सोमवार, 8 सितंबर 2014

कवितायेँ :गंगा


"गंगा कैसे नहाओगे ?"
आई भोर आई
पंख पसारे चिड़ियों ने भी
गीत उच्चारे
मंदिर की घंटियाँ बोली

जागे सारे नदी किनारे
अम्मा भी प्रभाती गातीं
झट से घाट पर पहुंची
ले डुबकियां गंगा नहाई
मन में कुछ शगुन भी लायीं
कुमकुम मंगल का
बांध घर आयीं
एक दिन नन्ही पोती ने थी
जिद पकड़ी अम्मा
मैं गंगा कहाँ नहाऊँ?
अम्मा मुस्काई बोली- -
तू कैसे नहा पायेगी?
वहां कहाँ रही अब
पहले सी शुद्धाई?
मैंने तो बरसों का
नियम निभाया है
नाम को ही नहाया है
बस, आखिर में
घाट पर नहा कर
एक लोटा जल
घर से जो ले गयी थी
उससे फिर नहाया है
बन्नो, गंगा नाहन तो
अब भी मनभावन है
पर जल नहीं रहा
अब पावन है
इसलिए तू मन की गंगा में
नहा ले अब पर
चाहे कुछ भी हो जाए
विष घुली उस गंगा में
नहाने को अब
कभी जाना मत और
जाये तो वहां मेरा
यह सन्देश लेती जाना
कहना लोगों को कि
गंगा को बचाओ पहले
फिर नहाओ
इस विरासत को
कैसे भी बचाओ !
2
 "ठहरी क्यों गंगा मैली हो कर?"
शिखर से उतर कर
बहती थी
फुदक फुदक कर
चलती थी
नयी राह बनाती
अठखेलियाँ करती
एक गिलहरी सी धरा तरु पे
कहीं उतरती कहीं चढ़ती
पथ को श्रम से
उर्वर करती
हर बाधा से
लड़ लड़ आगे बढती
पर अनायास
रुक गयी एक दिन
एक मोड़ पर
किसी ने उसका
बहाव काट दिया
धारों को स्वार्थ में
बाँट दिया अब
ठहरी गंगा मैली हो कर
गुहार लगा रही है कि
मुझे न रोको
मैं तो बहती धारा हूँ
कलकल करती हूँ
बिन रुके चलती हूँ
मुझे अपनी राह जाने दो
कोसों फैली मटियाली
धरा को नहलाने  दो
इस देश को चमन बनाने दो
जन जन को मुस्कराने दो
मुझे बह जाने दो
बह जाने दो
बस चुपचाप दूर
तक बह जाने दो !
जल का परिंदा हूँ
नाम है गंगा जल
मैं न रही तो
डूब के खो जायेगा
अपने देश का कल !
डॉ सरस्वती माथुर

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