल

खिल जाते हैं

फूंकनी से चूल्हे की

आग तैयार करती माँ के

कंठ में भी झांझर

बज़ उठती है यूँ तो

उसके भीतर

फड़फडाते सपने भी

लकड़ी से रोज

जलते बुझते हैं और

बुझे चूल्हे की राख

सुबह होते होते

सर्द हो जाती है

पर जब वह बच्चों के

पेट की भूख शांत कर देती है

तो वह नींद की सुराही से

कुछ बूँदें पी

सोने की कोशिश से पहले

अपनी हथेलियों के

फफोलों पर हल्दी का

घोल लगाती है

अगले दिन के लिए

अपने को तैयार करती है

अगल बगल में लेट़े

अपने मासूम बच्चों को

देख सब दर्द भूल

वो भी मुस्करा कर

सो जाती है

रोज एक सपना

देखते हुए कि उसके

नोंनिहाल एक दिन

बड़े होंगें और अपने

पैरों पर खडे होंगें !


डॉ सरस्वती माथुर



"खिल आयी धूप !"

.भोर होते ही
 कोहरा सरका
  दौड़ी दौड़ी
  आयी धूप
  पतों फूलों पर
 मंडराई धूप
 शरद ऋतु की
 चूनर खींचती
 घर आँगन को
 गरमाती
 मन बुहारती
 सुलग आयी धूप


हवा के संग संग
सुबह से शाम तक
अनमन सी खेली धूप
 सूरज डूबा तो
 थकी हारी सी
पगलायी धूप


सांझ ओढ़ कर
 भोर तक सोयी
फिर जागी तो
 बौराई धूप
आँख मलती
 धीरे धीरे धरा पर
नया रूप ले
परी सी इठलाती
खिल आयी धूप !
डॉ सरस्वती माथुर



मंगलवार, 25 नवंबर 2014

हाइकु : " मेरी अभिव्यक्तियाँ !"

हाइकु

1
एक पीपल
मन खण्डहर में
याद का उगाl
2
सर्द  हवाएँ
शाम की पुरवाई  में  
थिर हो जमी l 
3
चुप्पी तोड़ते  
खण्डहर घर में  
चूहों के बिल l
4
मौन तोड़ती 
अंधेरे में चिड़ियाँ
देख शिकारी l
5
हवा सा मन
आकाश नाप कर
ख्वाब बुनता l
6
 नि:शब्द नैन
मन की पीड़ा बुन 
नींद  चुराते
7
कौन आयेगा
ख्वाबों में बस कर
नीड बनाने ?
8
नभ से  भागी
चाँद संग चाँदनी 
हुई प्रवासी l    
 
9
 चाँद- जुलाहा
 चाँदनी बुन कर
 प्रेम पिरोता l
10
यौवन आया
निंदियारी अँखियाँ
 घिरी स्वप्न सेl

 

11
 पुरवा पाँव
 ठुमक कर चली
 बीजना बाजे l
12 खोल के मेघ 
 घुंघराले केशों को
 धूप दिखाये l
13
मौन मिटटी का
दिया जलाया कर
भोर जगाई  l
14
 मेघ की बांह
दामिनी को जकड
खिली धूप सी l

15
खोल खड़ा है
चट्टानी जबड़ों को
दैत्य सा मेरु l
16
डूबा सूर्य तो
गोताखोर सुबह
खींच ले आई l
17
झरने चले
प्रकृति के अंगने
 नुपुर बोले
 18
सूर्य डूबा तो
 फूलों के रंग उड़
 नभ पे छाए
19
डूबता सूर्य
 संध्या के रंग पीके
  विदा हुआ था
 20
बच्चे सॊते हैं
 सितारों को सौंप के
 मन के ख्वाब
 21
वायलिन सी
 देर तक बारिश
बजाती रही
 22
गर्मी  बीती तो
 सावन की बारिश
 शुरू हो गयी
 23
हवा थी चुप
चिड़िया का संगीत
गूंजता रहा l
 24
डूबता सूर्य
आधे रास्ते जाकर
पेड़ों में छिपा l
 25
जल ले बहा
 भरा हुआ बादल
आकाश खाली
26
पर्वत चीर
धरा की ओर जाऊं
नदिया हूँ मैं
27

उड़ते रहे
 स्वप्न पंछी रात में
 ठहरी नींद
28
 चुग्गा समेट
  उड़ा पाखी - पहुंचा
 बच्चों के पास
29

उगी सुबह
 आँखों में लाली भरे
 धरा उतरी
30
 चलते रहें
 अनगढ़ पथ पे
 पगडण्डी से
31
शाम हुई तो
 चहचहाते पंछी
 नीड़ में लौटे

डॉ सरस्वती माथुर

सोमवार, 24 नवंबर 2014

"विभिन्न स्वरूपा हिंदी !"

"मैं हिंदी हूँ!"
मैं हिंदी हूँ
बहुरंगी भाषा हूँ
पारदर्शी और भोली हूँ

रंगीन भाषाओँ के
पक्षियों की मैं
मिली जुली चह्चहाट हूँ
अलग अलग प्रान्तों का
मुखौटा नहीं औढती
सभी बोलियाँ
मोतियों सी
अपनी माला मैं
पिरोती हूँ



पंख लगा पाखी सी
हिन्दुस्तान पे उडती हूँ
भावों के गीत सुना
बस भाषाओँ से
छंद निचोड़ती हूँ और
दिलों को जोडती हूँ
मैं हिंदी हूँ !
डॉ सरस्वती माथुर
 
"विभिन्न स्वरूपा हिंदी !"
 
एक वृक्ष है हिंदी
कोयलें टहुकें
चह्कें परिंदे भावी
सुरीला गान हिंदी
 
 
सभी में दक्ष हिंदी
भाषाओँ के नगीनों की
अनूठी खान हिंदी
एक विज्ञान है हिंदी
 
 
समकक्ष सभी के हिंदी
विश्व भाषा में
सफल संधान हिंदी
निज भाषा का मान हिंदी
 
 
प्रबल पक्ष है हिंदी
एक सूत्र में बांधे देश को
विभिन्न स्वरूपा हिंदी
सरस मुस्कान है हिंदी
डॉ सरस्वती माथुर
 
एक क्षणिका
"हिंदी भाषा !"

हिंदी बोली है मधुर
मन को है बांधती
एक सूत्र जोड़ें कैसे
यह भी यह जानती
बीज प्रेम के डाल के
मन को यह पिरोती
हिंदी भाषा माँ जैसी
ममतामयी होती!
डॉ सरस्वती माथुर
 
"हिंदी दिवस पर !"
स्वागत है हिंदी दिवस तुम्हारा
तुम भाषा का उत्सव हर्ष हो
जन जन का भी तुम उत्कर्ष हो
बोली बहुत ही सरस हो

कान तृप्त हो जाते हैं सुन कर
तुम ऐसी ही मीठी वाणी हो
संवादों के रसधार में
लगती जानी पहचानी हो

हिंदी दिवस पर आओ करें
आज हम तुम्हारा मान
राष्ट्र की भाषा हो तुम
और हमारा हो अभिमान !
डॉ सरस्वती माथुर

"हिंदी बोली !"
भाषाओँ के सागर में बहती
लहरों सी सुंदर हिंदी बोली

घर मंदिर में सजती जैसे
माथे पर कुमकुम रोली

रसवंती भाषा में घुल मिल
सभी ने रस - मिश्री घोली

सभी भाषों के आगे चलती
भाषाओं की जब सजती डोली

विश्व जगत में छाई हुई है
राष्ट्र भाषाओँ की यह हमजोली
डॉ सरस्वती माथुर
 
"हिंदी की बिंदी !"
नदिया सी कलकल करती
आँचल सी लहराती हिंदी
विश्व जगत के माथे पर
चंदा सी चमकती बिंदी


खुशबू सा महकाती है
भावों की बगिया हिंदी
सतरंगी तितली सी उड़ती
शात्रीय भाषाओँ संग हिंदी

अंग्रेजी से हार न माने
चाल में तूफानी हिंदी
गूंजा दी अनुगूंजें विश्व में
संयुक्त राष्ट्र में गूंजी हिंदी

भारत की राष्ट्र भाषा है
हम सबका मन हर्षाती हिंदी
बहुत ही सुंदर यह भाषा है
जन जन की अभिलाषा हिंदी!
डॉ सरस्वती माथुर
 
 ‎"हिंदी का सौन्दर्य !"
ह्रदय के संयोजन की
भाषा हिंदी
जनमानस की
आशा हिंदी

तन- मन में उमंग
जगाती हिंदी
मिश्री मिठास सी
भाषा हिंदी

ईद ,होली ,दशहरे पर
प्रतिस्पर्धी नहीं
पूरक बन जाती
प्यारी सी हिंदी

क्षेत्रीय भाषाओँ को
एक वट वृक्ष सी
समेटती , हिन्दुओं की
अभिलाषा हिंदी

हिंदी दिवस पर
ना बांधें रस्मो में
अभिव्यक्ति की
परिभाषा हिंदी!-
डॉ सरस्वती माथुर

"भाषा यह धार सी !"
अब जलेगी
देश प्रेम की बाती
मौन अर्चना से लिखो
हिंदी में पाती .

प्रान्तों को जोड़ कर
संग मुस्कराती
एक दिशा मोड़ कर
नयी राह दिखाती

भाषा यह धार सी
दिव्य रूप में बांध
जन को यह तार सी
नव आस्थाएं जगाती

तेल डाल साधना का
देश प्रेम से हिन्दी
सकल आराधना का
नेह दीप जलाती !
डॉ सरस्वती माथुर  
 



 



"माँ !"


 
"माँ !"... दिव्य शक्ति !"
माँ- मुस्काराती है
बच्चों के होठों पे
माँ- खिलखिलाती है
मंदिर की घंटियों सी
माँ- गूंजती है दुर्गा की
लयबद्ध चालीसा सी
माँ -बोलती है जैसे हो
इबारतें गुरुवाणी की
माँ- गूंज है
मस्जिद की अजानो सी
माँ- हरियाती है घास सी
माँ -प्रार्थना है गिरजाघरों की
माँ- माटी है धरा की
माँ- महक है फूलों की
माँ - खुशबू है हाथों में लगी
लहरिया मेहँदी की
माँ -फुहार है वर्षा की और
माँ- तो सच में झंकार है
डांडिया की एकबद्ध नाद पर
गरबा की लयबद्ध
जलतरंगों सी बजते तालों की
माँ- तो पूजा है नवदुर्गा की जो
नवरात्रि में दिव्य शक्ति के
मन्त्रों सी आबद्ध हो
नस नस में
उर्जा भर जाती है!
2
"माँ !"
याद आती है
हम सभी को माँ
एक सेतुबंध की तरह
परिवार की परिधि में
महसूस होती है माँ
घर में उठी बहसों की
आग आंधी पर
पानी फैंकती माँ
याद आती है माँ
फ़र्ज़ के कुएं से
पानी खींचती माँ
सुबह उठ कर
सभी के लिए
चूल्हा जलाती माँ
सभी को निपटा कर
रात के एकांत पहर में
चूल्हा बुझाती माँ
याद आती है माँ
निर्मल नदी सी
सबको आगे बढा
कुर्बानियों के
पेबंद लगाती माँ
याद आती है माँ
परिवार के
रिश्तों को जोड़ती
शाश्वत अनुबंधों सी माँ
याद आती है माँ !
3
"शक्तिस्वरूपा माँ !
"ममतामयी माँ
मेरे लिए अनुभव का
एक अध्याय हो तुम
जिन्दगी की इबादत हो
हर पथ पर खड़ा
एक मील पत्थर हो
जिसे देख नापती हूँ मैं
जीवन की दूरियाँ
माँ, तुम शक्ति स्वरुपा सी
हर पल मेरे मन सिंह पर
विराजमान रहती हो और
मेरे मन पाखी को पंख दे
मुझको नया आकाश देती हो
सच माँ तुम अपने आप में
मेरे जीवन की उड़ान हो
मेरी पहचान हो
शत शत नमन तुम्हे
शत शत नमन माँ!
4
  "माँ !"
मन की घाटियों में

माँ एक मौसम सी
सुहानी भोर सी ताजी

 आकाशी छोर सी ऊँची
 गुलाब सी महकती
  सुंदर साँझ सी
  माँ  जीवन बगिया में
 एक खिले फूल सी
 इन्द्रधनुषी रंगों सी
 भंवरों की गूंजन सी 
    पीत पराग सी
 संगीत के मधुर राग सी 
  चहकती पाखी सी
 महकती रातरानी सी   
 माँ  नींद की दुनिया में
 एक स्वपन सी
थपकी दे सुलाती सी 
मधुर लोरी गाती सी
 पालने झुलाती  सी
 आँचल में छुपा
 नज़र से बचाती सी  
स्पर्श कर सहलाती सी 
परिवार में माँ
एक संस्कृति सी
संस्कार सिखाती सी
प्रेममयी प्यारी सी
 निर्मल नेह  बरसाती सी
यादों की नदियों में
 पावन गंगोत्री सी
आकाश में चन्द्रमा सी
 धरा पर ताज़ी  हवा सी 
हम सभी की माँ
एक मंदिर सी
 अगरबती धूप सी
 मंदिर की सुरीली 
 बजती घंटियों में
 अराध्य सी
 ईश्वर के सुंदर रूप सी
 हमारी सबकी माँ 
 एक सूर्य सी 
 एक धरती सी मैं
  आज भी माँ के
 चारों ओर घूमती
 आशीर्वाद की 
सुधियाँ बटोरती 
 धन्य हो जाती हूँ
 क्युंकि माँ है
मीठी सी मिश्री सी
 एक सृष्टि सी
हमारी दृष्टि सी
मन की गलियों में 
माँ  सुरीली याद सी
डॉ सरस्वती माथुर
5
"शक्ति स्वरूपा माँ !"
मौसम बदला
बारिश थम गयी
नदी सी बहती हुई
शक्तिस्वरूपा नवरात्रि
साजों के संग लहराई
गरबा के शब्दों ने
गीतों को
मुखरित कर लिया
नन्ही जान भी
माँ के गर्भ में
सरसराई
अनजानी आशंकाओं से
थरथराई
रोज सुनती थी कि
वह अनचाही है
इंतज़ार था उसको कि
इस उत्सव में
शायद चरण पुज जाएँ
लेकिन नवरात्रि के
अंतिम चरण में
हवा की लय बदल गयी
उसकी पैदाईश टल गई
रिश्तों के ताल तलैया
रीते हो गए
पीर पर्वत सी नहीं पिघली
हिमालय से गंगा नहीं निकली
हंगामा गरबे के
ढोल में दब गया
न कोशिश जारी रही
न सूरत ही बदली
बस बेटी के हिस्से का
सूरज ही नहीं उगा
माँ ने आह भरी
उसका मौन
संवादहीन हो कह रहा था
अब नहीं दोहराऊंगी
यह गलती
तुझे वापस लाऊँगी
अपने इस जीवन संघर्ष की
शक्ति बनाऊँगी
दुर्गा माँ का
विसर्जन होने तक
एक नई उर्जा और
प्रेरणा पाकर माँ
स्वयम से बोली
हर साँस जब लूंगी
तुझे ही जिऊँगी
यह वादा रहा बेटी
अर्थहीन नहीं होगी
तेरी कुर्बानी
अगली बार मौसम बदलेगा
गरबे की स्वर लहरी
छंदबद्ध होगी
तब तेरे साथ मैं भी
संगीतमय तरंगों में
थिरकूंगी और
हर थिरकन में
मेरे शब्द होंगे कि
बेटी शक्तिस्वरूपा दुर्गा होती है
इसलिए उसका जन्म लेना
हमारे लिए वरदान है क्यूंकि
बेटी हमारे देश की
शान है -आन है
मान है
हमारा अभिमान है ..!
डॉ सरस्वती माथुर
6
हाइकु:
माँ दुर्गा नवरूप
 1
गरबा गीत
हवा संग गूंजते
नवरात्री पे
2
गूंजी दिशाएँ
नवरात्रि पर्व पे
डंडिया बाजे
3
नेत्र विशाल
शस्त्र हस्त धारिणी
भक्ततारिणी
4
विघ्न हारिणी
कष्ट निवारिणी माँ
महाकालिके
5
करें वंदन
माँ दुर्गा नवरूप
शुभ स्वरुप
6
बिखरी गूँज
गरबा डांडिया की
हो शक्तिमय
7
गर्वशालिनी
मधुर मनोहर
दुर्गा का रूप
डांडिया लड़ी
झंकार झनकाती
झूमे नारियां
जै जगदम्बे
डांडिया में गूंजता
गीत गरबा
१०
ढोल पे झूमे
एकबद्ध हो शक्ति
गरबा संग
डॉ सरस्वती माथुर "माँ तुम ही हमारी नवदुर्गा हो !"

माँ, तुम तो
 मौसम में बसंत हो
ममता की खुशबू से भरी
समीर सी शीतल
तुम खुद घर का
गतिमय आँगन हो

तुम्हारी गोद का झूला
 भला कौन भूला ?
बच्चों के जीवन में
 सुरक्षा का बंधन हो तुम
तुम  ममता की खान  हो 

नदी हो तुम दुआओं की
 स्नेह का बहाव लिए
 माँ तुम तो सच
 गंगा खुद  पावन जल हो
तुम संबल की चट्टान हो

पथरीली  राह में तुम
 कलकल बहता झरना  हो
जीवन में संबल  भर कर
बच्चों को राह दिखाने वाली
विश्वास की पहचान हो


तुम्हारा आँचल अब भी
 तपती दोपहरी में
 लगता है छाँव सा
 ले जाता है सपनों में
 चहचहाती चिड़िया सी
 तुम आसमान की उड़ान हो 

तुम तो माँ
भोर की लाली में जाग
हमारी दुनिया में
आशाओं के  गीत बुनती हो
राह में यदि काँटे हो
अपने हाथों से चुनती हो
 भावनाओं की रस भरी 
तुम मीठी  सुरीली तान हो


 माँ तुम तो
 अपनी मंमतामयी लोरी से
 हमारे जीवन में अनुभवों की
 इंद्रधनुषी किताबें भी  गुनती हो
मधुर रसों से भरे  घट सी  तुम
तुम तो अमृतपान हो

माँ, तुम ही हमारी नव  दुर्गा हो 
तुम ही हमारी पूजा हो
 परिवार की परिधि में घूमता
तुम चलता फिरता मंदिर हो 
हमारे लिए तो भगवान हो !
डॉ सरस्वती माथुर




1पहचान 2 उपसंहार 3.उड़ान मौसम की 4 अनपहचानी 5 प्रतिध्वनित ,क्षणिका

"पहचान !"
बदहवास  शहर का जूड़ा
शिवत्व के बोध सा
अपनी पहचान खोल रहा है
 शायद सार्थक होने को और
 यह कहने को कि
धन्यवाद, जो तुम आए
 यह बतलाने को कि
 पहचान  का रंग
 हरा होता है
 हरी घास के विस्तार सा

और जाने क्यूँ
 अब मैं भयभीत भी नहीं हूँ
अजनबी शामों की
 उदास सीली  हवाओं में
पहले न जाने क्यूँ मैं
 भयभीत रहती थी
 भीड़ के जंगल में
 अकेलेपन से
छिपती फिरती थी
भयातूर हिरणी सी
आड़ तलाशती थी
आवाज़ों का नीलखंड
जब मँडराता था मेरे
 आस पास तो
 मेरे भीतर का चोर
 दुश्मन सा दबोच लेता था  मुझे

लेकिन अब इस प्रक्रिया में
 समूची शाम वही है
 वही हवाएँ हैं वही
 आते जाते मौसम
कोनो कुतरों में छिपे
भोले निरीह पक्षी भी वही हैं
कुछ भी अनचिन्हा
-अपहचाना नहीं है अब 
कुछ भी तो नहीं ....!
डॉ सरस्वती माथुर
2
"उपसंहार !"
एक नदी की  तरह
उमड़ती हैं ,मेरी
 तमाम इच्छायें  और
एक उपसंहार की  तरह
 दोहरा दी जाती हैं
 मैं अपने समानान्तर
 सिर्फ डूबते सूरज को
 देखती भर हूँ और
 अपने आस पास
 झरने देती हूँ
पानी से दिन
तमाम  इच्छायें  भी
घोडा बन दौड़ती रहती हैं
 जीवन के अस्तबल में  !
3
"उड़ान मौसम की !'
आकाश पर
 चढ़ी रहती है धरती
एक झीनी परत सी
 उड़ती है धूप ,हवा ,बारिश
 दूर तक अकेला
 दिखता है मौसम तो
 सोचते हैं हम अपनी ओर
 क्यूँ खींचती है हरियाली
क्यूँ बुलाता है इंद्रधनुष
 सात रंगों का
 अपने आप में
 खोया एक बैचन मन
 भटकती स्मृति के साथ
बहुमंज़िली इमारतों सा
 ऊंचा आकाश पेड़ों के
 ऊपर से बिखेरता रहता है
नीलापन और अच्छा लगता है
 पहचानना मौसम को
 जो उड़ता रहता है
 चिड़ियों के झुंड सा
 धरती से आकाश तक
आकाश से धरती तक
 एक अनवरत सिलसिले सा
 सीला सीला सा
 गीला गीला सा !
4
"अनपहचानी !"
मैं ढों रही हूँ पहचान
शून्य के बाड़े से
 घिरी हुई पीड़ायें
 सत्य के चौराहे पर
रोज चिल्लाता है
झूठ का यथार्थ
मैं उसी की  सार्थकता से
 खिन्न हूँ
  महाइतिहास लिखने के लिये
मेरी आत्मा
 इतनी व्याकुल है कि
अनपहचानी सी
 रात दिन भ्रम ढोंती है !
5
"प्रतिध्वनित !"
नींद में छिपे सपनों सा
 भोली मिठास की
 सुधियों सा जीवन
 कभी कभी मुझे
 फूलों में छिपी
 सुगंध सा दिखता है
 जिस पर  फिरकनी सी
 घूमती हवाएँ
अपनी पहचान कराती हैं
सोचती हूँ जब कि
यह जीवन कहाँ से आता है
 इंसान को अनोखी
आस्था से भर जाता है
इतिहास के
पन्नो सा फड़फड़ाता
 क्यों मृत्यु के
 रहस्य द्वार में घूस जाता है
तो मेरे शब्द
आदमी की रचना के
 शिलालेख से टकरा कर
 प्रतिधावनित हो
 मुझ तक लौट आते हैं
अनुतरित !

"क्षणिका !"
जड़ीभूत परतों में
अमावसी रात सा
 एक अनछुआ फैलाव
 अपनी स्थापनाएँ
 रखता हुआ
 बेकार फड़फड़ाता है
तीखी मासूमियत के साथ l
 भीतर का प्रकाश