बुधवार, 28 मार्च 2018

जंगल में मंगल

एक हिरण बिमार था, भागने में असमर्थ भी पर उसे जंगल में छिपने


मंगलवार, 13 मार्च 2018

गीत-नवगीत

'मौन बातूनी हो जाये'
देहरी पर
जब दीप जले
विश्वास पले
रात चाँदनी हो जाये

तटबंध तक जाते
साथ निभाते
बाती गले
मुलाक़ात सुहासिनी हो जाये

चाँद कटोरा लेके आये
धरा खड़ी मुस्काये
स्वप्न पले
बात रागिनी हो जाये

हवा हाँफती
फूलों पर उतरे
अमराई तले
उदिता मौन बातूनी हो जाये
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'एक अंजाना डर'
कहाँ खो गये
सुंदर साझा घर
चहुँ ओर पसरा है
एक अनजाना डर

मौन योगी सी
उतरती है सहर
एक रोगी सी
लगती है हर पहर

पीली धूप में
सूख रहे हैं तरूवर
प्रदूषित हवा के
हो गये हैं भारी स्वर

कोहसारी रातें
नींद की डगर
सपन पनीले भी
टूट कर गये बिखर
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'बंजारा सा मन '

आपाधापी -शोर शराबा
बंजारा सा मन
उजले दिन में भटक रहा
अँधियारा सा मन

हवा से पूछा
जब तुम बहती हो

लिपट तरूओं से

क्या कहती हो

सूने मौसम में रहता है
बौराया सा मन

धूप है गहरी
तपती राहें हैं
छांव  को ढूँढती
विकल  निगाहें हैं

चलते चलते रूके पाँव
घबराया सा मन !
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'अलग अलग घर'

दिन कितने अपने थे
मनभावन सपने थे  

हर गाँव हर शहर में
गली चौक अमराई में
रात और  सहर में
मस्ती भरे आलम थे
बस हम ही हम थे

अब ना गली चौबारा
ना कोयल के स्वर
अलग मसजिदें गुरुद्वारा
अलग अलग हैं घर
सबके पहले एक मन थे ।
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'कहाँ गये वो दिन?'
 किससे करें संवाद
डरा हुआ है मन
भूली बिसरी बातें
कहाँ गये वो दिन
साझा चूल्हा बुझ गया
हुआ सब छिन्न -भिन्न

दिन यूँही कट रहे हैं
जीवन में खटास
किसके द्वार खटखटायें
अपना ना कोई पास
खिड़कियाँ भी बंद हैं
आत्मीयता गयी है छिन्न

बढ़ रहीं हैं दूरियाँ
बदल रहे हैं दिल
चूहों जैसे हो गये हम
खोद रहे हैं बिल
कोई मुस्करा के बोल दे
तो कहते हैं-आमीन ।
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चिड़िया और बेटियाँ -व अन्य कविताएँ

कविताएँ
1
'चिड़िया और बेटियाँ '
बहुत देर तक
चहचहाती रहीं बेटियाँ
संदेश था उठो ,जागो
दूर तक फैले
उजियारा को देखो
अँगड़ाई लेकर जाग उठे सब
पेड़,पौधे,फूल,मौसम
और ढेर सारी तितलियाँ भी जो
बेटियों की तरह
महकते फूलों पर
मँडरा रही थीं -जी हाँ बेटियाँ
जो हर फूल से रंग चुरा कर
घर के आँगन में बुनती हैं
माँ बाप के प्रेम के
इर्द गिर्द उड़ते हुअे
संतरंगी इंद्रधनुषी नीड़
सच कितनी पुरसुकून
होती हैं बेटियाँ
उनके भीतर
 सब कुछ होता है
संवेदना,अनुभूति
अभिव्यक्ति और सपने
इन्हीं सपनों के साथ
जब नदी की तरह
आगे बढ़ते हुअे
अपना रास्ता बनाती
हैं बेटियाँ -तो
एक मायने देती हैं और
पूरी दुनिया झुक जाती है क्योंकि
उनके पास होता है
मन की शक्ति का एक
गहरा समुंदर
जिसको किसी भी पैमाने से
नापा नहीं जा सकता।
2
'मुझे चलना होगा'
बहुत दूर की हवाएँ
अनमनी सी मुझे
खींच रही हैं
मन में यादों के बीज
सींच रही हैं
वहीं की माटी में मुझे
उगना होगा
फिर उसी दूरी पर
जहाँ समय के
टेढ़े मेढ़े मोड़ है
नयी राह पकड़ कर


चलना होगा
सफ़र दूर है और
सामान भी चला गया है
अब मुझे भी निकलना होगा
एक नया मोड़ चुन कर
मुझे चलना होगा।
3
'मौसम बन कर'
उड़ती हैं हवाएँ
चीलों के जैसी
धूप नोचती
सूखी नदियों पर
सूरज फेंकती
पत्तों से प्यास बुझाती
सागर पर सरसर करतीं
फिर नमी सोख कर
मुड़ जाती हैं
तट की रेत पर
जम कर सुंदर
घरोंदे बनाती हैं
इन नीड़ों में नये
ख्याब सजाती हैं
इन ख़्वाबों को
गतिमान रखने को
नदी सी बहती जाती हैं
कभी कभी मौसम बन कर
शोर मचाती हैं
कभी रेशमीं फूलों पर
रंग फैला कर
तितली सी उड़ जाती हैं।
4
'एक सैलानी से'
मन के डैने खोल
पखेरूओं से हम
उड़ते रहे ,यहाँ -वहाँ
जाने कहाँ -कहाँ
एक सैलानी से
गुज़रते रहे कई मोड़ों से
भूले बिसरे शहरों से
खेलते रहे
यादों की लहरों से
मौन की सीपियों को
बंद करते हुअे
अनजान पथों में
ज्वार सा जीवन
उमड़ घुमड़ कर
जो देता रहा हमें
अर्थ,दर्शन ,सोच,,दृष्टि
अंतर्मुखी चेतन
उन्हें सजग हो हम पीते रहे
टूटन के क्षणों में
संबल का दिया जला कर
जुगनू से उड़
ख्याबों की रोशनी को
जीते रहे।
5
' एक यायावर सा'
चीख़ती हवाएँ जैसे ही
ख़ामोश हुईं
मन का एकांत
धुँधली शाम में
बेमतलब
अपने आपको ढूँढने
दूर निकल गया
तभी एकाएक
एक भटकती चिड़िया ने
उसे अपने पंख दे दिये
अब वो उन्मुक्त था
और एक यायावर सा
बस जगह बदल बदल कर
इधर से उधर उड़ रहा था
लौटने का रास्ता
बहुत पीछे छूट गया था
पदचिन्ह का क्या
वो तो समय मिटा देता है
और सोचना क्या
जो भी होगा
देखा जायेगा!
6
' गुज़रा वक़्त '
हवा के धौंके सा
वह कौन है जो
रोज़ आकर बैठता है
पार्क की बेंच पर
गिरती   पत्तियों  को
  देखता है -फूलों के
रंगो को निहारता है
उसके चेहरे पर
एक परछाईं की
प्रतिज्ञा  का  ख़ालीपन
नज़र आता है पर
अचूक है उसकी दृष्टि
वह आँख बंद करके
अपने से बतियाता है
रोता है - हँसता है
शायद कोई
भूला बिसरा पल
कभी उसे हँसाता है
कभी रूलाता है
कभी वह डबडबाई
 आँखों से देखता है
आम की बैरों को
जहाँ से झाँकता होता है चाँद
काँपती चाँदनी के साथ
और बिखरी चाँदनी को
फैली रोशनी में लोग
बेख़ौफ़ चलते हैं
रात की ख़ामोशी में
जब पेड़ों,तारों ,कटोरों में
डेरा डाले बैठे परिंदे
अचानक पंख फड़फड़ाते हैं
किसी आशंका से वह
डर जाता है
वह उठता है और
दौड़ने लगता है फिर
हवा के साथ ऊपर
बीता वक़्त बन कर
ऊपर  उठ जाता है
बीता वक़्त बन
ज़िंदगी के बक्से में
दुबक जाता है!
13.3.18
 















रविवार, 18 फ़रवरी 2018

लघुकथा संग्रह ---गुलदस्ता


★f★लघुकथा संग्रह----गुलदस्ता 
मन  की  बात 
लघुकथा के बारे में 
वर्तमान दौर लघुकथा  लेखन का है । यह लघुकथा लेखन गागर में सागर भरने जैसा है क्याेकि  लघुकथा शब्द का निर्माण लघु और कथा से मिलकर हुआ है अर्थात लघुकथा गद्य की एक ऐसी विधा है जो आकार में "लघु" है और उसमे "कथा" तत्व विद्यमान है। अर्थात लघुता ही इसकी मुख्य पहचान है। आकार में लघु होते हुअे भी बीज में विशाल वट वृक्ष की तरह हो जाता है ।कलेवर की लघुकथा के कारण ही अन्य तत्व स्वयं ही छोटे हो जाते हैंंैं ैं । लघुकथा’ समसामयिक सरोकारों से जुड़ी कथा-रचना है,कम शब्दों में बहुत बड़ी बात कहने का सामर्थ्य रखती है ।लघुकथा को वस्तु और रूप, दोनों दृष्टि से एक कथा होना चाहिए। और उसे बहुत छोटे रूप में भी कथा साहित्य क से अलग नहीं होना चाहिए। वस्तु तो लघुकथा का प्राणतत्व है और शैली परिधान। किंतु वस्तु को, प्राण को, जितनी अच्छी शैली के परिधान में सजाकर प्रस्तुत करेंगे, उतना ही अधिक उसका प्राणतत्व प्राणवान और प्रभावशाली बनेगा। यह हम सभी जानते हैं कि लघुकथा साहित्य की स्वतंत्र और स्वत: परिपूर्ण विधा है। इसकी लोकप्रियता का मूलाधार इसकी तीव्र संप्रेषनीयता है । कभी कभी तो लघुकथाएं कुछ एेसा प्रभाव उत्पन्न करती है जो लंबी कहानियाँ और उपन्यासों द्वारा भी संभव नहीं हो पाता है तभी तो कहते हैं कि लघुकथा शिल्प की साधना हैैं । 
लघुकथा का उद्भव और विकास प्राचीन काल से ही हुआ है ।इस विधा का आरंभ छठे दशक के आसपास माना जाता है ।सन्1970 के बाद लघुकथाओं में अच्छा ख़ासा परिवर्तन आया और आठवाँ दशक आरंभ हो जाने से लघुकथा एक चर्चित विधा के रूप में चर्चित रहा । देखा जाये तो आठवाँ और नौंवा दशक हिंदी लघु कथा के उद्भव एवं विकास के लिये महत्वपूर्ण भी रहा है। आज के युग में लघुकथा का स्वरूप ज़रूर बदल गया है । लगभग हर लघुकथा एक स्थिति ये जुड़ी होती है अत: हम कह सकते हैं कि समाज और परिवेश का आइना होती है ।पात्र और घटनाएँ हमारी अनुभूति की उपज होती हैं जिन्हें हम भिन्न - भिन्न रूपों में अभिव्यक्त करते हैं , उसमें कल्पना  के आधार पर जो हिस्से जोड़ते हैं वे भी उस यथार्थ से मिलते जुलते हैं  तभी हमारी कल्पना में आते हैं । जीवन में घटित हुआ  कुछ भी अगर मन पर अंकित हो जाये तो लेखन में तब्दील हो जाता है ।चिंतन लेखन को दिशा देता है और लेखन जीवन को। कथानक बुनते समय कथानक और शब्द चरखा और सूत की तरह होते हैं तब ढाँचा तैयार होता है ।इनमें एक शहर ,एक बस्ती ,कुछ घर और कुछ लोग होते हैं जिन्हें हम अपने आस पास देखते हैं ।उनकी सहायता के बिना हम कहानी नहीं गढ़ सकते ।जिन परिस्थितियों ,चरित्रों और वातावरण को मैंने ख़ुद महसूस किया उसे सहज और स्वाभाविक प्रवाह में उतार दिया । कितनी सफलता मिली  मैं नहीं जानती इसलिये इसका  आकलन सह्रदय पाठकों पर छोड़ती हूँ ।
डाॅ सरस्वती माथुर
1
★ईंट की दीवार ..
 कॉलोनी में रहने वाले हरिहर बाबू और अलीखान बचपन के दोस्त थे lदोनों ने साथ जमीन खरीदी और  साथ ही यहाँ मकान बनवाया l ईद हो  होली या -दीवाली दोनों परिवार साथ मनाते थे l कॉलोनी वाले उनकी दोस्ती की मिसाल देते नहीं थकते  थे l समय गुजरता गया बच्चों की शादियाँ हो गयी ,पोते पोतियों से दौनो के घर आँगन भर गये  lफिर जाने क्या हुआ बच्चों के आपसी मतभेदो के  कारण दोनों दोस्तों की दूरियाँ भी बढ़ती गयी l प्यार वह अब भी करते थे पर अहम की दीवार भी बढ़ती जा रही थी   lघर बनाते समय दोनों परिवारों के घरों के बीच की बाउंडरी वाल पर दीवार नहीं खींची गयी थी , एक दिन कॉलोनी वालों ने देखा कि दोनों के घरों के बीच  ईंटों की दीवार पाटी जा रही हैl उस दिन न हरिहर बाबू ने न अलीखान जी ने खाना खाया । हरिहर बाबू तो सो भी नहीं पा रहे थे l अपने घर के बरामदे में बैठे थे ,बस एकटक खींची दीवार को देखते जा रहे थे, बाहर बज़ रही चौकीदार की लाठी की ठकठक से टूटते सन्नाटे में कभी -कभी उनकी सिसकियाँ भी शामिल हो जाती थी ।
रात के करीब दो बजे हरिहर जी  जब अपने  कमरे में बैठे थे तो उन्हे ज़ोर से चीखने की आवाज़ सुनाई दी  ,श्रीमती अली की आवाज़ वे खूब पहचानते थे ,वे फुर्ती से उठे ,देखा मेंन गेट  पर ताला लगा है ,उन्होने आव देखा न ताव  फावड़ा उठाया और ईंट की आज ही बनी गीली दीवार पे ठोंकना शुरू कर दिया । सीमेंट अभी गीला था इसलिये कुछ ईंटें तोड़ कर खिड़की सी बनाई  और  अलीखान के घर में प्रवेश किया  l  घर का दरवाजा खुला था ,अलीखान आँगन में गिरे पड़े थे l श्रीमती अलीखान पानी के छींटे देकर उन्हे होश में लाने की कोशिश कर रहीं थी ,हरिहर जी को देखते ही बोलीं-'देखों न भाईसाहब ,खान साहब को क्या हुआ है , अभी तो बाहर चहल चहलकदमी कर रहे थे ,फिर कुर्सी पर बैठ गए थे ,शायद नींद नहीं आ रही थी  l " 
हरिहर बाबू ने कहा --"चिंता मत करो भाभी जान अभी जगाता हूँ ,ओए नाटककार अली ,उठ देख दीवार गिर गयी है ,उठ जा यार ,कसंम खुदा की अब यह दीवार कभी नहीं उठने दूँगा "
अली खान ने भीगी पलकें उठा कर हरिहर बाबू को देखा और फफक पड़े,  फिर दोनों ने एक दूसरे को बाहों में भर कर प्यार की झप्पी ली l घरवालों ने उन्हे देर तक गले लग कर रोने दिया । कॉलोनीवालों ने भी देखा कि  ईंट की दीवार ढहा  दी गयी थी l
2
★ बालदिवस 
सुबह से ही स्नेह आश्रम में हलचल थीl बाहर लॉन में दरी बिछा दी गयी थी और सभी अनाथ बालिकाओं को पंक्तिबद्ध बिठा दिया गया था l राजरानी देवी की तरफ से बच्चों के लिए बाल दिवस के उपलक्ष्य में नाश्ता पानी का आयोजन था l उनकी तरफ से एक लम्बी मेज पर कलफ लगी चमचमाती सफ़ेद चादर पर खाने पीने की सामग्री सजा दी गयी थीl मिठाई के रंग बिरंगे डिब्बे ,फल समोसे ,नमकीन ,पीने के लिए जूस और एक - एक जोड़ी परिधान वहां गुलदस्ते में सजे फूलों से शोभा बढा रहे थे।करीब नौ बजे चमचमाती टोयोटा कार आकर बाहर रुकी l कांजीवरम की साडी ,आँखों पर मैला काला चश्मा पहने राजरानी जी जब उतरीं तो बालिकाओं की आँखों में चमक आ गयी l सुबह से वो भूखीं थीं ,पेट में चूहे दौड़ रहे थे l आश्रम की बड़ी दीदी और सहयोगियों ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया l लॉन में लगी छतरी के नीचे उनकी कुर्सी लगा दी गईं थी l वे देर तक आश्रम  की जानकारी लेती रहीं, बीच बीच में साफ़ धुले वस्त्रों में बैठी बालिकाएं बड़े प्यार से उन्हें निहार रहीं थींl घडी की सुईयाँ टिक -टिक करती आगे बढ़ रहीं थी l अब धूप लॉन की दिवार फांद बालिकाओं के ऊपर चमक रहीं थी l उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि माज़रा क्या है lसुबह छह बजे उन्हें उठा कर तैयार कर दिया गया था कि आठ बजे गरमागरम नाश्ता मिलेगा l तभी लालबत्ती वाली एक गाडी हॉर्न बजा भीड़ को हटाती आश्रम के  बाहर रुकी और उनके पीछे था कैमरों के साथ  मीडिया का उमड़ता सैलाब । आधे घंटे के स्वागत समारोह में बाल दिवस की महत्ता के भाषण के बाद जब राजरानी देवी मंत्री जी के साथ कैमरे के साथ विभिन्न फोटो खिंचवाती नाश्ता बाँट रहीं थीं  तो दो चार बालिकाएं तो बेहोश होने जैसी स्थिति में पहुँच चुकी थी l कुछ  बालिकाओं की आँखों में एक प्रश्न जरुर चमक रहा था कि यह कैसा बाल दिवस है?अब  आश्रम की  किसी भी बालिका की आँखों  में उत्साह और जोश की चमक नहीं दिख रही थी ।
3
★ भूख
समीर जब घर पहुँचा तो रात के आठ बज रहे थे ।माँ टी०वी०पर अपना मन पसंद फ़ैमिली शो देख रही थी ।उसने कोट उतार कर खूँटी पर टाँका ,  मोज़े जूते उतारे और वहीं सोफ़े पर माँ के पास बैठ गया।
"आज देर कर दी , कुछ काम था? "माँ ने उसकी तरफ़ देखते  हुअे जल्दी -जल्दी पलकें छपकाईं ।
"नहीं ,सूचना केंद्र में बैठा था  , नौकरी ढूँढ रहा था ,वहाँ कुछ अख़बारों में काॅलम आते हैं नौकरी से संबंधित  पर आजकल मंदी बहुत है। " बोलते   हुअे समीर की आवाज़ ज़रा भारी हो गई थी। 
"हाँ सो तो है ,मिल जायेगी बेटा ,ज़रा धैर्य रखना होगा ।"कह कर माँ फिर टी०वी० देखने लगी।
समीर के पेट में चूहे कूद रहे थे पर माँ से कैसे कहे । पूरा एक वर्ष  हो गया है घर बड़ी बहन कुमुद के भरोसे पर चल रहा है ले देके वो तीन प्राणी हैं पर मंहगाई इतनी है कि अब तो समीर को बडी ग्लानि सी होने लगी है। कब तक बहन पर बोझ बना रहेगा । उसकी बहन कुमुद मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती है। अभी तक उसकी भी शादी नहीं हुई थी , माँ ने बहुत कोशिश भी करी पर दहेज की माँग और उसका साँवला रंग दोनों बाधाएँ हैं। अब तो जैसे परिस्थितियों से समझौता कर लिया है । तभी घर की डोर बैल  बजी और माँ ने बिजली की फुर्ती से उठ खड़ी हुई जैसे उनका कोई बाॅस आ गया हो।कुमुद ने समीर की तरफ़ देख कर एक थकान भरी मुस्कान फेंकी । समीर भी मुस्करा दिया । माँ ने उसके हाथ से बैग और  छाता लिया और सीधी रसोई घर की तरफ़ चल दी । कुमुद वहीं समीर के पास बैठ कर रिमोट से टी०वी० के चैनल्स बदलने लगी ।माँ गरम गरम खाना वहीं ले आई । कुमुद को खाने की प्लेट पकड़ा कर उसके लिये पानी लेने चल दी । यह भी भूल गयी कि समीर उसके पहले से आया बैठा है।उसे भी भूख लगी होगी।
"समीर तुमने खा लिया खाना ?" समीर ने अभी खा लूँगा की मुद्रा में आँखें झपका दी ।
कुमुद रोटी के बड़े बड़े कौर तोड़ कर जल्दी - जल्दी खाने लगी । अपने गले में अटके ग्लानि  के घूँट को समीर गटक गया । तभी माँ ने समीर को प्लेट लगा कर पकड़ा दी पर समीर को लगा कि उसकी भूख मर गई है। वह शून्य भरी आँखों से प्लेट में रखी दाल रोटी को देर तक देखता रहा।
★4
नशा
तुम  रोज यूँही पीकर आओगे तो सच कहती हूँ मैं घर छोड़ कर चली जाऊँगी  " श्यामली ने पति से कहा तो वह टहाका मार कर हंसा 
"कहाँ जायेगी पर ? रोटी कौन देगा ,तू तो दसवीं पास है ? और तेरी जन्म कुंडली में तो मेरे घर की चौखट और मेरी सेवा   ही लिखी है। "
"कहीं भी मजदूरी कर लूँगी पर तुम देख लो तुम्हें रोटी कौन देगा ?"
"हाँ हाँ ,जा.... कल की जाती , आज जा , रौब किसे दिखा रही है ?" वो पलंग पर धड़ाम से गिर कर सो गया।
भोर हुई तो देखा दस बज़ गए हैं , अब तक भी चाय नहीं मिली है ,वो चिल्लाया -"श्यामली चाय पिला न ।
पर कोई जवाब नहीं मिला ,अब उसका नशा पूरी तरह उड चुका था ।
5
★श्रम का बीज 
उस दिन सर्दी बहुत थी lधूप में भी तेजी नहीं थी, धुंध का पर्दा हवा में रह रह कर काँप उठता था lअलसाई सी इस सुबह किसका मन होता है बाहर निकलने का ,पर भंवरी  को तो जाना ही होगा lभंवरी उठ खड़ी हुई ,उसने बोरी उठाई और कचरा बिनने चल दी lरोज का यही नियम था lकचरे से बटोरी हर चीज़ वह अपने बोरे में तरतीब से सहेज लेती  lबच्चों के उठने से पहले ही घर लौट आती l उसके बच्चे उससे कभी नहीं पूछते कि वह कहाँ काम करती है iउसने उन्हे बस इतना बता रखा था कि वह एक सेठानी के यहाँ  मालिश करने जाती है और उसे महीने के चार पाँच हज़ार रुपये मिल जाते हैं और  भंवरी के पति की चार  हज़ार तक पेंशन मिल जाती है ,गुजारा हो जाता है ,भंवरी के पति बीमा कंपनी के एक सरकारी दफ्तर  में चपड़ासी थे , अचानक उनकी मृत्यु हो गयी थी तो उसके बाद से मजबूर  भंवरी को यह काम करना पड़ा l
भंवरी अनपढ़ थी उसे कहीं काम नहीं मिला तो उसे सेंट्रल पार्क के माली ने यह सुझाव दिया ,तब से वो इसमें जुट गयी lअब वह बूढ़ी हो गयी है और इस काम में अभ्यस्त भी lउसकी मेहनत का ही फल था कि दो  बेटे  इंजिनियरिंग में पढ़ने  चले गए ,कुछ उसकी जमा पूंजी थी ,कुछ बच्चों की तकदीर कि उन्हें वहाँ स्कालरशिप  मिल गयी । बेटी बड़ी थी उसने बी ०एड ० करके एक स्कूल में नौकरी कर ली और एक सहयोगी अध्यापिका के कहने पर आई॰ ए॰ एस का इम्तिहान दे डाला और चयनित हो गयी l झुग्गी झौंपड़े से क्वार्टर और वहाँ से सरकारी बंगले में पहुँच गयी l
समय का जादूगर क्या - क्या करतब दिखाता है, आज एक संस्था द्वारा भंवरी की  बेटी का सम्मान समारोह था lझुग्गी झौंपड़ी में पली बढ़ी । एक लड़की ने जीवन संघर्ष  की जमीन देखने के बाद  इतना बड़ा ओहदा पाया था ,भंवरी कैसे अपनी आँखों से ना देखती l वह भी बेटी के साथ चमचमाती कार में कोटा डोरिया की नीली साड़ी पहन कर गर्व से पहुंची थी ,सम्मान से प्रथम कतार में भंवरी को  बिठाया गया था l फूल मालाओं से लदी बेटी ने माइक संभाला और जनता को संबोधित किया --"मान्यवर , बहुत बहुत आभार मुझे सम्मान देने के लिए लेकिन इस सम्मान की सही में हकदार मैं नहीं कोई और है ,आज मैं  दो शब्द उनके बारे में कहने को खड़ी हुई हूँ  । यह जो हाल में  बिलकुल मेरे सामने की सीट पर पहली कतार में नीली साड़ी पहने जो महिला बैठी है ,वो मेरी माँ है-भंवरी देवी । दरअसल यह उनका ही आशीर्वाद है कि आज मैं यहाँ हूँ ,क्योंकि हमें पालने के लिए  मुंह अंधेरे यह उठ कर कचरा बिनने जाती थीं, उसे कबाड़ी को बेच कर उससे जो पैसा मिलता था उससे हमारा पेट भरती थीं l   इन्होने हमे झूठ भी कहा कि यह सेठानी के घर मालिश करने जाती 
हैं ,लेकिन यह झूठ हमारे लिए एक चिराग की  रोशनी की तरह था जो बार बार हमें  अहसास कराता था कि हमें जीवन संघर्ष में सच की ओर जाना है और कुछ कर दिखाना  है lमेरी माँ उस कचरे में से जो छोटी  - छोटी पेंसिलें  एकत्रित करके लाती थीं ,उनसे मैंने लिखना सीखा l
 आज मैं आप सबको बताना चाहती हूँ कि बड़े - बड़े महलों व घरों में रहने वाले लोग सच के बोरे में झूठ  भरते रहते हैं ,पर मेरी माँ रोज कचरे की बोरी में मेरे लिए एक नयी चुनौती भर के लाती थीं lमैं चाहूंगी कि मेरी माँ भंवरी देवी को मंच पर बुलाया जाये ताकि मैं उनके चरण स्पर्श करके सबके सामने गर्व से यह कह सकूँ कि कचरा बीनने वाली मेरी माँ सही अर्थों में एक कर्मवीर  महिला हैं जिन्होने अपने जीवन के हसीन ख़्वाबों  को अपने बच्चों की  आँखों में देखा है l
माँ आज मैं एक बेटी होने के नाते से आपसे भी कहना चाहूंगी कि मैं जीवन भर आपके श्रम के बीज़ को सींच कर आने वाली बेटियों के लिए एक नयी दुनिया रचूँगी ,हर शनिवार ,इतवार को झुग्गी - झौंपड़ियों में जाकर नि:शुल्क बेटियों को पढाऊँगी ,उन्हे पत्थर  से तराश कर हीरा बनाऊँगी l
हाल  तालियों से गूंज रहा था ,तालियों की   गड़गड़ाहट में भंवरी देवी ने देखा कि सब खड़े हैं और वह हक्की - बक्की सी मंच पर खड़ी सोच रही है पर मैंने ऐसा क्या किया ? हाँ ,सएक हीरे सी बेटी जरूर पैदा की है lआँखें मूँदे वह देर तक हाथ जोड़े मंच पर  खड़ी रही।
6
★सपना 
एक नामी गिरामी फाइव स्टार होटल के पिछवाड़े का  दृश्य है यह ।
राम लखन बर्तन माँजते  हुए  टपकते पानी की आवाज़  सुन रहा था पर  उसके कान पास खड़े दो नौजवानो की बातों पर भी लगे थे जो आई॰ आई॰ टी के परिणामों की चर्चा  कर रहे थे।लाल कमीज़ वाला छात्र कह रहा था --"यार मैंने शहर के  बेस्ट कोचिंग सेंटर में j लिया पर फिर भी सफल नहीं हो पाया ।"
काली शर्ट वाला बोला ---"क्या करें यार ,मैं भी पास नहीं हो पाया ,सुना है जो प्रथम आया है वो अपने शहर का ही है ,तू जानता है उसे ? "
"नहीं, पर सुना है कि एक होटल में अपने पिता जी के साथ बैरे का काम करता है ।"
"यार, ऐसे कैसे सलेक्ट हो जाते हैं लोग ?"
लाल शर्ट वाले ने सिगरेट सुलगाई और एक कश खींच कर अपने दोस्त को दिया । दोनों वहाँ से आगे बढ़ गये । बर्तन माँजते हुए रामलखन अपने आप से  कह रहा था - "हाँ  भाई मैं प्रथम आया हूँ  क्योंकि मेरे पिता की मेहनत और माँ का सपना था कि मैं भी आई.आई.टी की  परीक्षा पास करूँ ,सो मैंने कर ली ।अब बस उनका सपना साकार करना है । नल बंद कर के राम लखन आत्मविश्वास से बर्तन उठा होटल के किचन की  तरफ बढ़ गया ।
 7
★तुलसी का बिरवा 
रामबहादुर जी ने एक एजेंट के माध्यम से अपना पुश्तैनी मकान बेच कर अपने बेटों के पास अमेरिका जाने का निश्चय किया था तो  आस पास के सभी लोगों को घर की चीज़ें बाँट गए थे। अपने देश से दूर जाना उनकी मजबूरी थी क्यूंकी दोनों बेटे वहाँ जा बसे थे। इस घर से उन्हे बहुत लगाव था पर क्या करते ,कैसे उसकी देखभाल करते विदेश से बार- बार आना  संभव नहीं  था । उनके इस पुश्तैनी घर  के अहाते में उन्होने बहुत से फलों के पेड़ और फूलों के पौधे लगा रखे थे, दूर दूर से लोग उनका यह बगीचा देखने आते थे । हमेशा घर आँगन फूलों की महक से भरा रहता था ।  उस घर के एक कोने में एक तुलसी  का सुंदर बिरवा भी था । इस राम ओर श्याम तुलसी को उनकी  दादीजी ने  बरसों पहले रोपा था और उसकी शाखाएँ इतनी फ़ैल  गईं थीं  कि जब उस पर तुलसी मंजरी के दल लटकते थे तो डालें झुक सी  जाती  थीं।बड़ी धूमधाम से हर वर्ष कार्तिक माह में उनकी दादी  तुलसी शालिग्राम का ब्याह  रचा कर सारी बिरादरी को खीर पूड़ी खिलाती थीं । वो दिन आज भी राम बहादुर जी को याद आते हैं । दादी के बाद उनकी माँ ने भी उस परंपरा का पूरा सम्मान रखा और खुशकिस्मती से पत्नी भी उन्हे ऐसे ही संस्कारों वाली मिलीं थीं  जो परंपरा ओर आधुनिकता  की कड़ी थीं।नौकरी भी करती थीं  और सभी परम्पराओं को वैज्ञानिक मान  कर बदस्तूर निभाती  भी थीं ।  विशेष तौर पर इस तुलसी के बिरवे  को तो वो नियम से सींचती थीं, साँझ को दिया जलाना तो वो कभी नहीं भूलीं । कार्तिक में भी वह तुलसी ब्याह की परंपरा निभाती थीl  अंतर बस  इतना भर था  कि  वह वक्त के अभाव में पूरी बिरादरी नहीं  न्योत पातीं थीं ,बस  करीबी सगे संबंधियों के साथ पूज लेतीं थीं  । घर बेचने के बाद  काफी सालों तक राम बहादुरजी का देश में आना नहीं हुआ । अमेरिका में  उन्हे हर पल अपना देश ,शहर ,पुश्तैनी घर , दोस्त व अपने परिवार वाले बहुत याद आते थे l वह मौका ढूंढ  ही रहे थे कि उन्हे अपने साले की लड़की की शादी का निमंत्रण-पत्र  मिला ,उनकी खुशी का ठिकाना न रहा।बहुत उत्साह से उन्होने अमेरिका से सभी नाते रिश्तेदारों के लिए ख़रीदारी करी और भारत के लिए सपरिवार चल दिये।  सबसे मिले जुले ,अनुभव भी सुखद रहा।देखते ही देखते वक्त प्रवासी चिड़िया सा फुर्र हो गया । जाने का समय नजदीक आ गया । समय कम रह गया  था ,एक दिन उन्होने हिचकते हुए अपने बड़े बेटे से  अपने मन की ख्वाइश कह दी -“श्रीकांत,  तू कहे तो  हम जयपुर जा आयें ,  रिश्तेदारों और दोस्तों से भी मिल आएंगे ,कुछ पुरानी यादें ताजा कर आएंगे ,फ्लाइट से दिल्ली से बीस मिनट ही तो  दूर है  जयपुर,  क्या कहता है ?"
  बेटा मुस्कराया और उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए उनके जाने का इंतजाम भी कर दिया l   कुछ रिश्तेदार वहाँ थे , दोस्त थे, सबसे मिल कर दोनों पति -पत्नी आनंद से भर उठे । लेकिन यहाँ आने के बाद शहर में अपने पुश्तैनी घर को एक नज़र देखने का लोभ भी संवरण नहीं कर पा रहे थे रामबहादुर जी  । एक शाम पत्नी के साथ पहुँच ही गए ।   उन्होने देखा कि घर पूरी तरह से नयी शक्ल ले चुका था पर जमीन तो वही थी । आसपास की खुशबू भी वैसी ही थी, हाँ संदर्भ, परिवेश ओर कुछ लोग अलबत्ता बदल गए थे l राम बहादुर जी कुछ पल घर के बाहर नि:शब्द खड़े रहे, फिर  डरते डरते घर का द्वार खटखटाया  । द्वार खुला तो देखा  सामने  युगल दंपति खड़े थे ,रामबहादुर जी  ने अपना  परिचय दिया और अपनी भावनाये बताई तो बड़े सम्मान से युगल दंपति ने  मुस्कराते हुए खुले दिल से  उनका स्वागत कियाl युगल दंपति की बुजुर्ग अम्मा व  ,नन्हें बच्चे भी उनके इर्द गिर्द आ खड़े हुए थे।यूं   बिलकुल नहीं लग रहा था कि सब  पहली बार मिल रहें हैं । खूब ढेरों बातें हुई ,चाय पानी  के बाद  वह उठने ही वाले थे कि उनकी अम्मा ने कहा -- " रुको बेटा, साँझ हो गयी है, मैं तुलसी बिरवे पर दिया बाल  कर अभी आई और हाँ  तुम अच्छे अवसर पर आए हो ,आज घर में शालिग्राम जी  की   पूजा  रखी थी ,उसका प्रसाद भी लेते जाना ।  रामबहादुर जी ने भावाकुल हो  अपनी पत्नी की  ओर  देखा  तो पाया  उसकी आँखें नम थी , रामबहादुर जी की पत्नी  तभी कह उठीं -"अम्मा जी , तुलसी बिरवा है अभी....क्या हमारा  बुजुर्गों का रोपा हुआ ... ?
"हाँ  बिटिया है न हमारे बाग में, हाँ  अहाते  में  तो जरूर कुछ   नए कमरे बन गए हैं अब , पर यह तुलसी मैया तो इतनी  फैलीं हुईं थी कि इनकी जड़ें कैसे काटते  हम , मैंने न हटाने दिया तुलसी मैया को, ... आर्र्कीटेक्ट भैया  ने   अहाते में ही एक छोटा सा गार्डेन बना  दिया तो हमने  आपके द्वारा लगाई इस पावन  धरोहर को सहेज  लिया, अरे  आओ न  तुम  भी  दर्शन करो और  बहू आई ही  हो तो अपने हाथ से तुलसी बिरवे पर दीपक भी तुम्ही बाल दो ।
 "रामबहादुर जी  और उनकी पत्नी  नि:शब्द भावविभोर  तुलसी बिरवे के पास खड़े थेl दिया ज्योतित हो चुका था । उन्हे उसकी लौ में अपने बुजुर्ग दिखने का सा आभास हो रहा था  ... दूर से  आ रही मंदिर की घंटियाँ की आवाज़ कानो में रस घोल रही थी ।हवा के ठंडे झोंकों में बगिया से  मोगरे गुलाब की  खुशबू  वातावरण को महका रही थी lदोनों  भाव विभोर  अभी भी तुलसी मैया के आगे हाथ जोड़े खड़े थे ।  सच में  उनका भारत आना सफल हो गया था और मन फूल सा  हल्का था  । राम बहादुर जी मन  ही मन  सोच रहे थे कि चाहे  हम कितने ही आधुनिक हो जाएँ पर यदि अपनी विरासत में मिली परम्पराओं  को हम दिल में सहेज लेंते हैं तो सारा परिवेश रसमय और पवित्र हो जाता है  जो आज के पर्यावरण के लिए जरूरी भी है । पर्यावरण शुद्ध होगा तो प्रकृति भी  हमेशा महकेगी और जीवन में चिड़ियों की चहक सी खुशियाँ भी हमेशा बनी रहेंगी।
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★गांधीजी के तीन  बंदर 
मुरली बाबू आज मुंह अंधेरे पार्क में घूमने चले गए थे ,पार्क सुनसान था ,बस एक कुत्ता कछुए की तरह अपने पाँव समेटे एक बैंच के नीचे सो रहा था ,एक लंबा चक्कर लगा कर  वह भी कुछ देर एक बैंच पर सुस्ताने  बैठ गये ,तभी पार्क के बीचों बीच लगे गांधी जी के तीन बंदरों पर उनकी निगाह गई ,अरे ये क्या तीनों बंदरों के हाव भाव  कौन बदल 
गया ,उन्होने चश्मा नाक पर ठीक करके पास जाकर देखा तीनों बंदरों के नीचे लगी  एक पट्टी पर मुद्रा को संदर्भित करता कथन भी लिखा  हुआ था। अरसे से यूँ  ही  बैठे तीनों बंदरों की मुद्राएँ कुछ यूँ  थी -पहला बंदर -अंधा हूँ पर आजकल ऑपरेशन करा लिया है,बस रात में देखता हूँ और भृष्टाचार  से मिले नोट गिनता हूँ । दूसरा बंदर -समय बदल गया है तो मैं क्यूँ न बदलूँ?कम  बोलता हूँ , नेता हूं।  संसद में विपक्ष पर छींटे कस मन हल्का कर लेता हूँ । तीसरा बंदर -बिलकुल समय बदला है तकनीकी  भी बदली है , सुन रहा हूँ कि  गाहे बगाहे  एक दूसरे के  कैसे कान काटे जाते हैं, यह सब अब कान की मशीन लगा कर  सुनता  भी हूँ ,    एक दिन संसद में गया तो देखा कि अरे यहाँ तो शब्दों का पूरा ज्ञानकोश है और अब जरूरत क्या है कानो पर हाथ रखने की ?मुरली बाबू ने  ध्यान से बंदर के बदले हाव -भाव 
देखे ,मुद्राएँ कुछ यूँ थीं -पहले बंदर की आँखों पर काला चश्मा था lदूसरे बंदर का मुंह खुला  हुआ था ।तीसरे बंदर के दोनों कानो में हियरिंग ऐड  लगी थीl तभी उन्हें उनकी बीबी ने  गहरी नींद से  जगाया -""अजी सुनते हो सैर पर नहीं जाना क्या ? "चौंक कर मुरली बाबू जागे  -"अरी भाग्यवान थोड़ी देर तो सोने देती, सपना देख रहा था, सच बंसी की अम्मा गज़ब का सपना था ...समय बदला तो गांधी जी के तीनों बंदरों की  मुद्राएँ  भी बदली दिखीं ।"
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★आ री कनेरी चिड़िया
मीठी मात्र आठ साल की थी जब घर के अहाते के एकदम बाहर बरवाड़ा हाउस सोसाइटी ने  पीले कनेर के दस । पेड़ रोपे थे  ।अभी भी याद है गायत्री देवी को जब गर्मियों में गरम हवाओं के झोंके तन को गरम कर देते थे तो कनेर की नुकीली पंखियाँ चँवर सी झूल कर मौसम को खुशनुमा बना देती थी। शुरू - शुरू के वो दिन गायत्री देवी की यादों में आज भी ताजा है lबरवाड़ा सोसायटी का यह अहाता तब बच्चों   के क्रिकेट का मैदान था ,गर्मी की लू से बेपरवाह रहते हुए दिन भर धमाचौकड़ी होती थी। वहाँ खेल कूद करते बच्चे कनेर के इस पेड़ के नीचे बैठ कर थकान मिटाते थे ,इसके पीले पीले फूल जब डाल  से छूट कर बच्चों के उपर आ गिरते थे तो मौसम में बसंत छा जाता था l उन फूलों को एक दूसरे पर उछाल कर सभी मिल कर एक स्वर में गाते थे ----"आ री कनेरी चिड़िया ...गा री कनेरी चिड़िया ....शिवजी के मंदिर में फूलों को जाकर चढ़ा री कनेरी चिड़िया .....आ री कनेरी चिड़िया ...।" यह किसी प्रदेश का लोकगीत था जो भोलू ने अपनी दादी से सीखा था और सब की जबान पर चढ़ गया था।गायत्री देवी जब तक बरवाड़ा हाउस के इस अहाते में 
रहीं ,पूजा में कनेर के फूलों को नियमित चढाती रहीं lफिर वह अपने छोटे बेटे के पास विदेश चली गईं lबड़ा बेटा अभी भी बरवाड़ा हाउस ही में रहता है ,वे आती जाती रहती हैं । इस बार का आना विशेष मायने  रखता है ,वह मीठी की शादी में पूरे परिवार के साथ शामिल होने आई है।मीठी जो उनकी लाड़ली पोती है ,कानून की पढ़ाई खत्म करके अब प्रैक्टिस कर रहीं हैं ।चोबीस वर्ष की हो चुकी हैं मीठी ।गायत्री देवी इस बार भारत लगभग पाँच वर्ष बाद आईं हैं । इस बार विशेष रूप से यहाँ की संरचना में उन्हे बड़ा बदलाव लगा, वह हैरान भी थीं और दुखी भी कि गगनचुंबी इमारतें बनाने के चक्कर में बरवाड़ा हाउस ही नहीं पूरे शहर की काया पलट के फलस्वरूप यहाँ की सुंदरता भी तहस नहस हो गयी हैl कल की सी बात लगती है जब अहाते के आस पास का सौंदर्य अप्रतिम था ...वह कैसे भूल सकतीं हैं कि भोर होते ही यहाँ चिड़ियाएं नए नए राग छेड कर सभी को जगाती थी  और अब देखो तो जगह - जगह से डालें काट दी गईं हैं ...कनेर जो हर रंग में अपनी आभा बिखेर के मन मोह लेते थे उदास खड़े हैं ,कनेर जो मंदिर का दर्शन थे ,जो हवाओं की आहटों के साथ थिरकते थे ,मौन खड़े हैं, कनेर जो मंदिर का दर्शन हैं ,विष पीते हुए मंदिरों में अमृत बरसाते हैं ,शिव जी पर चढाये जाते हैं ,वहाँ की  रचना का दर्शन हैं  ...वहाँ की अभिव्यक्तियों का जीवन मकरंद हैं ...जो हवाओं की दस्तकों के साथ घण्टियों की तरह बजते से लगते हैं, सद्भाव आस्था का भाव जगाते हैं ,आज चीख -चीख कर कह रहें हैं कि हमे न काटो, हमें बचाओ ,हम तो इन आहतों की देहरी के रखवाले हैं, प्रहरी हैं ,पर्यावरण के रक्षक हैं lगायत्री देवी उन्हे बड़े दार्शनिक मनोभाव से एकटक जब निहार रहीं थीं तो मीठी उनके पास आ खड़ी हुईं ---"प्रणाम दादी, आपका जेट लेग पूरा हुआ या नहीं ?"-"अरी कहाँ बिटिया, देख न नींद ही उड गयी है मेरी तो, देख न मीठी कितनी बेदर्दी से नोचा है इन कनेर की डालियों को , बांसुरी सी लहराती थी कभी ,जगह जगह से काट दी गयी हैं ....चिड़ियों का बसेरा तक नहीं दिख रहा Iगायत्री देवी की आवाज़ में भी दर्द था जिसे मीठी ने भी महसूस किया।
"अरे दादी जान सोसाइटी वालों ने तो इसे काटने के आदेश तक दे दिये थे वो तो मैंने सभी सदस्यों के हस्ताक्षर लेकर नोटिस देकर इन्हे रोका है । स्पष्ट निर्देश निकलवाये  हैं कि इन्हे न काटा जाये बल्कि इमारत जो बन रही है उसकी बनावट में इन पेड़ों की परिधि छोडी  जाये।इन ओरर्ननामेंटल पेड़ो की सीमा रेखा छोड़ते हुए ही नक्शा पास करवाया जाये,स्टे ले लिया है, केस चल रहा है अभीl"
गायत्री देवी ने स्नेह से मीठी की आँखों में देखा,सोचा सच कितनी समझदार होगयी है मीठी... यह बच्ची ,पर्यावरण  का संरक्षण  ही नहीं कर रही  है बल्कि  हरियाली जो प्रकृति का अनुपम शृंगार होती उसे भी बचाने के जीवट संघर्ष मेँ जुटी है ...तभी तेज हवा का झोंका आया तो साथ में हवाओं की बौछार के साथ पीले कनेर के बहुत से फूल गायत्री देवी के इर्द गिर्द बिखर कर वातावरण को मनमोहक सुगंध से भर गये, तन के साथ साथ मन को भी सुवासित कर गये! देर तक गायत्री देवी के कानो में गूँजते रहे यह मधुर स्वर....".आ री कनेरी चिड़िया ...गा री कनेरी  चिड़िया........।"
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★आम आदमी 
रमाकांत दस मिनट मिनट पहले ही दफ्तर के लिये निकला था पर वापस घर नहीं लौटा lसुबह वो जैसे ही दफ्तर के लिए  निकलने लगा ,उसने देखा स्कूटर का टायर पंक्चर हैं। आफ़िस के लिये देर हो रही थी , पंक्चर ठीक करवाने का टाइम नहीं था । माँ दौड़ी दौड़ी बाहर आई उसे उसकी कलाई घड़ी पकड़ाने-" बिटिवा यह तो  टेबल पर ही भूल गयाl " स्नेह से रमाकांत ने माँ को देखा lघड़ी कलाई में बांधी lदेखा सही नौ बज़े हैं lवो तेज - तेज कदमों से मेट्रो स्टेशन की तरफ चल दिया ।मेट्रो  घर के पास से ही निकलती है।
मोबाइल पर बात करते करते लगभग भागते हुए मेट्रो में चढ़ा और यह अनहोनी हो गयी l
मेट्रो में ब्लास्ट हो गया lसारे टीवी चैनलो पर वही खबर चल रही थी lमाँ पथराई  आँखों से देख रही थी lशाम को उसकीछितर -बितर लाश जब घर लाई गयी थी तो माँ ने देखा घड़ी कलाई में बंधी थी -उसकी निगाह डायल पर अटक गयी lनौ बज़ कर दस मिनट पर समय रुक गया था lमात्र दस मिनट में एक आदमी के घर में भी जीवन की गति रुक गयी थी lटाइम बम की टिकटिक ने जिंदगी को कितना सस्ता कर दिया है lघर में मातम पसरा था और पूरे देश भर के चैनल सक्रिय  होकर विज्ञापनों के बीच बीच में आम आदमी की कहानी को चटकारे ले लेकर सुना रहे थे lवही कहानी 
टी॰ वी ॰पर दारू के पैग पीते हुए संवेदनहीन लुटेरे आतंकारी भी मुस्कराते हुए देख रहे थे l
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★ राजदार 
"माँ ,पिताजी जो पैसे  छोड़ गयें हैं  ईश्वर के लिए वो मुझे दे दो ,मुझे जरूरत है।"
 बेटे ने आग्रह करते हुए माँ से कहा तो वो झल्ला उठी --"क्यूँ दे दूँ ,ताकि तू उनसे मौज करे और मुझे बूढ़ों के रहने के घर में जमा करा दे , जा जा मैं न दूंगी पैसे ।तेरे पिता कह गए थे रुक्मणी इन पैसों को बचा के रखना, वरना बच्चे उड़ा देंगे और देख एक महिना भी न हुआ बापू को गए और तू अपनी औकात पर आ गया । कोथली को घाघरे की बड़ी जेब में टटोलती रुक्मणी सर्पिणी की तरह फुफकारें ले रही थीं।
"कैसी बात करती हो माँ तुमने जना है मुझे ,मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता , मेरे पास नौकरी नहीं है ,पिताजी घर चलाते थे ,ठीक चल रहा था पर अब सब बदल गया है , तुम खाँसती हो रात भर, मैं इलाज़ नहीं करवा पा रहा हूँ ,दिल दुखता है मेरा, नौकरी लगते ही सब सूद समेत लौटा दूँगा आपको l आपकी  तकलीफ मुझ से देखी नही जाती माँ। "बेटे  की आँखों की कोरें गीली थी ।
"तू कितनी भी कोसिस कर ले बबुआ, मैं न दूँगी ,घर की रसोई का सामान तो डलवा  ही रही हूँ न मैं ?"  दिन भर नौकरी तलाशता बेटा माँ को कैसे कहता कि उसकी दोनों किडनियाँ काम नहीं कर रही हैं ,वो कितना अभागा है ,पत्नी को भी नहीं कह पा रहा । दिन भर मजदूरी करके भी कितना मिलता है ,फिर थकान के मारे रात भर कराहता है ।
आज भी जब घर लौटा तो माँ खाँस रही थी ,बहू ने काली मिर्च की गरम चाय  उन्हे प्लेट में उंडेल कर पिला  रही थीं , वह असहाय सा माँ की खाट के पायदाने बैठा था । जैसे तैसे माँ को नींद आई ,वह वहीं पायदाने पर सो गया था । जाने कब नींद लग गयी । तभी बहू ने झिंझोड़ा --"  बंसी के बापू , देखो न माँ को जगा रही हूँ ,उठ नहीं रही ".... बेटा भागा, पड़ोस से डॉ को लेकर आया पर माँ शांत हो चुकी थी ।
रुक्मणी जी की मौत की खबर मिलते ही सारा मौहल्ला जमा हो गया था , सभी उनको बहुत चाहते थे ,बड़ी मीठी मीठी बातें जो करती थी l किसी के यहाँ प्रसव पीड़ा  की कराहट की खबर सुनती तो माँ वहाँ पहुँच जातीं थीं ,कहीं शादी ब्याह का मसला होता था तो बन्ना बन्नी गा कर  रौनक जमा आती । जिसने सुना माँ सिधार गयी ,वही दौड़ा चला आया ! पडोस में रह रहे गोवर्धन चाचा भी पहुंचे और सब को आँगन में इकट्ठा किया ! आज उन्हें उस रहस्य को उजागर करना था जिसके लिए रुक्मणी उन्हे राजदार बना गईं थी ।  ऐसा लग रहा था मानो कोई पंचायत बिठा दी गयी हो ।  गोवर्धन चाचा के बोल चिड़िया से उड रहे थे ... " जो मैं कहने जा रहा हूँ वो  माँ की एक तरह से वसीयत है ,रुक्मणी भाभी की इच्छानुसार उनकी किडनियाँ बेटे के लगा दी जाएँ , माँ जानती थी की बेटा यह राज छुपा रहा है पर उसे उसी के एक दोस्त ने कुछ दिनो पहले बता दिया था  ! दूसरा बेटे से क्षमा मांगी है  रुक्मणी भाभी ने वो इसलिए कि वह अपने बेटे को क्यूँ पैसे नहीं दे रही थीं ,क्यूंकी यदि देती तो वो सब माँ के इलाज़ में लगा देता । एक महीने पहले ही माँ ने मुझे राजदार बनाया है और एक वकील से वसीयत करवाने में मेरी मदद भी ली है ! रुक्मणी भाभी का कहना था कि  वो पिचासी वर्ष से ऊपर हैं, और  अब कितना जीना है, बेटे की पर पूरी  की पूरी जिंदगी  पड़ी है  बस वो खुश रहे यह मेरी कामना है !
पूरे आँगन में यह सुन कर सन्नाटा सा पसर गया ! बेटा रोना चाहता था पर  रो न पाया  देर तक बुत सा बैठा रहा ! फिर भारी मन से माँ के त्याग को सलाम करता हुआ सभी के साथ दाह संस्कार की तैयारी में जुट गया ।
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 ★ बिंदी
"दादी ,माँ बिंदी क्यों नहीं लगातीं आप की तरह ?"नन्हीं कनक ने मासूमियत से अपनी दादी से पूछा 
"बेटा तेरे पापा वो बिंदी अपने साथ ले गये । " माँ बच्ची के प्रश्न से अंदर तक हिल गईं ।
"ओह तो पिताजी को याद रखना चाहिये था ना ,वहाँ से  किसी के साथ वापस बिंदी तो भिजवा देते ।" माँ के सूनें माथे की तरफ़ देखते हुअे नन्हीं कनक उदास सी बोली।
दादी चुप थी वो  क्या कहती कि यह बिंदी भारतीय नारी की समाज द्वारा थोपी पहचान होती है। 
माँ रसोई में बैठी यह सब सुन रही थी ।
"कनक यह क्या बात ले बैठी है तू ?अपनी  पढ़ाई पर ध्यान दे तू बेटा। "दादी ने उसे समझाते हुअे कहा 
"हाँ दादी पर पता नहीं मुझे क्यों बिना बिंदी के माँ थकी थकी दिखती 
हैं। देखो ना दादी सामने दिवार पर टँगी माँ -पापा की तस्वीर जिसमें माँ ने बिंदी लगा रखी है कितनी ख़ुश और सुंदर दिख रही है माँ ।" दिवार पर टँगी तस्वीर की तरफ़ उँगली करके कनक ने कहा तो दादी की आँखों में आँसू छलक गये और दर्द के आवेंग  को दबा कर जाने कैसे दादी के मुँह से निकला ---"हाँ बेटा , जल्दी ही तेरी माँ के लिये नयी बिंदिया ला दूंगी अच्छा ,तू देखना माँ का चेहरा फिर खिल उठेगा।सुन कर कनक जोर जोर से ताली बजाने लगी ।उसकी आँखों की चमक ने दादी की आँखों को भी एक नयी चमक से भर कर कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया था।
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★ लक्ष्मी का िदया
आज फिर दीवाली का त्यौहार है ,बच्चे पटाखे फुलझडियाँ छुडा रहे हैंl दादी माँ भी गाँव से यहाँ इस अवसर पर आ गयीं थींlबच्चों ने दादी माँ के लिए बरामदे में कुर्सी लगा दी थी ताकि वह भी शहर की दीवाली की रंगीनियाँ देख सकेंlअस्सी साल की दादी माँ पोते पोतियों को देख रहीं थीं ,पास ही बहुएँ लैपटॉप खोले बैठी थीं ,छोटी बहू ने तुरंत ऑनलाइन एक डिस्काउंट वाला होटल खोज लिया था और अब फोन पर बुकिंग कर रहीं थीं l
पूजा हो चुकी थी, एक थाली में बाज़ार से लायी मिठाई ,नमकीन और फल चढ़ा कर मंदिर को छोटे लट्टुओं से सजा दिया था! बाहर मुंडेर पर भी छोटे छोटे रंगीन बल्बों की लडियां लटकीं थींl सब खुश थे बस दादी माँ सोच रही थीं ,कहाँ खो गए वो माटी के दिए ,खील बताशे ,लक्ष्मी माँ की पन्नियाँ , रसोई घर से उठी पूरे घर आँगन को महकाती पकवान की लार टपकाती खुशबू !सभी तैयार थे रेस्तरां जाने को lबहुओं ने लाइफ स्टाइल से सेल में खरीदीं नए जींस और टॉपर अमेरिकन ज्वेलरी के साथ पहन रखीं थीं l घर आँगन में रौनक थी पर न नाते रिश्तेदार थे न पहले सा अपनापन, बाहर पटाखों का कानफोडू शोर था, रेस्तरां में भी गजब की भीड़ थीl सभी खुश थे दादी माँ भी सर पर पल्लू लिए बैठीं थीं, भोंचक्की सी इधर उधर देख रहीं थीं l सब चटकारे ले लेकर पिज़्ज़ा ,नूडल्स ,और सिज्लर खा रहे थेl बच्चों के साथ थी दादी माँ पर न जाने क्यों मन वहां से दूर गाँव में था और वह सोच रहीं थी कि पड़ोस की नारंगी काकी ने लक्ष्मी की पूजा करके खीर पूड़ी का भोग लगा कर उनके आवाहन के लिए रात भर जलने वाला दिया अब तक जरुर जला दिया होगा1
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★करवा चौथ का चाँद
करवा चौथ का दिन था! चारों तरफ चहल पहल थी , आकाश बादलों से घिरा था ,चाँद निकलने के कोई आसार नहीं दिख रहे थे ,आज सुबह से ही बूँदा बाँदी हो रही थी! कृष्ण निकुंज का दालान हर  साल की तरह इस वर्ष भी इस पर्व का आयोजन कर रहा था! इस निकुंज में दस फ्लैट थे,जिनमे सभी भारतीय परिवार के लोग थे !  बड़ा उल्लसित करने वाला नजारा रहता थाl सजी धजी महिलाओं के समवेत स्वर और खिलखिलाहट से दालान गुंजायमान हो उठता था ! करवे   और थाल से सजी थालियाँ लिए महिलाए बार बार आकाश को निहारतीं और उनके पति भी बैचैनी से इधर उधर डोलते रह रह कर घडी देखते अखबार के अनुसार इस ८.१० पर चाँद निकलने की संभावना थी ! डीजे   पे  चल रहा था..." आज है करवा चोथ सखी री... "ठुमके पे थिरक रही  थी महिलाओं में गज़ब का उत्साह था!
श्रीकान्त स्वामी जी भी इस निकुंज  के दूसरे  फ्लोर पे रहते थे उनकी बहू का पहला करवा चौथ था इसलिए उनकी दादी माँ कल्याणी देवी   विशेष रूप से गाँव से आयीं थीं , वह भी इस बदलते स्वरुप को एक कुर्सी पर  बैठी देख रहीं थीं !हैरान भी थी कि किसी भी घर से पकवान मठरी की खुशबू नहीं आ रही थी, सभी के पैकेट कैटरर ने बना दिए थे, कोई प्यासी नहीं थीं, सब कॉफ़ी कोक की चुस्कियां ले रहीं थीं ,अब पति कैसे पानी पिला के व्रत खोलेगे, कल्याणी देवी कुछ कुछ समझ नहीं पा  रहीं थीं ,लेकिन वे मुस्करा रहीं थीं ,उन्हें अपना गाँव भी याद आ रहा था ,जहाँ के हर घर से मठरी पूवे   की खुशबू आ रही होगी और वह हैरान सी सोच रहीं थीं  कि इस अवसर पर तो बादल इतने नहीं होते थे! प्रकृति ने भी रूप बदला है! तभी दूरदर्शन पर न्यूज़ रीडर ने  घोषणा की कि चाँद निकल आया है लेकिन बादलों के कारण बहुत से प्रदेशों में नज़र नहीं आएगा, आप चाहें तो हमारे मॉनिटर पर चाँद देख कर व्रत खोल सकतें  हैं ! फिर क्या था सभी ने टी॰वी॰ के चाँद को अर्क देकर सभी औपचारिकताए पूरी कर लीं थी , जिनके पति बाहर थे उन्होने लैपटाप पर फ़ेस टाइम कर लिया था और व्रत खोल लिया था .... इस बीच डीजे  के स्वर तेज हो गए थे  .. हंसी मज़ाक के साथ .खाने पीने का दौर चल रहा था ,सभी केटरर  के खाने का लुत्फ उठा रहे थे, श्री कान्त स्वामीजी  की दादी माँ कल्याणी देवी   का चाँद पर अभी नहीं निकला था, उनके पति  झाईं गाँव में सरपंच थे, किसी विशेष कार्य के कारण आ नहीं पाये थे  ,कल्याणी देवी को उनकी बहुत याद आ रही थी ,वो अपने पति की तस्वीर के सामने बैठी पूरी रात खिड़की के पास खड़ी अपने गाँव वहाँ की परम्पराएँ पुए- पूड़ी कि खुशबू के बारे में सोचती रहीं थीं और आकाश पर दिखने वाले चौथ के चाँद का इंतज़ार करती रहीं थीं !
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★लक्ष्मी आई है 
रवीन्द्र हॉल खचाखच भरा था- सबको इंतज़ार था दर्शना जी का, जो आज मातृत्व दिवस पर आमंत्रित थीं l वह सज़ग नारी संस्था की अध्यक्षा थींl उनकी ओजस्वी वाणी सबको प्रभावित करती थी... .आज वह " माँ की भूमिका' पर बोल रहीं थीं ,उनका मानना था की घर कि सर्वोत्तम सत्ता के रूप में बच्चे पहले अपनी माँ को जानते और सर्वेसर्वा मानते हैं.... .आज समय बदला है, तो माँ कि भूमिका भी बदली है क्यूंकि वह अब घर की चारदीवारी लाँघ बाहर आ गयी हैl दर्शाना जी ने मेज़ पर रखे गिलास का पानी एक साँस में पिया और एक गहरा साँस लेकर फिर कहना शुरू किया ---
"विश्व के समग्र यथेष्ट विकास के लिए नारी को विकास कि मुख्य धारा से जुडा होना परम आवशयक है, नारी की  स्थिति समाज में मजबूत ,सम्मानज़नक ,सक्रिय होगी तभी समाज मजबूत होगा l Lनारी समाज का आइना है और माँ के रूप में उसका बहुत योगदान है....... उसे चाहिए लड़के और लड़की में भेदभाव न करेंL लड़की को भी लड़कों की  तरह ही शिक्षित करें... लड़की तो लक्ष्मी स्वरूप होती हैं.... मेरे भी दो प्यारी प्यारी पोतियाँ हैं l मैं तो उन्हें ही घर का चिराग मानती हूँ !"
तालियों की गडगडाहट से हॉल गूँज उठा l तभी फोन क़ी घंटी बज उठीl छोटे बेटे ने माँ को खबर दी कि भाभी को प्रसव पीड़ा शुरू हो गयी थी तो अस्पताल ले गए हैं ,. आप जल्दी पहुँचो !. भाषण वहीँ ख़त्म करके ,दर्शना भागती हुई सी अस्पताल की तरफ तेजी से बढ़ गयीं l तभी वार्ड की  तरफ से आते पति को देखा तो ठिठक कर रुक गयीं .."क्या हुआ जी ?"
" बेटी हुई है .."पति ने खबर दी l
दर्शना ने इश्वर को धन्यवाद् देते हुए कहा की चलो सब काम अच्छे से निपट गया... और मन ही मन बुदबुदाई "मेरे घर लक्ष्मी आई है !"और वह तेजी से पोती को देखने चल दीं !
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★सोने की नसरनी 
"अरे कलमुही , बेटा   जनती तो हम भी सोने की नसरनी चढ़ते"  ( बेटा होने पर घर के बुजुर्गों को एक सीढ़ीनुमा  सोने की सीढ़ी पर अंगूठा छुआ कर आदर देने का फंक्शन कि वंश बढ़ा!)
   प्रसव के बाद लौटी बहू को ताना   देते हुए पड़दादी ने कहा तो उसकी आँखें भर आई ! पास ही खड़ी दादी ने मालिश करने आई दाई माँ को सुनाते हुए कहा --"अरी  भंवरी, सवा महीने की  पूजन के साथ एक फंक्शन और रखा है  पूरे मोहल्ले को न्योता देना है, आ लिस्ट बना लें !" 
" कैसा फंक्शन बीबीजी?" हथेली पर तम्बाकू  मसलती  भँवरी  ने  पूछा
" अरी   तीसरी पीढ़ी का प्रतित्निधित्व कर रही है मेरी पोती, क्या मोहेल्ले को लड्डू नहीं खिलाऊंगी?  बड़ी धाय को भी तो  सोने की नसरनी चढ़ा कर मान सम्मान दूँगी ना ! "बहू की आँखें फिर भर आयी, पर यह आंसूं ख़ुशी के थे, उन्होंने कृतज्ञता से सासू माँ की तरफ देखा, पड्दादी नि:शब्द  रह  अगले बगले झाँकने लगीं ।
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★विकास 
कमला बाई रोज़ सुबह सुबह मंदिर के बाहर लगे विशाल पीपल के पेड़ के बीच में बैठ कर गेंदे ,मोगरे और गुलाब की माला बेचा करती थी । यह पेड़ मंदिर के पास था इसलिये लोगों का आना जाना लगा रहता था और शाम तक सारी मालाएँ बिक जाती थी ।पेड़ के ठीक सामने बहती सड़क थी । जिसके एक तरफ़ छोटा सा तिकोना चौराहा भी था । वहाँ कबूतर के लिये दाना बेचने वाला भँवर लाल बैठा रहता था ।उसने वहाँ एक बड़ी लाॅन की छतरी लगा रखीथी । भक्त गण माला ख़रीदते ,चढ़ाते और कबूतरों को दाना डाल आगे बढ़ जाते। जीवन समय चक्र के साथ अच्छा चल रहा था तभी काली बाई को एक दिन तेज़ बुखार आगया और डाक्टर ने पूरा आराम  करने को कहा । निमोनिया बिगड़ गया था।  खाँसी भी थी इसलिये  महीने भर कमली बाई खाट पर पड़ी रहीं ।जब पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गयीं तो फिर अपना  रोज़मर्रा का काम करने के लिये निकल पड़ीं ।  मंदिर के क़रीब ही पहुँचीं थी कि उसने वहाँ भीड़ देखीनगर पालिका "की गाड़ी वहाँ खड़ी थी और कुछ उस  विभाग के कर्मचारी भी वहाँ कुछ नापतोल कर रहे थे।सड़क को चौड़ा करने का काम हो रहा था और पेड़ भी काटा जा रहा था।तिकोना चौराहा टूट चका था,कबूतर इधर से उधर उड़ रहे थे और भँवर सिर पकड़ कर वहाँ बैठा था। कमली बाई को देख कर वो उठ खड़ा हुआ और ज़ोर ज़ोर से चीख़ने लगा-"कमली माई देखो,अच्छे दिन आ गये।विकास के नाम पर पेड़ की बलि चढ़ा दी गई।" कमली बाई हक्की बक्की सी वहाँ खड़ी देर तक उन असहाय परिंदों को देखती रही जिनका आशियाना उजड़ गया था।कमली बाई की आँखों में चिंता के बादल मँडरा रहे थे,यह सोच सोच कर कि इतने पुराने विशालकाय पेड़ों को काट कर सरकार क्या सच में विकास कर रही है?  या पर्यावरण का सत्यानाश कर रही है।
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★़मन का रिश्ता 
"बीबी जी कुछ खाने को दें दीजिये बड़ी भूख लगी है।बंगले के बाहर लोहे के दरवाज़े की जाली से भीतर झांकती एक भिखारिन बालिका ने गिड़गिड़ाते हुअे कहा तो श्रीमती मालपानी का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। वह उस समय बड़े शांत भाव से लाॅन में बैठी थी और माली से गुलाब के पौधों की कटिंग करवा रही थी ।
"भाग यहाँ से ,छौरी शरम नही आती ,रोज़ मुँह उठाये माँगने आ जाती है ।काम क्यों नहीं करती ,
भिखमंगी ?"श्रीमती मालपानी लगभग चीख़ते हुअे बोली ।
"काम मिलता नहीं बीबी जी ,जहाँ काम माँगने जाती हूँ वहीं दुत्कार कर भगा देते हैं ,बीबी जी आप कुछ काम करवा लो फिर रोटी दें देना ,बहुत भूख लगी है । कल से कुछ नहीं खाया है बीबी जी ।"भिखारिन बालिका ने गिड़गिड़ाते हुअे कहा तो श्रीमती मालपानी का मुँह ग़ुस्से से लाल हो गया ।वह और भी तेज़ी से चिल्लाई -
" अरे कितनी ठीट है देखो तो ,डंडा लगाऊं चुडैल ?"श्रीमती मालपानी का मुँह ग़ुस्से से लाल हो गया था ।सहम कर भिखारिन बालिका पीछे हो गयी और गेट से ज़रा दूर हट कर खड़ी हो गयी ।
यह दृश्य है एक पाॅश काॅ़लोनी का हैैं जहाँ आई.ए.एस. अधिकारियों के बंगले बने हैं । श्रीमती मालपानी भी एक प्रशासनिक अधिकारी की पत्नी हैं।
तभी कुछ देर बाद उनका नौकर रामसिंह बाहर आया और  अपनी मालकिन श्रीमती मालपानी से बोला -"मालकिन रात की चार पाँच रोटियाँ बची हैं टाॅमी को दूध में भिगो कर खिला दूँ?"
"हाँ रामसिंह दे दो उसे वैसे भी  टाॅमी के नाश्ते का भी समय हो गया है।"
"जी मालकिन अभी लो ।" कह कर रामसिंह अंदर गया और एक कटोरे में दूध रोटी भिगो लाया ।साथ ही दो रोटियाँ भी एक प्लेट में रख कर टाॅमी के पास रख गया ।टाॅमी श्रीमती मालपानी का प्यारा कुता तब मेन गेट के अंदर ही अधलेटा सा बैठा था। वह कृतज्ञता  से भर पूँछ हिलाने लगा ।
भिखारिन बालिका गेट से ज़रा दूर हट कर खड़ी टुकुर टुकुर  यह सब देख रही थी ।श्रीमती मालपानी लाॅन की देख रेख में डूबीं थीं ।तभी भिखारिन बालिका ने देखा  कि टामी ने रोटी की प्लेट को अगली सीधी टाँग से , गेट के नीचे बने गैप से खिसका खिसका कर बाहर की तरफ सरका दिया है ।उसनें चौंक कर हैरानी से टामी की तरफ देखा ।टाॅमी की आँखों में अपनेपन का भाव देख भिखारिन बालिका ने छटके से रोटियाँ उठाईं और सामने के घर की मुँडेर पर बैठ कर खाने लगी।टाॅमी आत्मीयता से भिखारिन को रोटी खाता देख कर देर तक पूंँछ हिलाता रहा ।
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★पतँग
अपने घर की बालकनी में खड़ी चारूमित्रा बाल सुखा रही थी ।सुबह की ठंडी धूप सुहानी लग रही थी ।हवा शीतल पँखे का सा आभास दे रही थी । कालोनी में कुछ बच्चे कपड़े धोने के डंडे व कपड़े की बनी पोटली की गेंद बना कर क्रिकेट खेल रहे थे। सभी बच्चे इस काॅ़लोनी के सुखी जीवन निलय के फ़्लैटों में झाड़ू पोचा करने वाली बाइयों के थे।सुबह बाइयाँ 
 सामने की कच्ची  बस्ती से साथ ही आती हैंं और अलग अलग घरों में घुस जाती हैं । घुसने  से पहले पास खड़े होकर बतियाती हैं। उनकी आपसदारी यहाँ का रोज़ का नज़ारा है ।देख कर लगता है कि देश की राजनीति की उठा पटक की तरह इनकी बस्ती की राजनीति के मसले भी यहीं विमर्श के भंवर में गोते लगाते हैं ।चारूमित्रा की आज छुट्टी भी थी।इसलिये उसे बालकनी में लगे फूलों के पौधों व गमलों को देखने में आनंद आ रहा था।बच्चों के चौके छक्कों कीआवाजों का शोर भी उसे बुरा नहीं लग रहा था । तभी उसकी निगाह  एक आठ वर्ष के काले कलूटे बच्चे पर पड़ी।नाक बह रही 
थी ,बाल उलझे हुअे थे ।वह चारूमित्रा को अपनी उँगली से इशारा कर रहा था। चारूमित्रा को लगा शायद कोई विमंदित बच्चा है ,खेल नहीं रहा बस उसकी तरफ़ देखें जा रहा है।बार बार हाथ ऊँचा कर नीचे कर रहा था। चारूमित्रा ने चेहरे पर त्यौरियाँ चढ़ा कर पूछा-"क्या  है?"उसने अंगूठे की पास वाली एक उँगली उठा कर बालकनी में रखे एक गमले में लगे एक पौधे की तरफ़ इशारा कर दिया । चारूमित्रा ने देखा वहाँ एक लंबी डोर उलझ रही थी और नीचे की तरफ़ जाकर एक लाल रंग की पतंग पर रूक गई थी ।उस बच्चे का इशारा समझ वो मुस्कराई । उसके डोर की लपेटन छुड़ा कर पतंग ढीली कर नीचे की ओर फेंकी तो वो बच्चा उसकी ओर  लपका , क्रिकेट खेल रहे बच्चे भी अपना खेल रोक लपके लेकिन लंबी दौड़ के धावक सा वह बच्चा पतंग पकड़ दौड़ लिया । अन्य बच्चे उसके पीछे पीछे भागे और आँखों से औझल हो गये ।चारूमित्रा बाल सुखा अंदर आकर दैनिक कार्यों में व्यस्तहो गई।
शाम को बाज़ार से सब्ज़ी लेकर  लौट रही थी तो उसने देखा वही बच्चा  उसी लाल पतंग को उसके घर के बाहर बने प्लेटफ़ार्म पर खड़ा होकर उड़ा रहा है।पतंग काफ़ी ऊँची  उठ चुकी थी। चारूमित्रा को देख कर वो मुस्कुराया मानों धन्यवाद दें रहा हो ।चारूमित्रा ने निगाहें आकाश की तरफ की तो देखा कि उस बच्चे की पतंंग किसी अन्य पतंग से पेच लड़ा रही थी और बडी पेचदगी से वह अपनी पतंग बचा रहा था । चारूमित्रा को  लगा कि सच  बचपन भी कितना अबोध होता है और बच्चे मन के कितने सच्चे होते हैं । काश उनकी यह अबोधता कभी ख़त्म ना हो। 
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★स्नेहसूत्र 
कस्तूरी रोज़ सुबह उठ कर आँगन बुहारती , सूर्य को अर्क देती और फिर घर के कामकाज में लग जाती ।सुबह से बच्चों को स्कूल भेजना , पति का नाश्ता बनाना., आफ़िस के लिये लंच बनाना ।रोज़ का नियम था। साँस ससूर की देखभाल भी उसकी दिनचर्या का एक हिस्सा था। ससूर साहब को नाश्ता , खाना  देने से लेकर उनके कपड़े धोना ,प्रेस करना उनका अख़बार ,चश्मा सब यथासमय रखना वह कभी भी नहीं भूलती थी।सास को किसी प्रकार की तकलीफ़ ना हो इसका कस्तूरी विशेष ध्यान रखती है ।उनके पूजा के बर्तन धोना , समय से उनको दवाई देना । परिवार से मिले यह सभी संस्कार कस्तूरी में  भरे थे ।
जीवन की गाड़ी सुचारू रूप से चल रही थी । एक दिन कस्तूरी को बुखार आ गया तो पूरा घर जैसे थम सा गया।दोपहर को दवाई लेकर सोई तो देर तक सोती रही । कस्तूरी की पड़ोसन ममता भट्टाचार्य तभी दही का जामन लेने आ पहुँची ।जब उसकी आँखें खुली ।
कस्तूरी की सास ने दरवाज़ा खोला।ममता  भट्टाचार्य उनके पीछे पीछे किचन में घुस आई।दही का जामन ले वे बाहर आई तो ममता भट्टाचार्य भी उनके पीछे पीछे बाहर तक उन्हें छोड़ने आईं यह सोच कर कि दरवाज़ा भी बंद कर लेंगी । बाहर ही खड़े खड़े कुछ इधर उधर की बातें कर ममता  भट्टाचार्य ने शंकित दृष्टि  से इधर उधर देखा और और व्यंग् भरे स्वर में कस्तूरी की सास से बोलीं-"माताजी , इस उम्र में भी आपको घर का काम करना पड़ रहा है ।मेरी सास तो दिन भर पलंग तोड़ती हैं ं।कस्तूरी कितनी खुशकिस्मत हैं कि दोपहर में लंबी तान कर सोईं हैं ।
कस्तूरी की सास ने ममता भट्टाचार्य की तरफ अाग्ननेय नेत्रों से देखा और बोली-"एक बात कहूँ बेटी , यदि अपनी सास को तुम भी माँ समझती तो यह शब्द नही बोलती । मेरी कस्तूरी मेरी बेटी है , बहू नही ।यह उसका अपना घर है वो सोये या जागे तुम्हें मतलब नहीं होना चाहिये ।मेरी कस्तूरी से तुम क्या तुलना करोगी उसे बुखार है इसलिये वह लेटी है।वो तो मुझे उठ कर पानी भी नहीं पीने देती ,समझी? इसलिये वो जो तुम आग लगाना चाहती हो वो इस घर में नहीं लगा पाओगी क्योंकि यह परिवार स्नेह सूत्र से बँधा है ।आज के बाद कभी इस घर में आओ तो यह बात याद रखना।ममता भट्टाचार्य फटी आँखों से उन्हें देखती रहीं क्योंकि आज उनका वार ख़ाली गया । कस्तूरी सब सुन रही थी ।और उसका ह्रदय अपनी सास के लिये और भी श्रद्धा से भर गया था ।
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★इलेक्शन
 चारों  ओर इलेक्शन का शोर है।देश भर में घोषणाओं की धूम मची है ।लोकलुभावनी घोषणाओं के ज़रिये चुनाव मैदान में उतरने की आपाधापी के बीच मोहल्ले के बच्चे भी पढ़ाई भूल कर सपनों से भरी घोषणाओं में शामिल नारे लगाते घूम रहे 
हैं ।जागो जुड़ो देश गढ़ो हैं -इन सभी से बेखबर गेंदा देवी गठिया के दर्द से परेशान बाहर चारपाई पर पड़ी करहा रहीं थीं आज दर्द इतना बढ़ गया था कि उठा ही नहीं जा रहा था। घर का चूल्हा भी ठंडा पड़ा था। वो तो रोज दिहाडी पर जाती है तब दो जून की रोटी नसीब होती थी। ऊपरी से उसके पति लक़वे से पीड़ित घर की चटाई पर पड़े रहते  मक्खियाँ तक नहीं उड़ाई जाती थीं ।एक दुर्घटना में रीढ़ की हड्डी में चोट लगी थी तब से अब तक बेचारे उठ ही नहीं पाये। लड़का मंदबुद्धि था।सारे दिन पूरे क़स्बे में घूमता फिरता था।एक बेटी ब्याहने योग्य थी , गेंदा देवी का एकमात्र सहारा भी वही थी,वही घर का सारा काम करती थी व अपने बाबा की देखभाल का दायित्व भी निभाती थी। साथ ही अपाहिज भाई को भी संभालती थी।
इस नन्हे क़स्बे में गिने चुनेेेे घर थे , जवान युवक सब नौकरी की तलाश में क़स्बे से बाहर निकल गये थे और लड़कियां क़स्बे  की पाठशाला में जाकर या तो पढ़ा रहीं थीं या या गाँव की आंगनबाडी में कुछ सीख रहीं थीं।बुज़ुर्ग कस्बे में खेतीबाड़ी की निगरानी रखते थे । अभावों के बोझ से ग्रस्त क़स्बा सत्ताधारी व सता पाने के प्रयत्नों में लगे प्रत्याशी में दिलचस्पी रखना नहीं चाहता था । हर पाँच साल बाद यह तमाशा होता था।हाँ खाने पीने वाला  कुछ जुगाड़ ज़रूर हो जाता था। ।क़स्बे में चहल पहल के साथ कंबल , बर्तन ,अनाज व कुछ ज़रूरत सामग्री की गाँव में बरकत हो जाती थी। 
पिछले एक महीने से क़स्बे को लुभाने की क़वायद चल रही थी ।लाउडसपीकर पर निरंतर गूँज रहा था -"बहनों और भाईयों यहाँ के निवासी प्रिय साथियों ,आपको यह सूचित करते हुअे बहुत हर्ष हो रहा है कि गाँवों में पीने के पानी की घरों में आपूर्ति की घरों में व्यवस्था की जायेगी ,प्रदेश में पवन और ऊर्जा को बढ़ावा  दिया जायेगा ।जल हमारी महत्त्ती आवश्यकता है ।नये नये हैंडपंप लगाये जायेंगे ,बड़ी बड़ी नदियों से इस क़स्बे  में नदियों से पानी लाया जायेगा ,सहकारी समितियों को प्रोत्साहित किया जायेगा ,अनाज ख़रीद भंंडारण गोदामों के प्रबंधन एवं वितरण की ज़िम्मेदारी सरकार की रहेगी ।औधौगिक निवेश और तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षा द्वारा इस क़स्बे को समृद्ध किया जायेगा।
गाँव में भी विकास के लिये मास्टर प्लान बना दिया गया है । सभी गाँवों में पीने का पानी और सभी स्कूलों ,आंगनबाडी केंद्रों में शुद्ध पेयजल की स्थापना पर पानी की क़िल्लत के चलते इसे कैसे पूरा किया जायेगा। इसका उल्लेख कहीं नहीं था,गेंदा बाई भी सुन रहीं थीं।  वह जानती थीं कि कुअें तक सूखे थे , सभी लोग दवाई की तरह पानी पी रहे थे। यह सब नौटंकी वोट की थी।
अभी गेंदा बाई यह सब सोच ही रही थी कि एक राकेट जलता हुआ उसकी झोंपड़ी पर आ गिरा और देखते देखते ही वह स्वाहा  हो गई।पानी की दूर दूर तक व्यवस्था नहीं थी ,आग भला कैसे बुझती ।पति को बचाने के प्रयास में वो भी जल गई।इलेक्शन का शोर अब उसके इर्द गिर्द मँडरा रहा था। और सब विकास की बातें भूल कर गेंदा बाई को यह समझाने में जुट गये थे कि विपक्षी दल की यह साज़िश है। वो एक चश्मदीद की तरह गवाही  देगी तो सरकार उसे आर्थिक सहायता  प्रदान करेगी ।उसकी बेटी को नौकरी और उसे भी घर मुहैया कराया जायेगा । गेंदा बाई ने आकाश की तरफ देखा मानों पूछ रही हो क्या वह इस राजनीति का फ़ायदा उठाये ?तभी उसे अपनी बेटी की आवाज़ सुनाई दी-"अम्माँ जल है तो कल है , कह दो इन राजनेताओं से कि एक हफ़्ते के अंदर हमारे गाँव में जल प्रबंधन कर दिया जाये तो हम आपका साथ देंगें।
गेंदा बाई कुछ सोचती उससे पहले ही एक पार्टी उसके क्रियान्वयन में जुट गयी थी।
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★धरा का सिरमौर देवदार 
मीनल देवी को इस पहाड़ी इलाक़े में सब जानतें हैं ।वह पर्यावरण की रक्षक हैं । उन्हें याद आये वो दिन जब उनके पति  श्रीचंद जी चमोली एक पहाड़ी गाँव में एक फ़ॉरेस्ट अधिकारी की हैसियत से ट्रांसफर होकर आये तो वह मात्र एक गृहिणी थी ।प्रकृति से उन्हें शुरू से प्रेम था ।जब पति काम पर चले जाते थे तो वो घर में दिल लगाने के लिये मीनल देवी बाग़वानी करती थीं ।
 मीनल देवी के बंगले के अहाते  से जुड़ा सरकारी ज़मीन पर लगा एक सुंदर देवदार का पेड़ था । वहाँ बहुत से पक्षियों के छोटे -बड़े नीड बने हुअे थे। वहाँ सुबह सुबह जब मीनल देवी बरामदे में बैठ कर चाय पीती थीं तो बहुत सी रंग बिरंगी चिड़ियाएँ वहाँ चहकती उड़ती । थीं । मीनल देवी ने बहुत से पक्षी  वहाँ देवदार की शाखों पर विश्राम करते देंखी हैं ।
एक दिन मीनल देवी सुबह  जागीं तो वहाँ लोगों की भीड़ जमा थी।पहाड़ी क्षेत्र  था तो वहाँ मीनल देवी ने देखा कि विभिन्न अलग सी रंगीन वेशभूषा में स्त्री पुरूष  खड़े हैं ।उनकी पहाड़ी भाषा भी मीनल देवी को पूरी तरह से समझ नहीं आ रही थी। महिलाओं के नाक में बहुत बड़ी गोल नथनी झूल रही थी जिसके बीचों बीच में फूल बना हुआ था। मीनल देवी को लगा जैसे बचपन में जब किताबें पढ़ती थी उसमें जादूगरनी का पात्र एेसा ही नज़र आता था। मीनल देवी ने उस पहाड़ी रमणी से इशारे से पूछा -"क्या हो रहा है यहाँ ?"
उस पहाड़ी जादूगरनी सी लगने वाली रमणी ने इशारे से बतलाया कि यहाँ देवदार के पेड़ के नीचे एक पहाड़ी  देवता ने जन्म लिया है । मीनल देवी ने फिर इशारे से कहा -" बताओ कहाँ ?"दोनों तेज़ी से चलती हुई देवदार के पास पहुँचीं ।
एक बड़ा सा तिकोना सिंदूर लगा हुआ  काला पत्थर देवदार के तने के नीचे रखा था और उसके आसपास डकोत टाइप के (शनिवार के दिन माँगने वाले पंडित) लोग खड़े थे।वो टूटी फूटी हिंदी बोलते थे उन्होनें मीनल देवी के पूछने पर बताया कि यह देवदार तो अब कटेगा और यहाँ भैंरूं जी का मंदिर बनायेंगें।
"अरे ग़ज़ब करते हो ,इतना सुंदर देवदार कैसे काटोगे यह तो वन विभाग की धरोहर है  ।"
"नहीं यहाँ यह भैंरों जी (एक देवता) उगडे (निकले) हैंं।इसलिये यह कटेगा और यहाँ मंदिर बनेगा।"
कुछ देर में भीड़ छँट गई। मीनल देवी ने अपने पति को बताया तो वह बोले -" मीनल यह सरकारी वन विभाग की ज़मीन है , यहाँ के गाँव वाले जो रहें ।उनकी इनमें आस्था है । हम तुम कुछ नहीं कर सकते और मैं तो किसी प्रपंच में नहीं पड़ना चाहता।इन्हें अपना काम करने दो। तुम कुछ भी करोगी तो मीडिया आ जायेगा । फिर तुम आगे जानती ही हो क्या होगा ,मीनल देवी चुप हो गईं ।
दिन गुज़रा संध्या हो गयी । चाँदनी बरसाती पूनम की रात थी ।मीनल देवी देवदार तक पहुँची ।अभी भी कुछ पहाड़ी चिड़ियाएँ चहचहा रहीं थीं । उन्होनें देखा पत्थर पर लच्छा  ,कुमकुम ,फूल, मालाएँ, बताशे कोई चढ़ा गया है । उसे चौकीदार ने बताया कि कल से मंदिर का काम शुरू होगा। पहले भैंरूं जी का चबूतरा बनेगा फिर मंदिर और इस कड़ी में देवदार कटेगा तभी यह काम बँटेगा ,अगले हफ़्ते देवदार तरू  को काटना पड़ेगा।मीनल देवी बहुत देर तक इधर -उधर टहलती रही । पहाड़ी इलाक़े में रात तक गहन सन्नाटा हो जाता है।लोग  घरों से बाहर नहीं आते ।
जाने मीनल देवी के अंदर एकाएक कैसी नारी शक्ति आई थी कि उन्होनें वो पत्थर जिन्हें भैंरूं जी का नाम दें दिया गया था उठाया और एक लाल कपड़े में लपेट कर अपने घर के सामने कुछ दूरी पर बने एक अन्य चबूतरे पर एक कोने में रख आईं । देवदार के नीचे सफ़ाई कर ,घर पर लौट आई और बिस्तर पर लेट गई ।रात भर करवटें बदलती रही।मीनल  देवी की सुबह -सुबह ही आंँख लगी ही थी कि बाहर से आ रहे आरती के घँटें बजने की आवाज़ों से उनकी आँखें खुल गई । वह तुरंत बरामदे में पहुँची । देखा सामने चबूतरे के इर्द गिर्द पहाड़ी महिला पुरूषों की भीड़ जमा थी। वो लोग हाथ में प्रसाद व मालाएँ लिये खड़े आरती गा रहे थे। एक पहाड़ी महिला  को रोक कर मीनल देवी ने पूछा -"क्या हुआ माईं ?"तो वो बोली-"वो रात ही रात में भैंरूं बाबा ने स्थान बदल लिया है। आज वहाँ स्थापना पूजा है हम लोग वहीं जा रहे हैं ,आप भी चलो , टूटी फूटी हिंदी में वो पहाड़ी महिला बोलते हुअे बिना जवाब सुनें आगे निकल गईं । 
मीनल देवी ने चैन की साँस ली ,मन ही मन वो यह सोच कर दुखी रहीं थीं कि अंधविश्वास इंसान की कितनी बुद्धि भ्रष्ट कर देता है , पर जब उन्होनें ऊंचाई तक जाते धरा के सिरमौर देवदार के तरू को देखा तो उनकी आँखों में यह देख कर ख़ुशी की लहर दौड़ गई कि देवदार तरू पर चिड़ियाएँ चुहलबाजी कर रहीं थीं और कोयल से भी मधुर स्वर में एक पहाड़ी चिड़िया गा रही थी , उसके सुर आरती में घुल मिल कर घाटियों में गूँज रहे थे।
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★चमत्कार 
"माँ क्या मैं जल्दी ही मरने वाला हूँ? "आठ वर्ष के आशीष नंें मासूमियत से अपनी माँ से पूछा।
"नहीं बेटू , एेसा क्यों कह रहे हो , ईश्वर तुम्हें लंबी उम्र दें आशू  !अपनी रूलाई रोकते हुअे अनुभा ने कहा पर फिर भी दो बूँद आँखों से छलक ही आये । पिता विश्वास की आँखें भी भर आईं ।आशू मुस्करा कर फिर अपने पज़ल गेम में डूब गया। 
एक वर्ष से आशीष का कैंसर का इलाज चल रहा था। वह बहुत कमज़ोर हो गया था ,रोज़ नये नये टेस्ट और कीमोथिरेपी ने उसकी मुस्कान भी छीन ली थी ।अनुभा और विश्वास ने उसके इलाज में कहीं कोई कमी नहीं रखी थी ।पैसा पानी की तरह बह रहा था। निरंतर  ब्लड प्लेटलेटस घटते जा रहे थें पर ल्यूकेमिया के मरीज़ों को अनुभा - विश्वास ने ठीक होते भी देखा  है इसलिये उन्होंने आशा नहीं छोड़ी थी  । अच्छे से अच्छे डाक्टर को दिखाया। लेकिन  कुछ सकारात्मक नही दिख रहा था । आशीष का चलना फिरना भी बंद हो गया था । डाक्टर कह रहे थे कि हम पूरा प्रयास कर रहे हैं पर हमारे हाथ में कुछ नही है। आशीष की हालत दिन ब दिन बिगड़ती जा रही थी। परिवार सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा था। ईश्वर एेसी परीक्षा किसी माँ बाप की ना ले। इतना होनहार बच्चा मरने वाला है , सोच कर ही कलेजा मुँह को आने लगता था। बड़ी बहन 16 वर्ष की थी और एक और भाई 12 साल का था ।आशीष  सबसे छोटा था इसलिये घर में सभी का लाड़ला भी था । दादा दादी तो जान छिड़कते थे । वह शिमला के एक छोटे से गाँव  में रहते थे। आशीष को देखने दो तीन  बार आ गये थे। 
आशीष के भाई बहन बार बार माँ बाबा से कहते क्यों सह रहा है वो इतना दर्द ? किसी के पास इसका जवाब नहीं था। एक दिन वहाँ विश फ़ाउंडेशन वालों की पूरी टीम पहुँची । पूरा दिन विशेषज्ञों ने उसके साथ बिताया और उससे खेल खेल में पूछा कि उसकी आख़िरी इच्छा क्या है? 
आशीष नंें मुस्कुराते हुअे कहा वो दादा दादी जी के पास उनके गाँव में रहना चाहता है।  एक हफ़्ते बाद ही परिवार वहाँ पहुँच गया। दादा - दादी  के यहाँ आते ही उसकी आँखों में एक अजीब सा तेज़ आ गया था। घंटों दादी की गोद में लेट कर वह कहानियाँ सुनता । दादा के साथ वील चेयर पर बैठ कर गाँव भर में घूमता। दिन हँसी ख़ुशी में गुज़रने लगा ।  दादा दादी के यहाँ की ख़ुशहाल सादगी भरी ज़िंदगी ने उसमें आत्मविश्वास सा भर दिया था और एक दिन तो जैसे चमत्कार ही हो गया । गाँव के बच्चे पतंग उड़ा रहे थे , कुछ पेंच लड़ा रहे थे ,आशीष चबूतरे पर कुर्सी पर बैठा देख रहा था ।सारा परिवार उसके इर्द गिर्द ही था।इधर उधर की बातें चल रही थी। तभी बच्चों का शोर गूंजा--"वो काटा... ", किसी की पतंग कटी थी। वो उसी के घर की तरफ़ लहराती सी आ रही थी। आशीष ने देखा दूर से एक बच्चा इशारा कर रहा है कि उसे पकड़ो...आशीष ने निगाहें पतंग की तरफ़ दौड़ाई जो उसके बहुत क़रीब थी और उसी की और लहराते हुअे आ रही थी।बच्चों का झुंड भी उसी की और बढ़ रहा था  तभी आशीष के शरीर में कुछ हरकत सी हुई वो अपनी कुर्सी से लड़खड़ाते हुअे उठा और लपक कर उसने उसे पकड़ लिया। घरवालों को एकबारगी विश्वास ही नहीं हुआ। !मेडिकल टीम को तुरंत संपर्क किया गया। मोबाइल वैन में डाक्टर की टीम पहुँची ।आशीष का ब्लड सैंपल लिया गया। परिणाम चौंकाने वाले थे , उसकी ब्लड प्लेटलेटस में इज़ाफ़ा हुआ था। डाँ की सलाह पर कुछ दिनों बाद फिर से बोन मैरो टेस्ट करवाया गया  तो देख कर सभी हैरान थे कि ब्लड प्लेटलेटस व आशीष की एक्टिविटी में बहुत परिवर्तन था। उसने चलना फिरना शुरू कर दिया था । नये माहौल से उसके अंदर  शारीरिक रूप से स्फूर्ति आ गई थींऔर प्लेटलेटस् की संख्या भी दुगुनी हो गई थी,जाने माँ बाप की मेहनत का या दादा दादी के साथ व दुआ का असर था , जो भी हो इसका किसी के पास जवाब नहीं था। ना डाक्टर के पास ना ही विज्ञान के पास ।कुदरत का चमत्कार शायद इसी को कहते हैं , चाहे जो भी हो आशीष चमत्कारिक रूप से ठीक हो रहा था ,कैंसर ने हार मान ली थी और डाक्टर भी हैरान थे ।
29.
★केयर
बरसों बाद निर्मला का अचानक ही बचपन की एक सहेली रंजनी से एक रिश्तेदार की शादी में मिलना हुआ तो उसकी ख़ुशी का पारावार ना रहा ।रंजनी भी उत्साहित दिखी ।देर तक दोनो एक दूसरे का हाथ थामें एक कोने में बैठे बीते दिनों की यादों के भँवर में गोते लगाते रहे।दोनों अरसे से एक ही शहर में रह रहे थे पर शादी के बाद कभी मिलना संभव नहीं हुआ। अगले दिन इतवार था ,रजनी अपने पति के साथ निर्मला के यहाँ भोजन पर आमंत्रित थी। स्वादिष्ट लंच के साथ गपशप का दौर चल रहा था।सुबह से शाम हो गई थी पर मन नही भर रहा  था । बीच - बीच में निर्मला आँख बचा कर आँगन में बने एक कमरे में चली जाती थी।कभी पानी का जग, कभी कभी खाने की प्लेट , कभी चाय का प्याला में लेकर वह बराबर उस कमरे में आ जा रही थी। रजनी को उत्सुकता हुई कि क्या बात है , वहाँ कौन है, चाय पीते पीते वो भी निर्मला के पीछे हो ली।   आँगन का बड़ा गलियारा पार कर वह कमरे में गई तो एक वृद्ध के ज़ोर ज़ोर से खाँसने की आवाज़ से रजनी चौंकी।दरवाज़े  का पर्दा हटा कर रजनी ने झाँका तो देखा कि निर्मला उन्हें सहारा देकर उठा रही है तभी तेज़ खाँसी का दौरा उठा और उनके मुँह से ख़ून का एक गुच्छा बहता हुआ निर्मला के हाथ पर उछल कर आ गिरा ।रजनी को देखते ही उबकाई आने लगी ।रजनी ने नाक पर रूमाल रख लिया। वृद्ध तब तक सँभल कर लेट गये थे। निर्मला ने  गीले कपड़े से उनका मुँह पोंछा  ।  अपना हाथ साफ़ किया ।तभी निर्मला की नज़रें रजनी पर पड़ीं -"अरे तुम यहाँ क्याें आ गईं ?"
"बस निर्मला ,बस यूँही ,  उत्सुकतावश  मैं यहाँ आई ,  तुम बार बार यहाँ जो आ रहीं थी ना ।"
"ओह ,तुम्हें बताना भूल गई थी। मेरे ससूर साहब हैं वे इन दिनों बहुत बीमार हैं । यहाँ इस कमरे में ज़रा शांति रहती है ना ।
ओह  अच्छा ,पर आजकल तो वृद्धों के लिये डे केयर खुल गये हैं निर्मला ,वहाँ चौबीस घंटे नसिंग सेवा उपलब्ध है। मैंने तो अपनी सास को  वहाँ एडमिट कर रखा  है । हर महीने मासिक फ़ीस जमा करा देती हूँ ।भाई मुझसे तो इतनी सेवा नहीं होती। 
निर्मला ने रजनी की ओर असमंजस से देखा।बस इतना ही बोली -"रजनी ,मैंने हमें हमेशा इन्हें  पिता समान माना है। मुझे लगता है डे केयर से ज़्यादा इन्हें परिवार के केयर की ज़रूरत है।
रजनी का चेहरा एकाएक बुझ गया ।शायद उसकी आत्मा ने उसे धिक्कारा होगा।  बैठक में पहुँच कर रजनी अपने पति से बोली-"चलो जी बहुत देर रूक लिये अब घर चलेंगें । रास्ते में रूक कर अम्माँ को भी डे केयर से घर पर ले चलेंगे । उसकी बात सुन कर रजनी के पति का मुँह खुला का खुला रह गया । बस इतनी सी आवाज़ निकली -"हैं ...क्या ?" निर्मला की आँखों में ज़रूर संतोष की चमक थी। 
30
★पिताजी की पूँजी 
पिछले एक हफ्ते से मोना बुजुर्गों का मान सम्मान विषय पर हो रहे एक सेमीनार में अपने शहर आई हुई है, अपने शहर यानी अपना मायका, जहाँ जीवन के २५ वर्ष उसने गुजारे थे। हमेशा इस शहर में आने के मौके वो तलाशती रहती है। इस बार माँ के गुजरने के बाद पहली बार आई है। खुशबू की तरह हर कोने में माँ की यादें बसी हैं, वैसे भी दिवाली आने के एक माह पहले से ही मोना के मायके में सफाई का अभियान शुरू हो जाता था, पुरानी किताबें, अखबार और खाली डिब्बों का आँगन में अम्बार लग जाता था। उसके बाद पकवान नमकीन व मिठाई बनाने का दौर शुरू होता था। नवीन उत्साह से घर में रंग रोगन के बाद रंगोली बनाई जाती थी। 

पिताजी की तस्वीर पर नयी माला चढती थी। पिताजी एक जाने माने लेखक थे, माँ बड़ा गर्व करती थी। पिताजी की एक एक किताब को वो झाड़ कर वापस पुस्तकालय में जमा कर धूप बत्ती दिखा देती थी। मोना को याद है माँ हमेशा कहती थी, इन किताबों को मैं लायब्रेरी में भी दान नहीं दे सकती क्योंकि मुझे लगता है तेरे पिता इनमें आज भी जिन्दा हैं, गाहे बगाहे इन किताबों से बाहर आकर, घर भर में घूमते रहते हैं। मोना का दिल भर आया था।
 
घर का पुराना नौकर रामू तहखाने से बोरा भर कर लाया और आँगन में उलट दिया। मोना ने देखा माँ की संग्रहीत पुस्तकें, गीता, रामायण और भी बहुत सी धार्मिक किताबों के साथ पिता जी की लिखी किताबों का ढेर भी वहाँ उलट दिया था। रद्दी वाला उन्हें तौलने को तैयार था। भाई वहाँ आराम कुर्सी पर बैठे थे, उनके आदेश पर रामू रद्दी ला रहा था, तभी रसोई घर में से धोती से हाथ पोंछती भाभी आँगन में आयीं और कुछ देर मौन खड़ी उन किताबों को देखती रहीं, फिर भैया से बोलीं -"आप इन्हें निकाल रहे हैं?"

"हाँ शांता, क्या करेंगे, देखो सब पर दीमक लग गये हैं।" भैया ने एक किताब पर बने दीमक के घर को दिखाया !
भाभी ने तपाक से जवाब दिया -"जी नहीं यह रद्दी नहीं है यह मेरी सास और ससुर की जमा पूँजी है। अपने जीते जी मैं इन्हें नहीं बेचने दूँगी।" मैं अम्मा की तरह ही हर साल इन्हें सहेजूँगी।" वह प्रणाम की मुद्रा में झुकी और पिताजी की लिखी किताब को माथे से लगा बोलीं -"रामू सबको झाड़ कर वापस पुस्कालय में ज़माना है ,चल वापस बाँध।"
मोना ने कृतज्ञता से भाभी की ओर देखा। उनकी आँखें नम थीं भैया अवाक् से उन्हें देख रहे थे। रद्दी वाले की तराजू अभी भी हवा में लटकी थी।
31.    
मजबूरी
राधिका सुबह सैर को निकली तो देखा उसकी पुरानी बाई रामप्यारी  पार्क की एक बेंच पर बैठी ज़ोर ज़ोर से गोलाई में सिर हिला रही थी। आँखें आसमान की ओर चढ़ी हुई थी । उसकी बारह साल की बेटी करताल बजाती हुई बड़े सुर में माता जी का भजन गा रही थी -"जय जय मैया तेरा दरबार सच्चा ।"
राधिका हैरान थी कि यह क्या रहस्य है । राधिका की बैंच के नीचे एक चादर बिछी थी और उसका दुधमुँहे बच्चा वहाँ गहरी नींद में सो रहा था। पार्क में आने जाने वाले  लोग कुुछ पल वहाँ ठहरते हाथ जोड़ कर कुछ सिक्के वहाँ रखे कटोरे में    रख आगे बढ़ जाते।़ बेटी भजन गाते गाते बच्चे के मुँह पर मंडरा रही मक्खियाँ भी उड़ाती जा रही थी।घर आकर बहुत देर तक राधिका राम प्यारी के बारे में सोचती रही ।कुछ समय पहले उसके पति को लकवा मार गया था।तो उसने काम पर आना छोड़ दिया था।
कच्ची बस्ती में में ईंटोंं से बने पक्के से एक कमरे में वह अपने परिवार के साथ वह रहती थी ।यह पार्क भी उसके घर के पिछवाड़े ही बना हुआ था  । राधिका की उत्सुकता बढ़ती गई । रोज़ वह बैंच के पास खड़ी  होती । एक बार उसने राधिका को आवाज़ भी लगाई पर रामपयारी ने उसकी ओर आँख उठा कर देखा तक नही ।
नन्ही बच्ची करताल बजाना रोक कर बोली-"बीबी जी माँ ना बोलेगी , माँ के शरीर में माता आयी है ।"राधिका के लिये तो राम प्यारी एक   पहेली सी बन गयी थी । एक दिन जाने क्या हुआ वह शाम के धुँधलके में उसकी झोंपड़ी में ें जा पहुँची देखा राम प्यारी पति के पैरों में मालिश कर रही थी राधिका अचानक आया देख कर सकपका गयी ।
, यह क्या नाटक है राम प्यारी , तुम्हारे अंदर माता....? " राधिका ने माता शब्द पर विराम दें दिया ।
रामप्यारी की आँखों से आंसूं झरने लगे। 
"-बीबी जी , देख रहीं हैं मेरेे मर्द की हालत , एक पल के लिये भी छोड़ सकूँ हूँ क्या इन्हें । कोई मुफ़्त में पैसा देगा क्या , आप दोगी ? एक दिन देवी माँ सपने में दिखीं , बस उसी दिन से यह बात मन में उपजी कि माँ ने दर्शन देकर कोई संदेश दिया है । राम प्यारी एक सांस में बोल गई ।
"पर रामप्यारी  इससे तुम्हारी सेहत पर बुरा असर होगा,यह ढोंग कब तक करोगी ?"राधिका ने सहानुभूति  में कहा । 
"तो बीबी जी क्या करूँ? "मजबूरी है घर और पति को छोड़ कर  काम पर जा नहीं सकती , नर्क में ही तो जाऊँगी , मंज़ूर है मुझे ।" रामप्यारी ने राधिका के आगे हाथ जोड़  दिये ।नि:शब्द दो मिनट राधिका मौन खड़ी रही ।मानों किसी को श्रद्धांजलि देने आई हो । फिर हाथ में दबाया सौ का नोट उसके पति के पास रखे कटोरे में रख तेज़ी से घर की ओर लौट गई।
32
★पानी 
 श्रीकांत जब छोटा था मात्र दस वर्ष का जब नानी से मिलने राजस्थान के एक ढाणीनुमा गाँव गया था।वहाँ उसने देखा था कि एक कुअें को घेर कर असंख्य महिलायें खड़ी थीं । सिर पर ख़ाली घड़े और होंठों पर प्यास लिये ।तब उसनें नानी से पूछा-"बड़ी अम्माँ यहाँ नल नहीं है ,लोग पानी लेने कुअें पर क्याें जाते हैं ?"
"हाँ बेटा , यह पिछड़ा इलाक़ा है ।भीषम गरमी में कुअें बावड़ी सूख जाते हैं । ट्यूब बैल भी सूखे हैं । कुअें में थोड़ा बहुत पानी जो बचता है । सबको बाँट दिया जाता है।"
ओह , श्रीकांत को बहुत दुख हुआ था। बरसों बीत गये पर आज भी वो दृश्य उसे नहीं भूलता । पढ़ाई के बाद 
प्रशासनिक सेवा में आगया ।तब से श्रीकांत हमेशा गाँवों में पोस्टिंग ले रहा है ताकि वहाँ जल की व्यवस्था कर सके। 
आज फिर श्रीकांत नानी के घर आया है ।अब दृश्य बदल चुका है ।लोगों के घरों नंें नल हैं ।गाँवों में नयी पाइप लाइनें डल रही हैं जो बीसलपुर से जुड़ेंगी ।मज़दूर खुदाई कर रहे हैं । वहीं एक कुर्सी पर बैठा  श्रीकांत चाय पीते हुअे मेज़ पर भारत का नक़्शा फैलाये बैठा है ।यह देखने के लिये कि अब उसका  अगला पड़ाव कौनसा गाँव होगा। 
 33
 ★शिरीष खिल रहा हहै 
मौसम सुहावना था । प्रचंड गरमी के बाद आज हुई झमाझम बारिश ने शिरीष के फूलों को भी नहला दिया था । देवकी ने अपनी बाँहें सामने फैला कर अपनी दोनों हथेलियाँ खोल ली । बारिश की बूँदें मोतियों की तरह उसकी हथेलियों पर गिरने लगीं। देर तक वह जडवत हो उन्हें निहारती रहीं । नम गूँजती हुई ख़ामोशी में टपटप करती बूँदें और शिरीष के टपकते झरते फूल देेवकी को अतीत में ले गये । एेसी ही गदराई सुहानी मस्त शाम थी ,तेज़ गरमी के कारण देवकी दिन भर घर में कूलर चला कर झुंपा लहरी की पुस्तक नेमसेक पढ़ती रही थी ।
बाहर चिड़ियों की चहचहाहट से टूटती खामोशी कभी - कभी उसके अंदर भी टीस भर देती थी।देवकी के पास सब सुख थे ,अच्छा घर ,अच्छा पति ,सभी आधुनिक सुख  सुविधाएँ पर शादी के बारह साल हो गये थे, माँ बनने के सुख से देवकी वंचित थी ।इस पीर भरी ख़ामोशी में वह कभी कभी बहुत अकेला महसूस करती थी । घर के बाहर लगे शिरीष के वृक्ष की नाज़ुक डालियों पर फुदकते पाखियों को देख कर वह कई बार सोचती थी कि कितना अच्छा होता मेरे घर आँगन में भी चहचहाहट होती । ईश्वर यह क्या , क्याें  मुझे इस सुख से वंचित रखा।देवकी ख़ुद ही प्रश्न करती ख़ुद ही जवाब दे देती कि शायद भाग्य को यही मंजुर था।
एक दिन शिरीष के खिले पीले फूलों सी सघन धूप उसके घर की बगिया में बिखरी हुई थी और वह बरामदे में लगी इजी चेयर पर बैठी बारिश की फुहारों से बगिया की हरी भरी हो गयी गोद को निहार रही थी । लाॅन में हरी भरी घास पर बहुत सी रंग बिरंगी चिड़ियाएं फुदक रही थी ।
तभी माली काका दौड़े दौड़े आये -"बीबीजी जल्दी आइये ।" वह बुरी तरह  हाँफ रहे थे ।देवकी झट से उठी खड़ी हुई।
"बीबीजी , शिरीष के पेड़ के पास जो पालने जैसा आपने झूला लगाया था उसमें कोई एक बच्चा रख गया है ।"
"क्या कह रहे हो माली काका ?"देवकी लगभग भागती सी वहाँ पहुँची ।
एक नवजात दुबला पुतला सा शिशु वहां एक मैले कुचैले से कपड़े में लिपटा हुआ पड़ा था। दूर दूर तक निगाहें घुमाई पर भीगते मौसम में सन्नाटा था । बस कलरव करती चिड़ियाएँ मल्हारी सुर छेड़ रही  थी और उसके बाद एक लंबी औपचारिकताओं की मुहिम चली ।पुलिस स्टेशन , समाज कल्याण विभाग और सरकारी हथकंडों के बाद उस नवजात शिशु को देवकी ने क़ानूनी तौर पर गोद ले लिया । बड़ी लंबी थकाने वाली  क़ानूनी प्रक्रिया के बाद उसकी भी गोद हरी हो गयी थी । उस दिन से यह शिरीष का तरू परिवार के लिये ख़ास हो गया था। देवकी ने अपने पुत्र का नाम भी शिरीष रख लिया था । परिवार में वह  सभी की आँखों का तारा हो गया था। आज वह बीस वर्ष का गबरू नौजवान हो गया है ।आजकल अमेरिका में पढ़ रहा है और देवकी के जीवन में शिरीष के फूलों सा खिल रहा है।
34
★अवसर
 अमेरिका के न्यूयार्क शहर में बर्फ़ पड़ रही थी। पूरा शहर सफ़ेद चादर से ढका हुआ था। ज़्यादातर सभी लोग घर से काम कर रहे थे। यहाँ वर्क फरोम  होम का  चलन बहुत अच्छा है । रमन भी आज घर से काम कर रहा था। तभी फ़ोन की घंटी टनटना उठी। भारत से रमन की छोटी बहन का फ़ोन था। उसका स्वर बहुत घबराया हुआ था-"भैया , पापा को हार्ट अटैक आया है, माँ उन्हें अस्पताल ले गयी थी बायपास के लिये  डाक्टर  ने कहा है । "
सुन कर रमन के होश उड़ गये । इस महीने बहुत महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट था। आफ़िस में पहले से ही कह दिया था कि उसका प्रमोशन इस प्रोजेक्ट के बाद ज़रूर ज़रूर करने की वो सिफ़ारिश करेंगे ।
तभी फ़ोन पर छोटी बहन की आवाज़ गूँजी -"माँ कह रहीं थीं कि आप बहुत व्यस्त हैं शायद आ नहीं पायेंगें ,मुझे लगा कि कम से कम बता तो दूँ ।"
"अच्छा किया बहना ,पापा का ध्यान रखना ।"
 "ठीक है भैया ,आल द बेस्ट ,नये प्रोजेक्ट के लिये ।" बहन ने शुभकामनाएँ देने के स्वर में कहा ।
"थैंक यू बहना ।" रमन ने रूँधें गले से  जवाब दिया। फ़ोन रख कर उसने अपनी पत्नी स्वरा  को पुकारा।वो  उस समय रसोई घर में नाश्ता बना रही थी। सारी बात सुन कर स्वरा ने कहा -" रमन एक काम करो ।माँ को तुरंत पैसे भिजवा दो , बाइपास में बहुत ख़र्चा होगा।" 
" हाँ स्वरा वो तो तो मैं अभी आनलाइन भिजवा देता हूँ ।आज ही मिल जायेंगें। " रमन ने उदास स्वर में कहा ।पैसे भिजवाने की औपचारिकता  पूरी कर वह फिर काम में लग गया। तभी उसे याद आया कि जब उसका इंजियनियरिंग का फ़ाइनल इम्तिहान था तब पिताजी को जापान जाने का एक स्वर्णिम अवसर मिला था उस विज़िट के बाद एक अच्छे पद का दायित्व देने का भी प्रलोभन दिया गया था। पर वह नहीं गये उन्होनें वो आॅफर ठुकरा दिया था। केवल उसके भविष्य के ख़ातिर वह अवसर उन्होनें गँवा दिया था।रजत की आँखों में आंँसूं भर आये। तभी स्वरा चाय लेकर आ गयी।
क्या हुआ रमन परेशान हो ? स्वरा ने स्नेह से उसके कंधें पर हाथ रखा तो आँँसू उसके गालों पर बह निकले।
"ओके डोंट वरी रजत ,हम दोनों ही इंडिया जा रहे हैं ।मै ट्रेवल एजेंट को फ़ोन करती हूँ। तुम आफ़िस में ख़बर कर दो। "
रमन ने स्नेह भरी निगाहों से अपनी पत्नी स्वरा को देखा और सोचा परिवार के लिये एक तो क्या सौ प्रमोशन क़ुर्बान हैं अब उसका दिल फूल सा हल्का हो गया था।   
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★दुर्गा 
जेठ की तपती धूप में नौरती ने पेड की एक डाल पर एक गीली धोती का झूला टाँक कर अपने दो माह  के बच्चे को दूध पिला कर लिटा दिया ।बच्चा वहाँ दूध पी कर तृप्त हो पाँव से सायकिल चला रहा था । वह लू के थपेड़ों से बेख़बर था । नौरती तगारी में ईंटे धर कर बार बार फँटे पर चढ़ कर दूसरी मंज़िल तक जाकर ईंटें ख़ाली करती और लौटती । नौरती बीच बीच में बच्चे को देख लेती थी । सुबह से साँझ के इस क्रम में कई बार ठेकेदार की दुत्कार से उसकी आंखें भर आती थी  । साँझ को दिहाडी लेकर घर पहुँचती है ।आज भी पहुँची तो उसका पति छोगाराम मूँज की खाट से फुर्ती से  उठा और उससे छीना  छपटी करने लगा।  साँझ होते ही दारू का पवा पीकर  धुत पड़े रहना उसका रोज़मर्रा  का काम था। 
नौरती पैसे देने से मना करती तो लात घूँसों से उसे मारना शुरू कर देता था। नौरती ने अपनी धोती की गाँठ को मुटठी में कंस कर  बंद कर लिया फिर पति को गिड़गिड़ाते हुअे बोली--"बहुत हुआ छोगाराम अब और नहीं ,देखो मैं फिर पेट से हूँ ,तू तो कमाता नहीं है , जो मैं कमाती हूँ वो भी तू दारू में उड़ा देता है । एेसे कैसे गुज़ारा होगा।चार बच्चे हैं हमारे कुछ तो बच्चों पर दया कर, मैं तेरे हाथ जोड़ती हूँ ।"
छोगाराम कहाँ मानने वाला था।उसकी लत ने  उसे जानवर बना दिया था।वह ज़ोर ज़ोर से नौरती को पीटने लगा।तभी झोंपड़ी से उसकी नौ साल नौ बेटी चंदा बाहर निकल कर आई। उसके हाथ में एक डंडा था।वह चिल्लाई-"रूक जा बापू , माँ को तंग ना कर ,मार दूँगी तुझे ।"
नौरती ने हैरानी से बेटी की तरफ़ देखा। छोगाराम नौरती को मारते मारते रूक गया। 
"आज सरकारी विभाग से एक समाज सेविका दीदी बस्ती में आईं थी ,कह रही थी कि हर छौरी दुर्गा है , कोई अन्याय करें तो आवाज़ उठाना उसका पहला धर्म है ।"चंदा  की  वाणी में ग़ज़ब का आत्मविश्वास था ।छोगाराम उसकी आवाज़ से सहम गया और चुपचाप वापस मूँज की खाट पर बैठ गया।आज पहली बार उसे अहसास हुआ कि सच में ज़माना बदल गया है ।नारी अब बेचारी नहीं है ।उसने पास रखे बंडल से बीड़ी निकाली । माचिस की तीली सुलगा कर पीने लगा।। मन ही मन उसने तय किया कि कल जल्दी उठ कर काम ढूंढनें जायेगा। 
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★ सपनों की गुलाल 
आज घर में चहल पहल थी ,शेखर विदेश से लौट जो रहा था l कुछ दिन बाद ही होली भी आ रही है l माँ बसंती देवी ने बेटे की पसंद की केसरिया खीर ,दही बड़े ,गुझिया और ठंडाई बनाई और बेचैनी से इंतज़ार करने लगी ,वह बहुत बड़ा आँखों का डॉक्टर बन कर जो आ रहा था ! उसके पिता बंसी लाल जी  की भी बस एक ही आरजू थी कि बेटा डॉक्टर बन कर गरीबों की सेवा करे विशेष तौर पर दूर के उन गांवों मे जहां डॉक्टर नहीं जा पाते हैं !और आज वह दिन आ गया था ! बेटे के स्वागत में सारा परिवार एक ही आँगन में आ जुटा था !
घर के आँगन में महिलाएं उत्साह से ढोलक पर फाग गा रहीं थीं --
"-होलिया में उड़े रे गुलाल, खेले रे मंगेतर से ...!" पूरी कॉलोनी में हवा के साथ उस घर की खुशियों  भरी बासन्ती बयार भी बह रही थी l
शेखर एयरपोर्ट से घर पहुंचा तो सभी ने उसे फूल मालाओं से लाद दिया था ! सभी बहन बेटियाँ नेक मांग कर छेड रहीं थी ...
" अरे शेखर भैया अपना सूटकेस तो खोल कर दिखाओ, कहीं इसमें गौरी बहुरिया मेम तो नहीं भर लाये हो विदेश से ? "
घर के बच्चों के लिए तो मानो कोई उत्सव सा था ,अपने ही रंग में  डूबे पिचकारी में पानी भर भर कर एक दूसरे पर फैंक रहे थे l सारा घर - आँगन रंग रंगीला हो गया था ! इसी ऊहापोह में पूरा  दिन भी हंसी खुशी से गुजर गया था l अगले दिन से ही शेखर को एक चैरिटी अस्पताल में नौकरी शुरू करनी थीl विदेश से ही सारी औपचारिकताएं पूरी करके ही लौटा
अस्पताल का पहला दिन भी होली के त्यौहार सा मदमस्त था, क्युंकी अस्पताल के परिसर में ही रोटरी क्लब की तरफ से एक चिकित्सा शिविर का आयोजन था  !  संस्थान की तरफ से ही गांवों ढाणियों से बसों में बैठ कर मरीज आये  थे, मोतियाबंद आपरेशन व सलाह मशविरा के लिए डॉक्टर शेखर देख रहा था कि शिविर में आए लोग कितनी आशायेँ लेकर आते हैं ,उसे अपने पिता के शब्द याद आए कि मेरा बेटा डॉक्टर बन कर लोगों के जीवन में रंग घोलेगा  l सच में जिनकी आँखें नहीं हैं उनके लिए काला रंग ही उनका संसार है ,उनकी पूरी दुनिया है l इस दुनिया  को रंगीन बनाना ही अब उसका मकसद होगा l
शेखर ने घर लौट कर अपनी माँ बसन्ती देवी को पहले दिन का पूरा आँखों देखा हाल बताया तो वो भावुक हो गईं यह सुन कर कि दुनिया में कितने ही नेत्रहीन भी हैं जिनकी दुनिया में उजाला नहीं है , बहुत देर तक वो कुछ सोचती रहीं ,फिर संजीदा होकर बेटे से बोलीं ---
"बेटा मैं तो अस्सी वर्ष के करीब पहुँचने वाली हूँ, अब कितनी जिंदगी शेष बची हैl  एक काम करना न, कल मेरे को नेत्र दान का फार्म ला देना ताकि मैं मृत्यु के बाद आँखें  दान देकर किसी के जीवंन में रोशनी भर 
सकूँl "
शेखर अपनी माँ की इस परोपकारी भावना को देख कर गर्व से भर गया ,सोचने लगा सच यदि हम अपने घर से ही ऐसी सेवाभावी जरूरत की योजना की पहल करें तो ना जाने कितने लोगों को रंगों की दुनिया से जोड़ सकेंगे ! इसी के साथ उसे एहसास हुआ कि इस बार की होली कुछ अनूठी है, जिसमे च्ंग ,मृदंग ,टेसू रंग के साथ इस घर के आँगन में कुछ लोगों के सपनों की गुलाल भी उड कर वातावरण  को  आशाओं  की खुशबू से महका रही है 
37
 ★बदलाव और प्रेम की सुहानी हवा
मूलचंद बाबू जब घर लौटे तो बहुत उदास थे, हाथ में उनके एक लिफाफा था और माथे पर चिंता की लकीरें! मूलचंद जी को चिंतित देख सभी के चेहरे पर एक प्रश्न चिन्ह टंक गया 
"क्या हुआ साहिब जी, किसका खत है?
"तुम्हारे बबुआ का!" मूलचंद जी रसोई में ही पत्नी के पास रखी चटाई पर बैठ गए!
"अरे वाह क्या लिखा है, वो आ रहा है न ऑफिस के काम से? "
"हाँ भाग्यवान, आ रहा है बबुआ लेकिन अकेला नहीं है, अपनी अंग्रेज़ बहू को भी साथ ला रहा है, लिखा है कभी भी पहुँच कर सरप्राइज़ देगा!"
"ओह हो, पर साहिब जी हम तो कह दिये थे बबुआ को कि अंग्रेज़ से ब्याह कर लिया है तो हमारे घर की देहरी पर उसे लेकर पैर न धरियो ..अब देखो दो बरस हो गए हैं, कलेजे पर पत्थर रख लिये है, कभी याद किए ओको?" कह कर शरबती अपने पलंग पर जा लेटी!  जाने कब आँख लग गयी। 
जाने कितनी देर तक सोयी रही, वो तो जब नौकरानी ने झँझोड़ा तो वे चौंक कर जागी, देखा बबुआ पैरों के पास प्रणाम की मुद्रा में हाथ जोड़े खड़ा है और एक दुबली पतली गोरी सी महिला साड़ी में लिपटी उसके पास खड़ी है! वह भौंचक सी उन्हें देख रही थी, तभी वह गोरी सी महिला उनके पैरों पर झुक कर बोली ---"प्रणाम माँ!" 
उनके बिलकुल पीछे मूलचंद जी खड़े मुस्कराते हुए बोले -" शरबती देख री तेरी बहू हिन्दी भी बोलती है और देख साड़ी भी डाली है!
"हाँ साहबजी देखा मैंने! "शरबती अनायास कठपुतली सी उठी और उसे सीने से चिपका लिया। सारे शिकवे गिले भूल कर बहू को पत्नी ने गले लगाया तो जाने क्यूँ मूलचंद जी की आँखें नम हो गईं और वे सोचने लगे कि देश हो या विदेश बस परम्पराएँ जरूर अलग होती हैं पर भावनाएँ तो वही होती हैं! बेटे बहू को दो साल बाद देखकर शरबती सब गिले शिकवे भूल गई। नौकरानी से बोली --"जा री, पूजा का थाल ला; आज मेरी बहू पहली बार घर आयी है, स्वागत तो करूँगी न?"
तभी वह गोरी सी बहू एकाएक कह उठी- "और हाँ माँ, तिल के लड्डू और पपड़ी भी बनाना सिखाइयेगा, बायना भी निकालना होगा न आज, आपके बेटे ने यहाँ के हर रीति रिवाज से मुझे अवगत करा दिया है, देखिये न, दो साल में मैंने हिन्दी भी सीख ली है!" बहू के मुख से इतना सुनते ही घर में उत्साह की लहर दौड़ गयी! मकर सक्रांति में सूरज दक्षिण से उत्तरायन की तरफ आ जाता है जो ऋतु चक्र बदलता है। इस बदलाव के संकेत के साथ मूलचंद बाबू के घर के जीवन का ऋतु चक्र भी बदल गया
परिवर्तन तो पलटते युग की माँग है ...पश्चिम का यह सूरज पूरब की दिशा में आया है तो चलो इस उत्सव का स्वागत पूरी बिरादरी को बुला कर किया जाये, एक अच्छी दावत दूँगी तो यह अच्छी शुरुआत होगी, इस बदलाव का दिल से स्वागत करूँगी- और शरबती की इस सोच के साथ मूलचंद जी के घर में ही नहीं पूरे मोहल्ले में चहल पहल का वातावरण बन गया ! सभी को लगा कि सच में इस बार की मकर सक्रांति उत्साह, बदलाव और प्रेम की सुहानी हवा लेकर आई।
38
वसूली
प्रथम श्रेणी में एम०ए० करने के बाद भी भँवर लाल को जब नौकरी नहीं मिली तो एक टायर फ़ैक्टरी के एकदम बाहर उसने चाय की एक गुमटी लगा ली थी । सुबह आठ बजे वह वहाँ आ जाता था और रात के आठ बजे तक वहाँ रहता था। एक गंदी सी केतली में एक स्टोव  पर उसकी चाय उबलती रहती थी ।फ़ैक्टरी के मज़दूरों की बदौलत उसका धंधा बढिया चल रहा था । कभी कभार नगर पालिका की गाड़ी आती तो उसको गुमटी हटाने की धमकी देकर कुछ वसूली कर चली जाती ।वहाँ ड्यूटी पर बैठे सिपाही को भी निर्देश दें जाती थी कि वो ध्यान रखें कि दुबारा यहाँ नहीं आयें ।सिपाही उन्हें आश्वस्त कर भेज देता शुरू शुरू में तो भँवर लाल को  इस कार्यवाही से बहुत घबराहट होती थी पर अब तो वह आदि हो चुका था। पुलिस वालों की ड्यूटी बदलती रहती थी।सभी गुमटी वाले के पास बैठते ,सुस्ताते और फोकट की चाय पी ,गपशप लगा कर आगे बढ जाते ।दिन में गश्त करने वाले सिपाही उसे अब नगरपालिका वालों की परेशानी से भी बचाने लगे थे।भँवर लाल रोज अपने खर्चे में से सौ रूपये अलग रख देता था। अब धंधा करना है तो यह तो करना ही होगा ।सिपाहियों को रोज़ चाय पिलाने की परंपरा तो उसे निभानी ही पड़ेगी ।यह सोच कर कभी कभी वह बैठे बैठे मुस्कुराने लगता  है 
39.
 ★झील का पानी 
मुरारी रोज़ शहर के दक्षिण में बनी पारस झील के  किनारे की बैंच पर आ बैठता था और मुटठी में कंकडिया भर कर एक एक कर पानी में फेंकनें लगता था । कंकड़ के दबाव से झील में पानी का घेरा  लहरों सा चलने लगता तो उसे भी अतीत में ले जाता। जब वह एक प्राइवेट बियरिंग की कंपनी में डायरेक्टर था अच्छी नौकरी,अच्छी तन्खा , अच्छा ओहदा और वर्किंग वातावरण के कारण समाज में उसकी एक पहचान थी।उसकी सगाई भी तय हो गयी थी तभी अचानक कंपनी का दिवाला निकल गया और मुरारी भी सड़क पर आ गया ।काफ़ी कोशिशों के बाद भी नयी नौकरी नहीं मिली। जो जमा पूँजी थी धीरे धीरे चुकने लगी ।रोज़ सूचना केंद्र में बैठ कर अख़बारों के माध्यम से नौकरियाँ ढूँढता ।कई कार्यालयों में जाकर बायोडेटा जमा कराता पर बात नहींं बैठ पा रही थी।घर में भी शुरू में तो सहानुभूति मिल रही थी फिर बाद में तो  स्थिति उस ग़ुब्बारे जैसी हो गयी थी जो वक़्त की पिन चुभने से फूट गई हो। लड़की वालों ने भी हाथ खींच लिये थे ।सगाई टूट गई थी । मुरारी पर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा था। नौकरी का छूटना घर में एक विस्फोट की तरह था। 
समय का चक्र चलता रहा ।एक दिन माँ से कुछ रूपये उधार लेकर वह कबाड़ी वाले के जा पहुँचा और वहाँ से कुछ एंटीक पीस ख़रीद लाया और एक पाँच सितारा होटल के बाहर जा पहुँचा।और एक टेबल ेबल पर एंटीक के आइटम जमा कर विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने लगा।देखते ही देँखते एक नामी गिरामी  एंटीक सामानों का व्यापारी बन बैठा। कुछ समय बाद एक आफ़िस किराये पर लेकर नेट के ज़रिये अपनी वेब साइट बना कर सीधा  संपर्क ख़रीदारों से साधा ।अब तो विदेश आना जाना लगा रहता है। अब उसके पास आत्मविश्वास के साथ एक बड़ा बंगला, सुंदर पत्नौ नौकर चाकर,प्यारे से दो बच्चे हैं । आज वह कई कारों का मालिक है । 
 मुरारी पर आज भी इस पारस झील  पर आना नहीं भूलता । यहाँ आकर उसे असीम शांति मिलती है ।एक कंकड़ों पानी में फेंकता है और जब नन्हा वृृत पानी में भँवर उठा कर लहरों में मिल जाता है तो वो ईश्वर को शुक्रिया कह फिर अगले दिन की सारणी के अनुसार  काम में जुट जाता है यह सोचते हुअे  कि जीवन भी तो पानी है रूक जाये तो सड़ जाता हैैं ।चलता रहे तो विस्तृत हो गतिमान हो जाता है ।  मुरारी जब कभी यहाँ झील पर नहीं आ पाता है तो जाने क्यों उसका दिल डूबने लगता  है । वह जितनी देर वहाँ बैठा रहता है झील के रूके पानी को गतिमान रखता है ।यहाँ आकर वह अपूर्व दृष्टिवान जो हो गया था। और भविष्य में क्या है यह मुरारी ने यहाँ आकर ही तो स्पष्ट रूप से देख लिया था। 
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★बारिश 
रात के दो बजे थे जब घर की डोरबैल बजी नींद की मीठी ख़ुमारी में डूबी सुमन अलसाई सी अँगड़ाई ले उठी ।दरवाज़ा खोला तो हैरान रह गई। काम वाली प्रभाती थी।
"अरे क्या हुआ प्रभाती ,इतनी रात को कैसे आई ?"
"बीबीजी , भयंकर बारिश हो रही है क्या आज की रात मैं आपके यहाँ सो जाऊँ हमारी झोंपड़ी में पानी भर गया है।  ?" उसने कातर स्वर में कहा
"पर प्रभाती तुझे को मालूम है आज अमेरिका से मेरे मेहमान आये हुअे हैं ।बरसाती में सामान रख कर तो किसी तरह मैंने घर में सबके सोने का इंतज़ाम किया है।तुने ही तो मेरी मदद की थी । घर में कहीं भी सोने की जगह नहीं है।"सुमन ने उदास स्वर में भारी मन से कहा।
"हाँ बीबी जी , वो बात तो आप सही कह रही हो , मेरे बचवा को तेज़ बुखार है ।मुन्नी भी तप री है,चलो मैं किसी और के यहाँ कोशिश करती हूँ ,आप सो जाओ अब बीबीजी ।"। प्रभाती ने क्षमापरक शब्दों में कहा 
"ठीक है प्रभाती ,अपना  ख़्याल  रखना ।" भारी मन से सुमन ने दरवाज़ा बंद किया और पलंग पर लेट गयी ।देर तक नींद नहीं आई । सुमन के घर से आधा फ़र्लांग पर बसी कच्ची बस्ती ज़रा सी बारिश में पानी से भर जाती है ,प्रशासन का जाने क्यों इधर ध्यान  ही नहीं जाता । सुबह सुबह सुमन की नींद लगी तभी दूध वाले की आवाज़ से जाग उठी। तेज  बारिश के स्वर में डूबती सी दूध वाले की आवाज़ में भी थकान थी।तभी सामने के फ़्लैट से मिसेज़ गोखलानी भी दूध का पतीला लेकर आ खड़ी हुई और उसने जो ख़बर सुनाई वो किसी विस्फोट से कम नहीं थी ।
"सुमन बड़ा बुरा हुआ ,अपने पिछवाड़े बनी आलू फ़ैक्टरी के पास वाली काली बस्ती का नाला टूट गया और पानी के तेज़ बहाव में बस्ती बह गयी ,काॅलोनी के चौकीदार ने  बताया कि हमारी कामवाली प्रभाती का भी सारा परिवार पानी की चपेट में आ गया ।यह सुनते ही सुमन के हाथ से दूध से भरी पतीली छूट कर गिर पड़ी और दूध बहता हुआ बरामदे से उतर बारिश के पानी से मिल गया। उसे लगा जैसे दूध का रंग सफ़ेद नहीं बल्कि ख़ून सा लाल है और उसकी ज़िम्मेदार वह है ।सुमन देर तक बुत बनी वहाँ खड़ी रही। उसकी पथराई आँखों में केवल प्रभाती की तस्वीर जड़ हो गई थीं और कानों में प्रभाती के कातर  स्वर गूँज रहा थे -"बीबी जी क्या  आज की रात मै  आपके साथ सो जाऊँ ?"
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 ★सोने की चिड़िया...मेरा देश 
वो जहां तहां सो जाता था अपनी उधड़ी चटाई बिछा कर जब काम पर जाने से कुछ देर पहले मैं उसे जगाती थी तो वो मुस्करा कर मेरी ओर देखता था- "अरे बुद्धा ,
सूरज चढ़ गया है ,अब तो जागो -अब तक सोये हो ? गलत बात हैl", वो मुस्कराया बोला-" न न दीदी, सोया कहाँ था, बस सपना देख रहा था "!
"अरे पगले ,सोयी आँखों का सपना कोई रंग लाता है भला? देखना हो तो जाग कर देखोl"
" वो कैसे दीदी "-,मेरे माली के तेरह साल के बेटे बुद्धा ने उत्सुकता से पूछा तो उसकी आँखों के चाँद भी चमक उठे 

"पहले बताओ तुम अभी बंद आँखों से क्या सपना देख रहे थे?"
 मैं देख रहा था कि मेरा देश एक परिवार की तरह अब साथ रह रहा है और हैरान था देख कर कि देश के सारे घर खुले हैं ,किसी भी घर में ताला नहीं है ,सब प्रेम की भाषा में एक दूसरे से बातकर रहें हैं कोई भी किसी को अपशब्द नहीं क्रह रहा है और मेरा देश अब सोने की चिड़िया कहलाता है सिर्फ शांति के गीत गाता है वो गीत सुन रहा था कि तभी आपने जगा दिया!
"अब आप बताओ न दीदी कि जाग कर भी देख सकता हूँ क्या ऐसा सुंदर ख्वाब  ?"अब मैं निरुतर थी, बस इतना कह कर चल पडी कि -" हाँ बुद्धा अब आँख मूँद कर यह देखना कि इस सपने को पूरा करने के लिए क्या क्या प्रयास करने चाहिए?,शेष फिर बताऊँगी"
और उस दिन से मेरी आँख में भी यह सपना लगातार मंडरा रहा है !
★42
सुबह का भूला 
बहुत सालों से भगवती बिल्डिंग में जंग लगा ताला जड़ा था। बात कुछ  नहीं थी वही जायदाद की लड़ाई। भवानी बाबू  की मृत्यु के बाद से ही इस बिल्डिंग पर ताला जड़ा था। बहनों ने भी साफ़ कह दिया था कि पिता की संपत्ति में हमारा भी पूरा हक़ है । दोनों भाई नहीं चाहते थे कि बहनों को कुछ दिया जाये। बाबूजी  की कोई वसीयत  भी नहीं थी।  सालों बीत गये थे । बिल्डिंग जर्जर अवस्था में थी ।नगरपालिका से कई बार नोटिस मिल चुका था ।  कभी भी बिल्डिंग ढह सकती थी। और एक दिन वही हुआ भरभराती इमारत गिर गई । लेकिन अहम की दिवार ज़रा भी नहीं हिली। 
एक दिन सरकार की नवीन योजना के अनुसार निकाली जाने वाली नयी सड़क का जब नक़्शा तय हुआ तो इमारत का वह ढहा हिस्सा उसमें शामिल हो गया। अब दोनों भाई सरकारी विभाग के चक्कर लगा रहे थे । एक दिन नियत समय पर वह दोनों पिता की बिल्डिंग को देखने पहुँचे तो आमने सामने पड़ गये । रिश्तों में दरार थी पर जाने क्या हुआ कि दोनों एक दूसरे के पास आ खड़े हुअे ।छोटा बड़े के पैर छूने को झुका तो भावुक हो बड़े भाई ने खींच कर सीने से लगा लिया ।एक पल में मन का मैल बह गया। दोनों ने कस कर हाथ पकड़ लिया । ढही इमारत की मिटटी में पड़ा जंग लगा ताला उठाते हुअे बड़े भाई को कहा --"दादा यदि यथासमय यह ताला खोल लिया होता तो कम से कम रिश्तों में तो जंग नहीं लगती ।"
"हाँ छोटे सच कहा है तुमने लेकिन कोई बात नहीं ,देर आये दुरुस्त आये  पर अब पिता की इस भूमि के लिये कोई जंग नहीं होगी । अब सरकार से कैसे निपटा जाये यह सोचना होगा , किसी वक़ील से सलाह लेनी होगी ।"दोनों एक दूसरे का हाथ थामें पिता की ढही बिल्डिंग को देखते रहे यह सोचते हुअे कि सुबह का भूला अगर शाम को घर आ जाये जाये तो भूला नहीं कहलाता।
★43.
बचपना
एक दिन निर्मला को तेज़ बुखार चढ़ आया ।जब बहुत दिनों तक कम नहीं हुआ तो अस्पताल में भर्ती करवा दिया। दिल्ली से हेमंत की बहन को देखभाल के लिये जयपुर बुलाना पड़ा। दो महीनें तक निर्मला का अस्पताल में इलाज चला। ब्रेन फिवर की संभावना के चलते घर पर रखना मुमकिन नहीं था। निर्मला उस समय गर्भवती भी थी।अस्पताल में डाक्टरों -नसों की देख रेख में निर्मला ने दूसरी बेटी को जन्म दिया। जब ठीक होकर घर लौट कर आई तो निर्मला को लगा जैसे उसे दूसरा जन्म मिला है। धीरे धीरे कमज़ोरी से उभरने लगी । हेमंत की बहन को भी अब वापस लौटना था। दो महीने का समय कोई कम नहीं होता। उसकी भी गृहस्थी थी ।आजकल वैसे भी संयुक्त परिवार नहीं रहे।
निर्मला ने धीरे धीरे घर को फिर से संभालना शुरू किया ।लेकिन यह क्या निर्मला ने देखा कि उसकी बड़ी बेटी ,उसकी नन्हीं सी गुड़िया तो एकदम बदल गयी है। बुआ शायद बाल काढ़ना सिखा गयी थी ।गुड़िया ख़ुद ही सलीक़े से दो चोटी बना घूम रही थी। एकदम परी सी दिख रही थी । सभी ने देखा घर भर में बिखरी चीज़ों को क़रीने से रखने का गुण भी उसमें व्याप्त गया था। यही नहीं खाना खानें बैठते तो बड़े सलीक़े से खाती। और तो और नन्ही गुड़िया सभी की  झूठी प्लेटें  भी सिंक में रखती , नल खोल उन्हें धो भी देती   । यह सब देख निर्मला की आँखें भर आई ,वह अतीत में चली गयी उसे याद आया गुड़िया का बचपन जब वह  दिन-ब-दिन नटखट होती जा रही थी।  घर भर की चीज़ों को  बिखेरती रहती। इधर से उधर घूमती रहती । बिना बात रोती , ।निर्मला बाल सँवार रिबन बाँधती तो कुछ ही देर में उसे खोल बाल बिखेर लेती ।खाना खाती तो वहाँ भी टेबल पर उसकी शैतानियाँ व ज़िद क़ायम रहती ।टेबल पर दाल ,चावल ,सब्ज़ी पूरी मैट पर बिखरी रहती। निर्मला चिल्लाती तो हेमंत से लड़ाई हो जाती। 
"क्याें  हर वक़्त उसे टोकती रोकती रहती हो , अभी बिचारी छह साल की तो कुल है ,तुम तो उसे एेसे ट्रीट करती हो जैसे वो कोई टीनेजर है ।यह मत करो , वो मत करो ।" हेमंत निर्मला को अक्सर कहते सुनें जाते। 
"छह साल में बच्चा अच्छा समझदार हो जाता है ,अभी से नहीं समझाऊँगी तो ख़ाक संस्कार पडेंगें ।"निर्मला भी तर्क करती ।
वापस  वर्तमान में लौटी निर्मला तो दिल भर आया और रूँधें गले से हेमंत से कहा-" हेमंत मुझे गुड़िया का वही पुराना रूप चाहिये नटखट वाला , जाने कहाँ खो गया उसका मासूम बचपन? "
हेमंत ने मुस्करा कर कहा-"तुम तो जानती हो निर्मला कि बेटियाँ तो ईश्वर का बेहतरीन तोहफ़ा होती हैं ,चाहे वो छोटी हों या बडी , माँ -बाप के दर्द और ज़िम्मेदारी को सबसे ज़्यादा समझती हैं ।हमारी गुड़िया भी अब बड़ी हो गयी है। दोनों ने स्नेह से देखा निर्मला छोटी बेटी के लिये जो बोतल में दूध बना कर लाई थी वह बोतल माँ से लेकर गुड़िया बड़े प्यार से अपनी छोटी बहन को पिला रही है ।
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★बिन पानी सब सून
एक पाॅश इलाक़े के एक पाँच सितारा होटल में गर्मियाँ आते ही हर शाम चहल -पहल शुरू हो जाती है देश -विदेश से यहाँ गरमियों में टूरिस्ट आते हैं । यहाँ  एक बहुत बड़ा वाटर पार्क भी है ।वहाँ का स्वीमिंग पुल बहुत ख़ूबसूरत है। जिसका टूरिस्ट भरपूर आनंद लेते हैं । यह होटल के पाँचवे माले पर बना हुआ है । इस होटल के एकदम नीचे एक कच्ची बस्ती स्थापित हो गई है।जहाँ मज़दूरों ,बर्तन माँजने वाली बाइयों ,रिकशेवालों की कच्ची झौंपडियाँ भी हैं । यहाँ भी गरमियों में चहल -पहल रहती है।सरकारी नल यहाँ एक नेता जी वोट के चक्कर में लगा गये थे ।बस उसी के इर्द गिर्द लोग । चौपाल जमाये रहते हैं ।मूँज की खाटों पर बुज़ुर्ग पुरूष महिलायें पसरे रहते हैं । यहाँ के बच्चे किसी टूटी फूटी गेंद बैट ,गिल्ली डंडे या कंचोंं से खेल कर शाम बिताते हैं । कच्ची बस्ती की महिलाएँ नन्हे दूधमुंहें बच्चों को झेलें में लटकाये शाम से रात तक मिट्टी के तवे पर मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाने के श्रम में जुटी होती हैं ।होटल वालों ने कई बार  इस कच्ची बस्ती को वहाँ से स्थानान्तरित करने  के लिये सरकार को आवेदन दिये पर कुछ नेता वोट के चक्कर में कच्ची बस्ती के संरक्षक बने हुअे हैं । कच्ची बस्ती का दृश्य स्वीमिंग पूल से साफ़ नज़र आता । है।लेकिन टूरिस्ट अपनें मनोरंजन में इतनें डूबे रहते हैं कि वहाँ एक सरसरा नज़र डाल कर वहाँ पसरी गंदगी को भी नज़रअंदाज़ कर देते हैं ।।नियमनुसार स्वीमिंग पूल के चारों ओर ऊँची दीवार भी नहीं बनाई जा सकती।हाँ कच्ची बस्ती वालों के लिये अवश्य यह होटल वरदान है क्याेंकि स्वीमिंग पुल से गिरने वाली पानी की धाराएँ वहाँ ए० सी० का काम करती हैं और उस दिवार के नीचे बहुत सी  बाल्टियां पीले व बर्तन पड़े रहते हैं। ऊपर स्वीमिंग पुल में कोई छपाक से कूदा तो पानी का एक रेला बहता हुआ सीधा कच्ची बस्ती में पड़े बर्तनों में जा गिरता है और वहाँ के लोग उसे लपक लेते हैं ।रहीम जी ने यूँ ही नहीं कहा था कि बिन पानी सब सून ।
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★रक्षाबंधन
संध्या वो दिन कभी नहीं भूली जब शहर में दो जातियों के झगड़े के कारण कर्फ़्यू लग गया था। उसे याद है शाम का खाना खा कर वह अम्माँ के पास बैठी थी ।भैया दवाई लेने बाज़ार गया था और एक घंटे तक कर्फ़्यू के चकव्यहू में फँसा रहा था। । जब तक वह नहीं लौटा सभी उद्विग्न रहे ।वो आया तो जान में जान आई। अम्माँ ईश्वर के सामने हाथ जोड़ बोली  -"लाड़ों तेरा पगफेरा शुभ है री , देख भैया संकट से निकल आया आज तेरे भाग्य से ।भाभी ने भी भावुक मन से कहा -"सही कहा अम्माँ ,जीजी के आने से ही घर में कितनी रौनक़ हो गईहै ।"
उस दिन अम्माँ को तेज़ बुखार था ।वह ससुराल से उन्हें देखने आई हुई थी ।उसी हफ़्ते राखी का त्यौहार था ।अम्माँ और भाभी के आग्रह पर वह पीहर में रूक गई  थी । अम्माँ हमेशा कहती थीं कि सावन के महीने में जब बेटी पीहर आती  है तो बड़ा शुभ रहता है ।सब त्यौहारों में सिर्फ़ एक पर्व बहुत अर्थ पूर्ण लगता है जो भाई -बहन को बाँध कर रखता है-रक्षा का यह बंधन बहुत पवित्र और मनभावन होता है मन के पोर पोर को तरंगित कर देता है ।
अब तो अम्माँ नहीं रहीं बस उनकी यादें व बातें हैं वो खूब याद आती हैं ।भैया -भाभी भी आजकल अमेरिका में हैं । बस फ़ेस टाइम व फ़ोन पर ही वार त्यौहार की औपचारिकताएँ निभानी होती हैं ।संध्या यथासमय राखी पोस्ट कर देती है ।भाई गिफ़्ट या रूपये भेज रिश्ते व पर्व की परंपरा का निर्वाह करता है। एेसा नहीं है कि अब पर्व या सावन भादों मनभावन नहीं रहे पर उनकी शैली बदल गई है ।पलटते युग की मान्यताओं के अनुसार इंसान को बदलना होता है। 
तभी संध्या फ़्लैश बैंक से वर्तमान में लौटीं ।उसे याद आया कि वो जिस दिशा संस्था से जुड़ी है आज उनका कार्यक्रम है ।पिछले कई  वर्षों से वह इस एन०जी०ओ० की एक सक्रिय सदस्य हैं। वह जल्दी जल्दी तैयार हो अपना बैग ले घर से बाहर निकली ।अपनी कार से रजनी को पिक अप कर सीधी सेंट्रल जेल पहुँची।वहाँ संस्था की अधिकांश सदस्याएं पहले ही रंग बिरंगी लहरियाँ साड़ी लपेटे परिसर में घूम रहीं थीं। 
बड़ा उल्लसित करने वाला नज़ारा था यहाँ ।आज क़ैदियों को सदस्याओं द्वारा राखी बाँध कर उन्हें उत्सव का अहसास करा कर पारिवारिक वातावरण बनाना था ।एक रंग बिरंगी दरी पर एक पंक्ति में धुले उजाले कपड़े पहने सभी उम्र के क़ैदी बैठे थे। लाऊड-स्पीकर पर राखी के गाने धीमे स्वर में वातावरण को और जीवंत कर रहे थे। एक कार्यकर्ता समोसा व लड्डू क़ैदियों को वितरित कर रही थी। यहाँ कोई जाति धर्म का भेदभाव नही था ।बस सद्भावना व आस्था  की नदियाँ बह रहीं थीं । 
संध्या और उसकी साथिनों ने क़ैदियों के माथे पर बारी बारी से तिलक लगाया और हाथ में राखी बाँधी। बडे  प्रेम से हैसियत अनुसार क़ैदियों ने भी अपनी मेहनत की कमाई से सहेजे रूपये उन्हें भेंट में दिये । संध्या की आँखों में तो इस दृश्य को देख कर सावन भादों उमड़ आया । उसने देखा उन क़ैदियों की आँखों में  भी नमी थी। दूर कहीं से रेडियो पर बज रहे गाने के स्वर आ रहे थे -"अबके बरस भेज भैया को बाबुुल सावन में लीजो बुलाय रे ....। " कितने सार्थक शब्द 
थे ।
संध्या को लगा कि मानो यह जेल का परिसर उसका पीहर है और यह क़ैदी जो जाने किस परिस्थितिवश यहाँ ज़िंदगी जीने को विवश हैं सभी उसके सहोदर  हैं । आज अम्माँ की बातें उसे फिर याद आईं । सच ही तो कहती  थीं अम्माँ कि सभी त्यौहारों में यह पर्व रक्षाबंधन बहुत अर्थपूर्ण लगता है क्योंकि यह स्नेह ,आस्था ,विश्वास की अमूल्य डोरी से बँधा होता है। परिवार को एक सूत्र में पिरोता है । 
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★नुमाइश
आम्रपाली कोठी में आज चहल पहल थी । श्यामलालजी हाथ में सिगार पकड़े इधर उधर इंतज़ार करते घूम रहे थें। बड़ी कोठी वाली बुआ भी आ गयी थीं जो राजरानी की माँ के साथ रसोईघर में खीर मालपुअे बनाने में जुटी थी।महाराजिन सिलबट्टे पर पोदीने की चटनी अनारदाना डाल डाल कर पीस रही थी । लड़का  प्रशासनिक सर्विस में बड़ा अफ़सर था।पिता रिटायर कलेक्टर थे।माँ एक स्कूल की प्राचार्या थी। अभी पिछले महीने ही रिटायर हुई थी।राजरानी के मन में भी संशय था ।उसका सांवलापन क्या इस बार भी घर में सभी का दिल बुझा देगा। लेकिन वह एक आज्ञाकारिणी बेटी की तरह फिर ़देखने दिखाने की नुमाइश के लिये तैयार हो गयी थी पर उसकी मन:स्थिति एेसे प्राणी की सी थी जोकि अपनी नौका में धीरे धीरे पानी को आता देखता है  और चुपचाप बैठा रहता है, यह सोच कर कि डूबना तय है।आखिरकार वह घड़ी आगयी जब राजरानी हाथ में चाय की ट्रे लेकर बैठक में पहुँची। सभी की निगाहें उस पर आ टिकी थी। लड़के की माँ ने सोफ़े  दाहिनी ओर खिसका कर राजरानी के लिये जगह कर दी। राजरानी यंत्रवत ट्रे टेबल पर रख कर उनके पास बैठ गई। सवालों की औपचारिकताएँ शुरू हुईं।वह सवालों का जवाब देती रही।राजरानी की साँस उस वक़्त गलें में फँस गयी थी।उसे बडी बेकली हो रही थी। उसने डरी हुई दृष्टि से से चारों तरफ़ देखा।उसे देखने आया लड़का अजय उसे एकटक देख रहा था। बीच बीच में अचानक  सब चुप हो जाते थे तो कमरे में सन्नाटा पसर जाता था।उस सन्नाटे में बग़ीचे के ना जाने किस कोने से झींगुर का स्वर तेज़ हो जाता था। परीक्षा की घड़ी ख़त्म हुई। एक ख़ुशनुमा माहौल में बातचीत भी ख़त्म हुई।राजरानी पराजिता सी उदास अपने कमरे में आकर लेट गयी।खिड़की से आ रही चाँदनी उसके साँवले चेहरे पर जगमगा रही थी।
सुबह जब राजरानी सो कर उठी तो माँ को बहुत उद्विग्न पाया। शाम को वो उत्साह और उल्लास घर  से फुर्र  चुका हो चुका था। सब एक दूसरे से कतराते घूम रहे थे।लड़के वालों ने कहा था कि सुबह नौ बजे तक आपको हाँ या ना का जवाब मिल जायेगा।अभी बारह बज रहे थे।श्यामलाल जी के चेहरे की आकुलता राजरानी साफ़ देख पा रही थी। राजरानी को बहुत ग्लानि हुई।उस पर एेसी जड़ता व्याप्त हो गई थी कि वह किसी से बात भी नहीं कर पा रही रही थी।डाइनिंग टेबल पर बैठे भैया इतवार को अख़बार  में निकले मैट्रीमोनियल के काॅलम में पैंसिल से गोले लगा रहे थे।राजरानी की  दृष्टि उनकी आँखों से टकराई तो वह मुस्करा दिये। भाभी पास बैठी थी । वह मौन थी लेकिन उनकी निगाहें भी अख़बार के काॅलम पर थी।राजरानी ने एक लंबी सी साँस ली ।वह एकटक  भैया को निरूद्देश्य देखती रही यह सोचते हुअे कि अब उसकी अगली नुमाइश कब होगी ।मन ही मन एक मध्यवर्गीय परिवार की लड़की की ब्याह की चिंता की त्रासदी सोच भीतर ही भीतर मुस्करा दी पर बाहर से उसके चेहरे पर जो भाव दौड़ रहे थे वो कुछ और क़ह रहे थे।  तभी फ़ोन की घंटी बजी ।श्यामलालजी  ने  फ़ोन का चोगा उठाया। एक लंबी साँस लेकर बस इतना ही बोल पाये -"आपका बहुत बहुत धन्यवाद शुक्ला जी ,हम जवाब का ही इंतज़ार कर रहे थे।। फ़ोन रख कर वह कुछ देर अनमने से वहीं रखी कुर्सी पर बैठ गये।उनके चेहरे  पर विस्मय दौड़ रहा था -" क्या हुआ बाबूजी ?"भैया भाभी उनके इर्द गिर्द  सिमट आये।माँ भी पास सरक आयी।राजरानी ने एक अपराधी की तरह मुँह नीचा करके आँखें बंद कर ली।पिताजी के स्वर पानी के बुदबुद करते बुलबुले से कंपकंपाते हुअे फूटे-",राजू की माँ लड़के वालों ने हाँ कर दी है।"
"क्या ..."माँ लगभग चीख़ते हुअ बोली।राजरानी भी स्तब्ध रह गयी। साथ ही उसे विस्मय हुआ कि यह सब कैसे हुआ। अनझिप दृष्टि से माँ को देखती वो सोच रही थी कि कहीं यह सपना तो नही।
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★संस्कार अपना अपना 
नदी की धारा ने  पेड़ से कहा कि "तू मेरे रास्ते  में मत आ तुझे उखाड़ दूँगी और आगे बढ़ जाऊँगी!"
पेड़ बोला ."मैं अपनी माटी  नहीं छोड़ पाऊँगा, मेरी  नियति में यदि उखड़ना लिखा है तो ठीक है l "काल प्रवाहिनी की धारा बढ़ चली व् वृहद् भूखंड की और पेड़ को भी बहा ले गयी और पटक दिया एक छोर!सदियों बाद वही धारा रुक गयी थीl रेत बन कर सलिल  को अनुपयोगी बना रही थी और पेड़ भूखंड पर उसी रेत से छनकर पड़ा था ,नए व्यक्तित्व का आकार पाकर, पर कोयले से हीरा बना था 
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★इंतज़ार
सर्दी बढ़ती जा रही थी ।हवा में कंपकंपाने वाली खुनक थी।एक एक करके शांता ने सारी खिड़कियाँ बंद कर दी तो एक उनींदा मौन कमरे में पसर गया।वह शिव का इंतज़ार कर रही थी।नींद उससे कोसों दूर थी।वह सोफ़े पर अधलेटी हो किताब पढ़ने लगी।झटके से दरवाज़ा खुला तो वह सीधी बैठ गई। दोनों पति पत्नी के पास दरवाज़े के ताले की अपनी अपनी चाबियाँ हैं ।एक दूसरे का इंतज़ार ज़रूर रहता है पर एक दूसरे के जीवन में दख़लअंदाज़ी नहीं करते । शिव शांता को देख कर मुस्कराये -"तुम सोयी नहीं अभी ? यार , बड़ी सर्दी है ,नहीं? शिव दोनों हाथ रगड़ते हुअे बोले।
"हाँ , खाना लगाऊँ ?"रात के बारह बजे थे पर फिर भी शांता ने औपचारिकता वश पूछा।
"नहीं शांता ,आज एक ज़रूरी मीटिंग थी ना ,वहीं डिनर भी था , सो वहीं खा लिया। सीधे आफिस से ही आ रहा हूँ 
यार ,बहत थक गया हूँ ।हाथ मुंह धोकर सोता हूँ ।कह कर शिव बाथरूम में घुस गया। 
"सोने से  से पहले याद से बी.पी. की दवाई ले लेना शिव  " शांता ने भेद भरे शब्द साध कर कहा ।
" श्याेर ।" बाथरूम में से गूँजती हुई आवाज़ आई। उसके बाद उनींदी सी चुप्पी छा गई।
शांता भी एक जुम्हाई ले उठ गई ,बिना शिव को यह शिकायत किये कि वो सात बजे जब दफ़्तर से लौट रही थी और लाल बती पर जब उसकी कार रूकी थी तो उसने शिव और उसकी सहेली भावना को लाल बती के दायीं ओर बने माॅल में हाथ में हाथ पकड़े घुसते देखा था।
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★दायित्व 
"बेटा , तुम अब समझदार हो गये हो। मेरा बिज़नेस अब तुम्हें संभाल लेना चाहिये ।मैं थक जाता हूँ बहुत । " पिता ने अपने बेटे श्रीधर को को आग्रह के स्वर में कहा तो वह मुस्करा दिया।
"बाबा की बात क्यों नहीं मान लेता है बेटा ?"माँ ने भी पिता की बात से सहमत होते हुअे वोही बात दोहराई।
"हाँ माँ मैं सोचता हूँ ।"कह कर वह बैठक से उठ रसोईघर में आ गया।वहाँ पत्नी चाय बना रही थी।वह सारा संवाद सुन रही थी ।उसने भी वही दोहराया -"सुनो जी बाबा कब से तुम्हें कह रहे हैं क्यों नहीं बात मान लेते।तुम्हें  सरकारी नौकरी में मिलता ही क्या है? आगे पीछे तो तुम्हें ही बाबा का काम संभालना है ।
"मैं जानता हूँ आशा पर देखो ना बाबा की दिनचर्या कितनी नियमित है,उनकी वजह से माँ भी सक्रिय रहती है,अस्सी साल के होने के बावजूद भी वह तत्परता से काम कर रहै हैं ।मैं उन्हें एेसे ही देखना चाहता हूँ भले ही वो मुझे निठल्ला समझ रहें हों ,उन्हें ज़रूर मेरा व्यवहार दुख पहुँचाता होगा।तभी श्रीधर और आशा ने देखा बाबा तेज़ी से चलते हुअे रसोईघर की तरफ़ आ रहे हैं । पीछे पीछे माँ भी लगभग भागती हुई सी आई।स्नेह से बहू को बोली-"बिटिया हट तो ज़रा तेरे बाबा के नाश्ता लगा दूँ ,इन्हें देर हो जायेगी।
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★घरौंदा 
गांधी पार्क अब निरंजन बाबू की मनपसंद जगह बन गया था। यहाँ की चहल-पहल में उनका मन लगा रहता था ।रोज़ मिलने वाले परिचित चेहरे व उनके विविध स्वर उन्हें अच्छे लगते थे । वहाँ के रंग बिरंगें मौसमीं फूल , पेड़ों पर चहकती चिड़ियाएँ उनकी तन्हाई की एकमात्र साथी थी। रिटायर्ड हुअे उन्हें अभी दो दिन ही हुअे थे। उनके आफ़िस के एक साथी  नंें उन्हें सुझाव दिया था कि तुम्हारे दो बेटे हैं पर उनकी अपनी ही दुनिया है ।याद रखना उन्हें पूरी प्राइवेसी देना ,रोज़मर्रा के काम में दख़लअंदाज़ी मत करना ।ख़ाली समय में लाइब्रेरी चले जाना ।सुबह शाम सैर पर निकल जाना  ।शनिवार -इतवार को मंदिर में भजन कीर्तन में मन रमाना । घर में कम रहोगे तभी घर में आपकी उपस्थिति उन्हें सुहायेंगीं ।निरंजन बाबू यह कलयुग है ,तुम्हारी पत्नी गुज़र गई है , वो होती तो अलग बात होती। दोनों साथ रह कर बतियाते , समय  अच्छा गुज़रता । यह बात निरंजन बाबू के मन में गहरे उतर गई थी। उन्होनें पहले दिन से ही अपनी दिनचर्या की सारणी बना ली थी । सुबह चाय का एक प्याला पी कर घूमनें निकल जाते थे।दस बजे तक पार्क में ही बैठते। मन तो होता था कि चाय ,नाश्ता ,खाना सब परिवार के साथ ही करें पर परिवार में अपने अस्तित्व खोने के डर से उन्होनें भारी मन से दोस्त के सुझावनुसार कार्य सारिणी बना ली थी।
आज उन्हें पार्क में आते हुअे लगभग एक माह हो गया था।पार्क में चहल पहल दस बजे तक कम हो जाती है। उन्होनें पार्क का एक चक्कर लगाया । वहाँ स्थापित मंदिर में पूजा कर वह घर की तरफ़ चल दिये।उन्हें भूख भी लग आई थी । घर पहुँचे तो उन्होनें देखा सभी परिवार वाले डाइनिंग टेबल पर बैठे थे।उन्हें हैरानी हुई ।रोज़ तो भागदौड़ लगी रहती है। उन्हें देख सब उठ खड़े हुअे
"अरे आज तुम लोग गये नहीं ? " निरंजन बाबू ने आश्चर्य से पूछा
"आप से कुछ ज़रूरी बात करनी है ।" बड़ी बहू ने स्नेह भरे शब्दों में उन्हें कहा पर जाने क्यों फिर भी वो सहम गये ।उन्हें लगा कि अब उन्हें कहा जायेगा कि आपके कारण हम सब को परेशानी हो रही है ।कुछ एेसा ही संवाद होने वाला है ।तभी छोटी बहू ने कहा -"हम सभी चाहते हैं बाबूजी कि सुबह हम सब एक साथ नाश्ता करें । दोपहर में तो ख़ैर सभी को आफ़िस जाना होता है पर रात को एक साथ खाना खायें और घर में आप हमारे इर्द गिर्द रहें । आपकी उपस्थिति का आनंद लेना चाहते हैं ।आपकी सेवा करना चाहते हैं ।छः छोटी बहू ने उनके आगे हाथ जोड़ दिये। 
"मैं भी यही चाहता हूँ ।" निरंजन बाबू मन ही मन बुदबुदाये पर कुछ बोले नहीं ।   
" क्या कहते हैं बाबूजी ?" बड़े बेटे ने पूछा 
"आपको आनंद आयेगा बाबूजी ।इतनें वर्षों की भागमभाग के बाद आपको  रिलेक्स जीवन मिलेगा।हमें लगता है हमें समय देने के लिये आपने अपने लिये एकांत ,खामोशी व अकेलापन  ओढ़ लिया है।"छोटे बेटे ने उनके दोनों हाथ अपने हाथों में थाम आंखों से लगा लिये । बड़ी बहू ने संजीदगी  से कहा -"बाबूजी प्लीज़ ,हाँ कह दीजिये। वह मुस्करा दिये ।उनकी मूक सहमति मिलते ही रसोईघर से बहुएँ चाय के साथ गरम गरम जलेबी और पकौड़ियाँ ले आईं ।निरंजन बाबू को बड़े बेटे ने आदर से हाॅट सीट पर बिठाया।उन्होनें सामने देखा तो खिड़की से गुलमोहर के पेड़ों की फुनगियाँ  दिखाई दें रहीं थीं ।शाखों के बीच एक घरौंदा था जहां से नवजात गौरैया के बच्चे चूँ चूँ कर रहे थे , चिडा और  चिड़िया उनके इर्द गिर्द उन्हें सुरक्षा दें रहे थे। निरंजन बाबू के मन पर बड़ा गहरा  मालिन्य एकाएक कच्चे रंग की तरह घुल गया था। और अब वह अपने आप को बड़ा हल्का महसूस कर रहे थे। 
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★अपशगुनी 
ईश्ववरी बाई को जमादारनी मैना की बेटी धनिया फूटी आँखों नहीं सुहाती थी। जब मैना बीमार हो जाती थी तो 
आंगन बुहारने  धनिया आती थी। एेसे में ईश्ववरी बाई का पारा सातवें आसमान पर चढ़ जाता था ,वह उसको मनहूस समझती थी क्योंकि ईश्ववरी बाई जानती थी कि जब धनिया पैदा होने वाली थी मैना का पति गुज़र गया था। मैना उसके यहाँ लगभग बारह साल से आ रही थी । यह मालूम पड़ते ही कि मैना के पति का देहांत हो गया है उसने मैना के होने वाले बच्चे को अपशगुनी मान लिया था। अब तो धनिया दस साल की हो गयी है पर ईश्ववरी बाईकी नफ़रतों कम नहीं हो पायी थी। ईश्ववरी बाई  को जब कभी वो सुबह सुबह काॅलोनी में दिख जाती है तो उसे लगता है कि आज का दिन सही नहीं गुजरेगा। 
एक दिन ईश्ववरी  बाई का सीढ़ी पर पैर फिसल गया था तो इसका दोष भी उन्होनें धनिया पर मढ़ दिया था यह कह कर -"मुई  सुबह सुबह दिख गई तभी तो मैं गिर गई। एक मिनट पेट में तेज़ दर्द उठा । ईश्ववरी बाई तब था भी पूरे दिन उसे कोसती रही -"आज अपशगुनी जो  सुबह सवेरे मंदिर से लौटते समय दिख गई थी , देखो उसकी ऐसी नज़र लगी कि पेट में मरोड़े उठने लगे । धनिया पर एेसे कई आरोप काहे बगाहे लगा देती । कभी वार त्यौहार आता तो पहले ही मैना को चेतावनी दें देती -"देख री मैना , मुझे तेरी बेटी पसंद नहीं , तू ही आइये प्रसाद लेने , उसे नहीं कहियो ।"
मैना बिचारी इस अपमान के घूँट को पी जाती क्योंकि इस घर से उसे अच्छा खाना पीना और आर्थिक सहयोग भी मिलता रहता था। 
एक दिन ईश्ववरी बाई का परिवार किसी रिश्तेदार की शादी में शहर से बाहर गया हुआ था। ईश्ववरी बाई नवरात्रा के कारण माता को पीठ नहीं दिखाती थी (घर नहीं छोड़ती थी) सो वो घर में ही रूक गई। शादी रामनवमी की थी । सुबह सुबह वो सूर्य अर्क देने आँगन में गई तो उपवास के कारण तेज़ चक्कर आया वह गश खा कर वहीं गिर गई ।जाने कितनी देर वह वहीं बेहोश पड़ी रहती अगर धनिया वहाँ आंगन बुहारने नहीं आती।उन्हें गिरा देखकर तुरंत पड़ोस के भागी और डाॅ श्रीकांत जो ईश्ववरी बाई के पड़ौसी थे ।उसने उन्हें ख़बर दी । वह तुरंत पहुँचें औऔर एंबूलेंस बुला कर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया । ईश्ववरी बाई का ब्लड प्रेशर बहुत हाई हो गया था और शुगर लेवल भी बढ़ गया था। जरा  भी देर हो जाती तो ईश्ववरी बाई का बचना मुश्किल था। उनका का परिवार भी शादी छोड़ कर तुरंत लौट आया था  श्रीकांत ने जब यह बात परिवार को बताई तो सभी ने धनिया के प्रति कृतज्ञता प्रकट की । ईश्ववरी बाई जब ठीक होकर घर लौटी तो धनिया गेट पर झाड़ू लगाती मिल गई थी। 
ईश्ववरी बाई को देखते ही वह वहाँ से तुरंत हटना चाहती थी पर तभी एक मीठी सी आवाज़ हवा में लहराई -"अरी ओ अपशगुनी कहाँ छिप रही है पगली ,इधर आ बिटिया,मुझे माफी दें दें मेरे अंधविश्वास ने तुझे बहुत दुख दिया री । तू तो आज से देवी माँ का कन्या रूप है मेरे लिये,आ बेटी अपना नेक ले जा।"सौ का नोट प्रसाद से निकाल उसने जब धनिया के हाथों में दिया तो पास खड़ी उसकी माँ की आँखें भीग आई और  धनिया भी भाव विह्मल होकर एकटक उस सौ के नोट को कुछ देर तक देखती रही । फिर माँ को नोट थमा कर अपने काम में जुट गयी। 
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★ऊँटगाडी
सटाक् सटाक् ! हाथ में पकड़े चमड़े के कोड़े से ऊँट की पीठ पर मारते हुअे भूराराम हुर्रे हुर्रे ,  चढ़ रे चढ़ की हाँक  लगाता हुआ स्वतंत्र नगर की पुलिया पर ऊंटगाडी चढ़ा रहा था ।ऊँट बिचारा अपना पूरा दम लगाते हुअे गाड़ी खींचने की मशक़्क़त में बेहाल हो गया था ।ज़रा भी रूकता तो सटाक ् से कोड़े का असहनीय दर्द होता ,चढ़ता तो गिरने गिरने जैसा हो जाता। चढ़ाई एकदम सपाट सीधी थी ऊपर से भूराराम अपने पूरे वज़न के साथ उस पर बैठा था। ऊंटगाडी ऊपर तक अनाज के बोरों से से लदी थी। ठीक उस गाड़ी के पीछे स्कूल का टेम्पो आ रहा था ।उसमें सफ़ेद पैंट  क़मीज़ पहने और हाथों में तिरंगे की झंडियाँ पकड़े पंद्रह बीस बच्चे बैठे थे जो जोश में गा रहे थे -"आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झाँकी हिंदुस्तान की ,इस मिट्टी से तिलक करो यह धरती है बलिदान की -वंदे मातरम !"यह सभी बच्चे राष्ट्रीय दिवस के झंडाआरोहण के उत्सव में शामिल होने जा रहे थे ।इस दृश्य को देख कर भाव विह्मल हो गये। उनमें से एक बच्चा चिल्लाया -ओ ज़ालिम गाडीवान उतर नीचे ।जान लेगा क्या बिचारे ऊँट की ?"
सभी बच्चे गाना बंद कर यह नज़ारा देख रहे थे। उसी क्षण बच्चों ने विमर्श और आग्रह कर ड्राईवर से टैंपो रूकवाया और एक एक करके कूद कर टैंपों से नीचे उतर गये । एक स्वर में सभी ने पीछे से ऊंटगाडी को दम लगा कर होईशा कहते हुअे धक्का देना शुरू कर दिया । इस सामूहिक प्रयास से ऊंटगाडी पुलिया पार कर गई ा सभी बच्चों ने संवाद करते हुअे यह तय किया कि कुछ भी हो जाये आज से संकल्प लेते हैें कि तकनीकी के इस युग में जानवरों पर होने वाले इस अत्याचार से उन्हें मुक्ति दिलाने की पहल करेंगें।
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★बहुरूपिया 
"नाम क्या है तेरा ? " मंदिर  में खड़ी उस छोटी सी लड़की से मीरा ने  पूछा, उसे वो अक्सर अपनी माँ के साथ यहाँ भीख माँगते देखती रही है।
"जी भूरी ।" उसने हाथ में एलमूनियम का चपटा  सा कटोरा पकड़ रखा था ।उसमें कुछ सिक्के और मीठी बूंदी का प्रसाद था ।उसने पैबंद लगा फूलों के प्रिंट वाला मैला सा बैंगनी सलवार कुर्ता डाल रखा था ।
"कामकाज क्यों नहीं करतीं भीख माँगती हो अच्छा लगता है ?" मीरा ने खीझ भरे स्वर में कहा तो उसकी माँ की त्यौरियाँ चढ़ गई -"बीबी भाषण नहीं छाड ,पैसे - प्रसाद देना हो तो दे दो ।अभी दूसरे मंदिर जाना है। बच्चे भूखे हैं ।"
"काम मिलता नहीं बीबी।" कह कर लड़की ने भी बेशरम हो कटोरा मीरा के आगे कर दिया । ना चाह कर भी उसने पाँच का सिक्का उसके कटोरे में डाल दिया । फिर घर आ गई । नाश्ता कर कार उठा कर दो घंटे बाद अस्पताल चल दी ,जहाँ उसे एक संस्था की तरफ़ से किसी प्रोजेक्ट के लिये पहुँचना था। मीरा  कार पार्किंग में पहुँची तो हैरान रह गई ।वही मंदिर वाली लड़की एक मैले कुचले बच्चे को गोद में उठाये खड़ी थी ।उसकी माँ भी हाथ में एक पर्ची पकड़े मीरा की कार के  पास में पार्क कार वाले के सामने गिड़गिड़ा रही थी -"बाबूजी कुछ दे दो यह ,दवाइयाँ लेनी है । बच्चा होने वाला है मुझे नौंवा महीना चल रहा है। दुधमुँहा बच्चा व बच्ची भी भूखे  हैं ।" 
कार वाले को दया आयी होगी मीरा ने देखा पचास का नोट उसके कटोरे में डाल कर वह चला गया था । वह हैरान थी यह  देख कर कि उस औरत ने गर्भवती औरत का स्वाँग रचा हुआ था ।जो पेट सुबह पिचका हुआ था , वो अब नौ माह के बच्चे के गोल पिंड में फूला हुआ था । जैसे ही मीरा से  से उसकी नज़रें मिली । वह मुस्करा दी ।मन तो हुअा मीरा का कि वो कह दे ...बहुरूपिया , पर जाने क्यों कुछ बोल नहीं पाई। उसकी बेबसी मीरा को उसकी आँखों में दिख रही थी। उस औरत नें भी मीरा को इशारा किया जिसका अर्थ वह इतना ही निकाल पाई कि पापी पेट का सवाल है । बिना पीछे देखें मीरा तेज़ क़दमों से चलती हुई कैंसर वार्ड का ओर बढ़ गई । 
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★सादगी 
मोना रोज़ उस नवयुवक को अपने घर  के पास वाले स्टाॅप पर देखती थी।दोनों सात नंबर की बस पकड़ते थे।वह विधान सभा के मोड़ पर उतर जाती थी, नवयुवक कहाँ तक जाता है उसे मालूम नहीं था।वह बस स्टाॅप पर खड़ा खड़ा ही किताब पढ़ता रहता था । कई बार मोना ने महसूस किया कि वह वहाँ खड़ी किसी नवयुवती की तरफ आँख उठा कर भी नहीं देखता था। एक बार उसको परखने के लिये मोना ने उससे समय पूछा तो उसने बिना उसकी तरफ़ देखें जवाब दे दिया था -"मैडम दस बज कर पांच मिनट हुअे हैं ।"
आज मोना दफ़्तर के किसी काम से जब सहकार भवन के आफ़िस में पहुँची तो रिसेप्शन पर बैठी लड़की ने उसे डायरेक्टर के कमरे में जाने को कहा । एक चिट थमा कर मोना ने अपना नाम अंदर भिजवा दिया ।कुछ ही देर बाद उसे अंदर बुला लिया गया ,  अंदर पहले से ही मीटिंग चल रही थी ।
-"क्या मैं अंदर आ सकती हूँ ?" मोना ने गेट के पास खड़े होकर शिष्टाचारवश  अनुमति माँगीं तो एक जानी पहचानी आवाज़ ने उसे चौंका दिया-"यैस कम इन प्लीज़ ।"मोना ने झटके से आँख उठा कर कर देखा तो हैरान रह गयी यह देख कर कि जो नवयुवक उसे बस स्टाॅप पर दिखता था वही नवयुवक डायरेक्टर की कुर्सी पर उसके सामने बैठा
था ।
-"यस प्लीज़ , बतायें मैडम मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ ?" नवयुवक ने जब उससे पूछा तब  भी मोना की हिम्मत नहीं हुई कि उस नवयुवक को याद दिलाये कि वह उसी बस स्टाॅप से रोज़ चढ़ती हैं जहाँ से वह चढ़ता हैं । बिना आँखें झुकाये मोना उस युवक के चेहरे की भाव भंगिमा की सादगी को असमंजस से देखती रही।  
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★श्राद्ध दिवस 
आफ़िस जाने से पहले हनुमान ढाबे पर कार रोक कर मटर पनीर की सब्ज़ी , खीर ,रूमाली रोटी, रायता  ,दाल का हलवा लेकर राजेशवरी ने फल वाले से कुछ केले ख़रीदें और गणेश डूँगरी मंदिर की तरफ़ चल दीं।श्राद्धों के दिन शुरू होते ही उनका दिल उदासी से भर उठता है। पूर्वजों का यह दिन उनहें हमेशा याद रहता है। वह अपने माँ बाबा की इकलौती लड़की थी  इसलिये वह उनका श्राद्ध  बहुत मन से संपन्न करती थी।शुरू में तो वह घर में ही पंडित पंडिताइनों को बुला कर जिमाती थी ।लेकिन धीरे धीरे उनके नाज नखरे बढ़ते गये ।वह स्पष्ट कहने लगे --" बहन जी , आजकल हमें तो यह खाना पचता नहीं है आप खाने की जगह हमें रोकडा भेंट कर दें ,पूजा की औपचारिकताएँ हम विधि विधान से कर देंगें फिर अपनी रूचि अनुसार फल या मिठाई लेंगें ।राजेशवरी जी को यह बात चुभ गई । तब से श्राद्ध पर उन्होनें पंडितों को आमंत्रित करना छोड़ कर राजेशवरी ने यह सिलसिला शुरू कर दिया ।खाना बाज़ार से बनवा कर मंदिर के बाहर बैठे ग़रीबों को खिला कर वह अपने माँ बाबा का यह विशेष दिन मनाती थीं। आज भी वह मंदिर में आईं तो बहुत से भिखारियों नंें उनकी कार को रोक लिया।सभी को पेपर प्लेट में सभ को परोस कर फिर उन्होनें अपने माँ बाबा के नाम की प्लेट बना कर एक बुज़ुर्ग दंपति को प्रेम से परोसा ।वह खा चुके तो उन्हें दक्षिणा स्वरूप कुछ रूपये भेंट करने लगी तो उन्होंने हाथ जोड़ कर मना कर दिया यह कह कर-"ना -ना बिटिया रूपये देकर हमें छोटा ना करो ,इतने प्यार से तुमने हमें खाना खिलाया है हमनें बहुत तृप्त होकर खाया है । " कह कर स्नेह से बुज़ुर्ग दंपति ने राजेशवरी के सिर पर आशीर्वाद का हाथ रख दिया-"बेटी तुम्हारे जैसी बेटी भगवान सबको दे। हमेशा ख़ुश रहो ।"
उनकी आँखों की सच्चाई और सादगी देख कर राजेशवरी भावुक हो उठीं  ।एक पल को तो उन्हें लगा कि उनके माँ बाबा की रूह उन बुज़ुर्ग दंपति के शरीर में उतर आई हो । राजेशवरी ने झुक कर उनके पैर छुअे और बड़ी मुश्किल बसे अपनी रूलाई रोक कर तेज़ क़दमों से चलती हुई अपनी कार की तरफ़ बढ़ गई। 
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★फ़रेब 
नगरपालिका के एक दफ़्तर का यह दृश्य है ।यहाँ रंग -बिरंगी पोशाकों में झाडूवालियाँ ,विभिन्न काँॅलोनी में तैनात इंस्पेक्टर ,जमादार-जमादारनियाँ वहाँ मौजूद थे कि चीफ़ इंस्पेक्टर आये और उन्हें अपनें अपने वार्ड के बारे में जानकारी दे। आज विशेष मीटिंग रखी थी ।कुछ फेरबदल करना था । इसकी सूचना सभी को । मिल गई थी इसलिये यहाँ मेला सा लगा था।खोमचे वाले और चाय की थोड़ी वाले भी वहाँ आ जमे थे।तभी एक नगरपालिका  की जीप वहाँ आकर रुकी ।चीफ़ सेन्ेटरी इंस्पेक्टर ने सभी को शांत रहने को कहा और बोले -"हमारे नये सीईओ साहिब ने आज ज्वाइन कर लिया है ।भाईयों और बहनों कुछ नये नियम उन्होनें बनाये हैं कि सुबह आठ बजे तक सभी अपने वार्ड में पहुँच जायेंगें और लगन से काम करेंगें,कहीं भी कचरा सड़क पर उडता दिखा तो उसकी ज़िम्मेदारी वहाँ के इंस्पेक्टर की होगी । मैं भी मेन चौकी पर मौजूद रहूँगा अगर कोई समस्या होगी तो तुरंत पहुंच जाऊँगा।आफ़िस  टाइम में चाय सिगरेट और व्यक्तिगत कार्यों पर पाबंदी रहेगी।हर वार्ड में सी.सी. टी०वी०कैमरे से निगरानी रखी जायेगी। यह नियम आज से ही प्रभावी होगा। सभी ने उनका संबोधन व निर्देश ध्यान से सुना कि सभी कर्मचारी अपने अपने वार्ड में तुरंत प्रस्थान करें । अस्थाई मेला ख़त्म हुआ ।चीफ़ सेन्ेटरी इंस्पेक्टर ने गाड़ी में सिगरेट सुलगाईऔर ड्राइवर सेबोले -"भूराराम अस्पताल चलना है ,मेरे एक रिश्तेदार वहाँ भर्ती हैं ,उन्हें देख आऊँ जरा।"
गाड़ी अस्पताल की तरफ़ चल दी वे यह भी भूल गये किउनहें मेन चौकी पर उपस्थित रहना ज़रूरी है।।सभी वार्डों के इंस्पेक्टर जमादार-जमादारनियाों को अपने अपने गंतव्य पर पहुंचने का । आदेश देकर वहाँ से सीधे चाय की थडी वाले के इर्द गिर्द जमा हो गये और वहाँ राजनीति पर बहस छिड़ गयी ।अपनी अपनी बीड़ी सुलगा कर जमादार वहीं पास बनी चौकी परबैठ कर नये सी०ई०ओ० के बारे में जानकारी लेते रहे। जमादारनियाों वहाँ से निकल कर कुछ दूरी पर बने एक सरकारी पार्क में जम गईऔर मंहगाई और गपशप की बहस में । उलझ गयीं ।जब तक उनकी चौपाल छुपाए ख़त्म हुई लंच टाइम हो गया था। सी०सी०टी०वी कैमरे आँगन थे पर निगरानी करने वाले अपने अपने कामों में इतने उलझ गये थे कि किसी ने यह । भीनहीं देखा कि आज तेज़ हवा चल रही थी और सभी काॅलोनी में प्लास्टिक की थैलियाँ ,काग़ज़ ,पेपर प्लेटस और चाय के प्लास्टिक ग्लास पतंगों की तरह उड़ । सड़क पर उड़ते हुअे लोगों के घरों तक पहुँच गये थे।
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डिस्चार्ज टिकट 
पिता राज कोहली लगातार शून्य आँखों से अपने बेटे नीरव को देख रहे थे ।दवाई देकर नीरव पिता के पायताने बैठ गये थे । उसने उन्हें देख कर मुस्कुराने की कोशिश की तो भी वह मौन से उसे देखते रहे। कोमा टूटने के बाद लकवाग्रस्त शरीर के साथ उनके पिता के चेतन -अचेतन मन में क्या चल रहा है अब कोई नहीं जान सकेगा ,सोच कर नीरव की आँखें भर आईं । सुबह कुछ देर के लिये राज कोहली के चेहरे पर कुछ हलचल ज़रूर हुई थी ,अस्पष्ट आवाज़ में हकलाते हुअे उन्होंने पूछा था-"मैं कोन हूँ ? " तीर की तरह छह महीने बाद उनके मुँह से जब यह वाक्य निकले थे तो डाक्टर वहीं खड़े थे।उनके हाथ में डिस्चार्ज टिकट था ।उन्होनें तुरंत नीरव के पिता राज कोहली की नब्ज़ टटोली ,रक्तचाप लिया, फिर डिस्चार्ज टिकट नीरव के हाथ में थमाते हुअे हुअे बोले-" ईश्वर पर भरोसा रखना ,यह सब कुछ भूल गये हैं पर अपनी मातृभाषा नहीं भूले वरणा हमारे पास तो कुछ एेसे भी केस आये हैं जिसमें कुछ पेशंट कोई दूसरी ही भाषा बोलने लगते हैं।इनका अवचेतन मन अभी भी सक्रिय है ।हमनें अपनी तरफ़ से कोशिश करके देख लिया है पर अब कोई भी दवाइयाँ असर नहीं कर रही हैं मिस्टर कोहली , यहाँ से घर पर आप अच्छी देखभाल कर सकेंगें ,इसलिये हम इन्हें  आज अस्पताल से छुट्टी दे रहें हैं " डाक्टर कैसे कहते कि अब वह ज़्यादा लंबा नहीं जी सकेंगें ।
 नीरव को याद आया कि पिता तो हमेशा कहते थे कि मैं जब भी मरूँगा अपने गाँव की चौखट पर ही मरूंगा ।वही पिता अपना गाँव भूल गये।माँ को देख कर ही जिन पिता की आँखों में चमक आ जाती थी । वह पिता माँ को भी भूल गये हैं। नीरव की आँखें फिर भर आईं ।
नीरव ने फ़ोन करकेअपने निकटतम सगे संबंधियों को बुला लिया है।वह सभी सगे संबंधी जिनके बच्चों के नाम पिता को मुँह ज़बानी याद रहते थे ,जिनकी आवाजें वो फ़ोन पर पहचान जाते थे ,पिता उन  सब को  भूल गये हैं ।और तो और वो अपने बेटे नीरव तक को भूल गये हैं ,अपना घर भूल गये हैं ,बैंक अकाउंट तक भूल गये हैं। वार्ड में आने वाले डाक्टर नर्सो और अपरिचित परिचित चेहरों को देखते हुअे केवल पलकें झपकाते हैं । लेकिन जब भी नीरव उनकी आँखों में देखते हैं उन्हें लगता है कि वह ज़रूर ठीक हो जायेंगें ,उम्मीद पर ही तो यह दुनिया क़ायम है।नीरव पिता के माथे पर प्यार से हाथ फेरते हैं तो तो एकाएक उन्हें अनुभूति होती है कि आज से वह इस शख़्स के बेटे नहीं बल्कि पिता हैं और पिता आज से उनके  बच्चे हैं । उन के माथे को चूम कर नीरव अपनी रूलाई रोकते हुअे तेज़ क़दमों से वार्ड से निकल कर डिस्चार्ज टिकट से जुड़ी औपचारिकताएँ पूरी करने रिसेप्शन की तरफ़ बढ़ जाते  हैं ।
58.
लाठी और झाड़ू 
सुहासिनी जी की आँख खुली तो उन्होंने पार्थ को अपने  सामने खड़ा पाया ।उसके हाथ में  स्कैच  पैन और कोरा काग़ज़ था ।
"क्या हुआ बेटा ?"सुहासिनी ने पोते को इतनी सुबह -सुबह उठे देख कर हैरानी से पूछा । 
"दादी आपने गांधी बाबा को देखा है ? " पार्थ ने पूछा 
"कौन गाँधी बाबा ?"प्रश्नवाचक नज़रें सुहासिनी ने पार्थ पर टिका दी । 
"अरे हमारे राष्टपिता महात्मा गांधी ,दादी टीचर ने उनका स्कैच बनाने को कहा है ।" पार्थ ने भोलेपन  से कहा तो सुहासिनी के चेहरे पर मुस्कराहट आगयी।
"हाँ देखा है बच्चे , वो बिलकुल संत दिखते थे कोई ईश्वरीय अवतार थे शायद ।" सुहासिनी अब पूरी तरह जाग चुकी थी और दस वर्ष के पार्थ के प्रश्नों का उत्तर देने को तत्पर दिख रही थी -
"तो बना डालो स्कैच जैसे तस्वीर में दिखते हैं वैसे ही बनाओ। "सुहासिनी ने आदेशात्मक स्वर में कहा 
"पर दादी मैं लाठी नहीं बनाऊँगा क्योंकि मैने टी०वी० में देखा है गाँधी बाबा तो बहुत तेज़ चलते थे,मेरे एक दोस्त का कहना है कि वो केवल फ़ैशन के लिये लाठी रखते थे। "
" हाँ बेटा वो तो हमारे पथ -प्रदर्शक और  देेश के लाइट हाउस थे।उनके मार्गदर्शन में हमारा देश आज़ाद 
हुआ। उन्होंने इसी लाठी से अंग्रेज़ों को देश से भगाया। " । संजीदा हो सुहासिनी ने कहा 
"ओह अच्छा ,और दादी टीचर ने बताया कि वो तो सफ़ाई पसंद भी थे। पर फिर उन्होनें झाड़ू क्यों नहीं उठाई जैसे कि आज के नेता लोग करते हैं  ,मैने टी०वी०में देखा है? "मासूमियत से पार्थ ने पूछा तो सुहासिनी जी को हँसी आ गयी। उसी मासूमियत से उन्होनें जवाब दिया -"बेटा आजकल के नेता लोग तो फ़ैशन के लिये झाड़ू लगाते हैं , पहले कचरा फैलाते हैं फिर मीडिया को दिखाने के लिये कचरा उठाते हैं  हैं ।" कह कर सुहासिनी जी नाश्ता बनाने  तेज़ी से रसोई घर की तरफ़ बढ़ गईं । 
दादी की बात सुन पार्थ के दिमाग़ में एक कथानक तैरने लगा ।जब सुहासिनी जी रसोई का काम निपटा कर वापस आई तो देखा पार्थ ने स्कैच में बोलते हुअे गांधी जी दिखाये हैं जिनके शब्द अंग्रेज़ों को बुहारते हुअे झाड़ू ू की शक्ल में बदल गये थे।
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मोगरे का महक 
चंद्रकांता  कल रात को ही लंदन से लौटी हैं ! जेट लेग के कारण रात भर अच्छी नींद  भी नहीं ले  पायी  थीं ! भारत में तो इस बार रेकॉर्ड तोड़ प्रचंड गर्मी भी पड़ रही थी , जून का महिना और साँय-साँय चली गरम हवाओं से ए-सी भी प्रभावी नहीं हो पा रहा था l  हाँ ,बाग में से जरूर मोगरे की भीनी भीनी खुशबू चंद्रकांता के कमरे तक आ रही थी और उसे यादों की दुनिया में ले जा रही थी l सुबह  सुबह चंद्रकांता को जरा सी  झपकी आई थी  पर चिड़ियों की चहचहाट ने उसे जल्दी ही जगा दिया था l वह आतुरता से उठी और अपनी बगिया में जा पहुंची l उसकी सीधी दृष्टि मोगरे की डालियों पर अटक गयी, जिसमें मोगरे के गुच्छ के गुच्छ खिल रहे थे और धरा  पर भी फूलों की जाजम बिछी थी , पर्यावरण प्रेमी चंद्रकांता के फेफड़ों में ताजे पुष्पो की मादक महक समा कर उसे पुलकित कर गयी l
कल की सी बात लगती है चंद्रकांता को जब वह मेजर हर्ष की धर्मपत्नी बन कर इस घर "महक "में आयीं थीं l घर क्या था  हरे भरे बागों से घिरा एक मंदिर था जहां चहुं ओर बेला- चमेली ,गुलाब- रातरानी और विभिन्न प्रकार के फूल लगे थे और हवाओं में कपूर-अगरबत्ती  सी आस्थामयी महक  समाई रहती थी !
 बड़े सुंदर दिन थे ,वह रोज यहाँ मोगरे के पास की घास पर मेजर हर्ष के साथ चाय पीती थी l तितली- भँवरे और रंग बिरंगी चिड़ियों से बगिया गुंजायमान रहती थी ।घर आँगन में  मोगरे की महक भरी रहती थी और चंद्रकांता के मन में तो मेजर हर्ष के प्रेम की खुशबू गहराई से समाहित थी,  जिसमें वह डूबी रहती थी ,तभी उन दिनो कारगिल युद्ध छिड़ गया और देश की रक्षा करते करते मेजर हर्ष शहीद हो गए तो  कुछ सालों के लिए चंद्रकांता की जिंदगी रसहीन हो गयी थी । उसे  लगा मोगरे की इन डालियों और हरे भरे बगीचे को जहां हर वक्त मेजर हर्ष की यादों की चिड़ियाँ उड़ती रहती है उखाड़ कर फैक दूँ लेकिन वह ऐसा कर नहीं सकीं क्यूंकी उसकी खुशबू में मेजर की यादें भी घुली मिली थी ।
चंद्रकांता आज भी नहीं भूली है वो संदेशत्मक बात , वह कैसे भूलती जब मेजर हर्ष का अंतिम खत उसे मिला था  तो उसमें कुछ पंक्तियों में एक   संदेश भी था l मेजर हर्ष ने उस खत में लिखा था की जिंदगी में चाहे कितना ही बदलाव हो जाये पर मन हमेशा हरा भरा रहना चाहिए, सूखना नहीं चाहिए ,उसमें हमेशा मोगरे के फूलों सी सुगंध रहनी चाहिए ।अब तो वर्षों बीत गए ,चंद्रकांता का बेटा डॉक्टर हो गया है और लंदन के अस्पताल में कार्यरत है और बेटी शादी के बाद से शिमला में बस गयी है ।अब तो वो दादी नानी की भूमिका भी निभा रही है। चंद्रकांता के जीवन में भी बहुत कुछ बदल गया है पर चंद्रकांता के लिए मोगरे की खुशबू कभी नहीं बदली !
आज भी वो रोज सुबह यहाँ बैठती है ,डाली पर फूल नहीं होते तब भी जाने कैसे उसके इर्द गिर्द मोगरे सी खुशबू फैली रहती है और मेजर हर्ष की यादों की हवाएँ उसे अपने आगोश में भर लेती हैं यह कहती हुई कि  मन हमेशा महकता रहना चाहिए और यहाँ की हवाएँ भी चंद्रकांता को संदेश देती रहती हैं कि शहीद कभी नहीं 
मरते ।
लंदन से आने के बाद जब वो बगिया में आयीं तो देखा मोगरे कि डालियाँ पुष्पों से लदी पड़ी थी और  तितली भँवरे मंडरा रहे थे ,हवाएँ बहुत उल्लसित करने वाली थीं, मानो चंद्रकांता को फिर याद दिला रही हों कि मेजर हर्ष यहीं कहीं हैं, उनके करीब ,सच ही तो है जो शख्स देश पर अपनी जान न्योछावर कर देते हैं वो शहीद हमेशा जीवित रहते हैं और मोगरे के फूलों की तरह हमेशा महकते रहते हैं और एक याद बन खुशबू   की तरह मन में बसे रहते हैं। चंद्रकांता ने गहरी सांसें खींची और मोगरे की खुशबू को अपने अंदर समाहित कर देर तक वहीं बगिया में आँखें मूँदे बैठी रही ।
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★गांधी जी के तीन बंदर 
मुरली बाबू आज मुंह अंधेरे पार्क में घूमने चले गए थे ,पार्क सुनसान था ,बस एक कुत्ता कछुए की तरह अपने पाँव समेटे एक बैंच के नीचे सो रहा था ,एक लंबा चक्कर लगा कर  वह भी कुछ देर एक बैंच पर सुस्ताने  बैठ गये ,तभी पार्क के बीचों बीच लगे गांधी जी के तीन बंदरों पर उनकी निगाह गई ,अरे ये क्या तीनों बंदरों के हाव भाव  कौन बदल गया ,उन्होने चश्मा नाक पर ठीक करके पास जाकर देखा तीनों बंदरों के नीचे लगी  एक पट्टी पर मुद्रा को संदर्भित करता कथन भी लिखा  हुआ था, अरसे से यूँ  ही  बैठे तीनों   बंदरों की मुद्राएँ कुछ यूँ  थी -
पहला बंदर -अंधा हूँ पर आजकल ऑपरेशन करा लिया है,बस रात में देखता हूँ और भृष्टाचार  से मिले नोट गिनता हूँ !
दूसरा बंदर -समय बदल गया है तो मैं क्यूँ न बदलूँ?कम  बोलता हूँ , नेता हूं! संसद में विपक्ष पर छींटे कस मन हल्का कर लेता हूँ !
 तीसरा बंदर -बिलकुल समय बदला है तकनीकी  भी बदली है , सुन रहा हूँ कि  गाहे बगाहे  एक दूसरे के  कैसे कान काटे जाते हैं, यह सब अब कान की मशीन लगा कर  सुनता  भी हूँ ,    एक दिन संसद में गया तो देखा कि अरे यहाँ तो शब्दों का पूरा ज्ञानकोश है और अब जरूरत क्या है कानो पर हाथ रखने की ?
 मुरली बाबू ने  ध्यान से बंदर के बदले हाव भाव देखे ,मुद्राएँ कुछ यूँ थीं -पहले बंदर की आँखों पर काला चश्मा था lदूसरे बंदर का मुंह खुला  हुआ था ।तीसरे बंदर के दोनों कानो में हियरिंग ऐड  लगी थील तभी उन्हें बीबी गहरी नींद से  जगाया -""अजी सुनते हो सैर पर नहीं जाना क्या ? 
 चौंक कर मुरली बाबू जागे  -"अरी भाग्यवान थोड़ी देर तो सोने देती, सपना देख रहा था, सच बंसी की अम्मा गज़ब का सपना था ...समय बदला तो गांधी जी के तीनों बंदरों की  मुद्राएँ  भी बदली दिखीं 
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★मुखाग्नि
बारमूला में शहीद हुअे जाबांज सैनिक हरिसिंह का अंतिम संस्कार उनके पैतृक गाँव में किया जाना तय हुआ था ।उनकी शवयात्रा में हज़ारों की संख्या में लोग जुटे थे। तिरंगे से लिपटे शरीर को फूल मालाओं से सजा दिया गया था ।सड़क से से गुजरते वक़्त हरिसिंह अमर रहे के नारे लगाते हुअे लोग उनके शव पर फूल मालाएँ बरसाकर नम आँखों से श्रद्धंाजलि दे रहे थे।उनके शव को दर्शन के लिये कुछ घंटों के लिये उनके घर की चौखट पर भी रखा गया था।सभी दर्शन कर रहे थे। उनके मुँह को खुला रखा गया था ,सभी ने अनुभव किया था कि शहीद हरिसिंह के चेहरे पर अजीब सी दर्प की चमक थी। उनकी पत्नी मयूरी सिंह ने पति के शव पर फूल चढ़ाये और पति के चेहरे को गर्व से एकटक देखती रहीं ।फिर उनके पायताने जाकर उनके पैरों पर सिर टिका कुछ देर बैठी रही। उनके परिजन व मित्र लोग चाहते थे कि वह रो ले तो उनके मन ग़ुबार निकल जाये पर वह बुत बनी बैठी रहीं ।उनकी दोनों बेटियाँ उनको घेरे बैठी उन्हें सांत्वना दें रहीं थीं। ।बीच बीच में छोटी बेटी की सिसकी ज़रूर गूँजती थी -"पापा वापस आ जाओ प्लीज़"। 
दाह -संस्कार का समय आ पहुँचा  । उनकी वीरता का परिचय देते हुअे वहाँ सेना के एक उच्च-अधिकारी बता रहे थे-" हरी सिंह का नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जायेगा । उन्होंने अपनी जान जोखिम में डाल कर अपनें देश की रक्षा की है ।जब वह अपने अधिकारियों व सैनिक साथियों के साथ एक महत्वपूर्ण चौकी पर गश्त लगा रहे थे ,तभी दुश्मनों द्वारा फेंके गये ग्रेनेड को अपने हाथ से उठा कर सुरक्षित स्थान पर फेंकने के लिये हरी सिंह गाड़ी से कूद गये और ग्रेनेड उनके हाथ में ही  फट गया और वह वतन के ख़ातिर शहीद हो गये।अगर वो एेसा नहीं करते तो गश्त में शामिल हज़ारों सैनिकों ं की जान ख़तरे में पड़ जाती ।" सुन कर सभी की आँखें  भर आईं ।
सलामी के बाद जब दाह संस्कार का समय आया तो पत्नी मयूरी ने अपने हाथ में मुडा  एक काग़ज़ वहाँ के एक बडे अधिकारी को पकड़ा दिया जिसमें लिखा था-"यदि मुझे कुछ हो जाये तो अपनी बेटियों के साथ तुम ही मुझे मुखाग्नि देना क्योंकि मातृभूमि की सेवा मैं बिना तुम्हारे सहयोग के नहीं कर सकता था । दूसरा एक कार्य तुम्हें सौंप रहा हूँ वो यह है कि मेरी दोनों बेटियों को सेना में भर्ती करवाना और एक वचन तुम्हें देना होगा कि तुम मेरी शहादत पर एक भी आँसू मत बहाना और हँसते हुअे मुझे ख़ुशी ख़ुशी विदा करना। ।"
हरिसिंह की इस इच्छा ने एक तीसरी ही तस्वीर खींच दी, जिसके रंग अलग ही थे ।  सभी ने देखा कि मयूरी ने अपने पति को मुखाग्नि दी और शहीद की तीनों इच्छाओं का मान रखते हुअे राजकीय सम्मान के साथ शहीद हरी सिंह को गार्ड आॅफ आॅनर देकर विदा किया गया। 
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★विशेष दिन 
आज का दिन निशा के जीवन में विशेष था।उसके सात वर्ष के बेटे अमन का जन्मदिन था।उसे मनाने उसके कर्नल  पति  शिव कुमार भी विशेष रूप से  कश्मीर से आ रहे थे।बड़ी मुश्किल से छुट्टी मंजूर  हुई थी । दरअसल अगले ही दिन अमन का दिल का आपरेशन भी था । दिल में छेद एक छोटा सा छेद था , अमेरिका से आयें एक डाक्टर की देखरेख में उसका इलाज होना था। । साल भर से कोशिश कर रहे थे अब जाकर डेट मिली थी। संयोग ही था कि जन्मदिन के साथ साथ कर्नल शिव आपरेशन के अवसर पर  भी मौजूद रहेंगें ,निशा को यह तसल्ली थी।सुबह से निशा काम निपटाने में लगी थी। केक के इर्द गिर्द सात मोमबत्तियाँ लगा कर निशा ने मेज़ रख दिया था। कुलचे -छोले ,समोसे ,रसमलाई,गुलाब-जामुन ,वेफरस व जूस  समय से बहुत पहले उसने मेज़ पर जमा दिये थे ।पूरी तैयारी थी। बिल्डिंग व रिश्तेदारों के कुछ बच्चे तो आ भी  गये थे।कुछ आने वाले थे।विशेष रूप से कर्नल शिव का निशा बैचेनी से इंतज़ार कर रही थी।अब तक तो उनको आ जाना चाहिये था।सुबह से कई बार मोबाइल मिला चुकी थी पर बार बार रेंज में नहीं है का सिगनल आ रहा था।निशा को लगा शायद सफ़र में होंगें ,प्लेन लेट होगा सोच कर अपने को समझा रही थी। 
रंग बिरंगी  जोकरी  टोपियाँ ,मुखौटे और बच्चों को देने वाले रिटर्न  गिफ़्टस अभी कार में ही रखें थे ,निशा उन्हें लेने के लिये जल्दी जल्दी बाहर निकली ।ड्राइवे तक पहुँची थी कि कि कुछ रिश्तेदार और अमन की स्कूल के दोस्त रंगबिरंगे कपड़ों  में सजे-धजे आते दिखे तो निशा ने बहुत सहज भाव से स्वागत करते हुअे उन्हें अंदर जाने का आग्रह किया। और कार से सामान निकालने लगी तभी उसके मोबाइल की घंटी बोली तो उसने यह सोच कर तपाक से उठाया कि कर्नल शिव कुमार का ही होगा । लेकिन तभी एक भयानक सूचना  ने निशा की दुनिया ही बदल दी ।पहाड़ टूट पड़ा उसके जीवन में एेसा विस्फोट हुआ कि सुनने वाले रोंगटे खड़े हो जायें उसने तो आज काम के दबाव के कारण सुबह से टी०वी० तक नहीं खोला था । बहुत दुखद ख़बर थी कि आज आतंकवादियों से बहादुरी से मुक़ाबला करते हुअे कर्नल शिव शहीद हो गये हैं ।सूचना लगातार टी०वी०  पर चल रही थी कि जिस चौकी  पर वो तैनात थे वहाँ हमला हो गया था। कर्नल  शिव के एक साथी के अचानक बिमार हो जाने के कारण कर्नल शिव की छुट्टी रद्द करनी ज़रूरी होगयी थी। आग की तरह यह यह ख़बर पूरे शहर,बिल्डिंग,रिश्तेदारों और मित्रों के बीच फैल गई । टी०वी० के सभी चैनलों पर कर्नल  शिव कुमार की बहादुरी के क़िस्से अनवरत चल रहे थे। 
निशा को तो सपने में भी इस घटना की  सूचना नहीं थी कि  उनके शव को बड़े सम्मान के साथ उनके घर पर लाया जा रहा है। निशा बुत बनी कार से सामान निकल भारी मन से घर के अंदर दाख़िल हुई तो अमर अपने दोस्तों से घिरा केक की मेज़ के पास खड़ा किसी खेल में डूबा हुआ  था। निशा का सिर घुमने लगा वह धम से वहीं सोफ़े पर गगई।वह चिल्लाना चाहती थी यह क्या  कर्नल शिव एेसे कैसे चले गये ,वो भी उस दिन जिस दिन अमर का जन्मदिन है ,यह कैसा दिन उगा है उसके जीवन में कर्नल शिव तुम तो आज आने वाले थे ।यह सरासर चिटिंग है, मैं तुम को कभी माफ़ नहीं करूँगी .वापस आओ कर्नल शिव प्लीज़ शिव....उसने आँखें खोली तो मित्रों व रिश्तेदारों से घिरा पाया ।
"मम्मी केक कब कटेगा ,पापा कब आयेंगें ।"अबोध अमर की गुहार ने निशा को वापस चेतन किया ।उसने शून्य आँखों से अमर को देखा तो सभी की आँखें छलक आईं । सभी मन ही मन सुबक रहे थे।लेकिन निशा की आँखें पत्थर की हो गयी थी ।
निशा सोफ़े से उठी और केक की मेज़ की तरफ बढ़ गई ।उसका चेहरा एेसा लग रहा था मानों उसके शरीर में कोई प्रवेश कर गया है । फिर सभी को संबोधित करते हुअे रूँधें दहले से बोलीं-"आत्मीयजनों आप सभी इस दु:ख की घड़ी में यहाँ आये हैं ।शुक्रिया पर आज इस मासूम का जन्मदिन भी है ।इसने और मैनें क्या खोया यह बच्चा नहीं जानता।आज सच कहा जाये तो हमारे िलये बड़े गर्व का दिन है।कर्नल शिव की इस क़ुर्बानी को आइये इस बच्चे के जन्मदिन के साथ मनायें । कर्नलशिव कुमार  की रूह ज़रूर उसे आशीर्वाद देने यहाँ आई होगी ।आज विशेष दिन है आइये प्लीज़।"वहाँ उपस्थित सभी लोग भारी मन से मेज़ के इर्द गिर्द आ जमा हुअे।
अमर ने केक काटा और हैप्पी बर्थ डे की ध्वनि से कमरा गूँज उठा। तभी गाजे बाजे के साथ शहीद कर्नल शिव के शव का ताबूत सम्मान के साथ घर में प्रवेश हुआ।
"शहीद कर्नल शिव अमर रहे ,जब तक हिंदुस्तान रहेगा शिव कुमार का नाम रहेगा ।"निशा ने आँखें मूँद कर अपनी आँखों में उमड़ आये आँसुओं के सैलाब को रोकने की भरसक कोशिश की पर वह समुंदर के ठाठे मारते तूफ़ान की तरह सारे बाँध तोड़ कर बाहर निकल गये और वहां उपस्थित सभी लोगों के दिल भी भीग उठे। 
63.
★पेबंद 
"माँ , बग़ल वाले घर में जो गैराज है ना वो गोपी चाचा ने किराये पर दें दिया है।"
ओह अच्छा तो फिर तो मुझे कोचिंग क्लास चलाने के लिये कोई और जगह तलाशनी होगी ।"महिमा के स्वर में चिंता के भाव दिखे।"
"हाँ आपने कहा तो मैं पूछने आ गया था ,पर कोई बात नहीं और कहीं ढूँढता हूँ " महिमा को आश्वस्त कर उसका बेटा अपनी पढ़ाई करने लगा।महिमा का घर छोटा था ।क़रीब बीस बच्चे उसके पास ट्यूशन पढ़ने आते थे ।एक सरकारी स्कूल में वह एक अच्छी शिक्षिका थीं । रिटायरमेंट के बाद सहेलियों की सलाह व मदद से उसने एक कोचिंग सेंटर खोला तो काॅलोनी के बहुत से बच्चे आने लगे। कोचिंग सेंटर अच्छा चल गया पर घर में  जगह की कमी अखरने लगी।
"हाँ , वो बग़ल में ही  था मिल जाता तो ठीक रहता , हमने ही देर कर दी ।" महिमा के स्वर में अफ़सोस का  पुट् था ।
महिमा ने थैला उठाया और सब्ज़ी लेने चल दीं। बाज़ार घर के पीछे ही था। सब्ज़ी ख़रीद कर महिमा  दूध  लेने डेयरी बूथ पर रूकी ,पीछे से  कंधे पर किसी ने हाथ रखा तो वह हतप्रभ रह गई   थीं -"कैसी हो महिमा ,पहचाना मुझे? "जो उनसे पूछ रहीं थीं वह उनकी कालेज़ की सहेली अल्पना थी। बीस साल बाद दोनो आज मिल रहे थे। 
" तुम यहाँ कैसे अल्पना ?" महिमा ने भरसक अपनी आवाज़ को सामान्य रखने की नाकाम कोशिश की ।"
"भाई दुनिया गोल है ।यहीं पास में आर्य नगर में एक कमरा किराये पर लिया है ।" अल्पना ने मुस्करा कर कहा ़
"ओह तो गोपी काका के गैराज में तुम आई हो ।मैं भी वहीं तुम्हारे पास ही रहती हूँ ,कौन कौन है तुम्हारे साथ पति रिटायर्ड हो गये क्या ?ओह याद आया वो तो नामी गिरामी बिज़नेस मैन थे ।शादी के बाद कहाँ चली गईं थी भाई ,ना मिलीं ना कोई पत्र ही लिखा ? महिमा एक के बाद एक प्रश्न दागे जा रहीं थीं 
"अरे एक ही दिन में सब पूछ लोगी जल्दी ही मिलती हूँ तुमसे , अभी जल्दी में हूँ । "कह कर अल्पना लंबे लंबे डगमगा भरती हुई आगे बढ़ गईं 
महिमा हतप्रभ सी उसे जाते देखती रही ।बहुत अमीर आदमी से शादी हुई है अल्पना की ,यह सुना तो था महिमा ने पर माँ की बिमारी  के कारण वह शादी में जा नहीं पाई थी ।महिमा को बस सखियों से ख़बरें मिलती रही थी कि अल्पना के पास कई कारें हैं ,बड़ा घर है और देश विदेश में घूमती है अल्पना। 
महिमा यही सब सोचती हुई गली के मोड़ तक पहुँची तो देखा कोने में बनी गबरू रफ़ू वाले की दुकान पर खड़ी थी। महिमा को याद आया कि एक दिन में चार ड्रेस बदलती थी अल्पना कालेज़ में सभी उसकी ड्रेस सेंस के क़ायल थे पर क्या हुआ है उसकी ज़िंदगी के साथ जो आज उसने बड़ी सस्ती सी साड़ी पहन रखी थी उसके पल्लू पर भी पेबंद लगा था । अल्पना रफ़ू की दुकान से निकल उसके आगे आगे जा रही थी।महिमा उद्विग्न हो उठी ,एक रहस्य की तरह सब गोलमाल था , जाने क्या हुआ महिमा को कि अब अल्पना के बारे कुछ भी जानने की महिमा की इच्छा ही दम तोड़ चुकी थी । स्तब्ध हो वह अल्पना को घर की तरफ़ जाते हुअे देखती रही । 
64.
★जन्म कुंडली
मंदिर के पट खुलते ही भक्तों में भगदड़ मच गई।सभी भक्तजन एक साथ घुसना चाह रहे थे आरती के समय सबसे आगे खड़े होकर आरती करने की होड़ रोज़ रहती है ।  तभी एक अछूत भक्त ने मंदिर में प्रवेश किया उस अछूत भक्त की पहचान का एक व्यक्ति मंदिर में उपस्थित था। उसने पुजारी को इशारे से उसके जाति के संदर्भ में बताया तो पुजारी जी उसके सामने आ खड़े हुअे और विरोध करते हुए बोले-"आप अंदर नहीं आ सकते हैं,आप अछूत हैं ।
"यह कहाँ लिखा है ,मेरे माथे पर? " उस अछूत भक्त ने खिन्नता से पूछा ।
"नहीं इन्होंने  बताया ।" पुजारी जी ने उस व्यक्ति की तरफ ऊँगली से इशारा करके इंगित तो वह आदमी मुँह छिपाने लगा ।
"आपने उसकी जाति पूछी?" उस अछूत व्यक्ति ने पूछा
नहीं ं पूछा पर मैं आपकी जन्मकुंडली जान गया हूँ ं।  कृपा आप बाहर से ही दर्शन करें ।"पुजारी ने त्यौरियाँ चढ़ाते हुअे कहा 
"आपको अपनी जति मालूम है पुजारी महाशय?"  उस अछूत व्यक्ति ने व्यंग् से पूछा। 
"जी हाँ मैं उच्च जाति का पुजारी हूँ । मेरे पिताजी ने बरसों इस मंदिर में पूजा की है , उनके बाद से मैं यहाँ अपनी सेंवाएंँ दें रहा हूँ ।"
रहा हूँ ।" पुजारी ने धक्का देते हुअे उस अछूत को बाहर किया। 
अछूत मुस्कुराते हुअे बोला-"आपके पास आपके बचपन की कोई तस्वीर है?"
"हाँ है , वो लगी है ना मेरे कमरे में इस मंदिर के पिछवाड़े दीवार से सटा हुआ ही तो है मेर कमरा । लेकिन आपसे मतलब ?"  पुजारी ने खीझ कर जवाब दिया। 
पुजारी और अछूत भक्त के चारों ओर अर्धवृत बना कर भीड़ जुट गई थी और इस विमर्श का आनंद ले रही थी। किसकी हार होगी और किसकी जीत यह देखने के लिये भगवान की तरफ़ से सभी का ध्यान हट कर इन दोनों पर केंद्रित हो गया था।
अछूत ने अपने झोले में से एक पुरानी पीली पड़ गई तस्वीर निकाली जो एक वर्ष के बच्चे की थी,जैसे ही पुजारी को दिखाई ,वह शेर की तरह दहाड़े  -"अरे तुच्छ प्राणि मेरी फ़ोटो तेरे पास कैसे आई ?"
"अरे उच्च आदमी यह तो मेरे पुत्र की है , जिसे ग़रीबी से मजबूर होकर मैं आज से तीस साल पहले इस मंदिर की देहलीज पर छोड़ गया था।एक पर्ची पर  यह झूठ लिख कर कि यह एक ब्राह्मण का पुत्र है ताकि एक मासूम बच्चा यानि तू सम्मान से जी सके।" अछूत व्यक्ति भी तेज़ स्वर में व्यंग्यात्मक हो बोला पर बोलते वक़्त उसका गला रूँध गया था। 
फिर झोले में से एक दूसरी तस्वीर निकाल कर पुजारी को दिखाते हुअे बोला-"यह देख मेरी गोदी में तू बैठा है और यह जो तेरे सिर पर प्रेम से हाथ रखें बैठ तुझे निहार रही है वो है तेरी माँ , सजो आज भी तेरे लिये रोती है । यही है तेरी जन्मकुंडली की कहानी -समझा । "कहता हुआ वो अछूत भक्त बाहर से ही हाथ जोड़ कर तेज़-  तेज़ क़दमों से चलता हुआ आँखों से ओझल हो गया।कुछ ही देर में भीड भी छँट गई । सब सुन कर पुजारी  
का चेहरा राख हो गया ।वह पाषाण शिला सा जहाँ खड़ा था वहीं देर तक जडवत खड़ा रहा।
65.
★लहू का रंग 
सुबह सात बजे जब तलत ने अस्पताल के पलंग पर आँखें खोली तो अपने चारों तरफ़ वार्ड में डाक्टर , कंपाउंडर , नर्सो के साथ अपने अपने परिजन मरीज़ों से मिलने आने वालों का समुंदर देखा । उसकी अम्मीजान  उसके माथे पर हाथ रखें स्टूल पर बैठी थीं । तलत ने अपने थके माथे पर ज़ोर दिया तो उसके  दिमाग़ में कई तस्वीरें घूम गईं ।वह तो बाज़ार में मात्र अंडे ब्रेड लेने गया था , तभी बेकरी में तेज़ धमाका हो गया था ।पागलों की तरह सब यहाँ से वहाँ भागने लगे थे ।वह भी भागा था।पर शायद कोई बड़ा सा छप्पर उसके सिर पर आ गिरा था और यक़ीनन वह बेहोश हो गया होगा पर उसे यहाँ कौन लाया यह उसे बिलकुल याद  नहीं आया। उसने अम्मींजान से पूछा -"मुझे यहाँ किसने पहुँचाया 
अम्मीजान ?"तो वह भाव विह्मल हो गयीं रूँधे गले से बोलीं  -"अल्लाह मियाँ का शुक्र है बेटा कि तू बाल बाल बच गया।यह तो भला हो उस सामने वाले बंदे का जो ख़ुद घायल होकर भी तुझे यहाँ अस्पताल लेकर आया । बहुत से बंदे इस हादसे में ख़ुदा को प्यारे हो गये हैं बेटा । तेरे बटुअे  में से विज़िटिंग कार्ड लेकर उस ख़ुदा के बंदे ने हमको फ़ोन किया । तेरा बहुत ख़ून बह चुका था तो इस ख़ुदा के भेजें बंदे ने अपना ख़ून भी तुझे दिया । अल्ला इस की उम्र दराज़ करे। तलत ने निगाहें अम्मीजान की ऊँगली की तरफ़ उठाई जो सीधी सामने के चार नंबर के पलंग की ओर जा रही थी। जहाँ लगभग तीस साल का एक नवयुवक लेटा हुआ था। जिसके पलंग के नामपटट् पर लिखा हुआ था-रामकुमार । तलत ने कृतज्ञता प्रकट करते हुअे  अपने दोनों हाथ जोड़ दिये । और शुक्रगुज़ार आँखों से उस नवयुवक को देखता रहा। मुस्कुराते हुअे उस  युवक ने भी स्नेह से अपने हाथ हवा में हिला दिये। 
तलत का सिर भारी हो रहा था। उसने अपनी आँखें मूँद ली ,बस एक ही सवाल उसे परेशान कर रहा था कि इंसान  इंसान को क्यों मार रहा है ? दूसरी तरफ यह इंसान है जिसने मेरी जान बचाई है। इस इंसान से मेरा रिश्ता क्या है जो इसने मुझे  ख़ुद घायल होते हुअे भी अपना ख़ून दिया है।उसका लहू मेरे शरीर में उतर कर एक रंग हो गया है। कहने को हमारा मज़हब अलग है ,तहजीबें अलग है पर इस इंसान में आज भी इंसानियत का सर ग़ुरूर से बुलंद है ।एेसे इंसानों को हज़ारों सलाम जो धर्म जाति से ऊपर उठ कर इंसानियत का रिश्ता निभाते है। 
66
 ★शिक्षा का चाँद 
करवा चौथ का चाँद आकाश में मुस्करा रहा था! शराब पीकर लौटे पति को देख पत्नी ने चाँद को अर्क दिया और बिना खाये पिये पलंग पर जा लेटी ! आज पति ने उसे पीटा नहीं था! रात भर वे कुछ सोचती रही ! अगले दिन वे गाँव के आंगनबाड़ी  की कक्षा में जा बैठी और अपना नाम दर्ज करवा लिया ! अब उसका मन हल्का था क्योंकि शिक्षा के द्वार के साथ उसकी चेतना के द्वार भी खुल गए थे !  अब बस उसे अपने वजूद की रक्षा  करनी थी ! परम्पराएँ वो निभाएगी पर अन्याय नहीं सहेगी !  वर्षों बाद आज उसे अच्छी नींद आई थी ! लेकिन उसका पति जाने क्यूँ आज ठीक से सो नहीं  रहा था।
67
मानदेय 
कच्ची बस्ती में रहने वाले भँवर सिंह को एडवांस में पाँच सौ रूपये देकर पद्मा कुमार यूनिवर्सिटी की तरफ़ चल दी । आज से ही काम शुरू हो जाना चाहिये वरणा सेमीनार तक पूरा नहीं हो पायेगा । अगले माह से विभाग के तत्वावधान में चार दिवसीय अंतर्कथन चित्र प्रदर्शनी शुरू होने वाली थी।  पार्किंग में पार्क करते हुअे वह लगभग भागती हुई सी पारिजात कला दीर्घा  में पहुँची । यह देख कर उसे तसल्ली हुई कि उसकी सभी शिष्याएँ काम में जुटी थीं । कई सालों से अखिल भारतीय चित्र प्रतियोगिता प्रदर्शनी में हमेशा उसके विभाग की छात्राएँ पुरस्कृत होती आईं थी। और उन्हीं की वजह से पूरे देश में पद्मा कुमार की भी एक पहचान बन गई थी । पद्मा कुमार  अपना  बैग मेज़ पर रख कर एक चित्र के पास आ रूकती है। उसकी एक छात्रा शिल्पा बचपन ,जवानी और बुढ़ापा का  एक सुंदर कोलाज बनाते हुअे रेखांकन कर रही थी जिसमें बचपन के रेखांकन में दर्शाया गया था कि एक अमीर आदमी  का बच्चा पतंग उड़ा रहा है और एक मज़दूर का बेटा आँखों  पर हथेलियों की छतरी लगा कर टकटकी लगाये आकाश की ओर देख रहा है। जवानी का रेखांकन भी मनोरमा को मनोरम लगा जिसमें पाँच नवयुवक एक दफ़्तर में नौकरी कर रहें हैं ।भागमभाग भाग के दृश्य  के साथ अलग अलग मुखमुद्राओं वाले चेहरे ग़ज़ब के बने हैं । अब कैनवास का बुढ़ापा वाला हिस्सा शेष बचा है ।शिल्पा के कंधें पर स्नेह से शाबासी का हाथ रख कर पद्मा कुमार ने सूचना देते हुअे शिल्पा को कहा -"बुढ़ापा आज रेखांकित कर लेना ।भँवर सिंह ठीक दस बजे आ जायेगा ,पाँच बजे तक रूकेगा। अलग अलग पगड़ियाँ में उसके पाँच  रेखाचित्र  बनाने हैं । इन सभी रेखाचित्रों में अलग अलग पगड़ियाँ लगा  कर कैनवास पर अलग अलग भाव मुद्राएँ चित्रित कर लेना ।"
इस प्रदर्शनी में विभिन्न विषयों को लेकर चित्रों के माध्यम से जीवन सरोकारों से जुड़ी संवेदनाओं को साठ चित्रों के माध्यम से दर्शाया जाना  था। 
"जी मैडम पाँच दिन में पूरा कर दूँगी इसे ।" शिल्पा ने पूरे आत्मविश्वास से कहा 
" वैरी गुड शिल्पा ,मुझे लगता है इस बार भी तुम्हारा चित्र ही चयनित होगा । इसका कंस्पट बहुत अच्छा है।इसमें अपनी पूरी कल्पना शक्ति लगा देना ,दो लाख का पुरस्कार भी है यदि हमारे विभाग को मिल गया तो इस अनुदान से विभाग को आर्थिक मदद मिल जायेगी , कितना अच्छा रहेगा ।हम विभाग और  भी सेमीनार आयोजित कर पायेंगा  ।"कह कर वो मुसकराईं । एक आश्वस्त भाव से कुछ पल अपलक भाव से चित्र को निहारतीं रही ।
वहाँ से सीधे पद्मा कुमार अपने कमरे में पहुँचीं । घंटी बजा कर चपडासी को चाय के लिये बोल वो कार्यक्रम से संबंधित काग़ज़ी औपचारिकताएँ पूरी करने लगी। तभी उसकी आँखों में भंवर सिंह की बस्ती का दृश्य घूम गया वह सोचने लगी भँवर सिंह को हर दिन के सौ रूपये देकर पाँच दिन के लिये बुढ़ापा चित्र के लिये बुक करके आई है ।   भँवर सिंह सुबह दस बजे से चार बजे तक बुत बना जडवत बैठा रहेगा और शिल्पा उसका चित्र बनायेगी। कितना श्रम साध्य काम करेगा वो। जबकि वह स्वयं आशा कर रही है विभाग के लिये दो लाख प्राप्त करने की। पद्मा कुमार को आत्मग्लानि  सी हुई तो वो झटके से उठी और भँवर सिंह का मानदेय बढ़ाने की ठान कर प्राचार्या जी के कमरे की तरफ़ चल दी। 
68.
 ★कब जलेगा असली रावण 
आलू फ़ैक्टरी की कच्ची बस्ती में मातम छाया हुआ था । इस बस्ती की चार नाबालिग़ बच्चियाँ और दो मासूम बच्चे बस्ती से ग़ायब थे। थाने में रिपोर्ट लिखा दी गयी थी। पर दस दिन गुज़र जाने के बाद भी अभी उनका कोई सुराग़ नहीं मिला था। कच्ची बस्ती के उस वार्ड के विधायक कुर्सी  पर बैठे इस घटना की जानकारी ले रहे थे। एक मंत्री भी जीप रोक कर कच्ची बस्ती में एक घंटे तक नाक पर रूमाल रख कर रूके रहे और मौक़ा देख कर आने वाले चुनाव की सारी योजनाएँ बता गये । समाज कल्याण विभाग के कर्मचारी और समाज के सरोकारों से जुड़ी संस्थाएँ सक्रिय होकर कच्ची बस्ती के ऊपर मक्खियाों की तरह मँडराते रहे हैं लेकिन विडम्बना यह है कि कोई यह नहीं बता पा रहा है कि हर कोने में कुसंस्कार और मर्यादा के विराट रावण पनप रहे हैं । रोज़ कितनी ही सीताएँ नामधारी रावण सरेआम उठा कर ले जा रहे हैं ।संस्कृति के तमाम ठेकेदार रावणों के खेमे में पार्टियाँ करते नज़र आते हैं ।उनका अंत कब होगा ?सजे धजे मुखौटे तराश कर बनावटी रावण दहन की परंपराएँ निभा लो पर कब जलेगा असली रावण कब जीतेगी हर सीता यह कोई क्यों नहीं बता पा रहा है ?
69
निश्छल अनुराग 
सुबह विलाप के स्वर से नन्ही अनन्या जागी ।।घर के आँगन में दरी बिछी थी उस पर बैठी दादी ,बुआ ,चाची व अन्य परिजन रो रहे थे। अनन्या ने देखा पापा भी दीवार से पीठ सटाये खड़े थे । वह भी सुबक रहे थे।उसे देख कर पापा ने अपनी दोनों बाँहें हवा में फैला दी ।अनन्या लपक कर उनकी बाहों में सिमट गयी । बहुत दिनों से देख रही थी अनन्या कि माँ बहुत कमज़ोर हो गयीं थीं , बिस्तर से वह उठ भी नही पाती थीं ।ना कुुछ खा पाती थी बस,जूस पीती थीं ,वो भी गले में लगी ट्यूब से ।वह बोल भी नहीं सकती थीं , कभी बोलना चाहती थीं तो उनकी आवाज़ कुछ कुछ पंखे की घर्र  - घर्र  सी निकलती थी ,बस दादी व पापा ही समझ पाते थे कि वह क्या माँग रही हैं । स्कूल से आकर जब भी अनन्या उनकी पलंग की पाटी पर बैठती थी तो वह कंपकंपाते हाथों से उसका हाथ थाम लेती थी और अपनी थकी पीली आँखों से टुकुर टुकुर अनन्या को देखती रहती थीं। 
अनन्या को याद है एक दिन उसके बालों में हाथ फेरते हुअे माँ ने तकिये के नीचे से मानव की फ़ोटो निकाल कर उसे थमा दी थी और इशारे से उसे बताने लगीं कि वह अब उसकी माँ है। अनन्या से चार साल छोटा उसका भाई मानव अपाहिज था।पोलियो की वजह से वह घिसट घिसट कर चलता था ।घर में रिश्तेदारों की भीड़ बढ़ती जा रही थी । तभी उसके नाना नानी के आते ही सभी घरवाले ज़ोर ज़ोर से दहाड़ें मार कर रोने
 लगे । 
अनन्या चाह कर भी नहीं रो पा रही थी ।वह पापा की गोद से कूद कर उतरी।उसकी छोटी सी स्मृति में माँ का इशारा कौंधा।अनन्या को याद आया कि माँ कुछ ज़िम्मेदारियाँ उस पर छोड़ गयी है ।वह सीधी मानव के पास पहुँची ,उसे गोद में लिटा लिया ।नौकरानी से दूध की बोतल लेकर मानव को पिलाने लगी।  अनन्या को देख  नन्हे मानव के चेहरे पर भी चमक और होंठों पर मुस्कान आ गयी थी। सामने दीवार पर लगी माँ  की तस्वीर भी दोनों को देख कर अनुराग से मुस्करा रही थी।  
70
( काँच का प्याला )
★दोस्ती 
कमलनारायण ने जब विश्वास को सूचना  दी कि हरि अब इस दुनिया में नहीं रहा तो वह हैरान रह गया । परसों ही तो डेयरी बूथ पर दोनों मिले थे ।वह कह रहा था कि अब वह भला चंगा है । हाँ कभी कभी जोड़ों में दर्द हो जाता है चिकनगुनिया के बाद से ही थक भी जल्दी जाता है। विश्वास ने कमलनारायण को भारी मन से पूछा -"तीसरे की बैठक कब है ?"
"शायद कल ही है क्योंकि रात 11 बजे उसकी मृत्यु हुई थी हार्ट अटैक आ गया था ,अस्पताल ले गये थे पर रास्ते में ही शांत हो गया " कमलनारायण ने विश्वास को जानकारी दी। 
हरीश और कमलनारायण एक ही बिल्डिंग में रहते थे ।बहुत अच्छे दोस्त भी थे। रात दिन का उठना बैठना 
था ।
" ठीक है दाह संस्कार के समय पहुँचता हूँ "विश्वास ने कहा 
" विश्वास क्योंकि उसका भाई दो बजे तक पहुँच पायेगा इसलिये उसी हिसाब से सभी को ढाई बजे का टाइम दिया है पर यार मेरा बाॅस  दो बजे  लंच पर आ रहा है ,बड़ी मुश्किल से राज़ी किया है उसे  ।आज इतवार है तो वो मान गया । यार ,मैं लंच कैंसल नहीं कर सकता हूँ ।तू तो जानता है ना कि अगले हफ़्ते प्रमोशन ड्यू है मैं चार साल से अटक रहा हूँ । " कमलनारायण  ने सफ़ाई दी ।
विश्वास को बड़ी हैरत हुई । उसे एक  पुराना गाना याद आ गया देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान कितना बदल गया इंसान । मन की बौनी इमारतों में रहते हुअे आकाश के ख़्वाब पाल रहा है।  सच आज का इंसान कितना स्वार्थी हो गया है ,वह रिश्ते को काँच का प्याला समझता है जो हाथ से यदि गिर जाये तो टूट कर बिखर जाता है और उसे वापस जोड़ना नामुमकिन होता है। 
जब विश्वास बिल्डिंग में पहुँचा तो हरि को ले जाने की सभी तैयारियां हो चुकी थी ।जब अर्थी मेन गेट से बाहर की तरफ़ निकल रही थी तो विश्वास ने देखा पूरे परिवार के साथ कमलनारायण अपने बाॅस व उसकी पत्नी के स्वागत के लिये मुस्कुराता हुआ हाथ बाँध कर खड़ा था । 
71
★गोल्डन फ़्रेम 
मनोहर जब लंच पर भोजन करने घर आया तो उसने देखा कि दीपावली की सफ़ाई पूरी हो चुकी थी। घर को नये उपादानों से सज़ा दिया गया था।पुराना सामान बरामदे में एक कोने में पड़ा था । तभी मनोहर की  निगाहें एक श्वेत -श्याम चित्र पर पड़ी ।वह चित्र उनके लिये बहुत अनमोल था क्योंकि वह उनके माता -पिता का था जो बरसों से पूजा घर की दिवार पर लगा था ।तस्वीर उठा कर मनोहर अपनी पत्नी पुष्पावती के पास गये ,वह मनोहर के लिये खाना लगा रहीं थी -"पुष्पा यह तस्वीर रद्दी के सामान में क्यों पटक दी ?" मनोहर के स्वर में दु:ख व ग़ुस्से का मिला जुला पुट् था। 
"अरे मनोहर यह श्वेत श्याम तस्वीर थी इसलिये हटा दी ,कमरे के गोल्डन रंग से बिलकुल मेल नहीं खा रही थी। " पुष्पावती ने एेसे जवाब दिया मानों उसे किसी गहरे संकट से मुक्ति मिली हो।
मनोहर ने तस्वीर को एक अख़बार में लपेट कर अपने बैग में रख दिया । शाम को सभी घरवालों ने देखा कि
मनोहर के माँ बाप की श्वेत -श्याम तस्वीर का कायांतरण हो गया था । तस्वीर को नये रंगों से रंँग ,गोल्डन फ़्रेम में जड़ कर वापस पूजा घर की दीवार पर लगा दिया गया था ।
72
★पाँच रूपये का सिक्का 
कार जैसे ही मोती डूँगरी के चौराहे पर रूकी एक नन्हा चौदह वर्ष का बालक राधा की कार के शीशे से सट कर खड़ा होकर गिड़गिड़ाने लगा-" दीदी जी सुगंधित अगरबत्ती ले लीजिये ,मना मत करियेगा ,भगवान की क़सम दीदी सुबह से बोनी तक नहीं हुई है ,बस एक ही ले लीजिये,ईश्वर आपका भला करेगा। " राधा ने देखा उसके हाथ में तरह तरह की अगरबत्तियाँ थी और वह बदल बदल कर दिखा रहा था। कार का काँच खोल कर राधा ने एक चंदन की अगरबत्ती का पैकेट ख़रीद लिया और बटुआ खोल कर बीस रूपये का बँधा नोट ढूँढने लगी पर खुले पंद्रह रूपये ही मिले ।बाक़ी पाँच पाँच सौ के नोट थे। बालक ने देखा चौराहे की बती हरी हो गयी है तो वह बालक पंद्रह रूपये लेकर पीछे हट गया ।हवा में हाथ हिला कर बड़ी आत्मीयता से बोला -" दीदी आप लौटते वक़्त दें देना , मैं रोज़ छह बजे तक इसी चौराहे पर सामान बेचता हूँ । आपको देख कर आ जाऊँगा पाँच रूपये लेने। " कह कर बालक फुटपाथ की तरफ़ भाग गया। पंद्रह रूपये पाकर जो उस बालक के चेहरे पर चमक आई थी वह भी राधा से छिपी नहीं रही । 
शाम को आफ़िस से लौटते वक़्त उसने बटुअे से पाँच रूपये का सिक्का निकाल कर पास की सीट पर रख दिया ।राधा पूरे रास्ते उसी बालक के बारे में सोचती रही ।सुबह जब वह अगरबत्ती देने के लिये ज़िद कर रहा था तो बराबर बोल रहा था -" दीदी  ,मेरे माँ - बाबा बिमार हैं ,और कोई कमाने वाला नहीं है । छह महीने की एक बहन है , उसको दूध चाहिये,हम ग़रीब हैं , पढ़ाई की उम्र में यह सामान बेचना मेरी मजबूरी है पर दीदी रात के सरकारी स्कूल में रोज पढ़ने जाता हूँ । चौराहे पर पहुँच कर राधा ने इर्द उधर निगाहें दौड़ाई पर वह बालक दिखाई नहीं दिया। चौराहे की दूसरी तरफ़ बीच सड़क पर लोगों की भीड़ हो रही थी इस कारण ट्रेफ़िक जाम हो रहा था। अपनी कार का शीशा नीचे कर उसने एक व्यक्ति से पूछा-" क्या हुआ भैया इतनी भीड़ क्यों हो रही है ?"
"किसी बालक का कार से  एक्सिडेंट हो गया है जी ।"कह कर राहगीर आगे बढ़ गया ।सीटी बजा बजा कर पुलिस भीड़ को सड़क से हटा रही थी , तभी राधा की नज़रें बीच सड़क पर ख़ून से लथपथ पड़े बालक पर पड़ी । उस बालक का बदन कुचल गया था ,जैसे ही राधा की नज़रें उस शव के चेहरे पर पड़ी वह चौंक पड़ी उसका कलेजा मुँह को आ गया ,यह तो वही सुबह वाला बालक था ,उसके चारों तरफ़ अगरबत्ती के पैकेट बिखरे हुअे थे । अब क्या होगा उसके परिवार का ? राधा का दिल दर्द से भर उठा ।क्या राधा जीवन मेंे इस घटना को भूल पायेगी?।उसने पाँच का सिक्का मुटठी में दबा कर ज़ोर से आँखें भींच ली , उसे लगा कि वह किसी गहरे भँवर की स्याह लहरों में गोते लगा रही है ।
★73
बासी सब्ज़ियाँ 
"क्या खायें और क्या पकायें?" बुदबुदाती हुई रामप्यारी ने एक पोटली में चार  टिक्कड ( मोटी रोटियाँ ) बाँध कर रात की बची मूली के पत्ताें की भाजी रखी और काम पर निकल गयी । दिन भर मज़दूरी करने के बाद दिहाडी में मिलता ही क्या है ।ठेकेदार तो एक मिनट साँस नहीं लेने देता है , वो तो मज़दूरों को इस्पात के बने पुतले मात्र समझता है। काम पर पहुँच कर रामप्यारी ने जल्दी - जल्दी कपड़े बदलें और काम में जुट गई । तगारी में ईंटें भर कर इमारत के तीसरे माले तक पहुँचाती रही । कुछ समय बाद आसमान में घटाटोप बादल छाने लगे ,टपटप बूँदें गिरने लगी तो रामप्यारी का दिल डूबने लगा । कल बारिश हुई तो काम बंद रहेगा और घर में तो कुछ भी  राशन पानी नहीं है  सोच कर ही उसका मन  उदास हो उठता है , पति तो शराबी है दिन रात पीकर पड़ा रहता है।दो छोटे बच्चे हैं  जिन्हें अपनी बूढ़ी माँ के पास छोड कर रामप्यारी को रोज़ काम पर निकलना पड़ता है ।रामप्यारी यही सब सोचती बैठी थी और भोजन के अवकाश में टिक्कड मूली के  पत्ताें की भाजी के साथ खा रही थी , तभी पड़ोस के घर से एक युवती बाहर निकली और अपने घर के फुटपाथ पर एक अख़बार बिछा कर उस पर फ्रिज से निकाली बासी सी सब्ज़ियाँ पटक गयी ,रामप्यारी ने देखा कि पुरानी मुरझाई भिंडी ,पत्तागोभी,पीली पड़ गयी कुछ मूलियां हैं तो वह लपक कर उस युवती के पास पहुँच कर याचना भरे स्वर में बोली- " बीबी जी यह सब्ज़ियाँ तो पूरी तरह ख़राब नहीं हैं , पका कर बनाई जा सकती हैं , क्या मैं उठा लूँ? " 
युवती ने आश्चर्य से भर कर कहा-"ले लो पर यह तो बासी और  मुरझाई हुई तरकारियां  हैं , दरअसल  मैं कुछ दिनों के लिये शहर के बाहर गयी हुई थी ,लौटी तो सोचा फ्रिज साफ़ करके पुरानी चीज़ें निकाल कर नयी सब्ज़ियाँ ले आऊँ ।यह यहाँ गाय खा जायेगी , अगर तुम्हारे काम आ जायेंगी तो ज़रूर ले जाओ क्योंकि मेरे लिये तो यह बेकार हैं , तुम कहो तो अंदर से और ला दूँ , अभी तो और भी फेंकने वाला सामान रखा है । 
रामप्यारी की आँखों में चमक आ गयी । वह शब्दों में मिठास भर कर बोली-" बहनजी , हम तो मज़दूर आदमी हैं ,मंहगाई ने हमारी कमर तोड़ रखी है , भूख इस्पात के टुकड़ों सी पेट में चुभती रहती है ।अब तो हम यह भी नहीं कह सकते कि दाल रोटी खाते हैं या प्याज़ रोटी से पेट भरते हैं ,यह दोनों ही हमारी पहुँच से बाहर हो गये हैं ।आप ला दो  अगर आपके पास  यदि और भी बचा कुचा सामान हो तो ।"
युवती ने हाँ में सिर हिलाया और अंदर से एक थैला भर कर मुरझाये आलू ,टमाटर ,बदरंग हुअे केले ,सेब व किशमिश की तरह सिकुड़े अंगूर ले आई ।रामप्यारी ने शुक्रिया के अंदाज में हाथ जोड़ दिये और धन्यवाद की मुद्रा में आँखें मिचमिचाती हुई शुक्रिया देने के अंदाज में बोली-" यह सामान तो हमारे एक हफ़्ते का जुगाड़ है बीबीजी ,भगवान आपकाो हमेशा ख़ुश रखे। " एक गहरी साँस छोड़ कर रामप्यारी जल्दी -जल्दी सारा सामान अपने थैले में भरने लगी।   
★74
उपहार 
" माँ , आज आपके समक्ष  मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि अपनी शादी बिना दहेज लिये सादगी से करूँगा ,वैसे ही मीरा के पिता ने  सगाई पर बहुत ख़र्चा किया है। " विक्रांत ने जब दृढ़ता से अपना फ़ैसला माँ को सुनाया तो उनका मुँह उतर गया ।  वो विकांत को समझाने लगीं - बेटा कुछ परंपराएँ व दस्तूर होते हैं जो समाज को दिखाने के लिये बेटी के माँ बाप को निभाने पड़ते हैं । ठीक है ,हम अपनी तरफ़ से कोई डिमांड नहीं करेंगे पर जो अपनी लड़की को वो कुछ देंगें तो हम मना भी नहीं करेंगें। तुझे मेरी सौंगध है  विक्की तू लड़की वालों के सामने किसी तरह का नाटक मत करना  समाज के सामने मेरा 
मान रखना ।"
"माँ यह कैसी क़सम है ,पिताजी को मरने से पहले मैंने वादा किया था कि मैं अपनी शादी में हरगिज़ दहेज नहीं लूँगा ।तुमने देखा नहीं दीदी के ससुराल से कितनी दहेज की माँगें थी ।पूरी जिंदगी  अपनी पेंशन की पूँजी से पिताजी किश्तें कटवाते रहे ।आज तक भी हम किराये के मकान में रह हैं , ना अपना मकान बनवा पाये ना ही कार ख़रीद पाये " विक्रांत अपने फ़ैसले में चट्टान की तरह दृढ रहना चाहता था। 
तभी दीपावली की मिठाईयां लेकर विक्रांत के ससुराल वाले आ पहुँचें ।साथ में पंडित भी आया था। कुंडली के ग्रह अनुसार कार्तिक पूर्णिमा की तारीख़ तय कर दी गयी। चाय नाश्ते के बाद विक्रांत को आशीर्वाद देते हुअे ससुर साहिब ने एक आधुनिक फ़्लैट व कार की चाबी  विक्रांत को सौंपी तो वह चौंक गया ।कुछ बोलता पर माँ की सौंगध की वजह से चुप्पी का दंश सह गया। ससुर  साहब ने स्वर में आत्मीयता की शक्कर घोलते हुअे कहा-" दामाद जी हम अपनी हैसियत के अनुसार एक छोटा सा दिवाली का उपहार दें रहे हैं ,प्लीज़ मना मत करियेगा ,हमारे स्नेह का मान रखियेगा। "
विक्रांत की खुली हथेली पर ससुर साहब ने फ़्लैट और कार की चाबी थमाई तो उसने उदास नज़रों से माँ की तरफ़ देखा ,माँ ने मैं क्या कर सकती हूँ के अंदाज में हवा में  हाथ हिला दिये पर उनकी आँखों में ख़ुशी की चमक थी ।विक्रांत को माँ के शब्द याद आये कि हम ख़ुद डिमांड नहीं करेंगें पर जो वो देंगें हम मना नहीं करेंगे ।विक्रांत को लगा कि वह गहरे दलदल में फँसता जा रहा है ।नि:शब्द खड़ा वह हाथ में रखी फ़्लैट और कार की चाबी को तो देर तक शून्य आँखों से देखता रहा पर शायद माँ की कुटिलता से भरी आँखें नहीं समझ ।
75.
★हरियाये बाँस का आमंत्रण
विनायक एयरपोर्ट से सीधे टैक्सी  लेकर अपने गाँव पहुँचा तो हैरान रह गया! मनफूल काकी  आज भी अपनी कुटिया को बाँस की बातियों से छवा रही थी l उन्हीं की बगल में घीसू काका  सा ॰  बांस की खप्पचियों से कच्ची झोंपड़ी की दीवारों को मूँज की रसियों से बांध रहे थे lविनायक  ने इतनी सुंदर कारीगरी पहले कभी नहीं देखी थीl करीब तीस साल बाद वो अपने गाँव आया था l उसके ताऊ रूप लाल सा॰ जी का देहावसान हो गया था इसलिए आना भी जरूरी था l टैक्सी जैसे ही  दालान में रूकी वहां कंचे खेल रहे घर के छोटे  बच्चे खुशी से उसके इर्द गिर्द घूमर करने लगेl दरअसल यह गाँव नहीं था बल्कि  एक दूरस्थ बसी कच्ची ढ़ाणी थीl बरसों पहले विनायक के पिता नौकरी की तलाश में  यहाँ से एक व्यापारी सेठ के साथ शहर चले गए थे, कभी कभार ही आते थे l फिर  सेठ की कंपनी के  साथ  अमरीका जाना पड़ा फ़िर वहीं बस गए !विनायक तब छोटा  ही था पर जेहन में इस ढ़ाणी की धुंधली सी यादें जरूर थी l वो हरियाये बांस के झुरमुट में दोस्तों के साथ छुपन छुपाई खेला करता था ,उसे याद आ रहा था कि उन दिनों उनकी  दादीसा .बांस की तकली से सूत कातती थी lगांवों में खुले आम ढ़ोर ढंकर घूमा करते थे ,उन्हे तालाबों में नहलाने  लेके जाया जाता था lवो दृश्य भी विनायक कों याद था जब दादा सा॰  रंग बिरंगे कागजों को बांस की खप्पचियों पर चिपका कर पतंग बनाते   थे । दादा सा बच्चों की फटी पतंगों पर भी  आटे कि लेई से जगह जगह कागज के पेबन्द  चिपका  कर दालान में बांस की   चटाई  पर सुखाते भी थे lतभी विनायक की  तंद्रा टूटी जब उसे  देख कर मनफूल काकी सा॰ने हाथों की छत्तरी बना कर पहचाना और गदगदाई आवाज़ में  स्वागत करते हुए बोली --"अररे वीनू बचुवा. आई गवा तू । बबुवा तेरे ताऊ सा तो धोका दे गए रे ....आ  लल्ला आ .... कहती  हाथ का काम छोड़ उसको बांह से पकड़ खींचती सी विनायक को  झोंपड़ी के पिछवाडे   ले गयी जहां छप्परों वाला छोटा सा गोबर से लिपा पुता  सा रसोई घर था l वहा झाझन का टाट लगा था lजमीन पर चूल्हे के पास घीसू काका सा की विधवा बहू बैठी थी l॰विनायक को देख उसने हाथ जोड़ दिये , घूँघट जरा और खींचकर  छुई मुई सी और सिमट गयी l विनायक ने वहीं कोने में रखी बाल्टी में लोटा डूबा हाथ मुंह धोये और घीसू काका सा ॰व मनफूल काकी सा॰से बोलता बतियाता रहा l ढाक की पतल में भात परोसा गया ,पीतल की कटोरी में अरहर की शोरबे वाली दाल ,कद्दू मिर्ची की तरकारी ,छाछ ,लापसी( मीठा गुड का दलिया) और साबुत छोटा सा कांदा  ...विनायक को एक पल को भी  हिचकिचाहट नहीं हुई ,खाना इतना स्वादिष्ट था कि आनंद आ गया  उसने चटकारे  ले ले कर खाया ,अमेरिका में जो खाया जाता है उसकी तो इस भोजन से कोई तुलना ही नहीं थी ...यह तो जैसे ईश्वर का प्रसाद था l संध्या को बाँस की खपरैल से घिरे छोटे से दालान में तीये की बैठक हुई । हंसली की शक्ल में लोग बैठे । बैठक ख़त्म हुई तो गाँव के बहुत से रिश्तेदार विनायक के इर्द गिर्द मधुमक्खियों से मँडराते रहे । कुछ रिश्तेदारों को विनायक पहचान पा रहा था , बाक़ी घीसू काका सा॰ परिचय दे रहे थे। विनायक काफी थक गया था, रात को निपट अंधेरा था पर चौकी पर लालटेन की ढिबरी उस अंधेरे को दूर कर रही थी । कुटिया के कोने में रखी चटाई पर विनायक लेट गया , जाने कब आँख लग गई कब भोर हो गयी उसे पता ही नहीं चला । इतनी सुकून भरी नींद बरसों बाद नसीब हुई थी।अब लौटने का वक़्त हो गया था । मनफूल काकी सा, की आँखों में आंसूं छलक आये थे। रूँधे  गले से बोलीं __"बबुआ आते रहिब !"  विनायक ने तुरन्त कहा- "ज़रूर काकी सा ,अब तो हर बरस चक्कर लगाउँगा. मेरा वादा रहा काकी सा.और हाँ  आप भी अपना और काका सा का ध्यान रखना।" घीसू काका सा ने भी अँगोछे से आँसू पोंछे । सारे रिश्तेदार कार को घेर कर खड़े थे। विनायक के माथे पर तिलक लगा कर उसके मुँह में गुड की डली देती घीसू काका की बेटी आचुकी जीजी भी रो रही थी । विनायक ने सब बड़ों के पैर छुए और जाने क्यों फूट फूट कर रो पड़ा ।शायद उसका मन  इस छोटी सी ठाणी की रस भरी आत्मीयता में डूब गया थाl गाँव की मीठी बासंती हवायें खेतों खलिहानो की ठंडी हवाओं में घुल कर विनायक को मानो  कह रहीं थी कि  यहाँ का जीवन आज भी व्यावहारिक है शहरों की तरह औपचारिक और यांत्रिक नहीं है ।गाँवों ढाणियो में आज भी बाँस की खोखल से तराशी बांसुरी की मधुर रागिनी मन मोह लेती है। टैक्सी गाँव की कच्ची पगडंडी पर धूल उड़ाती दौड़ रही थी और ढाणी में हवाओं के साथ हरियाये बाँस की डालियाँ हिल हिल कर नत मस्तक होकर विनायक को  जल्दी वापस आने का स्नेह भरा आमन्त्रण दे रही थी ।
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★जलती इमारत
आज इतवार की छुट्टी थी  निख़िल  बाल्कनी में बैठा किताब पढ़ रहा था। तभी उसने देखा एक चिड़िया चीं - चीं करती उसके इर्द गिर्द घूमने लगी ,वह चौंक कर खड़ा हो गया ,तब तक चिड़िया बाल्कनी की मुँडेर पर बैठ गई ।निख़िल ने देखा बाल्कनी के कोने में लगे एसी के नीचे एक तिनकों से बना घोंसला उलटा पड़ा हुआ था। उसके आस पास बिना परों व बिना त्वचा के छोटे छोटे नवजात बच्चे जो उड़ने में असमर्थ थे गिरे पड़े थे ।तभी एक चिडा भी मुँह में तिनका दबाये उड़ता हुआ आया और निख़िल के इर्द गिर्द  मँडराने  लगा।उसे देख कर चिड़िया भी घोंसले के चारों ओर चक्कर लगाते हुअे अजीब सी आवाज़ में क्रंदन करने लगी ।निख़िल को सारा माजरा समझ में आ गया । उसने घोंसला ज़मीन से उठा कर वापस एसी पर रखा और एक अख़बार से नवजात शिशुओं को उठा कर वापस घोंसले में रख दिया। वह डर भी रहा था कि कहीं चिडिया  उसकी चोंच से आँख ना फोड़ दें ।जबकि उसका तो कोई क़सूर ही नहीं था। आज हवा तेज़ थी इसलिये घोंसला शायद उलट गया होगा । सच इंसान हो या जानवर सभी को नीड़ सुरक्षा का अहसास देता है ।अपने परिवार की सुरक्षा का ध्यान रखते हुए हम अपने घरोंदेंं को सभी ख़तरों से सुरक्षित रखने के प्रयास करते हैं ,कभी कभी जोखिम उठाने से भी नहीं कतराते । 
 आज का यह दृश्य देख कर निख़िल की स्मृति का ताना बाना अतीत  में चला गया । कल की सी बात लगती है जब वह एक बार आफ़िस से लौट कर पार्किंग में कार पार्क कर रहा था कि उसने देखा उसकी बिल्डिंग के उस माले में जहाँ वह रहता है आग की लपटें निकल रही हैं , पूरी बिल्डिंग में काला धुआँ मँडरा रहा है ।  बिल्डिंग के बाहर भी लोगों की भीड़ जमा थी । लोग ज़ोर ज़ोर से चिल्लाते हुअे बोल रहे थे । यह भयानक मंज़र देख कर वह ऊपर अपने फ़्लैट की तरफ़ भागा ।घर का दरवाज़ा धकेल कर अंदर घुसा तो देखा उसकी पत्नी और बच्चे आग की लपटों से घिरे काँपते हुअे रसोई के कोने में खड़े हैं । गलती से गैस पर तेल चढ़ा कर निख़िल की पत्नी किसी और काम में लग गई थी और कड़ाही के तेल ने  आग पकड़ ली थी  और खिड़की के दरवाज़ों तक फैल भभक गई थी ।  निख़िल की पत्नी ने सूझबूझ से हिम्मत करके  गैस का सिलेंडर तो किसी तरह बंद कर दिया था वरणा विस्फोट भी हो सकता था । बिल्डिंग में चिल्ल पों मची हुई थी पर किसी में इतना साहस नहीं था कि कमरे तक पहुँच सकें । हाँ वहाँ के निवासियों ने दमकल विभाग को ज़रूर फ़ोन कर दिया था ।कुछ लोग पानी से भरी बाल्टियां भर भर कर आग बुझाने की  कोशिश  ज़रूर कर रहे थे।निख़िल ने पड़ोसियों से कंबल मांगे एक ख़ुद के शरीर के चारों तरफ लपेटा और रसोंई  में घुस कर दूसरे कंबल में बच्चों को समेट कर  बाहर लाया ।धुअें के कारण निख़िल  की  पत्नी को चक्कर आगया था तो वो गिर पड़ीं थी । एक पड़ोसी की मदद से निखिल ने  उन्हें  निकाला ।निख़िल के हाथ और बाल आग में झुलस गये थे ।तभी आग बुझाने वाली दमकल की गाडी आ पहुँची ।बिल्डिंग के लोगों ने निख़िल के परिवार को अस्पताल तक पहुँचाया । प्राथमिक उपचार के बाद उन्हें छुट्टी दें दी गयी पर बहुत दिनों तक बिल्डिंग में लोगों के बीच दहशत का माहौल रहा । अपना घरोंदेंं और उसमें रह रहे बच्चों से बढ कर कुछ अनमोल कुछ नहीं होता  है इस अनुभव ने निख़िल को सिखाया । जीवन हमेशा गतिमान रहे यह  प्रकृति का नियम है ।
आज भी  निख़िल को चिड़िया का घोंसले के लिये क्रंदन करके सुरक्षित करने का प्रयास अच्छा लगा और इस दृश्य ने उसके अपने ही जीवन की इतनी पुरानी घटना की उसे याद दिला दी जब उसने अपनी पत्नी और बच्चाें को सुरक्षा देने के लिये अपनी जान की बाज़ी लगा दी  थी ।आज भी निखिल सिहर उठता है जब उस जलती हुई बिल्डिंग का वह भयावह दृश्य उसकी आँखों में ताज़ा हो उठता है।
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★कोल्हू का बैल 
भोला नाम था उसका , उम्र बारह साल  थी पर एक ढाबेनुमा दुकान में काम करता था । परिवार बहुत ग़रीब था इसलिये गाँव के सरपंच ने भोला को सिफ़ारिश कर गाँव में ही मांगीराम के ढाबे पर लगवा दिया था। सुबह छह बजे से रात के दस बजे तक वह  कोल्हू  के बैल की तरह लगा रहता था। वहाँ उसे खाना और एक हज़ार रूपये मिलते हैं । घरवाले ख़ुश हैं कि बच्चे को दोनों समय खाना मिल रहा है और उन्हें पैसे लेकिन मात्र भोला जानता है कि उसकी हैसियत एक जानवर से बदतर है। मांगीराम उसे दो बजे पहले खाना नहीं खाने देता जबकि उसी का बेटा वहाँ बैठा पेस्टरी,मिठाई ,आइसक्रीम व चाकलेट खा रहा होता  हैं ।नाश्ते में उसे एक कप चाय के साथ दो डबल रोटी के टुकड़े दिये जाते हैं । शाम को एक कप चाय के साथ पत्थर से भी  सख़्त दो मठरी । कुपोषण का शिकार भोला जब तरह तरह के व्यंजन लेकर टेबल पर जाता है तो उसकी लार टपकने लगती है। आज यही हुआ उससे भूख सहन नहीं हुई तो उसने तरकीब से  एक सैंडविच दबा लिया और शौचालय में जाकर जल्दी जल्दी चबाने लगा।लेकिन उसकी बदनसीबीं देखें सैंडविच छिपाते हुअे उसकी तस्वीर सी सी टी वीं कैमरे में आ गई ।मांगीराम ने पास रखी छड़ी उठाई और मार मार कर उसे अधमरा कर दिया और दो दिन तक उसे एक ही  वक़्त खाना देने का एलान भी कर दिया । वहीं बैठा समाज कल्याण विभाग के बाल विभाग में काम करने वाला एक कर्मचारी यह सब देख कर मांगीराम को कह रहा था -"  सही सबक़ दिया बाबू ,यह लातों के भूत बातों से कहाँ मानते हैं । " फिर प्लेट में रखी मुर्ग़े की टाँग को चटकारे ले लेकर खाने लगा।
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★पहला करवा चौथ 
"क्या बात है मोहन बाबू आज जल्दी जा रहे हैं आप ? "आफ़िस के चौकीदार बाबूलाल ने मुस्करा कर उन्हें कहा तो मोहनदास भी मुस्करा दिये।
" अरे भाई आज तो मुझे जल्दी जाना ही चाहिये ना, मेरी पत्नी का पहला करवा चौथ भी है ,मैं पहुँचूँगा तभी तो वो व्रत खोल पायेगीं और हाँ बाबूलाल तुम भी जल्दी घर चले जाना ,भई तुम्हारी भी तो मेरी ही तरह नयी नयी शादी हुई है ।"मोहन दास ने शादी शब्द पर जोर देते हुअे आँख मारी ।  
"अजी साहब एेसी हमारी क़िस्मत कहाँ , जब तक बड़े बाबू की मिटिंग चलेगी तब तक तो बैठना ही होगा ।" कह कर बाबूलाल  ने मोहन बाबू को सैल्यूट मारा तो वह ठहाका मार कर हंस दिये और स्कूटर स्टार्ट कर घर की तरफ चल दिये।
बाबूलाल बोर्ड मिटिंग ख़त्म हुई तब आफ़िस के सारे दरवाज़े बंद करके बड़े बाबू के पास पहुँचा और जाने की इजाज़त माँगीं तब पौने ग्यारह बज रहे थे ।वह भी घर के लिये निकल ही रहे थे । बाबूलाल ने सभी फ़ाइलें अलमारी में रखी और बड़े बाबू के कमरे में ताला लगाने को कुंडी पर हाथ रखा ही था कि फ़ोन की घंटी बोली ।तब तक बड़े बाबू लंबे लंबे डगमगा भरते हुअे पार्किंग तक पहुँच चुके थे। बेमन  से कुंडी खोल बाबूलाल ने फ़ोन उठाया तो दूसरी तरफ़ से एक महिला की आवाज़ गूंजीं-"हैलो क्या रैफल दफ़्तर से बोल रहे हैं ? "
"जी हाँ मैं यहाँ का चौकीदार बाबूलाल बोल रहा हूँ ,कहिये मैडम जी ,किससे बात करनी है?" बाबूलाल ने ऊँचे स्वर में जवाब दिया ।
"देखिये ,अभी कुछ देर पहले आपके दफ़्तर के एक कर्मचारी मोहनदास के स्कूटर का एक ट्रक से एक्सिडेंट हो गया है ,उनकी क़मीज़ की जेब से हमें कार्ड मिला जिसमें आफ़िस का यह नंबर था इसलिये आपको ख़बर कर रहे हैं ।" वह महिला जल्दी जल्दी बोल रही थी ।
"अ  अ अब हमारे साहब जी कैसे हैं मैडम जी?" बाबूलाल  ने हकलाते हुअे पूछा 
" सौंरी दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हमने उन्हें बचाने की बहुत कोशिश की पर वह शांत हो चुके हैं ।उनकी लाश हमने मुरदा घर में रख दी है , आप प्लीज़   उनके घर पर ख़बर कर दें ताकि वो लोग यहाँ की औपचारिकताएँ आकर पूरी कर दें  व डैड बाॅडी  ले जायें।" कह कर महिला ने फ़ोन बंद कर दिया।
काँपता हुआ बाबूलाल   पार्किंग की तरफ़ भागा ताकि बड़े बाबू को पकड़ सके । वह कार चालू करने ही वाले थे ।बाबूलाल को दौड़ कर आते देख रूक 
गये - " क्या हुआ बाबूलाल ?" बड़े बाबू ने कार की खिड़की खोल पूछा तो बाबूलाल  ने काँपती आवाज़ में एक साँस में सारी जानकारी बड़े बाबू को दें दी। बड़े बाबू का चेहरा  भी जर्द हो गया , वह चीख़ते हुअे बोले-" ग़ज़ब हो गया बाबूलाल तुम फ़ौरन अस्पताल पहुँचों ,मोहनदास के पास एक बहुत ही महत्वपूर्ण कांफिडेंशियल फ़ाइल थी जिसे वह अपने साथ ले गया था ताकि उसमें आज की मिटिंग की रिपोर्ट भी दर्ज कर सके। वह फ़ाइल आफ़िस के बाहर ले जाना मना है , उस फ़ाइल का मिलना ज़रूरी है , कहीं एेसा ना हो वो इधर उधर हो जाये।, वरणा मेरी तो नौकरी ही चली जायेगी।" बड़े बाबू सफ़ेद पड़ गये थे। 
 बड़े बाबू की बात सुन बाबूलाल चपडासी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया ,उसने बड़ी बेरुख़ी से जवाब दिया -"बड़े बाबू ज़्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूँ पर अभी मेरे अंदर थोड़ी बहुत इंसानियत बाक़ी है । आप चाहो तो मुझे नौकरी से निकाल दो पर मैं पहले मोहनदास बाबू के घरवालों को सूचित करूँगा । आज उनकी पत्नी का पहला करवा चौथ था ,वह उनका इंतज़ार कर रही होगीं । बड़े बाबू पहाड़ टूटा है उस परिवार पर फिर भी देख रहा हूँ आपको अपनी नौकरी की पड़ी है , आप सिर्फ़ अपने बारे में सोच रहे हैं  आप मुझे  कह रहे हैं अस्पताल जाने के लिये ,वो भी फ़ाइल ढूँढ़ने को ?"बिना जवाब सुने बाबूलाल  ने साइकल उठाई और पैडल  मारता हुआ मोहनदास के घर की तरफ़ चल दिया । बाबूलाल ने आकाश की तरफ़ नज़रें उठाई तो देखा कि घटाटोप बादलों के कारण दूर दूर तक चंद्रमा दिखाई नहीं दें रहा था मानों समाधि में जा बैठा  हो।
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★मीठा सपना 
जब भी मैं कॉलेज जाने के लिए कार निकालती हूँ , तो  जाने कहाँ से पाखी- सी उड़ती वो लड़की मेरे गेट  के पास आ खड़ी होती है  । कार निकालते ही मेन गेट बंद कर वो दमकती आँखों से मुझे देखती रहती है  मानो कह रही हो कि दीदी आप मुझे बहुत अच्छी लगती हैं !कुछ दिन वो बीच में दिखी नहीं,तो मैं ही  बैचैन हो गई थी इसलिए उसे देखते ही बोली -इतने दिन  कहाँ रही री छौरी,दिखी नहीं ?
          वो मेरी कार के पास आकर राजस्थानी  भाषा  में बोली-
          "नानी के गयी ही वा है न जो  नाल सूँ  पड़ गयी छी वाकी हड्डी टूटगी छी न  ई वास्ते माँ के लारे देखबा ने गयी छी( नानी के गई थी ।वो सीढी से गिर गयी थी न, उनकी हड्डी टूट गई थी इसलिए माँ के साथ देखने को गई थी )
          'अच्छा अच्छा ठीक है 'मुझे जल्दी थी जाने की, पर वो बिलकुल मेरी कार से सटी खड़ी थी , हाथों में कुछ छिपा रखा था तो मैं समझ गई थी कि कुछ दिखाना चाहती है ! दरअसल कुछ दिन पहले उसे मैंने कहा था कि लड़कियों को पढ़ना-  लिखना चाहिए, तो वो बोली थी कि दीदी माँ भी कह रही थीं  कि तुझे खूब पढ़ाऊँगी ,अभी दुपहर वाले सरकारी स्कूल में पढ़ती  हूँ ।
इस लड़की की आँखों में अलग सी चमक दिखती थी मुझे।उसकी माँ मेरे किरायेदार के यहाँ रोज काम करने सुबह के समय आती थी ,तो उसे भी संग में  ले आती थी ! कुछ दिन पहले ही मैंने उसे पढ़ने को कुछ बाल पत्रिकाएँ दी थी। मुझे उसकी माँ ने बताया था कि  वह उन्हें  बड़ी लगन से पढ़ती थी।
       "हाथ में क्या लाई है री ,क्या छिपा रखा है ?मेरी बात खत्म हो उससे पहले ही उसने हाथ बढ़ा एक तुड़ा मुडा कागज पकड़ा दिया।,मैंने कागज खोलकर देखा उसमें  लिखा था -"किताबें मुझको लगती हैं  प्यारी प्यारी पढ़ लूँगी मैं मिलते ही सारी की सारीकुछ किताबें और पढ़ने के लिए दे दो न दीदी जी  !"
           मैं हतप्रभ  सी उसे देखती रही ,वो सात वर्ष की थी और ये कवितामयी पंक्तियाँ टेढ़ी- मेढ़ी शैली में उसका भविष्य बता  रही थी  ? उसे जल्दी कुछ किताबें  देने की बात कहकर मैं कॉलेज की ओर चल दी ।
          कार के शीशे से पीछे झाँका तो देखा वह मेरा मेन गेट बंद कर मुझे जाते निहार रही थी और मैं सोच रही थी कि सच है यह कि बाल मन में ईश्वर बसते हैं ।
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★आँगन की तुलसी
नववर्ष का पहला दिन था । सर्द भिनसार ने अभी अपनी आँखें खोली ही थी पर  ओम-रंजनी के घर में आज भी रोज की तरह बहस जारी थी। रंजनी को कौतूहल नहीं हुआ ा  यह तो अब रोज़ की कहानी थी ।पूजा घर से रंजनी की सासू माँ के स्वर  में आरती के बोल-"जय जगदीश हरे "गूँज रहे थे।
उन बोलों के साथ जगदीश बाबू  के स्वर अलग ही ताल मिला रहे थे--"बहू को नोकरी पर भेजते हो, आख़िर ज़रूरत क्या है? तुम्हारी माँ  अठावन साल की उम्र में रसोई घर में खटती हैऔर मैं यहाँ बंध कर रह जाता हूँ ।यह कब तक चलेगा? रिटायर हुए छह माह हो गये , यह सोच कर यहाँ आया था कि ताजीवन  तुम लोगों से नौकरी के चक्कर में दूर रहा ,अब यहाँ हूँ तो बहू के हाथ का गरम गरम खाना खाऊँगा , आराम करूँगा पर यहाँ तो नाटक ही दूसरा है ।"
यह सारी बातें जगदीश बाबू अपने बेटै ओम को सुना कर कह रहे थे । उस वक़्त ओम दफ़्तर के लिये तैयार हाे रहा था ,धीरे  से बोला -"  बाबा आज की ज़रूरत है महिलाओं की नौकरी ,हम पर ज़िम्मेदारियाँ है,आमदनी इतनी नहीं कि रोज़मर्रा की ज़रूरतें अकेले पूरा कर सकूँ , रजनी  पढ़ी लिखी है , सहयोग करती है , बाबा क्या बुरा है ?फिर आपका तो सारा काम निपटा कर दफ़्तर जाती है , आपका पूरा आदर करती है , फिर कुछ ही दिनो की बात है , अब आप शान्त हो जाओ ।"
इसी शोर शराबे के बीच आरती ख़त्म करके ओम की माँ आगई और पति को समझाने लगी -"अजी सुनते हो,रोज़ ही बिना बात खिटपिट करते हो,कल से सेंट्रल पार्क में घूमने चलेंगें जी ।"
फिर बेटे के आरती देते हुये माँ बोली-"ना बेटा , इनकी बात पर कान ना धरना , रिटायर होने के बाद से जरा अकेला महसूस करते हैं।"
" हाँ माँ ,आप ध्यान रखना, फिर भी ज़्यादा हुआ तो रजनी नोकरी ही छोड़ देगी।"
यह कह कर भारी मन से ओम नाश्ता करने लगा। 
अगले दिन जब रजनी जागी तो उसे बड़ा कौतूहल  हुआ ,घर में आवाज़ें नहीं थी बल्कि सन्नाटा था ।वह चौंकी ,बाहर आयी , ओम शेव  बनाते हुवे गुनगुना रहा  था  । 
रजनी  को हैरान देख कर बोला-"माँ बाबा को घुमाने ले गयीं हैं ।"
"औह अच्छा !"...रजनी ने चैन की साँस ली।
 कुछ दिनों से अब घर में ज़रा शांित रहने लगी थी। 
समय चक्र चलता रहा ।जगदीश बाबू के सैर पर जाने से भी कुछ नये दोस्त बनने लगे । धीरे धीरे उनका मन बहलने 
लगा ।
 मकर संक्रान्ति का पर्व  पास आ गया  था,इसलिये  चारों आेर से पतंगों का शोर गूँजने लगा था , वो   काटा वो मारा ,ढील दो भाई ढील दो  जाने दो भाई जाने दो का कानफाडू शोर वातावरण में जोश भर जाता था । 
सर्दी ने भी पंख पसार लिये थै। एक दिन जगदीश बाबू भी इस सर्दी  की चपेट में आ गये । तेज़ बुखार और पेट केनिचले हिस्से में बार बार दर्द उठने की वजह से उन्हें अस्पताल में भरती करना पड़ा । बहुत से टेस्ट हुये  और मालूम पडा िक प्रोस्टेट  कैंसर के कुछ संकेत मिलरहें हैं ,शुरुआत है अत: तुरन्त आपरेशन करना पड़ेगा । हिसाब लगाया गया तो स्पष्ट  हुआ कि अच्छा ख़ासा ख़र्चा लगेगा । जगदीश बाबू की जमा पूँजी से सारा काम नहीं हो पा रहा  था, तभी रजनी बाेलीं-" बाबा आप चिन्ता ना करें , मैं अपने पी. एफ . से लोन ले लूँगी ,अच्छे अस्पताल में आपका इलाज करवायेंगे ,सब ठीक हो जायेगा ।कल ही अप्लिकेशन लगाती हूँ , बाबा दस दिन में लोन मंज़ूर हो जायेगा ।" 
जगदीश बाबू में रजनी को देखा ,उन्हें लगा जैसे बेटी के रूप में कोई देवी सामने खड़ी है। उनकी आँखें भर आई।तभी माँ की  आवाज़ गूँजी -"देखा ओम के बाबा ,बहू बेटी से भी बढ़ कर होती है। क्या आपको अब भी बहू की नौकरी से एतराज़ है?"
जगदीश बाबू ने हाथ जोड़ कर कहा -"मुझे माफ़ करना बहू छह महीनों से मैं घर में कलेश कर रहा था , बहुत ग़लत कर रहा था  , शमिंदा हूँ ।"
रजनी की आँखें भी भर आई-"एेसा ना कहें बाबा,आपका आशीर्वाद हम पर हमेशा रहे।यही हमारा सौभाग्य 
है !"
जीवन में पहली  बार जगदीश बाबू को लगा कि आत्मनिर्भर महिलायें घर की नींव की मज़बूत ईंट होती है ।नारी का स्वतन्त्र अस्तित्व ही उसकी पहचान होती है ,  वह सही मायने में शक्ति का वट वृक्ष   होती है...वह घर आँगन की  पावन तुलसी होती है ! 
और मन ही मन जगदीश बाबू ने सोचा कि सूर्य पूजन के इस पावन पर्व पर जिस तरह  सूर्य अपनी दिशा बदलता है वैसे ही अब जगदीश बाबू को अपनी सोच बदलनी होगी और नारी की भूमिका को समझना होगा तभी परिवारऔर समाज का विकास होगा । अब जगदीश बाबू का मन फूल सा हल्का हो गया था । 
इस बार का नया साल भी   पाहुन सा परिवार के लिये अनूठी प्रेम के गुलाबों सी महकती ख़ुशबू लेकर आया था ।
81. 
★सपनों की गुलाल 
आज घर में चहल पहल थी ,शेखर विदेश से लौट जो रहा था l कुछ दिन बाद ही होली भी आ रही है l माँ बसंती देवी ने बेटे की पसंद की केसरिया खीर ,दही बड़े ,गुझिया और ठंडाई बनाई और बेचैनी से इंतज़ार करने लगी ,वह बहुत बड़ा आँखों का डॉक्टर बन कर जो आ रहा था ! उसके पिता बंसी लाल जी  की भी बस एक ही आरजू थी कि बेटा डॉक्टर बन कर गरीबों की सेवा करे विशेष तौर पर दूर के उन गांवों मे जहां डॉक्टर नहीं जा पाते हैं !और आज वह दिन आ गया था ।बेटे के स्वागत में सारा परिवार एक ही आँगन में आ जुटा था ।
घर के आँगन में महिलाएं उत्साह से ढोलक पर फाग गा रहीं थीं --
"-होलिया में उड़े रे गुलाल, खेले रे मंगेतर से ...।" पूरी कॉलोनी में हवा के साथ उस घर की खुशियों  भरी बासन्ती बयार भी बह रही थी l
शेखर एयरपोर्ट से घर पहुंचा तो सभी ने उसे फूल मालाओं से लाद दिया था । सभी बहन बेटियाँ नेक की मांग कर छेड रहीं थी ...
" अरे शेखर भैया अपना सूटकेस तो खोल कर दिखाओ, कहीं इसमें गौरी बहुरिया मेम तो नहीं भर लाये हो विदेश से ? "
घर के बच्चों के लिए तो मानो कोई उत्सव सा था ,अपने ही रंग में  डूबे पिचकारी में पानी भर भर कर एक दूसरे पर फैंक रहे थे l सारा घर - आँगन रंग रंगीला हो गया था । इसी ऊहापोह में पूरा  दिन भी हंसी खुशी से गुजर गया था l अगले दिन से ही शेखर को एक चैरिटी अस्पताल में नौकरी शुरू करनी थीl विदेश से ही सारी औपचारिकताएं पूरी करके लौटा था ।
अस्पताल का पहला दिन भी होली के त्यौहार सा मदमस्त था, क्युंकी अस्पताल के परिसर में ही रोटरी क्लब की तरफ से एक चिकित्सा शिविर का आयोजन था । संस्थान की तरफ से ही गांवों ढाणियों से बसों में बैठ कर मरीज आये  थे, मोतियाबंद आपरेशन व सलाह मशविरा के लिए डॉक्टर शेखर देख रहा था कि शिविर में आए लोग कितनी आशायेँ लेकर आते हैं ,उसे अपने पिता के शब्द याद आए कि मेरा बेटा डॉक्टर बन कर लोगों के जीवन में रंग घोलेगा  l सच में जिनकी आँखें नहीं हैं उनके लिए काला रंग ही उनका संसार है ,उनकी पूरी दुनिया है l इस दुनिया  को रंगीन बनाना ही अब उसका मकसद होगा l
शेखर ने घर लौट कर अपनी माँ बसन्ती देवी को पहले दिन का पूरा आँखों देखा हाल बताया तो वो भावुक हो गईं यह सुन कर कि दुनिया में कितने ही नेत्रहीन भी हैं जिनकी दुनिया में उजाला नहीं है , बहुत देर तक वो कुछ सोचती रहीं ,फिर संजीदा होकर बेटे से बोलीं ---
"बेटा मैं तो अस्सी वर्ष के करीब पहुँचने वाली हूँ, अब कितनी जिंदगी शेष बची हैlएक काम करना न, कल मेरे को नेत्र दान का फार्म ला देना ताकि मैं मृत्यु के बाद आँखें  दान देकर किसी के जीवंन में रोशनी भर 
सकूँl "
शेखर अपनी माँ की इस परोपकारी भावना को देख कर गर्व से भर गया ,सोचने लगा सच यदि हम अपने घर से ही ऐसी सेवाभावी जरूरत की योजना की पहल करें तो ना जाने कितने लोगों को रंगों की दुनिया से जोड़ सकेंगे । इसी के साथ उसे एहसास हुआ कि इस बार की होली कुछ अनूठी है, जिसमे च्ंग ,मृदंग ,टेसू रंग के साथ इस घर के आँगन में कुछ लोगों के सपनों की गुलाल भी उड कर वातावरण  को  आशाओं  की खुशबू से महका रही है ।
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★पाप का घड़ा 
रामप्यारी के हाथ से दूध का पतीला छिटक कर रसोई घर के फ़र्श पर गिर गया तो उसकी बहू राजरानी शेरनी की तरह गुर्राने लगी -" बुढिया फिर गिरा  दिया दूध , अंधी है क्या तू -ख़ैरात का माल समझ रखा है ?  रोज़ कोई ना कोई नुक़सान करती है चुडैल   ।" कह कर बहू ने सास रामप्यारी की पीठ पर ताबड़तोड़ मारना शुरू कर दिया । अवरूद्ध कंठ से  रामप्यारी बस इतना ही कह पायी -"बहू  गलती से छूट गया ,जान कर अपने ही घर का नुक़सान क्यों करूँगी भला ,अभी साफ़ कर देती हूँ।"यह सुन कर रामप्यारी के बालों को जड़ से पकड़ कर पगलाई ग़ुस्सैल बहू ने इतनी ज़ोर से खींचा कि वह बिल्ली की तरह मिमियाने लगी -"एक गज की ज़बान चलाती है डायन ,मिर्च भर दूँगी , चल अभी का अभी मुँह से सुडक कर जीभ से दूध को चाट कर साफ़ कर । बालों को रस्सी की तरह खींचती हुअे राजरानी ने  रामप्यारी का मुँह बहते दूध पर दे मारा और पीठ पर लात रख चिल्लाई-"सुडक दूध वरणा शरीर का सारा माँस निकाल दूँगी ।रामप्यारी ने सिसकते हुअे  फ़र्श पर गिरा दूध सुड़का और राजरानी की लातों से देर तक पीटती रही। 
यह दृश्य इस घर में रोज़ ही अलग अलग प्रसंगों के साथ चलता है ।सत्तर  वर्ष की अनपढ़  रामप्यारी को इतनी यातनाएँ झेलते देख एक बार राजरानी की पड़ोसन श्रीमती निरूपमा दत्त ने मानव अधिकार विभाग को सूचना दें दी । एक दिन अचानक से मानव अधिकार विभाग के कर्मचारी बिजली विभाग के कर्मचारी बन   बिजली के तार चैक करने के बहाने घर में आये और चुपके से सी सी .टी .वीं कैमरे  घर में  तारों के बीच लगा गये । राजरानी दिन- ब -दिन ताक़तवर और रामप्यारी कमज़ोर होती जा रही थी ।यह सब कैमरे में क़ैद कर लिया गया ।यह भी देखा गया कि बेटा ओम शाम को काम से लौटता है तो उसकी माँ पूजा में बैठी होती है ।उसे लगता है सब ठीक चल रहा है। 
इतवार का दिन छुट्टी वाला होता है तो रामप्यारी को मंदिर भेज दिया जाता है ।घर में रहती थी तो रामप्यारी  एकदम नि:शब्द रहती थी । पालक मैथी ही चूंटती रहती थी।  राजरानी के बच्चे नहीं थे।मात्र तीन प्राणियों का छोटा सा घर संसार था।बेटा ओम ज़्यादातर टूर में रहता था ।घर में  राजरानी  का एकछत्र राज्य था। रामप्यारी भिश्ती बनी राजरानी का हुक्म बजाती रहती थी। उसके एक ही बेटा था ओम , कहाँ जाती उसे छोड़ कर बस यही सोच राजरानी के ज़ुल्म सहना ही अब तो रामप्यारी की नियति बन गयी थी। 
एक दिन बहू द्वारा की गयी एेसी ही हिंसा से रामप्यारी  बेहोश सी हो गयी थी। आँख खुली तो देखा बेटा ओम नरमाई से हाथ पकड़े बैठा है ,स्पर्श की आदत नहीं थी। रामप्यारी ने अपने ही बेटे को कुसूरवार की तरह देखा ।बुदबुदाते हुअे बोली-" ओम बेटा मुझे यहाँ कौन लाया, बहू कहाँ पर है?"
ओम बहुत बैचेन लगा , भीतर की रूलाई को रोक कर हलक में जज़्ब कर मिमियाता सा बोला-"  उसे पुलिस पकड़ कर ले गयी है ,वो जेल में है , माँ ,बेमतलब इतना ज़ुल्म सहती रहीं ,भला क्यों ? मैं तो  तुम्हारा कोख जाया पुत्र था,  बतलाया क्यों नहीं मुझे ,जवाब दो माँ ।"ओम की आँखों से गंगा -यमुना की कलकल धारा बह निकली।" तभी रामप्यारी का बयान लेने पुलिस राजरानी को वहाँ लेकर आयी ।साथ में मानवाधिकार विभाग के अधिकारियों की टीम भी थी। 
रामप्यारी की समझ में सब आ गया था क्योंकि  विगत में रामप्यारी से कई बार श्रीमती निरूपमा दत्त ने भी खोद खोद कर पूछा था पर वह मौन रहीं थीं । आज पुलिस ने भी वही सवाल दोहराया-" माता जी क्या आपकी बहू ने आपको मारा है ?कब से यह आप पर ज़ुल्म ढा रहीं हैं ? बिना डरे बतायें माताजी । "लेकिन जाने कैसे रामप्यारी के दिल में उमड़ते सारे कोलाहल शांत हो गये थे-उसने ओम का हाथ कस कर पकड़ लिया और सिसकते हुअे बोली -"ना ना जी ,मेरी बहू को जेल में ना डालो ,इसने मुझे नहीं मारा है ।हम दोनों तो माँ -बेटी की तरह रहे हैं हमेशा ,वो तो मैं गिर गयी थी , इसका कोई क़सूर ना है ।"कह कर रामप्यारी ने अपनी आँखें कस कर  मूँद ली पर तभी राजरानी का धमाकेदार स्वर गूंजा-"चुप बुढ़िया , झूठ मत बोल, मैंने ही मारा है तुझे खूब ज़ुल्म ढाये हैं ,मुझे बचाने की कोशिश मत कर ।मैं पापिन हूँ ,हत्यारिन हूँ ,मेरे पाप का घड़ा भर चुका है मुझे फाँसी की सज़ा दो ।" वह फूट फूट कर रो रही थी । उसकी आवाज़ें पूरे परिसर में गूँज रही थी । सभी हतप्रभ थे । शायद सी.सी.टी.वी कैमरे को देख कर राजरानी के अंदर का शैतान भी घबरा गया था ।उसकी तीसरी आँख खुल गयी थी ।वह शर्मिंदा थी ।उसको अपनी ग़लती का अहसास हो गया था वो ख़ुद ही नहीं समझ पा रही थी कि वह एेसा कैसे कर सकती है ।क्या उसके अंदर कोई प्रवेश करके एेसा करवाता है पर जो हो वो क़सूरवार है उसे सज़ा मिलनी ही चाहिये ,वो माफ़ी की हक़दार नहीं । बहू को लगा कि नेपथ्य में कोई कह रहा है शायद उसकी आत्मा की आवाज़ कि सच ही तो है कि  घटना को महसूस करना उतना ही सच होता है ,जितना  प्रमाणिकता में घटना का वस्तुत: घटित होना।
83.
★परामर्श 
"तुम्हें तुम्हारा मर्द किस बात पर पीटता है ?सामने बैठी प्रसादी देवी से जब कामिनी खन्ना से पूछा तो वह काफ़ी देर तक भाव-शून्य बैठी रही ।
"देखो बोलोगी नहीं तो तुम्हारे पति के ज़ुल्म बढ़ते जायेंगे। कामिनी खन्ना ने उसे समझाया तो वो सुबकते हुअे बताने लगी -"क्या बताऊँ दीदी जी कभी खानें में नमक ज़्यादा हो जाता है तो पीटता है , सब्ज़ी पसंद नहीं आती तो मेरा मर्द मारता है। मुझे पीट ले दीदी कोई बात नहीं पर अपनी ही बेटी को जब शराब पी कर पीटता है तो बर्दाश्त नहीं होता।"
कामिनी खन्ना ने ध्यान से उसकी बातें सुनी,  फिर एक रिपोर्ट सी बना कर प्रसादी से कहा इस पर अँगूठा लगा दो। हम तुम्हारे पति को यहाँ बुलायेंगें -समझायेंगें । 
कामिनी खन्ना के इस परिवार परामर्श केंद्र में लोग अपनी अपनी शिकायतें लेकर आते है और संतुष्ट होकर लौटते हैं लेकिन क्या वह अपने जीवन से संतुष्ट है ? कामिनी खन्ना ने प्रसादी को ऊपर से नीचे तक देखा। उसकी कलाई पर नील पड़ी थी और एक जगह जले के निशान भी दिख रहे थे जैसे चिमटा दागा हो ।कामिनी सिहर सी उठी । फिर प्रसादी की आँखों में सीधे देखते हुअे पूछा -"तुम चाहो तो उसे जेल भी हो सकती है , अक़्ल ठिकाने आ जायेगी - बोलो?
" ना ना दीदी जी कैसी बातें कर रही हो आप , मेरे बच्चों का जन्मदाता है वो ,बस आप समझाइश कर दीजिये । मेरा मर्द मुझे चाहे कितना ही मार ले पर मेरी बच्ची पर हाथ ना उठाये ।"
 प्रसादी ने यह कह कर हाथ जोड़ दिये। कामिनी खन्ना हैरत से उसे देखती रही ।प्रसादी के जाने के बाद उसका मन ना जाने क्यों भारी हो गया था। फिर उठीं और शीशे के सामने खड़े होकर स्वयं से ही पूछने लगी -"क्यों आती हैं ये औरतें परामर्श केंद्र पर , क्या उन्हें सलाह की ज़रूरत है? आज भी नारियां पितृ सत्तात्मक समाज का हिस्सा है। उसे याद आया बीस वर्ष पहले वह भी तो अपनी मासूम पाँच वर्ष की बेटी को साथ लेकर  मदद माँगने  इसी परामर्श केंद्र में आयी थी ।कितने वर्ष बीत गये हैं उस बात को पर भला वह कैसे भूल सकती है कि इसी परामर्श केंद्र वाले सदस्यों ने ही उसे आत्मनिर्भर बनाया है , आज वह इस स्थान पर एक महत्वपूर्ण पद पर बैठी है और दूसरों को परामर्श देने के क़ाबिल हो गयी हैं । 
प्रसादी की तरह उसने भी तो यही कहा था कि मेरे पति को जेल ना भेजें बस समझा दें । कामिनी खन्ना अपनी सीट से उठीं,घड़ी पर नज़र डाली और मन ही
मन में बुदबुदाने लगीं-"आेह माई गाॅड शाम के सात बज गये हैं ,मुझे जल्दी से जल्दी घर पहुँचना होगा वरणा सुरेश के लिये खाना बनाने में देर हो जायेगी तो वह चिडचिड करेंगें ।कमरें में ताला लगा कर कामिनी खन्ना बस स्टाॅप की तरफ़ चल दीं । स्मृति का चरखा तेज़ी से घूम रहा था यह सोचते हुअे कि उसका पति सुरेश चाहे अब पीटता नहीं है पर क्या कामिनी के मन से इतने सालों में उसके पति के ग़ुस्से का ख़ौफ़ ज़रा भी कम हो पाया है? कामिनी खन्ना मन ही मन सोच रहीं  थीं कि सच आज की नारी का जीवन क्या है ? एक रिफयूजी की तरह ही तो है जो एक जगह से उखड़ कर दूसरी जगह जा बसता है और अपनी जड़ों से पूरी तरह से कट सा जाता है।  
84
★गुलदस्ता 
मीरा ने बटुआ खोला तो चौंक पड़ी आज फिर उसमें से सौ का नोट ग़ायब था जो उसने बटुअे की चोर पाकेट में छिपा रखा था। "तुमने फिर मेरे बटुअे में से पैसे निकाले  श्रीधर ?" मीरा ने खीझ कर पूछा तो वह मुस्करा दिया --"ज़रूरत थी मुझे ।"संयत रह श्रीधर ने अपनी भावनाओं पर क़ाबू रखा  
"पूछ तो सकते थे ना? "मीरा ने चिढ़ कर कहा 
"मीरा मैं लड़ाई के मूड में नहीं हूँ।जल्दी दफ़्तर पहुँचना है ,तुम मंदिर गई हुई थी , मुझे कुछ रूपयों की ज़रूरत थी ,सो ले लिये,लाओ अब टिफ़िन दे दो यार दफ़्तर के लिये देर हो रही है ।"श्रीधर ने बात को वहीं समाप्त किया और टिफ़िन ले दफ़्तर के लिये निकल गया। अक्सर महीने के अंत में यही होता है ,मीरा जहाँ कहीं भी छिपा दे श्रीधर को ज़रूरत पड़ती है तो वह ढूँढ ही लेता है ।दो कमरों का फ़्लैट है ,छिपाने की जगह भी सीमित है । किसी तरह महीने का ख़र्च चलता है। 
श्रीधर के जाने के बाद मीरा ने बटुआ खोला और हिसाब लगाने लगी ।कुल जमा पंद्रह सौ रूपये रह गये हैं ।इसी में एक हफ़्ता निकालना है ।राघव के स्कूल में भी आज ही फ़ीस के सात सौ रूपये जमा कराने हैं । जल्दी से तैयार हो मीरा राघव के स्कूल के लिये निकल पड़ी। स्कूटी अभी स्टार्ट ही की थी कि माली काका दौड़े दौड़े आये और हाँफते हुअे बोले-"बीबीजी यह लिजिये गुलदस्ता ,साहब ने कहा था सुंदर और बड़ा सा लाना और बीबीजी को मेरी तरफ़ से दें देना ।पूरे सौ रूपये का आया है ।आज आपका जन्मदिन है ना बीबीजी तो आपको बहुत बहुत मुबारक । " माली काका ने गज़रे की महकती माला के साथ लाल -पीले गुलाबों का महकता हुआ गुलदस्ता मीरा के हाथ में थमा दिया । गुलाब की महक मीरा के मन की गहराई में उतर कर उसके जन्मदिन को ख़ास बना गयी थी।
मीरा देर तक माली काका के माध्यम से भेजें इस उपहार के बारे में सोचती रही ।तभी मोबाइल की घंटी बोली । श्रीधर की आवाज़ थी -वह जन्मदिन की बधाई गाते हुए दे रहे थे । मीरा को लगा क्या इससे अच्छा जन्मदिन का कोई दूसरा तोहफ़ा हो सकता था ? श्रीधर के माली काका के माध्यम से भेजें इस उपहार के बारे सोच वह मुस्करा दी फिर फ़ोन पर श्रीधर को थैंकस कह मुस्कुराते हुअे मीठी सी आवाज़ में बस इतना ही कह पायी-"तुम्हारी सरप्राइज़ देने की आदत कब जायेगी श्रीधर ?"
"कभी नहीं मैडमजी ,चलो केक लेकर आता हूँ शाम को ।" बाय कह कर श्रीधर ने फ़ोन रख दिया था पर देर तक मीरा श्रीधर की  प्रेम की ख़ुशबू में डूबी उस महकते गुलदस्ते को निहारतीं वहीं खड़ी रही।
★85.
दस का नोट ।
मोती डूँगरी की कच्ची बस्ती में रहने वाला रामदेव ग़ुब्बारे,फिरकी,सीटी,बाँसुरी ,भोंपूं बेच कर गुज़ारा करता था । वह बडा नेक दिल इंसान था ।ख़ुद ग़रीब था पर जब वह देखता था कि कोई ग़रीब बच्चा तरसती निगाहों से उसकी बाँस की बनी खपप्ची के छातेनुमा फ़र्में के टंकन को तरसती निगाहों से देख रहा है तो वह उसे पैसे लिये बिना कुछ ना कुछ थमा देता था। रामदेव रोज शाम को पाँच बजे के बाद शहर की गलियों ,बाज़ारों व पार्क में फेरी लगाता था तो बिक्री हो जाती थी।। मंहगाई की मार ने ज़रूर कमर तोड़ रखी थी पर गुज़ारा हो रहा था। एक दिन बुखार की चपेट में आ गया तो संकट खड़ा हो गया। रामदेव की माँ बहुत समझदार महिला थी पर उसे रात को कम दिखता था।दोनो आँखों में मोतियाबिंद  बन रहा था इसलिये वह दिन रहते ही रसोई बना लेती थी । रात को बच्चे लौटते तो चूल्हे पर उबलती पानी जैसी  दाल-भात,मोटी रोटी या बाटी व गुड की डली के साथ अपने आप खाना परोस कर खा लेते थे।रामदेव की हालत पस्त देख कर उसने सोचा कि चलो मैं ही यह फ़रमा लेकर कुछ देर के लिये सामने वाले पार्क में चली जाती हूँ ,एक -आध चीज़ भी बिक गयी तो शाम की सब्ज़ी का जुगाड़ तो हो ही जायेगा ।आँख से धुँधला दिखता था तो छोटी पोती का हाथ थाम बस्ती के सामने पार्क में बने एक चबूतरे पर जा बैठी ।सर्दी बढ़ गयी थी तो ज़्यादा बच्चे पार्क में खेलने नहीं आये थे।वह उठ कर आने ही वाली थी कि एक दंपति पैम में दो साल की बच्ची को घुमाते दिखे ।उन्हें देख वह फटी सी आवाज़ में बोली-"रंग बिरंगें ग़ुब्बारे ले लो बाबूजी ,बच्ची ख़ुश हो जायेगी । "दंपति उसकी पुकार सुन रूके और आपस में खुसर-पुसर करने लगे ।फिर एक चश्मा व ग़ुब्बारा माँगा ।दस का नोट रामदेव की माँ को थमा कर वे तेज़ी से पार्क से निकल गये। घर पहुँच कर रामदेव की माँ अपने पोते को बोली-"जा लल्लन बस्ती के बाहर सब्ज़ी वाला बैठा है ,पाँच रूपये का पालक व पांच रूपये की मूली ले आ तो -साग छौंक दूँगी ।"लल्लन ने हथेली फैला कर दस का नोट पकड़ा तो हतप्रभ रह गया ।भवें चढ़ा  कर बस इतना ही कह पाया -"दादी नोट फटा हुआ है ,ग्राहक तुम्हें धोका दे गया। "रामदेव की माँ ने नोट वापस थाम हाथों से आँखों पर छतरी बना कर फटे नोट को आश्चर्य से देखा और सिर पकड़ कर ठंडे चूल्हे के पास ही बैठ गयी ।
★86.
 कानाबाती 
"चंदू बन्ना मने भी कानाबाती (मोबाइल) दिला दें भाया "जब माँ ने बेटे को आग्रह किया तो वों अपनी हँसी नहीं रोक पाया।
"क्या करोगी आप ?" स्नेह से चंद्र कुमार ने माँ से पूछा 
"मंदिर की भायली से बातां करूलां (मंदिर की सहेली से बातें करूँगी ) और तू रोज़ाना रात में देर से आवे है थारी भी ठौर राखूंली ।"(तू भी रोज रात को देर से आता है तेरा पता रखूँगी) "माँ ने चुटकी काटी।  पिछले महीने ही चंद्र कुमार की एक कंपनी में नौकरी लगी थी तो उसकी देखभाल करने माँ भी  गाँव से शहर उसके साथ आ गई थी ।
"ज़रूर ला दूँगा माँ "  चंद्रकुमार ने माँ की गलबाही लेते हुअे कहा 
कुछ दिन बाद वह  माँ के लिये मोबाइल ख़रीद लाया और सिखा दिया।माँ ख़ुश थी ।घंटों मंदिर की सहेलियों से बतियाती तो 
 मन भी लग जाता था। चंद्रकुमार  ने उसमें थाने का सौ नंबर सेव कर माँ को समझा दिया था कि यह पुलिस का नंबर है , कोई आपातकाल की घड़ी आ जाये तो तुरंत दबा दें। अब चंद्रकुमार भी माँ  की  तरफ़ से बेफ़िक्र हो गया था । उसकी माँ राजस्थान के एक गाँव की सीधी सादी महिला थी ,बहुत पढ़ी लिखी नहीं थी। एक दिन चंद्रकुमार टूर पर गया था तो माँ को समझा गया था कि वह रात दो बजे तक घर पहुँच पायेगा इसलिये घर अंदर से बंद करके सो जाना ,वह जब भी लौटेगा डुप्लीकेट चाबी से ताला खोल कर अंदर आ जायेगा।पर माँ का मन नहीं मान रहा था सो वो जगी रही ।कुछ कुछ देर में खिड़की से नीचे झाँक लेती थी। तभी उसने देखा कि चार जने अंधेरे में पड़ौसी की फ़्लैट के दरवाज़े पर खड़े ताले से छेड़छाड़ कर रहे हैं । वह जानती थीं कि पडौसी की  लड़की की अगले महीने ही शादी है ,पूरा परिवार इंतज़ाम के लिये आज दुपहर को ही अजमेर गया है ।  चंद्र कुमार की माँ को वह कह गये थे कि घर का जरा ध्यान रखें , उसकी माँ को तुरंत समझ आ गया  कि पड़ौसी के घर में चोर घुसने का प्रयास कर रहे हैं । उसने सूझबूझ रखते हुअे फ़ौरन सौ नंबर दबा कर पुलिस को सूचित करके एक बहुत बड़ी चोरी को होने से बचा लिया था । पड़ौसी ने  लौट कर जब चंद्रकुमार की माँ को आभार दिया तो वह मुस्करा के बोली -"भई मैं कांई करयो है( मैंने क्या किया है )यो तो कानाबाती को चमत्कार है। "
★87
(असमर्थ अश्रु )
 प्रत्यारोपण 
राम की माँ जानकी देवी चल बसीं । डाक्टरों की ज़रा सी देरी ने राम की माँ को मार दिया। यह हत्या सा  जघन्य अपराध नहीं था तो और क्या था? कुछ दिनों बाद ही जानकी देवी की किडनी का प्रतिरोपण होना था। कई वर्षों की भागदौड़ के बाद राम को एक डोनर मिला था। आपरेशन की तारीख़ तय थी इसलिये राम ने यथासमय  अस्पताल में जाकर सारी आौपचारिकताएं पूरी कर ली थी पर इससे पहले ही परिस्थितियाँ बदल गईं । कल की ही तो बात है जब राम घर पहुँचा तो जानकी देवी असहनीय दर्द से मछली की तरह तड़फड़ा रही थीं। डायलेसिस करना ज़रूरी था। एंबूलेंस बुला कर तुरंत जानकी देवी को अस्पताल ले जाना पड़ा। यथासमय राम अस्पताल भी पहुँच गया पर यहाँ दृश्य ही दूसरा था।मीडिया की ज़बरदस्त भीड़ थी। अस्पताल के एक नये बने विंग का मंत्री जी द्वारा उद्घाटन था।  सारे के सारे डाक्टर वहाँ व्यस्त थे। अधिकांश नर्सो की ड्यूटी भी वहाँ लगा दी गयी थीं ।रिसेप्शन पर रिसेपशनीसट थी पर किसी भी तरह की जानकारी नहीं दें पा रही थी ।जब  वो जानकी देवी जी के डाक्टर को फ़ोन लगाती तो वोइस मेल पर मोबाइल के एरिया क्षेत्र से बाहर होने का संकेत आता। राम पागलों की तरह इधर से उधर दौड़ लगा रहा था , हिम्मत टूटती जा रही थी।माँ का दर्द असहनीय होता जा रहा था। इधर नेता जी तालियों की गड़गड़ाहट के साथ नयी बिल्डिंग में उद्घाटन के लिये रंग बिरंगा फ़ीता काट रहे थे उधर जानकी देवी की रूह देह छोड़ कर परलोक की ओर प्रस्थान कर रही 
★88
 बताशे वाला  
आज फिर रागिनी पानी के बताशे बेचने वाले रामदीन पर चिल्ला रही थी -"कितनी बार कहा है तुझ से कि गली के इस मोड़  पर ठेला मत लगाया कर, पर सुनता ही नहीं है ,रोज़ शाम को ठीट की तरह यहाँ आ कर खड़ा हो जाता है और पूरी गली का रास्ता जाम कर देता है । सीधी तरह यहाँ से हट जा वरणा नगर पालिका वालों को फ़ोन करूँगी तो तेरा  ठेला उठा कर ले जायेंगे ।"
"बीबी जी क्याें ग़रीब के पेट पर लात मारते हो , मंदिर के पास ठेला लगाता हूँ ,कुछ लोग खा लेते हैं तो गुज़ारा हो जाता
 है ।"गिड़गिड़ाते हुअे बताशे वाला बोला तो रागिनी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया ।वो और ज़ोर से चीख़ी-"कितना बेशरम है  तू  ,पूरी काॅलोनी में तेरे चाट के दोने और प्लेटें उड़ती फिरती है , गली में गंदगी फैल जाती है ,ट्रेफ़िक अटक जाता है सो अलग ,समझा रही हूँ फिर भी बहस करे जा रहा है  ।" 
रागिनी और बताशे वाले की बहस सुनने आते जाते बहुत से राहगीर भी रूक गये थे , कई लोग वहाँ रूक कर रागिनी की बात पर सहमति जता रहे थे ।कुछ रागिनी को समझा रहे थे कि जाने दिजिये ना मैडम ग़रीब की इस जगह पर बरकत होती है ।कुछ लोग बताशे वाले को कह रहे थे -"भाई कोई दूसरी जगह देख लो ।यह बहनजी रोज़ तुम्हें टोकती है ।"तभी एक पुलिस वाला उधर से निकला तो रागिनी ने उसे रोक कर बताशे वाले की शिकायत की और उसका चालान करने को कहा । 
पुलिस वाले ने रागिनी की बात ध्यान से सुनी और बताशे वाले को सचेत किया कि कल से अगर  वो यहाँ नज़र आया तो देखना फिर उसकी ख़ैर नहीं । बताशे वाला हाथ जोड़ कर चुपचाप खड़ा रहा ।रागिनी घर लौट आई ।अगले दिन बताशे वाले का ठेला वहाँ नहीं दिखा तो उसने चैन की साँस ली ।
कुछ दिन गुज़र गये ।एक दिन रागिनी शाम को घर लौट रही थी ।थोड़ा धुँधलका था तभी उसने देखा बताशे वाला फिर उसी जगह खड़ा था ।उसे डाँटने के लिये उसने कार रोकी तो यह देख कर हैरान रह गयी कि वही पुलिस वाला पूरे परिवार के साथ चटकारे ले लेकर चाट पकौड़ी व बताशे  खा रहा है। 
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★सांता -क्लाज
कमलकांत सुबह सोकर उठें ही थे कि  घर की काॅलबेल बजी ।कोरियर वाला एक पैकेट लेकर आया था। सब घरवालों ने मिल कर पैकेट खोला।एक बड़ा सा दिल के आकार का चाकलेट केक था । केक पर लिखा था-'नेहा के लिये विद लव-सांता -क्लाज ।'नेहा ख़ुशी से उछल पड़ी ।वह उछलते हुअे कह रही थी -"आपसे अच्छे तो सांता -क्लाज ही हैं पापा ,देखो ना मेरी मनपसंद का केक भेजा है ।" उसकी बात सुन कर कमलकांत को हँसी आगयी ,उन्हें याद आया उनकी नौ साल की लाड़ली बेटी नेहा कल से ही उनसे नाराज़ चल रही थी। एक तो दफ़्तर में व्यस्तता की वजह से वह उसे वादा करके भी क्रिसमस होलीडेज पर गोवा घुमाने नहीं ले जा पा रहे थे । दूसरा उसने कल आग्रह किया था कि पापा इस क्रिसमस पर मेरे लिये आइसक्रीम केक लेकर आना तो उन्होनें सरदी का हवाला देते हुअे मना कर दिया था । मना सुन  चिढ़ कर नेहा बोली थी-"आप हमेशा एेसे ही करते हो पापा -यह मत करो ,वो मत करो ,झूँठे भी हो -क्रिसमस में गोवा ले जाने का वादा किया था आपने ,ले गये? "
पर आज चाकलेट केक आया तो उसका चेहरा दमक उठा ।कमरे में दोनों हाथ फैला कर वो गोल गोल घूमते हुअे कह रही थी-"आई लव यू सांता - क्लाज।" कमलकांत मंद- मंद मुस्करा रहे थे।नेहा के चेहरे की यही दमकती ख़ुशी देखने की उत्सुकता ही तो कमलकांत को थी ।वो कैसे कहते नेहा को कि उन्होनें ही तो आनलाइन केक आॅडर किया है ।वही उसके सांता -क्लाज हैं।
90
★चिट्ठी 
 कभी हाथ ना आने वाली  मृगतृष्णा  के पीछे कब तक भागती रहेगी वाणी, क्यों नहीं स्वीकार कर लेती कि अब  श्रीकांत कभी नहीं लौटेगा । कल की सी बात लगती है वाणी को जब श्रीकांत जल्दी लौटने का वादा करके  एक महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट के लिये  निकला था। बहुत सीक्रेट तरीक़े से इस अभियान में तीस सैनिकों के साथ उड़ान भरने वाले कैप्टन श्रीकांत का विमान चेन्नई से सुबह नौ बजे रवाना हुआ था , क़रीब बारह बजे विमान पोर्ट ब्लेयर पहुँचने वाला था  ।श्रीकांत बराबर एयर ट्रेफ़िक कंट्रोलर से संपर्क में भी था पर फिर बड़े रहस्यमय तरीक़े से श्रीकांत का विमान लापता हो गया।पूरा सरकारी तंत्र उसकी खोज में लग गया पर ना तो उस  विमान के अवशेष मिले ना कोई ख़बर ।धीरे धीरे खोजबीन की प्रक्रिया भी रूक गयी।उम्मीदें कम होती गयीं पर समय का पहिया चलता रहा ।चाह कर भी वाणी उस सदमें से उबर नहीं पायी ।बालों में चाँदी चमकने लगी । रोज़ उसे अहसास होता कि उसके आस पास कोई है ,कभी दरवाज़े पर दस्तक होती तो वों चौंक जाती ।बाहर कोई नज़र नहीं आता था पर जाने क्यों वाणी को लगता था कि कोई आया था। यह मृगतृष्णा नहीं तो और क्या है  ?
इतने वर्षों में कितना कुछ बदल गया था पर वाणी का मन और उसका विश्वास नहीं बदला था,आज भी उसे लगता था कि श्रीकांत ज़रूर वापस आयेगा।  भारी मन से वह उठी और अलमारी तक गयी ,लाॅकर खोला ।उसमें रखा  श्रीकांत का  अंतिम ख़त निकाला जिसमें वाणी को उन दोनों के जीवन को साथ बिताने के बारे मे श्रीकांत ने हरी स्याही से लिखा था । अपनी धुँधलाई आँखों से वाणी ने ख़त के अक्षरों पर नज़रें गड़ा दी और पढ़ने लगी - " डियर वाणी इस वर्ष का यह आख़िरी अभियान है ,इसके बाद  अपन दोनों शादी कर लेंगें ।जब तक यह चिट्ठी तुम तक पहुँचेगी मेरा अभियान ख़त्म हो जायेगा। मैं तब तक तुमसे फ़ोन पर भी संपर्क नहीं कर सकता हूँ । हम दोनों को धैर्य पूर्वक समय का इंतज़ार करना पड़ेगा-इसके बाद एक नयी ज़िंदगी की शुरूआत होगी -तुम्हारा -श्री ।" लेकिन एेसा नहीं हो पाया ।दस साल पहले बंगाल की खाड़ी से लापता हुअे एन एन -चार विमान के पायलट श्रीकांत अब तक नहीं लौटे हैं ।वाणी वह चिट्ठी पकड़े बरसों से जीवन के रेगिस्तान में खड़ी है जहाँ चारों तरफ़ मृगतृष्णा का पानी झाल मारता है पर होता नहीं । बिलकुल श्रीकांत की तरह । अब कहाँ ढूँढें वाणी उसे ? आकाश में ,हवा में -कहाँ कहाँ ?--उसे महसूस होता है श्रीकांत कहीं हो ना हो पर  आज भी उसके दिल की धड़कनो में हैं ,साँसों के हर तार में है - इस ख़त में है । वाणी ज़ोर से उस ख़त को सीने से लगा कर श्रीकांत की यादों में खो जाती है। 
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★साझेदारी 
राजस्थान के एक ढाणी नुमा गाँव झाँईं में आज बड़ी रौनक़ थी क्योंकि जानकी के बायोगैस प्लांट का उद्घाटन करने मंत्री जी आ रहे थे। गाँव के सरपंच और अधिकारियों के साथ जानकी के पति रामसिंह भी तैयारी में जुटे थे। गाँव को रंग बिरंगी फरियों से सजाया जा रहा था ।साथ ही  सफ़ाई अभियान चल रहा था। सभी महिलायें बड़ी लगन से काम कर रहीं थीं। इन सभी  महिलाओं में जानकी सबसे कर्मठ महिला थीं ।तारों की छांव में उठती, दूध निकालती ,फिर घर में झाड़ू बुहारी कर गोबर इकट्ठा कर उपले  थापती।बच्चों और पति को नाश्ता पानी करा छोटे बच्चे को गोद में लाद सूखे उपले बेचने निकल पड़ती ।वहाँ से खेतों में जाकर काम करती ।जानकी का पति भी उसके पीछे पीछे  साइकिल पर बैठ कर दूध बेचने शहर चला जाता । आधी ऊर्जा उसकी आने जाने में लग जाती थी । लेकिन जबसे इस गाँव में सरकार की श्वेत क्रांति को बढ़ावा देने के लिये योजनाएँ व सहकारिता समूह और बैंकों द्वारा गाय भैंसों को पालने के लिये ऋण देने की व्यवस्था की गयी है , गाँव की महिलाएं ग़ज़ब की सक्रिय हो गई हैं । पहले यह गाँव पिछड़ा हुआ था पर जब से सहकारिता योजना के क्रम में गाँव में लोगों को अनुदान देकर जगह जगह  डेयरी उपकरण  ,दूध निकालने की  मशीनें ,शीतलीकरण इकाई स्थापित की गयी है गाँव में विकास की झलक दिखने लगी है ।इस सहकारिता आधारित प्रबंधन ने गाँववालों की जीविका बढ़ा दी थी ।जानकी के परिवार की भी आमदनी बढ़ गई थी । कच्चा मकान पक्का हो गया था ।बच्चे अच्छे कपड़े पहन कर स्कूल जाने लगे थे। पैसे बचने लगे थे ।और अब यह बायो गैस संयंत्र जानकी के परिवार को एक नयी दिशा की ओर ले जा रहा था। 
आज भी जानकी की दिनचर्या  सामान्य ही थी ।दूध की बाल्टी लेकर वह डेयरी बूथ से सटे शीतलीकरण मशीन की तरफ़ जा रही थी  रास्ते में गाँव का एक रिश्तेदार रामदीन मिल गया ।जानकी को देख कर कहने लगा -"अरे भौजी (भाभी) ग़ज़ब करो हो ,मंत्री जी आने वाले हैं और आप आज भी काम पर जा रही हो - पूरा सरकारी तंत्र होवेगा , मिडिया होवेगा ,तस्वीरें खींचेंगीं भौजी ,आज तो घर पर रूकतीं ।सारा गाँव तो तुम्हारे घर की तरफ जा रहा है और तुम दूध की बाल्टी लेकर काम पर जा रही हो?" जानकी मुस्कराई राम राम का अभिवादन कर सहजता से बोली -"रामदीन देवर जी आपके भैया हैं तो वहाँ ,मेरा क्या काम । दूध से सब कमाया है भैया -नहीं जाऊँगी तो यह ख़राब हो जायेगा , सहकारिता बूथ में जमा करा कर जल्दी लौटती हूँ भैया ,आप पहुँचो" कह कर बिना रुके जानकी आगे बढ़ गई ।जानकी की गोद में चढ़ा बच्चा पीछे  मुड मुड़ कर रामदीन को देख रहा था जो हवा में हाथ हिलाते हुअे तेज़ स्वर में कह रहा था- "वाह -जानकी भौजी आप धन्य हो ।"
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★लघुकथा -----डाॅ.सरस्वती माथुर 
गुलाब की पंखुड़ियाँ 
शहीद पुष्पेंद्र की माँ रजनी बाला के घर "रजनीगंधा" की खिड़कियाँ कभी बंद नहीं होतीं ,आज भी खुली थीं। हवाएँ आज भी बाहर से अंदर सरसराती  हुई आ जा रहीं थीं ।रजनी बाला दिन तो जैसे तैसे गुज़ार देती हैं पर रात में बैचेन हो उठती हैं क्योंकि उनको शुरू से रात को अपने पुत्र का इंतज़ार करने की आदत हो गयी थी । जब भी पुष्पेंद्र रात को घर लौटता था तो लाड़ में माँ से कहता था -"ओ री मेरी रात्रि चर माँ जल्दी कुछ भी खिला दो बहुत भूख लगी है।"
 रजनीबाला अतीत में खो गयी ,पुष्पेंद्र हमेशा मज़ाक़ में यह भी कहता था माँ मैं मर भी गया तो मेरी रूह रोज़ तुमसे मिलने आयेगी और तुम्हें पता भी लग जायेगा क्योंकि तुम्हारे आसपास गुलाब की ख़ुशबू फैल जायेगी क्योंकि  रजनीबाला रोज  भगवान के एक गुलाब की माला अर्पित करती थी और अगले दिन एक बटुअे के आकार के कपड़े में बाँध कर पुष्पेंद्र की जेब में यह कह कर रख देती थी कि  ठाकुर जी तुम्हारी रक्षा करेंगें ,इसलिये जब भी पुष्पेंद्र घर में घुसता था रजनीबाला को पता लग जाता था क्योंकि गुलाब की महक घर भर में फैल जाया करती थी। 
आज भी कई बार रजनीबाला को गुलाब की महक आती है तो उसे लगता है कि पुष्पेंद्र की रूह मिलने आयी है , वो घंटो अपने आप से बातें करती है जबकि शहीद होने के बाद से उसका लाड़ला तिरंगें में लिपटा अपनी समाधि में सोया हुआ है । जहाँ आज भी बिना नागा  भगवान पर चढ़ाई गुलाब की माला को रजनीबाला  घर से सटे पार्क में स्थापित शहीद पुष्पेंद्र के स्मारक पर रख आती है और जिसकी महक खुली खिड़कियों से हवा के साथ बहकर उसके घर में पुष्पेंद्र के वजूद को बनाये रहती है। 
डाॅ सरस्वती माथुर
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★जडों से जीवित 
शहीद पुष्पेंद्र की माँ रजनी बाला के घर "रजनीगंधा" की खिड़कियाँ कभी बंद नहीं होतीं ,आज भी खुली थीं। हवाएँ आज भी बाहर से अंदर सरसराती  हुई आ जा रहीं थीं ।रजनीबाला का दिन तो जैसे तैसे गुज़र जाता था पर आज भी रात में वो बैचेन हो उठती हैं क्योंकि उनको शुरू से रात को अपने पुत्र का इंतज़ार करने की आदत रही थी । जब भी पुष्पेंद्र रात को घर लौटता था तो लाड़ में माँ से कहता था -"ओ री मेरी रात्रि चर माँ जल्दी कुछ भी खिला दो बहुत भूख लगी है।"
 रजनीबाला अतीत में खो गयी ,पुष्पेंद्र हमेशा मज़ाक़ में यह भी कहता था माँ मैं मर भी गया तो मेरी रूह रोज़ तुमसे मिलने आयेगी और तुम्हें पता भी लग जायेगा क्योंकि तुम्हारे आसपास गुलाब की ख़ुशबू फैल जायेगी क्योंकि  रजनीबाला रोज  भगवान के एक गुलाब की माला अर्पित करती थी और अगले दिन एक बटुअे के आकार के कपड़े में बाँध कर पुष्पेंद्र की जेब में यह कह कर रख देती थी कि  ठाकुर जी तुम्हारी रक्षा करेंगें ,इसलिये जब भी पुष्पेंद्र घर में घुसता था रजनीबाला को आभास हो जाता था कि क्योंकि गुलाब की महक घर भर में फैल जाया करती थी। 
आज भी कई बार रजनीबाला को गुलाब की महक आती है तो उसे लगता है कि पुष्पेंद्र की रूह मिलने आयी है , वो घंटों उससे बातें करती है जबकि शहीद होने के बाद से उसका लाड़ला तिरंगें में लिपटा अपनी समाधि में सोया है ।रजनीबाला के  घर से सटे पार्क में स्थापित शहीद पुष्पेंद्र के स्मारक पर रजनीबाला बिना नागा  भगवान पर चढ़ाई गुलाब की माला रख आती है जिसकी महक खुली खिड़कियों से हवा के साथ बहकर उसके घर में पुष्पेंद्र के वजूद को बनाये रखती हैं ,विश्वास को मरने नहीं देतीं ,रजनीबाला जानती हैं कि शहीद कभी नहीं मरते बल्कि देश की मिट्टी में बीज की तरह रहते हैं जिन्हें समय की हवाएँ सींच कर यादों की जड़ों को ज़िंदा रखती हैं ।
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★बालमन
"बड़ी अम्माँ क्या सौतेली माँ बहुत बुरी होती है ? "आठ वर्षीय चारू ने अपनी दादी माँ से पूछा तो उन्होंने उसके प्रश्नों का कुछ क्षणों तक कोई उत्तर नहीं दिया ।फिर सीधे उसकी आँखों में झाँकते हुअे कहा -"ना बेटा किसने कहा तुमसे ?" फिर बड़ी तत्परता से चारू को अपनी गोद में खींच कर बिठा लिया। 
"मेरी सहेली लाजो बोली थी कि सौतेली माँ मारती है,खाना नहीं देती ,प्यार नहीं करती "चारू के कातर स्वर से दादी का मन भर आया ।अभी छह महीने ही हुअें हैं , दूसरे प्रसव के दौरान चारू की माँ की पूरे शरीर में इंफ़ेक्शन हो जाने के कारण मृत्यु  हो गयी थी। बच्चा बच गया था ।चारू हर वक़्त अपने भाई के इर्द गिर्द मँडराती रहती थी ।पत्नी की मृत्यु के बाद चारू के पिता हरीमोहन नंें अपने दफ़्तर में काम करने वाली विधवा सहकर्मी रत्ना से कोर्ट मैरिज कर ली थी।चारू के चेहरे पर छाई हुई गंभीरता से यह साफ जाहिर हो रहा था कि उसे पापा का शादी रचाना पसंद नहीं आया था ,ना ही इस शादी का उत्साह दादी को था पर क्या करती हरीमोहन अभी मात्र चालीस साल का था और उसकी पूरी ज़िंदगी सामने थी। कुछ ही दिनों में सब कुछ सामान्य हो गया हरीमोहन और रत्ना साथ ही दफ़्तर जाने लगे ।रत्नाकर ने घर की बागडोर भी अच्छे से संभाल ली। चारू का बाल मन अभी भी चिंताग्रस्त था , अपने से भी ज़्यादा वो अपने छोटे भाई के लिये चिन्तित थी ।बराबर सर्प दृष्टि से अपनी सौतेली माँ को परखती रहती थी ।माँ की चारू को बड़ी याद आती थी ।आज भी वह माँ की तस्वीर के पास ही खड़ी थी जब चारू को दादी की भयावह आवाज में खाँसी की आवाज़ आई ।वह भाग कर दादी के कमरे में आई । उनकी तबीयत बहुत ख़राब हो गयी थी अस्थमा  का अटैक पड़ा था। तुरंत अस्पताल ले जाना पड़ा। वहाँ तक पहुँचते पहुँचते ही दादी को एक और दौरा पड़ा और वो शांत हो गयी  । दादी को वापस घर ले आये। अब चारु का एकमात्र सहारा भी जा चुका था।
दादी की देह को ले जाने की तैयारी हो रही थी। रत्ना बच्चे को गोद में लिये घर के सारे काम भाग भाग कर निपटा रही 
थी ।चारू सहमीं से एक कोने में खड़ी थी उसकी दृष्टि कहीं दूर खोई थी।जैसे ही रत्ना की निगाह चारू पर पड़ी वह उसके पास पहुंची -" क्या हुआ बेटा ,आ मेरे पास आजा " सहमी सी चारू ने ना में सिर हिला कर अस्वीकार किया। माँ सौतेली है यह बात उसके मन से कभी नहीं निकली ।"
"आजा बेटी ।"रत्ना ने शब्दों में मिठास घोल कर उसकी  ठोड़ी पर हल्का सा संस्पर्श  देकर अपनी ओर खींचना चाहा 
"आंटी  मैं ठीक हूँ आप अपना काम करो "चारू ने अवरूद्ध कंठ से कहा 
"आंटी नहीं माँ कहो बिटिया , मैं तुम्हारी माँ हूँ " किसी अनजाने आवेंग के वशीभूत होकर रत्ना ने स्नेह से चारू के कंधे पर हाथ रख दिया 
"पर  सोतैली हैं ना ? " चारू ने कटुता से कहा 
"नहीं बेटा माँ कभी सगी सौतेली नहीं होती माँ बस माँ होती है ।" चारू को अपनी ओर खींच कर रत्ना ने सीने से लगा लिया तो वो जोर  लगा कर उनके आलिंगन से हट गयीं , तभी वहाँ हरीमोहन आ गये ,उनके हाथ में एक पैकेट था । रत्ना को पकड़ा कर वह बोले -" यह क्या है , कार में रखा था ? "
"ओहो मैं तो भूल ही गयी थी यह तो मैं चारू के लिये लेकर आई थी " रत्ना ने आँखें चौड़ी करके कहा 
पैकेट खोला तो एक बड़ी सी बार्बी  गुड़िया थी ,ले बेटा यह तेरे लिये लायी थी ।"
चारू की आँखों में चमक आ गयी उसे याद आया पिछले कई सालों से वह अपनी सगी माँ से बार्बी  गुड़िया लाने की ज़िद कर रही थी पर वह टाल देती थी । चारू ने रत्ना की आँखों में देखा ,अब वह कहीं से चारू को सौतेली नहीं लगी , अब वह उनसे चिपट कर बिलख बिलख कर रो रही थी। 
95.
★नौटंकी 
"अरे अचानक कैसे चली आईं अम्मा ?"घर में अम्मा  को अचानक आया देख कर राधेश्याम हैरान था। 
"क्या करती छोटे ने घर से निकाल दिया ।" माँ ने कातर स्वर में कहा 
वो एेसा नहीं कर सकता।" दृढ़ता से राधेश्याम ने
कहा
"तो मैं झूठ बोल रही हूँ ?" माँ तुनक कर खड़ी हो गयी।
"अरे पर बाबा को अकेले छोड़ कर कैसे आ सकती हो?" राधेश्याम  ने धीमें स्वर में कहा
"जैसे आई हूँ ।" अम्मा ने गोलाई में गरदन 
मटकाते हुअे जवाब 
"अम्मा बच्ची हो क्या? " राधेश्याम कई क्षणों तक अम्मा के कंधे पर हाथ रख कर खड़ा रहा 
"वो लोग तो यही समझे हैं भैया ,मुझमें तमीज़ ना है ,मैं लडोकडी (लड़ाकू) हूँ ,मुँहफट हूँ , पहनने खाने की मुझे तमीज़ ना है और भी जाने क्या 
क्या ,अब राधे कुछ दिन यहाँ रहने दे ,फिर तू भी निकाल देना छोटे के पास लौट जाऊँगी ।"
"ठीक है अम्माँ ,रात भर अकेले रहना होगा तुझे।मैं तो एक चौकीदार हूँ ।रात भर काम पर रहता हूँ।"
"रह लूँगी ,राशन पानी तो डलवा देगा ना ? "अम्मा ने खुले बक्से में से सामान निकालते हुअे कहा 
"हाँ ।" राधेश्याम बहुत खिन्न मन नज़र आ रहा 
था ।अम्मा ने उसके चेहरे पर नज़र डाली ।आँखों में उमड़ते आँसुओं को बमुश्किल रोकते हुअे मन ही मन बोली राधेश्याम तुझे कैंसर है ,तेरे दोस्त भागीरथ ने बतला दिया है इसलिये तेरे बाबा ,छोटे और मैंने मिल कर यह नौटंकी रची है ताकी तेरी देखभाल हो सके।फिर बक्से में से पचास हज़ार की पोटली निकाल कर राधेश्याम को पकड़ाते हुअे बोली-"ले राधे तेरे बाबा व चाचाओं ने मिल कर दादा जी का पैतृक मकान निकाल दिया है । तेरे हिस्से के रूपये तेरे बाप ने भिजवाये हैं ।तेरी जो मर्ज़ी है वो कर ।"कह कर वह अपना बिस्तर लगा कर लुढ़क गयी। राधेश्याम अवाक् उन रूपयों को देखता रहा ।फिर अम्मा को कंबल ओढ़ा ,बाहर का दरवाज़ा बंद कर ,साइकिल उठा कैंसर अस्पताल की तरफ़ चल दिया।
अम्मा  डबडबाई आँखों से उसे जाता देखती रही ।फिर इधर उधर बिखरे हुअे सामान को सलीक़े से ज़माने लगी।
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★ ख़ुशबू 
डायरी में रखा गुलाब का फूल सूख कर भी अनूठी ख़ुशबू बिखेर रहा था ।सुजाता कैसे भूल सकती है कि जब सिद्धांत मात्र दस वर्ष का था तब उसने सुजाता को जन्मदिन पर दिया था । आज तक सुजाता ने उस फूल को संभाल कर रखा हुआ है ।आज फिर एक जनवरी है सुजाता का जन्मदिवस । उसे इंतज़ार है सिद्धांत के फ़ोन का ।उसे अमेरिका गये कई वर्ष बीत गये हैं ,अब तो वो एक सुंदर गबरू जवान है ,दो बच्चों का बाप भी।
सुजाता के जन्मदिवस पर पहला फ़ोन हमेशा सिद्धांत का ही आता रहा है पर पिछले दो सालों से वह उसका जन्मदिन भूल सा जाता है । जब याद आता है तो वह  माँ से यह कह कर माफ़ी  माँगता है कि -"अरे यार माँ एक जनवरी को क्यों पैदा हुईं आप । नये साल की पूर्व संध्या पर रात में पार्टी रहती है जो सुबह तक चलती है ,फिर आकर सो जाता हूँ । मैं भी क्या करूँ - यहाँ की आपाधापी में सब कुछ भूल जाता है ,सौंरी यार माॅम बीलेटिड हैप्पी बर्थडे टू यू -लव यू ! "सुजाता थैंंक्स कहकर बेटे के हाॅल चाल पूछने लगती है । फिर फ़ोन रख कर वर्षों पुराने डायरी में रखें सूखे गुलाब के फूल की ख़ुशबू में डूब जाती है । 
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★जाको राखे साइँया 
राधेरानी ने ईश्वर को तहेदिल से धन्यवाद दिया ।आज अपने पिताजी की कही कहावत उन्हें बहुत याद आ रही थीं कि जाको राखे साइँया मार सके ना कोई । राधेरानी की समस्त स्मृतियाँ उलझ कर अतीत में चली गईं थीं  ।दृश्य बहुत भयानक था,दुर्घटना ग्रस्त  ट्रेन के चारों तरफ़ लहूलुहान मुुसाफिरों के क्षत-विक्षत शरीर छितरे पड़े थे।जिस तुरंतो एक्सप्रेस से राधेरानी कलकत्ता जा रहीं थीं उसमें पाँव रखने की जगह भी नहीं थी । वे किसी तरह कोच में घुसीं ,सीट नंबर मिला -ऊपर की बर्थ थी । उनकी कमर में असहनीय दर्द था ,उन्होनें टिकट कंडकटर से आग्रह किया कि वह उनकी सीट बदल दे ,वह वरिष्ठ नागरिक हैं ऊपर कैसे चढ़ेंगी । वहीं एक नवयुवक खड़ा था जो अपनी भाभी को कोच में बिठाने आया था ।राधेरानी की समस्या सुन कर तुरंत बोला - "आंटीजी ,आप चाहें तो मेरे कोच में नीचे की मेरी सीट ले लें -दो डिब्बे के बाद मेरा कोच है ।मुझे भी सुविधा रहेगी भाभी को संभालने में । वे तुरंत राज़ी हो गयीं ।उसी नवयुवक ने राधेरानी को कोच बदलने में मदद कर दी ।नये कोच में नीचे की बर्थ मिलने से राधेरानी  का मन ज़रा हल्का हो गया था। चूँकि  कड़ाके की सर्दी थी ,राधेरानी थकी हुईं भी थीं इसलिये कंबल आोढ कर तुरंत मुँह ढाँप कर सो गईं। रेलगाड़ी की खटर-पटर के अलावा डिब्बे में भयानक सन्नाटा पसरा पड़ा था। अचानक राधेरानी चीख़ पुकार सुन कर जागीं तो दृश्य बदला हुआ था ।उन्होनें खिड़की के बाहर झाँक कर देखा लोग इधर -से -उधर भाग रहे थे। किसी सह यात्री से पता लगा कि वे जिस डिब्बे में पहले थीं वह भी पलट गया है । राधेरानी ने कस कर आँखें मूँद लीं । बाहर की चीख़ पुकार से भी ज़्यादा उनके मन में हाहाकार मचा हुआ था। 
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(प्लास्टिक की गुडिया 
★साथिया
जब सुंदरा आफ़िस से थकी हारी घर पहुँची तो सासू माँ झल्लाई सी पलंग पर बैठी पोते को बोतल से दूध पिला रही थी । सुंदरा को देखते ही व्यंग्यात्मक शब्दों में बोली-"बहुत ही थक गयीं हूँ बाबा मैं तो ,बहू  अब लेटूँगी ।जल्दी ये साड़ी बदल और संभाल मुन्ने को ।जाने तुम्हें नौकरी का क्या चस्का है।बच्चों को पहले देखो ,हमने तो आठ आठ जने हैं ,कभी घर से बाहर नहीं निकले । अब तो मेरे आराम के दिन हैं या बच्चे पालने के?"
"जी माँ अभी लेती हूँ ।"कह कर सुंदरा साड़ी बदलने चली गयी। याद आया उसे वह दिन जब सगाई से एक हफ़्ते पहले एक काफ़ी हाउस में सुंदरा की अपने पति रमन से मुलाक़ात हुई थी , तब रमन ने कहा था-" सुंदरा , शादी के बाद तुम्हारा जीवन और कठिन होने वाला है ,स्पष्ट बता रहा हूँ ।
"वो कैसे ?"काफी की चुस्की लेती सुंदरा ने मुस्करा कर पूछा-"भाई सबसे बड़ा हू ,ब्याहने को तीन बहनें ,पढ़ाने को दो छोटे दो भाई भी हैं ,फिर माँ बाप भी हैं और मैं अकेला कमाने वाला हूँ ,तुम्हें अपनी बैंक की यह नौकरी जारी रखनी
 होगी ।"
"ज़रूर रमन ,मैं तुम्हारा पूरा साथ दूँगी ।"सुंदरा ने आत्म विश्वास से कहा
"अरी अब आ भी जा ,मुन्ने को संभाल "  बाहर से सास ने आवाज लगाई तो सुंदरा मुन्ना को लेने तेज़ क़दमों से बाहर आ गयी । घर पहुँच कर गरम गरम चाय पीने की सुंदरा की तलब जाने कहाँ मर गयी थी।
डाॅ.सरस्वती माथुर 
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(प्रतियोगिता के लिये चित्र पर आधारित )
रंगों की दुनिया 
सभी अख़बार आज निराली की एकल प्रदर्शनी में लगे चित्रों की तारीफ़ों से भरे पड़े हैं  ।आज वह एक नामी गिरामी चित्रकार है ।आये दिन विदेशों में उसे बुलाया जाता है।देश के सभी सांस्कृतिक संस्थानों में उसके बनाये चित्र लगे हैं ।कल की सी बात लगती है जब निराली के हाथों में उसकी दादी ने रंग और कूँची थमा दी थी ।निराली सात वर्ष की ही थी जब दूसरे प्रसव के दौरान उसकी माँ चल बसी थी तो जैसे उसकी दुनिया ही उजड़ गयी थी। दादी के आँचल में वो रोज़ रात को सुबकती और एक ही प्रश्न दोहराती-"दादी माँ अम्मा जी को भगवान से वापस माँगों ना ,मैं उनके बिना नहीं जी सकती।"दादी माँ उसे सीने से चिपका लेती।एक दिन दादी माँ ने मंदिर गयीं तो वहाँ उन्होनें अपनी सहेली कमला को अपनी पोती के बारे में बताया - "निराली को कैसे समझाऊँ कम्मों ,वो माँ की जुदाई को सह नहीं पा रही है। "
कमला ने उसे एक छोटी सी सलाह दी - "ध्यान बंटा उसका मोहिनी ,उसे सृजनात्मक काम में लगा ,उसे बोल - "सूरज धूप के हिंडोले ले रोज़ धरा पर आता है  ,उतरने को इंद्रधनुष की सतरंगी सीढ़ियाँ होती है । यदि  बच्चे मन से एेसे चित्र बना कर रंगों से सज़ा कर घर में लगायेंगे तो ख़ुश होकर भगवान जी माँ को वापस धरा पर भेज देंगें ।"
बस फिर क्या था ,निराली रोज़ कोई नया चित्र बनाती और नीचे अपने हस्ताक्षर कर लिखती -माँ के लिये ।वह रंगों की इस दुनिया में इतनी डूब गयी थी कि धीरे -धीरे माँ की अचानक हुई मौत के सदमें से उबर गयी  ।समय पंख लगा फुर्र हो गया ।किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि वह नन्हीं सात वर्ष की निराली एक दिन अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपनी एक पहचान बना कर घर को अवार्डस से भर देंगी और देश का नाम रोशन करेगी । 
100
★कौआ 
"यह मरा क़व्वा कल से पीपल पर बैठा है -कांव कांव करें जा रहा है ,मुझे तो डर लग रहा है हरी के बापू कोई मेहमान ना आ टपके ।" प्रभाती ने माथे की त्यौरियाँ और सिकोड़ ली ।
"अरी तू भी कितनी अंधविश्वासी है री प्रभाती , पंछी तो बोलें ही हैं ।"मोहन लाल जी ने बिना अख़बार से सिर उठाये पत्नी को समझाया ।
"नहीं जी हरी के बापू, बेशक पढ़ी लिखी ज़्यादा ना हूँ पर पंछी शास्त्र का ज्ञान पूरा है मुझे ।" कह कर दोनों घुटनों पर हाथ टिका कर प्रभाती उठी और रसोई में राशन पानी कितना है देखने जा घुसी "
  मोहन लाल जी अख़बार एक तरफ़ पटक सोच में पड़ गये ।पिछले दो महीने से हरी का मनीॅआॅडर नहीं आया है ।वो भी क्या करे  , नोटों की बंदी ने उसे भी गिरफ़्त मे ले लिया होगा।
तभी कमली दौड़ी दौड़ी आई -"माँ बाबा बाहर आओ जल्दी , छोटी बुआ - फूफा जी आये है ,आटो वाले को पैसे देने को कह रहे हैं ,उनके पास छुट्टे ना हैं । " 
मोहन लाल बेबस से उठे ।  उनके चेहरे पर मंहगाई में आटा गीला वाला भाव साफ़ नज़र आ रहा था। ।झल्लाती प्रभाती ने ग़ुस्से से पीपल के पेड़ की और देखा और पास पड़ी  टूटी चप्पल उठा कर कौवे की तरफ फेंकी तो वह  पंख फैला  कर कांव कांव करता उड़ गया । 
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★मेला 
गंगा घाट पर रघुराई की चाय पकौड़ी के ठेले पर भीड़ रहती थी ।मेले के अवसर  पर तो उसे साँस लेने की फ़ुरसत नहीं होती थी ।जब फ़ुरसत होती तो वह अतीत में चला जाता ।वो दिन आज भी उसे याद है वो उदास चबूतरे पर बैठा था । घाट के मंदिर के पास बैठी रज़िया खान अम्माँ ने उसे देख कर कहा था -" ए रघुराई आज काम पर नहीं गया रे ?" 
उदास मुँह लटकाये बैठे पंद्रह वर्षीय रघुराई ने बिना सिर उठाये जवाब दिया-"नगर पालिका के ठेकेदार ने छँटनी कर दी है "
"अरे कोई बात नहीं जीवन तो एक मेला है रे बेटा ,पहले लगता है फिर उजड़ जाता है ,इधर आ मेरे पास मैं बतलाऊँ तुझे कि नौकरी कैसे मिले है । वह रज़िया के पास आ बैठा , उसने धीरे से उसके कान में कुछ कहा तो रघुराई ने अपनी गीद भरी आँखें उठा कर रज़िया को आश्चर्य से देखा और धीरे से फुसफुसाते हुअे बोला-"पर रंजना अम्माँ मैं तो भंगी का बच्चा ठहरा।  "
"तो क्या हुआ पगले ,मैं मुसलमान हूँ पर मंदिर के बाहर बैठ कर मालाएँ बेच रही हूँ ना ?"
"जी अम्माँ यह तो सही कही  तुमने ।" उसने सहमति में सिर हिलाया। 
  उस दिन तेज क़दमों से चलता हुआ रघुराई गंगा घाट पर जा पहुँचा था । वहाँ मेला व पर्यटकों का रेला भी था ।अब तो वहाँ जाना उसके रोज़ का काम हो गया । अपनी सूझबूझ से उसने वहाँ चाय पकौड़ी का ठेला लगा लिया था। रोज़ सुबह से वहाँ भीड़ की चहल पहल शुरू हो जाती थी । घाट पर सूरज की दूधिया रोशनी में नहाते राम गुण गाते बेशुमार भक्तगण  डुबकी लगा कर बाहर निकलते और रघुराई के ठेले के पास चबूतरे पर बैठ कर उसके बनाये पकौड़े व चाय की चुस्कियाँ लेते हुअे मेले का आनंद लेते ।अब वह बहुत ख़ुश था ,उसे गंगा की कलकल करती जलधाराओं  से बस एक ही गूँज सुनाई देती थी कि प्रकृति तो एक वरदान है ,यह गंगा घाट एक पुण्य धाम है ,यही गीता हमारी यही हमारा क़ुरान है। 
102
★निमंत्रण पत्र 
"माँ शादी में भैया दस दिन पहले तो आज़ायेंगे ना? "मीरा ने पूछा तो माँ मुस्करा दीं 
"तू फ़िक्र क्यों करती है पगली ।सगी बहन की शादी है , आयेगा ही ।"
पास ही बैठे मीरा के पिता कल छप कर आये निमंत्रण पत्रों को गिन रहे थे । माँ बेटी का संवाद सुन कर पत्नी से बोले-" "गीता सुधीर आ जाये तो निमंत्रण पत्र बाँटना शुरू करूँ ।अकेले कैसे करूँगा? अभी तो शादी में पूरा एक माह बाक़ी है।"
"ना जी सुधीर के बापू ,बाहर के रिश्तेदारों को तो पोस्ट कर ही दो , रिज़र्वेशन भी तो करवायेंगंे ना ।"
"हाँ यह तो सही कही ,चलो आज से ही शुरू करता हूँ । " वह लिस्ट बनाने लगे । माँ बेटी शादी का सामान पैक करने में जुट गये ।घर में पसरे सन्नाटे को फ़ोन की घंटी ने तोड़ा । मीरा ने फ़ोन उठाया तो भाई की आवाज़ सुन कर ख़ुशी से चीख़ पड़ी--"भैया अभी हम सब आपको ही याद कर रहे थे ।कब पहुँच रहे हो।?"चमकती आँखों में आशा के दीप जलायें माँ -बाबा भी फ़ोन के क़रीब आ गये थे। मीरा ने स्पीकर आॅन  कर दिया ।
सुधीर  की  आवाज़ सारे घर में गूँज उठी-- "सौंरी मीरा शादी में आ नहीं पाऊँगा। अमेरिका में कंपनियों में ले आॅफ हो रहे हैं ।इन दिनों छुट्टी ली तो नौकरी चली जायेगी। तेरी भाभी आती पर वो ख़ुशख़बरी सुना रही है ।माँ बाबा को बता देना बहना।" फ़ोन कटते ही घर में मातम पसर गया मानों किसी की मौत हो गयी हो। 
103
★अनुदान 
सोनाली एक नामी गिरामी समाज सेविका थी।जिस संस्था में काम करने जाती थी ।वहाँ हर बार उजले चेहरों के मुखौटे पहने काले लोगों से उसका सामना होता था ,उत्पीड़नों के घिनौने दृश्य पर्दे के पीछे होते उसने देखें पर यह सोच कर प्रतिवाद नहीं कर पायी कि अकेला चना कहाँ तक भाड फोड़ेगा । कभी कभी सोनाली को ख़ुद से भी घृणा होने लगती थी पर वह बुत की तरह वहाँ काम करती रही ।अनुदान की तगड़ी रक़म सरकार लेकर यह संस्थाएँ अपना पेट भरती रहीं जबकि यहाँ  के बच्चे जिनके नाम पर यह चंदा उठाया जाता है बराबर कुपोषण के शिकंजे में जकड़े रहे ।
आज भी संस्था में उत्सव है ।सरस्वती की आराधना चल रही है। उजले कपड़ों में बच्चे ईश्वर के दूत लग रहे हैं।रंग बिरंगें कार्ड छापे गये हैं।एक बड़े नेता के साथ कई प्रशासनिक अधिकारियों को आमंत्रित किया गया है। संस्था के बाहर स्वागत करते बच्चे-बच्चियाँ रोबोट की तरह काम कर रहे हैं ।
नेताजी का द्वार पर जोशिला स्वागत होता है ।सोनाली भी साथ होती है।नेताजी बच्चों की कुशल क्षेम पूछते हैं -कुछ जानने के लिये प्रश्न करते हैं-"आप लोग ख़ुश हैं , यहाँ कोई परेशानी तो नहीं ।खाना-पीना समय से मिलता है।?" बच्चे सहमें से सहमति में सिर हिलाते हैं। एक बड़ा अनुदान फिर संस्था को देने की घोषणा हो जाती है। नेताजी के जाते ही बच्चों के उजले वस्त्र मैले कुचैले चिथडों में बदल जाते हैं। जब इस ख़ुशी में संस्था के आयोजक शानदार पार्टी कर रहे होते हैं तब मासूम बच्चों के पेट में भूख के चूहे कूद रहे होते हैं ।
104
★होली की डूंड 
"माई पोस्टकार्ड आया है पढ़ूँ?" रतनारी की बेटी घूमर ने चहकते हुअे कहा 
बर्तन माँजना छोड़ रतनारी झटके से उठ खड़ी हुई -"जल्दी पढ़ घूमर सब ठीक तो है मेरा दिल बैठा जा रहा है। "
"खुसखबरी है री माई खुसखबरी -मिठाई मँगा 
तू ,नाती की नानी बन गई है ।" चिट्ठी बाँच घूमर माँ के इर्द गिर्द गोल गोल घूमने लगी। 
"हे मेरे भगवन बड़ी मेहर करी।"लुगडी (आोढनी) से हाथ पौंछती रतनारी चौक में तुलसी पर दिया बालने चली गयी।पास ही बैठा घूमर का बापू भँवर मुस्कुराया ज़रूर पर मन के एक कोने में असंख्य सुइयाँ चुभने लगीं । ख़र्चा कहाँ से आयेगा । होली का त्यौहार है बच्चे की पहली डूंड करनी पड़ेगी ।बेटी को बुला कर नेक रस्म भी करनी पड़ेगी।पीला ओढ़ाना पड़ेगा । भँवर ने खूँटी पर लटकी क़मीज़ उतारी ,पहन कर  आँगन में रखी साइकिल उठाई और ज़मींदार चुन्नी लाल की हवेली की तरफ़ चल पड़ा ।कम से कम चार हज़ार का क़र्ज़ा तो लेना पड़ेगा । मज़दूर आदमी है पर रस्में तो निभानी पड़ती हैं ।सर्द मौसम में गमछे से पसीना पौंछता भँवर तेज़ तेज क़दमों साइकिल चलाता हुआ से चुन्नी लाल की हवेली की तरफ़ बढ रहा था । तभी साईकिल पंचक हो गयी वह उसे घसीटता हुआ पैदल चलने लगा । हवेली की देहरी पर रूका तो ज़ोर ज़ोर से उसका दिल धड़कने लगा।वहीं द्वार के पास चबुतरे पर अधलेटा बैठा कुत्ता जाने क्यों उसे देख कर रोने लगा । एक अजीब सी आशंका से  भँवर के पैरों की कंपन बढ़ने लगी -चक्कर आया और वह  वहीं ढेर हो गया। 
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(अजनबीपन)
★बटवारा
होली की चंग बजते ही वातावरण में हुड़दंग शुरू हो जाती है ।बड़ा उल्लसित करने वाला नज़ारा था -जब  अपनी बालकनी में खड़ी श्यामा कॉलोनी के बच्चों को एक दूसरे पर ग़ुब्बारे मारते देख रही थी। तभी पड़ोसन चारू आगयी-"श्यामा हम अभी गाँव के लिये निकल रहे हैं ,होली करके आयेंगे ।घर का ध्यान रखना प्लीज़ ।"
"ज़रूर चारू  , हर साल तुम त्यौहार सास ससूर के साथ मनाने गाँव जाती हो ।कितने ख़ुश होते होंगें ना -बड़ी अच्छी बात है "
"अरे नहीं श्यामा हमारे ससूर के खेतों में इन दिनों फ़सल कट कर बिकती है।उन्हीं की देखरेख में पैसों का बटवारा हो जाता है ।हम वही लेने जाते हैं ,वरणा बिना सड़क वाले उस गाँव में जाकर क्या करें -सास ससूर से मिलने का तो बहाना भर है।"श्यामा के हाथों में घर की चाबी पकड़ा तेज़ क़दमों से चलती हुई चारू कार में जा बैठी ।श्यामा भौंचक्की सी खड़ी तब तक उसे जाते देखती रही जब तक की कार उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गयी। 
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(क़तार )
★एेसे भी होता है 
मानस  के लापता होने के बाद से ही  नारंगी देवी की हर रात काली व दिन उदासी में निकल रहे थे । ना खाती थीं ना पीती थी बस बरामदे में बैठी टकटकी लगाये सड़क पर आँखें गड़ाये बैठी रहती थीं ।उसकी लापरवाही से पाँच साल का मासूम मानस पुष्कर मेले में बिछड़ गया था ।पुलिस की मदद से बहुत ढूँढा पर वह नहीं मिला ।लोगों ने बताया भी कि साधू के वेश में कुछ अपहरण करने वाले जन  मेले में घूमते रहते हैं -बच्चों का हाथ पकड़े रहना चाहिये ।वह यूँ तो सजग थी पर जाने कब वो हाथं छुड़ा कर भीड़ में ग़ायब हो गया । इस बात को एक महिना हो गया है ।आज भी वह शून्य मन से बरामदे में बैठी थी ।निगाहें सड़क से एक पल को भी नहीं हटती थी। आँसू के धारों से बार बार आँखें धुँधली हो जाती थी ।आज सुबह से सीधी आँख फड़क रही थी , मुँडेर पर बैठा कौवा सुबह से ही कांव कांव कर रहा था ।तभी सामने से एक नवयुवक एक बच्चे का हाथ पकड़े आता दिखा तो शक्ल साफ़ नहीं दिखने पर भी वह चिल्ला कर भागी --"मानू रे मानू "--बच्चा भी दौड़ता हुआ नारंगी देवी से आ लिपटा ।साथ आये नवयुवक ने आकाश की तरफ़ देख कर हाथ जोड़ दिये और एक गहरी साँस ली। 
"अपनी अमूल्य धरोहर को संभालें माँजी । यह मेले में मुझे रोता हुआ मिला था तब से भटक रहा हूँ इसे लिये ,इसके बताये हर पहचाने रास्तों पे घूम रहा हूँ -आज सही क़तार पकड़ी -ख़ुशी है कि आज इसे इसके घर तक पहुँचा पाया  ।पंद्रह साल पहले मैं भी मेले में घरवालों से बिछड़ गया था इसी की उम्र का रहा होऊँगा -आज तक अपने घर को ढूँढ रहा हूँ । "
इससे पहले की नारंगी देवी उसे धन्यवाद के दो शब्द कहती वह नवयुवक तेज़ क़दमों से चलता हुआ लौट गया।
107
(अमरबोध)
★वैलेंटाइन डे 
"हरी आज वैलेंटाइन डे कैसे मनायेंगे कुछ प्लान किया है?" हरी की पत्नी ने चाय की प्याली पकड़ाते हुवे मुस्कुरा कर पूछा तो हरी भी मुस्कुरा दिया ।
"हाँ महारानी -मेरे घर की राजरानी -शादी की पच्चीसवीं सालगिरह भी आ रही है ना तो स्पेशल तो मनायेंगे ही।चल तैयार हो जा लंच बाहर ही करेंगें ।हरी के साथ कार में बैठ कर राधा अंदाज लगाने लगी कि यह कहाँ ले जायेंगे ,वैसे होली डे इन इनकी मनपसंद जगह है । लेकिन वह हैरान रह गयी जब हरी ने कार एक ढाबे पर रोकी -"अरे यहाँ पर?"
" रूक  पैक करा कर लाता हूँ।"  खाने के ढेर पैकेट थैले में डलवा हरी सीधे अवेदना सदन पहुँचा ।रास्ते में कुछ डंडी वाले गुलाब ख़रीदे और अंदर चले गये ।वहाँ की केयर टेकर उसका इंतज़ार कर रही थी। सीधे सदन के डाइनिंग रूम में पहुँचें वहाँ वरिष्ठ नागरिक कतारबद्व मेज़ के इर्द गिर्द बैठे थे। अब राधा की समझ आ गया ।इस सदन में रह रोये डे केयर के बुज़ुर्गों के साथ आज महफ़िल जमेगी।दोनों ने मिल कर सब को रोज़ बाँटे और साथ खाना खाया ।घर लौटते वक़्त हरी ने पूछा-"कहो राजरानी कैसा रहा वैलेंटाइन डे -मज़ा आया?"
राधा की आंखं नम हो गयी -"हाँ हरी ,बहुत मज़ा आया ।इतना मज़ा कभी जीवन में नहीं आया।गुलाब की यह महक हमेशा हमारे जीवन में बनी रहे ।"
108
(ज्वालाओं की कंदीलें )
★समझौता
"अजी आपको कितनी बार कहा है कि हियरिंग एड लगाये रखो , अब आपको सुनाई कम देता है "मोहिनी देवी ने अपने पति राधेगोविंद जी के कान के पास मुँह ला कर लगभग चिल्लाते हुअे कहा 
"चिल्ला क्यों रही हो  ,सुन तो पा रहा हूँ ,तुम बिना बात मेरे पीछे ना पड़ा करो मोहिनी "राधेगोविंद जी ने माथे की त्योरियाँ चढ़ाते हुअे कहा 
"बनवाई क्यों फिर ,बेकार हें हें करते फिरते हो ,मैं कहती हूँ दवाई ले लो तो समय बताने लगते  हो , मैं समय पूछती हूँ तो सब्ज़ी का थैला उठा कर पूछने लगते हो कि क्या क्या लाना है ,पर अपने आप से समझौता नहीं करते ।"
पिछले दो महीने से राधेगोविंद जी ज़रा ऊँचा सुनने लगे थे ,बेटे ने मशीन भी बनवा दी पर वो हर समय मेज़ की दराज़ में पड़ी रहती थी ,वह मानने को तैयार ही नहीं थे कि वह बुढ़ापे की ओर अग्रसर हो रहे हैं -इस उम्र में शरीर भी ज्वालाओं की कंदीलों की तरह हिलने लगता है और रिपेयरिंग माँगता है। तभी ठेकेदार आ गया बेटे ने घर की टूट फूट की मरम्मत के लिये बुलाया था ।घर के कई दरवाज़े ढीले हो रहे थे ,चिटकनियों के जंग लग गयी थी।खिड़कियाँ बारिश खा खा कर झिलंगा हो गयीं थीं ।राधेगोविंद जी कान का हाथ से छाता सा बना कर दोनों की बातें ध्यान से सुन रहे थे ।बेटा कह रहा था कि -"ठेकेदार जी पुरानी चीज़ें बदलनी तो पड़ेंगीं , यदि रिपेयरिंग नहीं करेंगे तो चीजें और भी ख़राब होती जायेंगी ।समय रहते चेतने में ही समझदारी है ।"
एकाएक राधेगोविंद जी को लगने लगा कि अरे वो भी तो अब पुराने हो गये हैं ।वह इस सच्चाई से समझौता क्यों नहीं कर पाते हैं? वह उठे ,मेज़ की दराज़ से हियरिंग एड निकाली कान में फ़िट करके  आरामकुरसी पर आ कर बैठ गये ।फिर एक गहरी साँस भरी और शून्य आँखों से आसमान की तरफ़ ताकने लगे ।
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( चित्र पर आधारित लघुकथा ) 
★गोदना 
 झाईं गाँव के आनंदीलाल अस्पताल की नर्स ने डाक्टर श्यामलाल के बगल वाले कमरे के सामने जाकर आवाज़ दी -"अगला पेशेंट आ जाये।" एक युवक का हाथ पकड़े बैसाखियों पर चलती युवती आ खड़ी हुई। बिना सिर उठाये काग़ज़ पर लिखें टेस्ट की रिपोर्ट पढ़ते हुअे श्यामलाल ने प्रश्न किया -- "क्या तकलीफ़ है ?"
 युवती के साथ आये पुरूष ने जवाब दिया -"डाक्टर साहब बहुत तेज़ सिर दर्द रहता है इनको ।आज तो सुबह से ही बहुत चक्कर आ रहे हैं ।" डाक्टर श्यामलाल ने बैठने का इशारा करके जैसे ही निगाहें ऊपर की तो अचंभित रह गया । उसका चिरप्रतिक्षित  प्रेम सामने खड़ा था। युवती ने नब्ज़ दिखाने के लिये हाथ आगे बढ़ाया तो डाक्टर श्यामलाल  के हाथ काँप कर रह गये।युवती का हाथ उसके हाथ में था , उस पर दो नाम सजीव हो उठे थे-'श्याम-सुंदरी ' दो नाम शाश्वत और प्रेमिल -वही दो नाम - मौन ,आत्मीय और आलिंगनबद्ध -तभी साथ आये युवक ने कहा- -"डाक्टर साहब कई साल हुअे इनकी याददाश्त चली गयी है -तभी से सिर में निरंतर दर्द रहता है।"
डाक्टर श्यामलाल की आँखों में पुराने दिन जलते दियों से सजीव हो उठे -इसी गाँव की अल्हड़ युवती सुंदरी से उसे प्रेम  हो गया था ।दोनों ने ढेर सपने साथ देखें थे पर दक़ियानूसी समाज ने दोनों को एक ना होने दिया था। वह भी उस समय पिता के फ़ैसले का विरोध ना कर सका था । उसे पढ़ने गाँव से शहर भेज दिया गया । पढ़ लिख कर वह डाक्टर बन गया ।सुंदरी नाना के घर किसी दूसरे गाँव में चली गयी । आज भी गाँव में लगे उस मेले का दृश्य डाक्टर श्यामलाल  की आँखों में उतर आता है जब सुंदरी ने प्रेम  के प्रतीक रूप में अपने  हाथों पर श्याम सुंदरी  नाम का गोदना गुदवाया था। उसने भी लहरिया उकेरते हुअे बाज़ू पर सुंदरी का नाम गुदवाया था । 
 डाक्टर बनने के बाद कुछ दिन तक तो श्यामलाल ने सरकारी अस्पताल में काम किया ।फिर शादी के बाद अमेरिका चला गया ।पिता के देहावसान के बाद गाँव लौटा और गाँव में अस्पताल खोलने का सपना पूरा करने की प्रक्रिया में जुट गया। पैतृक घर खंडहर हो चुका था -रंग रोगन  उड़ चुका था उसी की मरम्मत व रेनोवेशन करवा कर एक नया साइन बोर्ड पिता के नाम का लगवा दिया । अब यह अस्पताल चल निकला है । तभी नर्स की आवाज़ श्यामलाल को अतीत से वर्तमान में खींच लाई-- "सर यह रही इनकी पुरानी रिपोर्ट ।"  सुंदरी सामने कुर्सी पर  बैठी शून्य दृष्टि से लगातार डाक्टर श्यामलाल को देख रही थी पर उसका अस्तित्व गौण था। 
110
(शून्य मन )
★  षष्ठी पूर्ति समारोह
  रमा देवी पाँच बजे दफ़्तर से घर लौटी तो सिर दर्द से फटा जा रहा था ।  सिर पर बॅाम लगा कर  उसने गोली खायी और कपड़े बदल कर रसोई घर में आ गयी ।चाय का पानी चढ़ा कर पूजा घर में दिया जला दिया।फिर बेमन  से आइने के पास  आ खड़ी हुई ।चेहरे पर क्रीम लगा कर बाल सँवारने को कंघा उठाया तो देखा माँग के साथ साथ कनपटी के आसपास के भी सारे बाल खिचड़ी  हो गये हैं  ।वह उद्वेलित हो उठी। अगले माह वो साठ वर्ष की हो जायेगी ।  अपने लिये रमा देवी को कभी समय ही नहीं मिला ।आज भी सिंगल है। शहर में अकेली रह रही है। ।पूरी ज़िंदगी दो भाइयों व दो बहनों को शिक्षित कर उनकी शादी ब्याह करने में ही निकल गये। सभी बाहर नौकरी कर के अपनी अपनी गृहस्थी  में व्यस्त हैं। तभी द्वार पर घंटी बजी तो वह चौंकी --इस समय कौन है -द्वार खोला , कोरियर वाला एक आमन्त्रण पत्र पकड़ा कर चला गया। चाय की प्याली बना वहीं सोफ़े पर आ बैठी ।कार्ड खोला तो चौंक पड़ी --" रमा देवी के षष्ठी पूर्ति समारोह में आप सपरिवार आमंत्रित हैं।" ।सभी भाई-बहनों ने मिल कर उसके लिये यह आयोजन रखा था। होंठों पर स्मित सी मुस्कान के साथ साथ ना जाने क्यों रमा देवी की आँखों से दो बूँद आँसू भी ढुलक आये थे।
111
(चित्र आधारित लघुकथा प्रतियोगिता )
★दाख़िला 
आज  चकोरी को दसवीं कक्षा में प्रथम आने का पुरस्कार मिल रहा था। चाँदनी ख़ुश थी ।कल की सी बात लगती है उसको जब उसने अपने घर काम करने वाली बाई की बेटी से प्रश्न किया था-" तू भी पढ़ाई किया कर ना चकोरी मेरी तरह ?"
चाँदनी की बात सुन कर वह हंस पड़ी थी और बड़े बुज़ुर्गों के अंदाज में बोली थी --"तब बीबी जी खायेंगे क्या --दस घरों में काम करके तो रोज़ी रोटी जुटाते हैं हम --मैं पढ़ूँगी तो ख़र्चा कौन देगा?" चाँदनी के पिता वहीं बैठे थे ,दोनों की बातें सुन रहे थे। वे भले व समाज सेवी इंसान थे ।जाने क्या मन हुआ उनका ,उन्होनें तय कर लिया कि वह चकोरी का दाख़िला सरकारी स्कूल में करवा देंगें और उसकी पढ़ाई का सारा ख़र्चा उठायेंगे,अपना फ़ैसला जब उन्होनें घरवालों को सुनाया तो सभी ने इस नेक फ़ैसले का समर्थन किया ,धनिया तो सात जन्मों के लिये ऋणी हो गयी । चाँदनी को तो जैसे मन माँगी मुरादें मिल गयी थी ।उसने चकोरी को पढ़ने में सहयोग देना शुरू कर दिया ।एक तरह से उसकी टीचर ही बन गयी थी।उसके दिल की तरह उसका कमरा भी बड़ा था ।उसमें किताबों का अंबार लगा था ।चाँदनी के पास चकोरी के लिये भी एक कुर्सी लगवा दी गथी । हर शनिवार -इतवार को वे वहाँ आकर पढ़ती थी। समय के साथ साथ दोनों पढ़ाई के गहरे सागर में होते लगाने लगे और इस तरह चकोरी ने बड़े हौंसलें से जीवन में शिक्षा का पहला पड़ाव पार किया -दसवीं बोर्ड में प्रथम स्थान लाकर । चाँदनी भी टाॅप  दस में चयनित थी ।  जब चकोरी पुरस्कार ले रही थी तो वह जोश में तालियाँ बजा रही थी ,इतनी भावुक हो गयी थी कि यह भी नहीं देख पायी थी कि पूरे हाल की तालियों की गूँज रूक गयी है और चकोरी कब की उसके पास आकर खड़ी होगयी हैं ।
112
(पाषाण का स्पर्श )
★पनाह 
कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी।रात भर से तेज़ हवाओं के साथ ओले भी गिर रहे थे। तभी रात के दो बजे के क़रीब दरवाज़े पर अचानक अनवरत थपथपाहट और जारी पुकार के कारण दमयंती की आँख खुल गयी , टार्च की रोशनी फेंक कर उसने बरामदे की खिड़की से बाहर झाँका तो देखा एक भिखारिन  नन्हे से बच्चे को छाती से चिपकाये काँपते हुअे वहाँ खड़ी है। 
" क्या है री ?" दमयंती ने कड़क आवाज़ में पूछा
"बीबी जी बच्चे को तेज़ बुखार , घर के अंदर नहीं पर बरामदे के एक कोने में बैठने की इजाज़त दे दें ।" 
एक क्षण के लिये दमयंती को कुछ समझ नहीं आया ,फिर सोचा हाँ कर देती हूँ पर तभी उसे याद आया कि आज ही व्हाटस अप पर एक मैसेज था जिसमें सूचना दी गयी थी कि शहर में एक गिरोह आया हुआ है ,उसमें बच्चे व औरतें भी शामिल हैं ,वह रात में बच्चे को रूला कर याचना करते हैं और लूट कर चले जाते हैं। 
दमयंती एकदम सचेत व सख़्त हो गयी -"भाग जा फ़ौरन यहाँ से ,कोई गुंजाइश नहीं है यहाँ ,समझी -भाग ,वरणा पुलिस बुला लूँगी।"
भिखारिन फिर गिड़गिड़ाई --"बीबी जी पौ फटते ही चली जाऊँगी ,दया 
करिये ।"
दमयंती ने शोर मचाना शुरू कर दिया तो भिखारिन बच्चे को लेकर बाहर चली गयी।
सुबह आँख खुली तो वह अख़बार लेने बाहर आई - देखा , उसके गेट के बाहर भीड़ लगी है 
"क्या हुआ ?"उसने सशंकित मन से पूछा 
"कोई भिखारिन यहाँ मरी पड़ी है,साथ में बच्चा भी है ।दोनों के बदन अकड़ गये हैं ।" राहगीर ने बताया तो दमयंती का दिल तेज़ी से धड़कने लगा।रात का दृश्य उसकी आँखों के आगे घूमने लगा ।तभी पुलिस की जीप वहाँ आ गयी ।लाशों को ले गयी तो वह दरवाज़ा बंद कर बैठक  में आ गयी ।मन उसे कोस रहा था कुछ देर पनाह दे देती तो क्या बिगड़ जाता ।जड़वत बैठी वह सोच रही थी क्या कभी वह इस अपराध बोध से मुक्त हो पायेगी? 
113
★काठ की हांडी 
राजनारायण जी की बेटी नीरजा की शादी थी।घर मेहमानों से भरा था ।मेहंदी की रस्में चल रही थी ।सुंदरा काकी अपने संकलन में से चुन चुन कर मेहंदी पर नये नये गीतों को संगीतबद्ध कर गा रही थी ।तभी नीरजा की कुछ बिंदास कालेज की सखियाँ आ पहुँची ।कुछ देर तक सुंदरा काकी के गीत सुनती रहीं ।फिर उनमें से एक ठीट सी लड़की ने उनके हाथ से ढोलक लेकर ख़ुद बजाना शुरू कर दिया तो सुंदरा चाची के गीतों की लय -ताल गड़बड़ाने सी लगी । ढोलक पर उसका खटराग सुन कर कोई कुछ नहीं बोला पर वातावरण में अजीब सी उदासी भर गयी।राजनारायण जी की पत्नी ने बताशे और लड्डू के पैकेट पकड़ाते हुअे बात को संभाला --"अरे लड़कियों चलो पहले यह नेक लेकर सब खाना खा लो िफर वापस संगीत शुरू करेंगें ।"
"हाँ आंटी ,बड़ी भूख भी लगी है । हम सब तैयारी से आये हैं ।आपने डी०जे० को बुलवाया है ना? 
"ना बिटिया , मुझे डी०जे० का शोर पसंद ना है ,हमारी सुंदरा काकी तो हज़ारों डी०जे० से बढ़ कर है ,इनकी ढोलक की थाप और गीत के बोल तो पूरी बिरादरी में मशहूर हैं,तुमने ढोलक छीन ली वरणा देखती हर राग ताल के गीत इनके पास हैं। "
" पर आंटी आजकल ओल्ड फ़ैशन के नहीं चलते , नये फ़ैशन के गीत चालू हो गये हैं जैसे फ़िल्मी गीत -मेहंदी लगा के रखना ।"वह ठीट लड़की अभी भी खटराग छेड़ने के मूड में थी ।उसकी बात सुन कर सुंदरा काकी उठ खड़ी हुई।राजनारायण जी की पत्नी ने उसका हाथ पकड़ कर कहा -"सुंदरा काकी उठ कैसे गयीं ।अभी तो महफ़िल जमानी है तुम्हें , बस खाना खा लो फिर देर तक स्वर लहरियाँ बिखेरना। "
सुंदरा काकी का मूड अब तक उखड़ चुका था पर मन की खटास छिपा कर स्मित सी मुस्कराहट बिखेर कर बोली -"अरे भाभी देखो ना ,नये स्वरों में कूक भरने वाली कोयलें आ गयी हैं ,हम तो अब चुक गये ,पुराने हो गये ।" तभी नीरजा की सहेलियों में से एक बोली --"नहीं नहीं आंटी ओल्ड इज गोल्ड ,हम तो बस मेहंदी के रस्मी गाने सुनेंगें ।"
सुंदरा काकी ने बताशे-लड्डू का पैकेट उठाया और बोलीं -"अरी नहीं कोयलों मैं तो अब घर जाऊँगी , कोई मेहमान आने वाले हैं ।कल फिर आऊँगी शादी में ,तब तक तुम एंजोय करो ।" नीरजा को आशीर्वाद दे वो बाहर आगयी । उनके पीछे पीछे राजनारायण जी आये और उनके कँधे पर हाथ रख कर बोले --"कुछ देर और रूकतीं काकी आपके गानें से रौनक़ आ गयी थी ।"
सही है भैया ,कल आती हूँ पर गाऊँगी नहीं ,काठ की हांडी दुबारा नहीं 
चढ़ती "कह कर सुंदरा काकी तेज़ क़दमों से घर की तरफ़ चल दी।
114
(दीवारों के कान)चित्र आधारित प्रतियोगिता के लिये-
★महिला मंडली 
रामधारी जी का बंबई तबादला होगया था।एक चाल में खिड़की रहित एक कमरे का घर मिला था ।उसी में उनकी पत्नी तीजा बाई ने एक पर्दा टाँक कर रसोई बनाई और यूँ दैनिक जीवन की शुरूआत हुई ।रामधारी जी की व्यस्तता इतनी  श्रमसाध्य थी कि वह लेटते ही खर्राटे भरने लगते । इस चाल की दुनिया रहस्यमयी और निराली थी । माटी की दिवारों से घिरे मात्र बीस घर थे ,बीच में एक आँगन जहाँ पानी भरने का एक हैंडपंप था वहां महिलाएँ चौपाल लगा कर बतियाती रहती थीं। दिन भर बच्चों की चिल्लों पों व बुज़ुर्गों की गालियों का शोर वहाँ की हवा में घुला रहता था। तीजाबाई भी आज सकुचाई सी पानी भरने आयी थी  ।सभी महिलाओं ने राम राम कह स्वागत किया ।कुछ अटपटे प्रश्न भी एक बेअदब सी महिला ने बीड़ी के कश सुडकते हुअे पूछे--"मन लगा तेरा ?"
"चार दिन हुअें हैं अभी तो  ,घर ही जमा रही हूँ बहनजी?"
"चल जमा ले आराम से ,फिर हमारी मंडली  में आ जाना ,हम सिखा देंगें मन लगाना।"।उसकी बात सुन कर सभी महिलाएँ हंस दी ।तीजा  बाई ने रात को रामधारी जी को यह बात कहीं तो बोले-"हँसी ठिठोली कर रहे होंगीं तीजा ,तू अपना काम से काम रखना बस।" कह कर वे खर्राटे भरनें लगे। तभी कहीं कोई कुत्ता भोंकने लगा जिसे सुन कर और भी कुत्ते भौंकने लगे । तीजा बाई करवटें बदलती रही ,तभी उसे दीवार के उस पार से बातें करने की आवाज़ें सुनाई दीं,अल्फ़ाज़ साफ़ नहीं थे ।दबे पाँव उठ कर उसने दरवाज़ा खोल झाँका तो चौंक गयी ।महिला मंडली उनकी दीवार से कान सटाये खड़ी थीं । 
"क्या हुआ आप यहाँ रात को क्या कर रहीं हैं।?"संशकित हो तीजा बाई ने पूछा तो  उसी बेअदब महिला ने खींसे निपोरते हुअे कहा--"अपने खाविंद से हमारी शिकायतें कर रही थी ना?" कह कर सभी महिलाओं  के साथ खीं खीं करती वह आगे बढ़ गयी ।बस एक महिला रूक गयी ,हंस कर बोली -"दिवारों के भी कान होते हैं वो कहावत सुनी होगी-यह महिला मंडली यही करती है ,लोगों की निजी बातें इनके मनोरंजन का एकमात्र साधन है इस निचाट -सपाट जीवन में -तभी तो तुम्हें कह रही थीं कि हमारी मंडली में शामिल हो जाना।" कह कर वह महिला भी मुस्कुराते हुअे आगे बढ़ गयी।जिस ज़िंदगी का स्वाद ही अभी उसने चखना शुरू नहीं किया था वह आज़ादी यह मंडली कैसे छीन कर ले जा सकती हैं सोचती हुई तीजा बाई भौचक्की सी उसे जाते देखती रही ।
डाॅ.सरस्वती माथुर
सरस्वती माथुर
परिचय :
नाम : डॉ सरस्वती माथुर
शिक्षाविद एवम सोशल एक्टिविस्ट ,कवियत्री-लेखिका - साहित्यकार व हाइकुकार
साहित्य :देश की साहित्यिक पत्रिकाओं में कवितायेँ ,कहानियां ,आलेख एवम नये नारी सरोकारों पर प्रकाशन
प्रकाशन ४ कृतियाँ प्रकाशित iव साझा संकलन में कवितायें ,हाइकु ,कहानियाँ व लघुकथाएं संकलित।
काव्य  संग्रह :दो
1॰एक यात्रा के बाद
2.मेरी अभिव्यक्तियाँ
अन्य :
3.स्वतंत्रता सेनानी पर मोनोग्राम 
4 बायोटेक्नोलॉजी पर पुस्तक 
जयपुर विगत कई वर्षों से निरंतर लेखन।
कविता, कहानी, पत्रकारिता, समीक्षा, फ़ीचर लेखन के साथ-साथ समाज साहित्य एवं संस्कृति पर देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन।
शिक्षा व सामाजिक सरोकारों में योगदान, साहित्यिक गोष्ठियों व सामाजिक कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी, विभिन्न साहित्यिक एवं शिक्षा संस्थाओं से संबद्ध, ऑथर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया, पब्लिक रिलेशंस सोसाइटी ऑफ़ इंडिया (राजस्थान चैप्टर) की सदस्य।
जयपुर लिटरेरी फ़ैस्टिवल में 2013 में कवितानामा सेशन में भागीदारी ।
संपर्क
ए -२ ,सिविल लाइन
जयपुर -6
0141-2229621
डाॅ.सरस्वती माथुर



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