सोमवार, 8 सितंबर 2014

चम्पा : " चम्पई फूलों से महकता यह घर अंगना !"

" चम्पई फूलों से महकता यह घर अंगना !"
 
 दूधिया   भोर में
चंपा के झरे फूल
  जब मैं  आँगन के
 तरु से रोज उठाती हूँ
 तो ना जाने क्यों
 अम्मा उसमे से
 तुम्हारी  महक आती है
 घर भर में मंडराती है

 याद है मुझको
बड़े दादा सा. ने
आँगन में यह पेड़
 चंपा का रोपा  था
पर इसका तो
 लुत्फ़ तुमने
जी भर के उठाया था
मूंज की खटिया लगा
 वहां आसन अपना
 जमाया था 


 महाराजिन के संग वहां
तुम दिन भर बतियाती थी
 मैथी -चौलाई चुटवातीं 
 सब्जियां कटवाती थीं
 अमिया करौंदे  का
 अचार भी हल्दी में लगा
 वहीँ बनवातीं थीं

 रमैया की अम्मा से
 साँझ को रामायण की
 चौपाइयां गंवाती
आरती करके
 हम सब को उसी
चम्पई हवा में अक्सर
तुम मोहल्ले भर की
 कुछ कच्ची
कुछ सच्ची कहानियां
 चटकारे ले लेकर सुनातीं  थीं


साँझ आरती के लिए
 चंपा के फूल  तुडवातीं
गजरा बना
 राधा जी को चढ़वातीं
 फिर साँझ गीत गातीं थीं

 

अम्मा, अब न तुम रहीं
 न वो   रसीली  कहानियां
 पर देखों न अम्मा
 चंपा के फूल
अब  कुछ ज्यादा  
 महकते हैं और
अम्मा एक गौरैया तो 
 रोज नियम से आती है
  मधुर स्वर में
संध्या को जब वो गाती है
 तो लगता है
 वो गौरैया  
 तुम हो अम्मा
 
तुम, जो कहा करतीं थीं कभी  कि
जन्म मिले दुबारा  तो
 चाहूँ  मैं कि बनूँ  
  मैं  एक  गौरैया ताकि
 छूटे मुझ  से कभी न
 मेरा  चम्पई फूलों से
 महकता
यह घर अंगना !
डॉ सरस्वती माथुर  



"चंपा के फूल !"
जब चंपा के फूल  महके
 तो तुम याद आये

 बागों में फूलों जैसे
 आकाश में चंदा  तुम
  कैक्टस के शूलों जैसे
  नदी में अलकनंदा तुम
  महके मोगरे तो
  तुम याद आये

  बांसुरी में धुन जैसे
  कृष्ण के कुञ्ज तुम
  सीता के निकुंज जैसे
  विष्णु के सुदर्शन तुम
  वीणा के तारे चह्के तो
  तुम याद आये

 जब चंपा के फूल  महके
 तो तुम याद आये
  डॉ. सरस्वती माथुर


2

"चम्पई  फूल!"
हंस पड़े चंपा के फूल 

 देख हरे पंखों वाली
 चह्चहाती  चिडिया

 फुदक  रहें थे बच्चे
 लुत्फ़  उठाते मौसम में
 चेहरे से मासूम सच्चे
 खिली चांदनी में ढूँढ़ते चाँद में
 चरखा काटती  बुढ़िया

 गूँज रही थी किलकारियां
 अल्हड तितलियों सी
 ड़ोल रही थी केसर क्यारियाँ
 हवा में आँखे  खोलती   सी
 बंद करती सी  गुडिया 
 चम्पई  फूल झरझराते
 सुबह साँझ समर्पित
 बगिया में मुस्कराते
सुरमई खामोशियों में अर्पित
   तैरती जादू की बंद  पुडिया
.....................................
"चंपा के फूल !"
महके चंपा के
 सौन्द्रयबोधी  फूल

बहते झरने कलकल संगीत
 हवा में गूंज रहें थे  गीत
 मौसम में खिल गये थे फूल
महके चंपा के
 सौन्द्रयबोधी  फूल

 पाखियों में समायी  थी प्रीत
  मिल गये थे बिछड़े  मीत
 हवा में गूंज रहें थे  गीत
 बहते झरने कलकल संगीत


  सृजन के सुंदर थे  पल

 महके चंपा के
 सौन्द्रयबोधी  फूल
 एक नई पगडण्डी पर

नदिया से बहे उतरे कूल
 बहारों की ऐसी होती रीत
 चाहे  गर्मी हो या हो शीत
 हवा में गूंज रहें थे  गीत
 बहते झरने कलकल संगीत

प्रकृति से मिलने को थे आकुल


महके चंपा के
 सौन्द्रयबोधी  फूल
डॉ सरस्वती माथुर


"कनेर के फूल खिले !"
तरु ताल में
कनेर के फूल खिले


भर हवाओं में खुशबू
वो जब गले मिले
धरा पर अनुराग के तब
चलने लगे सिलसिले

चढ़ाये गए मंदिरों में
शिवगौरी के पगो तले

जुगुनू से चाँदनी में
नेह दीप बन जले
गुंजित होते रहे चिड़ियों से
सुबह और साँझ ढले

संचित रंगों का लगा काजल
मन की देहरी पर पले

तरु ताल में
कनेर के फूल खिले l
डॉ सरस्वती माथुर

"मैं कनेर !"
मैं कनेर
रूप रस   में
रंग समेट
 कुंज में पली  हवाओं से
 करता  अठखेली
 मौसम के साथ चला 

सर्दी  की बाँहें
जब मुझे न दे पाईं
 स्पंदन तो
 निर्लिप्तता में भी मैंने
 फिर खिलने का
 दर्शन पाया

गर्मियों का ताप पी कर
 भरी दुपहरी में मैंने
 अपना रंग बरसाया
 ताल तलैया ,वन उपवन
 घर- आँगन संग
 शिव मंदिर सजाया
 विष की नाभि पाकर भी
प्रकृति में ईश ज्ञान का
 अमृत दीप जलाया

 मैं कनेर
साथ रह कर  प्रकृति के
 वसुधा के आँचल को
 हरियाया
 देकर रंगों का 
सुरमय  सायाl
डॉ सरस्वती माथुर

"मखमली फूल कनेर के !"
झूमर से लटके
 कुंजों की डार
मखमली फूल
 कनेर के
 प्रमत्त झूमते
 हवाओं के गालों को
दुलार से चूमते
प्रतीक शृंगार के

मंदिर की देहरी  में
 समर्पण का सेतु बांधते
साधना में सर्वस्व
 अपना वार कर
अपने अस्तित्व को झारते
 रंगमय फूल
 कनेर के l
डॉ सरस्वती माथुर



"कनेर तरु !"
बताओ तो कनेर तरु
 क्या राज है कि
तुम हर ऋतु में
 अपनी एक अलग
कहानी कहते हो
 गांवों के पनघटों ,मंदिरों
घर आँगन और अहातों  पर
 चुपचाप खड़े होकर तुम
 हवाओं को रंग देते हो

तुम्हारे फूलों की
 सजी सँवरी  पातें
तने  की  पतली डालियाँ और
 एक गुच्छ में
 अपने अस्तित्व की
 छोटी छोटी घण्टियों का
 क्या कहना
जब हवा में हिलाते हो
अपने फूल तो
एक नयी पहचान बनाते हो

 तुम्हारे लाल, पीले ,गुलाबी और
 सफ़ेद फूल चटक धूप में भी
 कुम्हलाते नहीं
  बस बसंत उन्हें
 सतरंगी कर देता है तो
 फागुन रंग देता है

 गर्मी की दुपहर में
तुम्हारी मुस्कान
सभी को भाती है
पर सर्दियाँ न जाने क्यों
तुम्हारा सौंदर्य
 निगल जाती हैं
 तुम्हें देख करके
   कनेरी चिड़िया भी
 बहुत याद आती है

 हवाओं को अंजोरते हुए
 कनेर तरु तुम यूंही
  अपनी शोभाश्री बढ़ाते रहना
रंग- बिरंगे फूलों से अपना
सौंदर्य बढाते  रहना
  प्रकृति को सतरंगे
 परिधान पहनाते रहना !
डॉ सरस्वती माथुर

"कनेर खिल आया !"
भोर में चहकी
 कनेरी चिड़िया तो
 मन कुंज में
कनेर खिल आया

हवाओं को गीतों से
 सींच कर
 मौसम का पंछी
 लाल- गुलाबी ,श्वेत और
 पीले फूलों पर
 खुशबू बुन आया

अरे कनेर के फूलों
 बताओ तो जरा
 तुमने इतना सौंदर्य
 कहाँ से पाया ?
डॉ सरस्वती माथुर

"कनेर !"
एक फूल कनेर
 छज्जों पर चढ़ता
गुनगुनी हवाओं संग
झूला झूलता
हरियायी बगिया में
चिड़िया संग खेलता
 मन जाने तब
 याद कर कर के
एक पाखी सा
जाने किसे टेरता l
डॉ सरस्वती माथुर

"पीला कनेर !"
शाम में झरता
एक पीला कनेर
 शांत सा
 सरसराता पड़ा रहा
जाने कहाँ से
 एक पथिक आया
 उसे उठा कर
 चँवर सा झूलाता रहा
 फिर हाथ में पकड़ी
 किताब में रख कर
 भूल  गया
 नन्हा कनेरी फूल अब
 उस किताब की खुशबू में
 बस गया है
मन  के  मौसम
 जब खुलेंगे तब यह
 फिर यह उगेगा !
डॉ सरस्वती माथुर
"रंग कनेर के !" 

कनेर के रंग
मौसम की हवा में
 तितलियों से उडते है
 मन के इर्द गिर्द
 खूशबू बुनते है
 मन का हरापन कुछ और
 हरा हो जाता है
 जीवन में यादों का
 एक तरु उग आता है और
 चिड़िया की चहक भरी
 अठखेलियों संग
 सपनों का इंद्रधनुष
 बुनने लगता है
 र्रंग भर मौसम भी
 फूलों संग नया
 गीत गुनने लगता है !
डॉ सरस्वती माथुर
1
कनेरी फूल
 चमन खिला गये
 हवाओं से मिल के
 खुशबू फैला
हरी धरती पर
रंग बरसा गये l
2
पुरवा संग
 रंगरेज़ सा मन
 चकित निहारता
 कनेरी फूल
रसधार बरसा
 मधुर गीत गाताl
डॉ सरस्वती माथुर
गजल
 फैली चंपा की महक
गूंजी पाखियों की चहक
लगे ऋतु मनभावनी
चम्पई पराग की दहक
मदिरा के सुवास सी
हाला पीके गए बहक
रिश्तों में मिठास की
आत्मीय सी है खनक
मन की आँखों में
तैरे डूबे सपने लहक l
डॉ सरस्वती माथुर
2
"पीताभ आँगन में!"
 चम्पई फूलों से
 एक कतरा रंग ले
 पुरवा ने चुराई
 मकरन्दी तितलियाँ


नाच उठी हवाएं
पीताभ आँगन में
काढ दिए बेल बूटे
ओधा दी फुलकारियाँ



सुवास के फूटे झरने
मन को लगे भरने
धरती के आँचल पर
चमकी केसर क्यारियाँ !
डॉ सरस्वती माथुर


"सुवासित करते चंपा के फूल!"
घर आँगन महकाते
 चंपा के फूल

दिए से जलते
 झिलमिल करते
 दुधिया रात में
 जुगनू लगते
 चंपा के फूल


दीप्त से पाटल
 कर देते पागल
 धरा को परसाते
 कंचनवर्णी लगते
 चंपा के फूल



 मंदिर में चढ़ते
 सुवासित करते
 सज़ जुड़े में गौरी को
 शृंगारित हैं करते
 चंपा के फूल


 केसरिया पाग में 
 पीताभी आग में 
 कंचनवर्णी  लगते
 तितली से उड़ते
 चंपा के फूल
मन को सुरभित करते
 चंपा के फूल !
 डॉ सरस्वती माथुर



 





 




 




 
      

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